मैं कुछ दिनों के लिए कोलकाता में हूं। अपने पुरानेपन को धकलते हुए महानगर में आदत बदलने का उग्र प्रयास हो रहा है। आप भी कोलकाता आएं या आएं होंगे तो महानगर के चप्पे चप्पे में होर्डिग्स का आक्रमण दिखा होगा। हर दूसरे तीसरे घर पर होर्डिंग्स की होड़ नज़र आती है। हावड़ा स्टेशन से निकलते ही कोलकाता सिमेंट, सरिया, अपार्टमेंट, रेस्त्रां, मोबाइल, बाइक न जाने कितनी चीज़ों के होर्डिग्स के पीछे ढंका मिलेगा। पहले रुपा अंडरवियर और केयो कारपिन और पैराशूट नारियल तेल के होर्डिंग्स वाले कोलकाता में नई होर्डिंग्स ने कब्ज़ा कर लिया है। आप किसी भी गली और चौराहे से निकलिये इस नए यथार्थ से सामना हो ही जाएगा। अंग्रेजी राज के ज़माने से बंगाली बाबू और कम्युनिस्ट राज के ज़माने में दादा बंधु ने संचय और संयम की एक आदत विकसित की थी। जिसमें खर्च के नाम पर सस्ती यात्राएं और सस्ता खान पान शामिल था। काले मोटे फ्रेम का चश्मा और सादी कमीज़ बंगाली नायकों की पहचान हुआ करती थी। आमजन भी उन्हीं की तरह जीता था। अब सब बदल गया है। बाज़ार ने कम्युनिस्ट बंगाल की राजधानी को विभत्स रूप से निशाना बना लिया है। उनका संयम जल्दी टूटे इसलिए होर्डिंग्स का हमला हो गया है।
पुराने मकान ढहा कर ऊंची इमारतें बन रही हैं। पाड़ा अब कालोनी में बदल रहा है। और कालोनी गुड़गांव की तर्ज पर रास बिहारी और आरामबाग की जगह यूरोपीय और बिल्डर कंपनी की कल्पना से उपजे नामों से पहचान पा रही हैं। कोलकाता जल्दी में हैं। एनआरआई बंगाली बाबू भी पंजाब और दिल्ली के एनआरआई की तरह निवेश कर रहे हैं। एक सज्जन ने बताया कि इससे पहले बंगाल के एनआरआई के पास अपने शहर में निवेश के मौके नहीं थे। अब हुए हैं तो दनादन डालर आ रहा है। सदियों से संयम के ज़रिये से जो पैसा बैंकों में था वो उपभोग के लिए दनादन निकल रहा है। पूजा के समय खरीदारी करने वाला बंगाली भद्रलोक और आमलोक अब हर दिन पोलिथीन बैग भर भर कर सामान खरीद रहे हैं। युवाओं के पहनावे बता देते हैं कि कोलकाता अब दिल्ली और मुंबई से अलग नहीं दिखना चाहता। बल्कि उन्हीं की फोटोकापी पहचान हासिल करना चाहता है।
और इसी जल्दी में आपको सड़कों पर हार्न की कानफोड़ू आवाज़ सुनाई देती है। सड़कों पर एसी कारें आ गईं हैं और कार में बैठा आदमी दफ्तर और घर के आलावा कई जगहों पर जल्दी पहुंचने की होड़ में हार्न बजाता मिल जाएगा। हार्न का शोर खूब है। सड़कों पर गाड़ियां हार्न के ज़रिये बात करती हैं। मैं गोल्फ ग्रीन इलाके में रहता हूं। शांत इलाका हुआ करता था। दो साल पहले तक किसी भी इमारत के नीचे एक दो कारें हुआ करती थीं। वो भी मारुति से ज़्यादा नहीं। अब कई कारें नज़र आईं। पार्किंग की मारा मारी शुरू हो गई है। पहले बंगाली भद्रलोक भी बस, मेट्रो और पीली अम्बेसडर टैक्सी का इस्तमाल करता था अब बात बात में अपनी कार निकालता है। दिखावे की संस्कृति आ गई हैं। दिखावा पहले भी था लेकिन इतने बड़े पैमाने पर नहीं।
इन सब के बीच कम्युनिस्ट लाल झंडा भी उतना ही उग्र हो गया है। होर्डिंग्स के बीत वो भी हज़ारों की संख्या में मौजूद है। इन दिनों सीटू का सम्मेलन चल रहा है। जगह जगह तोरण द्वार बने हैं। मगर उनमें पहले की तरह हाथ कि चित्रकारी नहीं है। फ्लेक्स टेक्नॉलजी के ज़रिये तस्वीरें छपी हैं। उपभोक्ताओं के फैलते समुदाय में कम्युनिस्ट मौजूदगी समझ में नहीं आती । क्या पूंजीवादी तरीके से उपभोक्तावादी होकर भी कम्युनिस्ट हुआ जा सकता है? या फिर बंगाल में कम्युनिज़्म का मतलब वोट देने तक ही है। जितना कुछ हो रहा है उसमें सरकार का योगदान कम ही लगता है। शहर की संरचना का योगदान लगता है। दिल्ली, बंगलोर और मुंबई के बाद कोलकाता की खाली जगहों पर बाजार की नजर पड़ी है। वो धक्का मुक्की कर अपने लिए जगह बना रहा है न कि बुद्धदेब सरकार की नीतियों की मेहरबानी से। किसी शहर में पेंटालून का शो रूम, अपार्टमेंट और मेनलैंड चाइना जैसे खान पीने के आलीशान अड्डे लाखों की संख्या में सरकारों की मेहरबानी से नहीं खुलते हैं। वो धकेल धकेल कर जगह बना लेता है। इसीलिए लाखों की संख्या में होर्डिंग्स का हमला है और डेसिबल की सीमा से आगे हार्न बजा रहा है। वो पहले सड़क जाम में फंसता है और फिर जाम से निकलने के लिए बेचैन हो जाता है। कार्ल मार्क्स और लेनिन के एक दिन बरिस्ता कॉफी शाप में दिखे जाने की खबर छपे तो समझिएगा खबर कोलकाता से आई है।
लगता है तुमको एनडीटीवी ने दिल्ली निकाला दे दिया, कहाँ वो एसी की ठंडी ठंडी दोपहर कहाँ ये कानपुर, बिहार और बंगाल की जानलेवा गर्मी, बहुत नाइसाफी है ये।
ReplyDeleteकोलकोता मे हो तो रुपा बनियान पहन कर, प्रियंकर से मुलाकात कर लो। बैठे बिठाए ब्लॉगर मीट कर लो, ये रही कोलकोता मे ब्लॉगर्स की लिस्ट । दिल्ली चलो का नारा कब दे रहे हो? डॉन से मुलाकात नही करनी?
are boss, bilkul karnee hai. main aaj hi yaani 30 may ko dilli ke liye ravana ho raha hun. pataa hotaa to priyankar se zarur miltaa. ab vaqt nahi hai.
ReplyDeleteये क्या बात हुई . शहर में आए और बिना मुलाकात के लौट गये . एटा तो भालो होलो ना .
ReplyDeleteअरे भाई! मिलना-मिलाना वैसे ही कम होता जा रहा है . कम से कम हम लोग तो इस गुनाह में शरीक न हों .
खैर अगली 'विज़िट' इन्तज़ार रहेगा .
ह्म्म्म । लगता है कलकत्ता का केवल नाम ही नही बदला है । जीवन संस्कृति भी बदल गई है। वैसे मेट्रो सिनेमा, पार्क स्ट्रीट, रोसोगुल्ला और लाल झंडा कोलकता कि पहचान है । फिर भी बदलाव तो प्रकृति का नियम है । जैसे दिल्ली बदली है । कन्हैया लाल सहगल से के अल सहगल भी तो बदला है । क्यों सही कहा ना?
ReplyDeleteभाई साहब एक दिन बाज़ार ये भी तय कर देगा कि हमें आपको क्या बोलना और लिखना है । कैसे दिखना है, क्या पहनना है, क्या खाना है, क्या देखना है, क्या पढ़ना है ये सब तो पहले ही तय हो चुका है । कलकत्ता तो सिर्फ आईना है आज का । बाज़ार बिल्कुल वैसे ही आगे बढ़ रहा है जैसे जुरासिक पार्क फिल्म में डायनोसोर बढ़ते थे ।
ReplyDeleteअच्छा लिखा है बदलते शहर के बारे में। नाम बदल दें हर महानगर की यही दास्तान है!
ReplyDeleteअरे भाई! कलकत्ता भी बदला है पर इतना नहीं जितना दूर से दिख रहा है . बाकी मेट्रोपोलिस के मुकाबले बहुत कम बदला है . पर बदला तो है, और तेजी से बदलने की ओर उन्मुख है .
ReplyDeleteपहले तो प्रियंकर माफी। वाकई मुलाकात होती तो मज़ा आ जाता । हमारे शहर बदल रहे हैं। हम भी तो बदले हैं। राजेश रोशन ने ठीक कहा है। मेरी देह पर होर्डिंग भले न टंगे हों मगर आचार व्यावहार तो बदला ही है। वो भी बाज़ार के दखल से। कोई पेट की भूख के बदले चोरी करता है तो कोई भूखा न मर जाए इसलिए मेहनत की कमाई करता है। पहला बदमाश और दूसरा ईमानदार होता है। लेकिन पैसा तो दोनों जगह हस्तक्षेप कर रहा है।
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