पनघट के पानी की जगह बिसलरी का बोतल है
किरासन की ढिबरी की जगह जेनरेटर का धुंआ है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।
मां की रोटी की जगह हारवेस्ट की डबल रोटी है
मकई के भूजा की जगह हल्दीराम की भुजिया है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।
ख़त लिखना बंद है और ई मेल पर संबंध है
दरवाज़े पर आहट नहीं और फोन पर घनघनाहट है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।
पगडंडियां टूट गई हैं और नेशनल हाईवे आ गया है
टोले सब मिटा दिए गए हैं और अपार्टमेंट आ गया है
मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है।
बहुत सही, अभी तो इसमे और गुन्जाइश दिखती है, अब हम कवि तो है नही, नही तो कुछ ना कुछ और बढा ही देते, मगर चिन्ता मत करो, बहुतेरे कवि है अपने टोले मे, आगे बढांएंगे इसे।
ReplyDeleteअपनी रचना में बदलाव को बखूबी कविता मे ढाला है।बधाई।
ReplyDeleteआपकी कविता मे सच्चाई है । वैसे जीतू जी की बात भी सही है।
ReplyDeleteऔर जब से गांव शहर हुआ और अपने अंदर का आदमी शहरी हो गया तब से न जाने कितने समझौते, कितने पतन और पता नहीं क्या क्या कितना करना पड़ा।
ReplyDeleteथक गए हैं प्यार मेरे इस शहर में
नासूर हो गए घाव मेरे इस शहर में
गांव का प्यार दुलरुवा पूत था मैं
घट गए भाव मेरे इस शहर में
बहुत सही।
ReplyDeleteमेरे भीतर का गांव शहर हो गया,
पड़ोस का साग तो दूर पड़ोसी कौन है नही मालूम
पड़ोस से किसी की पुकार नही टी वी का शोर ही आता है
गुम हैं सब चाचा-ताऊ, बस अंकल-आंटी ही दिखते है अब
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ReplyDeleteअज्ञेय की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं...
ReplyDeleteऐ सांप, तुम तो सभ्य हुए नहीं
शहर में रहना भी नहीं आया
एक प्रश्न पूछूं? उत्तर दोगे?
कैसे सीखा डसना,
विष कहां पाया!
शुक्रिया
उमाशंकर सिंह
कविता में आपको देखकर अच्छा लग रहा है!
ReplyDeleteअच्छी बात ये है कि आप बीच में स्थित हैं.. न इधर ना उधर.. कस्बे में..
ReplyDeleteसही लिखा है। इस दिल्ली ने कितनों में क्या क्या बदल दिया उन्हें भी पता नही। आपने गौर किया। This is the original version of Ravish Kumar.
ReplyDeleteरवीश जी.
ReplyDeleteपहली बार आपकी कविता पढी,सरल-सहज शब्दों में बडी ही प्रभावी अभिव्यक्ति है। "मेरे भीतर का गांव कब का शहर हो गया है" बदलते हुए दौर का एसा बडा सत्य है कि हम समझ ही नही पाते कि जो पा रहे हैं उसका जश्न हो या जो खोता जा रहा है उसका मातम (इसमें हमारी संस्कृति भी सम्मिलित है)। पंक्तियों में आपने इस पीडा के साथ न्याय किया है, बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अभय जी
ReplyDeleteसही कहा आपने । मैं अभी तक दिल्ली में अपने कस्बे को ढो रहा हूं। क्या पता कब कस्बे में भी रिलायंस का ढाबा खुल जाए। और हल्दीराम की आउटलेट। तब क्या करेंगे।
ravish ji,
ReplyDeletebadhiya kavita hai par aap apne bhitar ke gaon ko shahar me dhalte dekhkar khush hain ya udaash :) ??
Manoj
Ravish ji aap lucky hai (shayad) India mai hai, Mera Gaon kab ka bidesh ho gaya, Likh te huai aaisa lagta hai ki mai Professional nahi hoo, Apni energy kisi ko quotation de ke 2-4 hazar kamane ke bajaye comment post kar reha hoon............ sakoon hai
ReplyDeleteombangkok@gmail.com
ravish g
ReplyDeletenamaskaar
bahut dino bad aapse roobroo hone ka mauka mil raha hai aur vo bhi ek prashn ke saath-
KYA AAP DEVELOPMENT KE KHILAAF HAI?
ek aur baat, mai aapki prishthbhoomi nahi jaanti, isliye dhrishttataa ho jaaye to maaf kijiyega. aap se un galtiyon ki ummeed nahi kee jati, jo aksar bihar-jharkhand ke log karte hai. jaise-bislari KA botal