आस्था की ठेसता

मेरी प्यारी आस्था

चंद्रमोहन की कूची से जाने अनजाने में ठेस लगी मुझे डर लग रहा है। जब भी तुम्हें ठेस लगती है राजनीति हिंसक हो जाती है। आस्था तुम कौन हो? कुछ बताओ तो। क्या तुम उनके दिलों में भी रहती हो जो राजनीति को भ्रष्टाचार का ज़रिया बनाते हैं? क्या तुम उन लोगों को भी ठेस पहुंचाती हो जिनकी कारगुज़ारियों से गुजरात में हजारों लोग उजड़ गए। गोधरा के भी और गोधरा के बाहर भी। तुम्हारी ठेसता कहां थी? आस्था तुम सहिष्णुता से डाह करती हो। हैं न? वर्ना तुम मोदी को बताती कि मुझे ठेस लग जाए तो सहिष्णुता को याद करना।

आस्था तुम तानाशाह हो। एक तो बिना बताए न जाने किस किस के दिलों में रहती है। अपने होने का प्रमाण तभी देती हो जब कोई तुम्हें ठेस लगने के नाम पर किसी कलाकार को जेल भेज देता है और कोई किसी को मार देता है। चंद्रमोहन को दुर्गा की नहीं आस्था तुम्हारी तस्वीर बनानी चाहिए। उसकी कूची कुछ यूं तस्वीर बनाएगी। मनुष्य के ह्रदय प्रदेश में खून की प्यासी जिह्वा। या तलवार लिए किसी का पीछा करती सनक। आस्था तुम ऐसी ही हो। बस कोई तुम्हारी तस्वीर नहीं बनाता।

पांच हज़ार साल से दलितों को लतियाया गया तब तुम्हारी ठेसता कहां थी? क्या तब भी तुम मचली? जब खैरलांजी में एक दलित परिवार को जला कर मार दिया गया तब तुम किस समुदाय को ठेस पहुंचा रही थी? मैं बताता हूं। तुम छुप गई थी। दलितों की आत्मा तुम्हें ढूंढ रही थी। मगर तुमने एक भी दलित का साथ नहीं दिया।

आस्था मैं तुम्हें कूटना चाहता हूं। लातों से नहीं। मैं तुम्हारे नाम पर हिंसा करने वालों की पांत में नहीं आना चाहता। मैं अपने भीतर मौजूद आस्था को कूटना चाहता हूं। ऐसी मौकापरस्त आस्था को रखना नहीं चाहता। कभी ग़रीबों की आस्था देखी है? क्यों यह किसी राजनीतिक दल के साथ ही दिखाई देती है? अभी हरियाणा के बहादुरगढ़ में एक दहेज हत्या की स्टोरी करने गया था। महिला को बीच रात मोहल्ले के चौक पर जला दिया गया। किसी की आस्था को चोट नहीं पहुंची। मैंने पड़ोसियों से पूछा कि कुछ तो बोलिये। इतना तो कह ही सकते हैं कि गलत हुआ। मगर आस्था तुम कहां भाग गई पता नहीं चला। तुम सिर्फ कलाकारों के बहाने, धार्मिक तस्वीरों को लेकर ही क्यों भड़कती रहती हो? क्या और मुद्दे तुम्हारी सूची में शामिल नहीं हैं?

आस्था, अब मैं तुम्हें समझने लगा। तुम ख़ून की प्यासी हो। इस प्यास को बुझाने के लिए तुम किसी दल की ताकत का इस्तमाल करती है। किस पांच हज़ार साल की दुहाई दिलवाती हो तुम। उसी पांच हज़ार साल में जो बुराइयां रहीं है उन पर पर्दा डालने का काम तो नहीं कर रही।

मेरी प्यारी आस्था, अगर तुम मेरे भीतर कहीं हो तो जाओ। मैं तुम्हारी ठेसता को तजना चाहता हूं। तुम रास्ते की ठोकर हो। ठेस लगती रहे। मुझे कोई गुरेज़ नहीं। तुम्हारी ठेसता से डर लगता है। ठेसता कोई शब्द नहीं। पर तुम्हारे नाम पर कोई किसी को जेल में ठूंसता है तो मुझे तुम्हारे भीतर की ठेसता नज़र आती है।



11 comments:

  1. जो बात कहने में कइयों को शब्‍द और शिल्‍प मिलने मुश्किल हो जाते हैं, वह आपके पास सहज रूप से है।

    ReplyDelete
  2. बहुत अच्छे अंदाज़ में आपने अपने मन की हालत बयां की है।
    अविनाश भाई की बात से सहमत हूं मैं

    ReplyDelete
  3. आस्था कुछ लोगों का शुरू किया गया ढोंग है। ये पढ़िएगा।

    ReplyDelete
  4. देर आए, दुरुस्त आए. पिछले पोस्ट में मैंने यही लिखा था कि आस्था को ही अश्लील बना दिया है उसके रक्षकों ने.
    अनामदास

    ReplyDelete
  5. मगर इस आस्‍था को कूटे जाने की ज़रूरत तो है ही! कैसे कूटा जाए उसे तरतीब देनेवाले सही कलाकार आप ही हैं! अनामदास जी ने सही याद दिलाया, यह आस्‍था अश्‍लील है.. समाज, सर्वहितभाव की विरोधी है! बड़ौदा के कलाकार रह गए लेकिन आपने तो पोर्ट्रेट बना ही दिया है!

    ReplyDelete
  6. सही है! आस्था मौके की नजाकत के अनुरूप काम करती है!

    ReplyDelete
  7. मार्मिक है भाई.. इतनी मार्मिक बात को आपने कितनी सहजता से कह दिया..

    ReplyDelete
  8. Human touch. Excellent Mr. Ravish.

    ReplyDelete
  9. अगर ठेसता वाकई में कोई शब्द हो तो रवीश भाई की बात को सूत्र रूप में कहने के लिए निम्नलिखित नारा ठीक रहेगा ।:

    आस्था की ठेसता ।
    देश की विशेषता ॥

    ReplyDelete
  10. बहुत बढि़या

    ReplyDelete