चाय, फ़ेसबुक और सैमसंग

आज पांडव नगर में दिलीप कुमार से मिला । दिलीप यहाँ पिछले सोलह साल से चाय बेच रहे हैं । इनके पास सैमसंग गैलक्सी मोबाइल फ़ोन है । दिलीप अनपढ़ हैं । कभी स्कूल नहीं गए । बिहार के भागलपुर से दिल्ली काम करने आए तो पहले साल कूरियर कम्पनी में काम किया था । वहीं उन्होंने पहली बार ए बी सी डी लिखना पढ़ा सीखा और अंग्रेज़ी में लिखे पतों को पढ़ने लगे ।


दिलीप ने जब मेरी तस्वीर लेकर फ़ेसबुक पर डाला तो हैरान रह गया । उनके दोस्तों ने कहा कि ये वीडियो यू ट्यूब पर अपलोड कर देगा । हम अपने बदलते हिन्दुस्तान को देख नहीं पा रहे हैं । दिलीप को आम आदमी से उम्मीदें हैं । 


जब मैंने दिलीप से कहा कि किया ने जानते हैं कि नरेंद्र मोदी चाय वाले हैं । दिलीप ने कहा कि दो तीन दिन पहले सुना कि चाय बेचते थे । मुझे अच्छा लगता है कि कोई संघर्ष कर आगे बढ़ता है । मोदी चाय वाले हैं तो क्या आप एक चाय वाले को वोट नहीं देंगे । देखो जी वोट देंगे या नहीं देंगे ये तो बाद की बात है । सिर्फ चाय बेचने से कोई चाय वालों का नेता नहीं हो जाता । जब जनरल इलेक्शन होगा तो सोचेंगे । विचार करेंगे ।


लेकिन क्या आप हर तबके में स्मार्ट फ़ोन और फ़ेसबुक की घुसपैठ को समझ पा रहे हैं । फ़ेसबुक पर होने को बाद भी यह सूचना दिलीप के पास अभी पहुँची है कि मोदी चाय बेचते थे । जबकि महीनों से यह ख़बर चल रही है । दिलीप के फ़ेसबुक पेज पर अश्लील तस्वीरें भी आ गईं हैं । उन्हें नहीं पता था कि कैसे टैग को ब्लाक किया जाता है । दिल्ली की यह कहानी कुछ रोचक नहीं लगी ! 

मोदी और साहू जी

जाति से जोड़ कर देखता हूँ चाय से नहीं । और आपकी जाति के नहीं होते तो ? तब देखते । जयपुर के ज़ौहरी बाज़ार( चौड़ा रास्ता ) मेंं साहू चाय वाले से नरेंद्र मोदी के चाय वाले प्रसंग के बारे में पूछ रहा था । साहू जी ने कहा कि समाज के काम के लिए फ़ोन किया था उनके पीए को मगर नहीं आए । कौन सा काम ? सामूहिक विवाह समारोह के लिए । साहू जी कम बोलने वाले व्यक्ति मालूम पड़े । मोदी के चाय बेचने की अतीत और अपने वर्तमान के बीच कनेक्ट कर पाने के अकादमिक सवाल से चुप हो गए ।


यह बातचीत हो ही रही थी कि एक सज्जन और आए । चार बार कहा कि सुन लीजिये मैं अनपढ़ हूँ । अटल जी बग़ीची में भांग घोंटा करते थे प्रधानमंत्री बन गए । भैरों सिंह शेखावत तीन सौ रुपये रिश्वत लेने के आरोप में जेल गए लेकिन क्या हुआ । सीएम बन गए कि नहीं । गिरधारी लाल भार्गव यहीं मेरे साथ भांग पीया करते थे, पता है जयपुर से कितनी बार सासंद बने । ललाट पर हाथ फेरते हुए कहा कि इसका क्या करोगे जो लिखा है । मैंने कहा सही कह रहे हैं लेकिन जो बात कहीं क्या वो भी सही है ? इतने पे सज्जन उखड़ गए । मुझसे कहा, अरे चाय की दुकान पर क्या कर रहे हो, लाइब्रेरी जाकर राजनीति की दो चार किताबें पढ़ लो । बंदे ने ऐसी डाँट पिलाई कि क्या रहें । बाप रे सर मुँड़ाते ओले पड़े । ये मोदी के चक्कर में पिट जाऊँगा एक दिन । उनके चेलों ने गाली देकर पहले ही तंग किया हुआ है । 

मेरा ग़रीब तेरा ग़रीब

राहुल की रैलियाँ मोदी की तुलना में कम होती होंगी मगर उनके भाषणों की संख्या तो और भी कम है । मोदी पाँच जगहों पर पाँच बातें बोलते हैं लेकिन राहुल पाँच जगहों पर एक ही बात । बात सिर्फ मोदी के भाषणों के विवादास्पद तत्वों की नहीं है बात है भाषणों को सुनने की उत्सुकता की । इस लिहाज़ से राहुल गांधी का भाषण नीरस सा लगने लगा है । पता है क्या बोलेंगे । मोदी को बारे में लगता है कि देखें अब क्या बोल रहे हैं । दोहराने का ख़तरा तो मोदी में भी है लेकिन मोदी ने अपने कपड़ों से भी दूसरी रैली के लिए नया कर लेते हैं । उनके भाषणों के साथ मंच पर मोदी के पहने कपड़ों की तस्वीर एक जगह रखेंगे तो पायेंगे कि एक ही आदमी के कितने रुप हैं । 

राजनीति में नेता आमतौर पर एक ही प्रकार के कपड़े पहनते हैं । राहुल,अखिलेश,लालू,रमन सिंह, नीतीश । शिवराज रंगीन कुर्ता पहनते हैं मगर कुर्ते की वेरायटी उनकी पहचान का हिस्सा नहीं है । रैली का चलन कमज़ोर होता जा रहा है । रैली में लोग कैसे आते है हम यह भी जानते हैं लेकिन इसके बाद भी मोदी ने अपनी रैलियों में रोचकता पैदा करने का प्रयास किया है । आप इसमें साज सज्जा की भव्यता, नाटकीयता, शाह ख़र्चीला और ऊब भी जोड़ सकते हैं । लेकिन इन सबसे अलग भाषण की विविधता यहाँ चर्चा के केंद्र में है । मोदी और राहुल दो दुनिया से बातें कर रहे हैं । राहुल के भाषणों की दुनिया में ग़रीब ही ग़रीब है । मोदी के भाषण का की दुनिया ग़रीब वे ख़ुद हैं । राहुल कहते हैं बीजेपी अमीरों की पार्टी है । उनकी चिन्ता करती है । मोदी उनके इस दावे को खुद चाय वाला बता कर चुनौती देते हैं । तीन बार मुख्यमंत्री रहने वाला शख़्स आख़िर क्यों पहली बार( शायद) खुद को चाय वाला बता रहा है । ये मोदी की काट है । मीडिया या लोगों को राहुल के भाषणों में भले कम दिलचस्पी हो मगर मोदी की है । चाय वाला अमीरों की पार्टी का नेता है तो एक खाते पीते परिवार वाला खुद को ग़रीबों का नेता बता रहा है । सच में तो दोनों में से कोई ग़रीब नहीं है । ख़ैर । 

राहुल जिस ग़रीब को ढूँढ रहे हैं वो अब गाँवों में नहीं रहता । मैं एक प्रक्रिया के तहत बात रख रहा हूँ । राहुल गांधी का ग़रीब अब वो ग़रीब नहीं है जो इंदिरा के समय था । मैं सिब्बल टाइप भी बात नहीं कर रहा कि ग़रीब दो सब्ज़ी खाते हैं । हालाँकि खानपान में सकारात्मक बदलाव आया है पर ये सिब्बल की विश्वसनीयता की कमी है कि सही बात भी पलट जाती है । मैं कहना चाहता हूँ कि शहरीकरण का विस्तार और प्रसार हुआ है । आप इस बात को ऐसे मत देखिये कि कितने शहर बने हैं । यह भी एक दिलचस्प है कि शहरों या शहरी क्षेत्रों की संख्या कोई चार हज़ार से बढ़कर आठ हज़ार हो गई है । मैं यह कहना चाहता हूँ कि शहरी क्षेत्र का विस्तार गाँव गाँव तक में हुआ है । गाँव में रहने वाला भी अब ग्रामीण नहीं है । गाँवों की भी बड़ी आबादी खानपान से लेकर परिवार के सदस्यों की तमाम शहरों में आवाजाही के कारण शहरी हो गई है । आप इन्हें ' ग्रामीण अर्ध शहरी' कह सकते हैं । अभी तक क़स्बों या गाँवों के शहर में बदलने को अर्ध शहरी क्षेत्र या 'रूर्बन' कहा जाता रहा है मगर आबादी की बदलती जगहों और आदतों से भी शहरीकरण फैला है । जो मज़दूर पुणे या दिल्ली में काम करता है और गाँव जाता है वो पुणे में शहरी है और उसका परिवार गाँव में अर्ध शहरी । हर गाँव में कम से कम दस शहर रहता है । दस शहरों में उस गाँव के लोग रहते हैं । हिन्दुस्तान यहाँ बदला है । ग़रीब ग़ायब नहीं हुए हैं लेकिन ग़रीबी कम तो हुई ही है । मोदी इस आबादी को टारगेट कर रहे हैं । हमारे यहाँ का अमीर भी अपने घर को ग़रीबख़ाना कहता है । सबकी पहचान में ग़रीबी आती है । अतीत से या वर्तमान को कम कर बताने के लिए । यह वही अर्ध शहरी आबादी है जिसमें जात पात कमज़ोर हुआ है । मोदी इनके नेता हैं । 

इसीलिए कहा कि राहुल का ग़रीब मोदी के ग़रीब  से अलग है । मोदी ने उस ग़रीब को चाय वाला बता कर पहचान दी है । चाय की दुकान वाला हर जात का होता है । वही चौक चौराहा है । राहुल अमूर्त ग़रीब को संबोधित कर रहे हैं । मोदी मूर्त को । यह चुनाव अमीर हो चुके मध्यमवर्गीय हिन्दुस्तान का है । सत्तर के दशक के ग़रीब हिन्दुस्तान का नहीं । ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी मानसिकता का प्रसार राहुल को नहीं दिखता जिसका श्रेय वे आसानी से ले सकते थे मगर जैसा कि मैंने पहले लेख ( गाँव से लौटकर) में लिखा है उनके पास इसकी दावेदारी का नज़रिया और विश्वसनीयता नहीं है । इसलिए राहुल के भाषण संदर्भ से बाहर लगते हैं । यह चुनाव उस शहरी हिन्दुस्तान का है जो गाँव से लेकर महानगरों में कई रुपों में रहता है । जिसका एक वतन सोशल मीडिया भी है । मोदी ने इस तबके को रटा रटा कर अपनी ओर खींचने का प्रयास किया है कि देश गया गुज़रा है । कुछ करना है । हर खाते पीते को ग़रीब कहलाना भी ठीक लगता है !  राहुल उस तबके में खुद को तलाश रहे हैं जो ग़रीब तो है मगर ग़रीब की पहचान का केंचुल अपने जीवन स्तर में धीरे धीरे आ रहे बदलाव के कारण उतार रहा है । राजनीति हवा में नहीं बदलती है । हमारे नेता भी कम समाजशास्त्री नहीँ होते । इसलिए राहुल जी भाषण पर मेहनत कीजिये । कुछ होगा तब तो दुनिया बात करेगी । हाँ इतिहास गड़बड़ मत कर दीजियेगा लेकिन आप तो वर्तमान ही नहीं समझ रहे ।

बड़की माई

बड़की माई । जबसे हमारे गाँव में ब्याह कर आईं है तब से ही शायद वे सबकी बड़की माई हैं । होश संभालने के साथ ही सबको बड़की माई ही पुकारते सुना है । किसी ने उन्हें कभी बड़की तो कभी बड़किया ही पुकारा । वो हमेशा वैसी ही दिखीं । बड़ी और बूढ़ी । थोड़ी झुकी हुईं । हम सबकी बड़की माई धवल निर्मल केश वाली छोटी गोल मोल प्यारी सी । चुपचाप सामानों को सहेज कर रखती हुईं, सबके खाने की योजना बनाने वाली । बड़ा परिवार होता है तो उसके संबंधों में सैंकड़ों पेंच होते हैं और जब संसाधन सीमित होते हैं तो झगड़े भी कम नहीं होते मगर इन सबके बीच बड़की माई सबके लिए सरल और अथाह ही बनी रहीं । आशीर्वाद के अलावा उन्हें किसी और ज़ुबान में बोलते नहीं सुना । किसी से उरेब यानी ख़राब तरीके से बोलते नहीं सुना । गाँव का हर बच्चा और बूढ़ा सब उनकी एक आवाज़ पर चले आते हैं । गाँव के घर से वो भी दूर रहने लगी हैं लेकिन उस पुराने से घर की पहचान भी वही हैं । पूरा जीवन लगा दिया उस घर की रखवाली में । गर्मी की छुट्टियों में बड़की माई को खुद भी पीले रंग से दरवाज़े को रंगते देखा है । कुछ ख़ास नहीं था पर जो था उसी को ज़ेवर की तरह संभालते देखा है । छीका पर छिपा कर दही का नदियाँ टाँगते तो तरह तरह के अचार, खटाई और कसार बनाते देखा है ।

मुझे अंधेरे मुँह उठने की आदत उन्हीं से लग गई होगी । नदी से नहा कर लौटते, अड़हूल का फूल तोड़ते और  पूजा करते ही देखा है । भारी पुजेरिन । यहाँ जल चढ़ाया वहाँ दो फूल रख दिये । कोई मिल गया तो मिश्री के दो दाने प्रसाद के पकड़ा दीं । जाने कितने नाती पोते और बेटियों के लिए मन्नत माँगी होगी । दिन भूखी रही होंगी । बड़की माई का जीवन बहुत ही बड़े परिवार को पाल कर बड़ा करने में गुज़रा है । हर किसी की याद में वे किसी न किसी रूप में हैं । मेरे बाबूजी से लेकर जाने कितने देवरों ने उनकी गोद में खेला होगा । सबका जन्म उनके आने के बाद ही हुआ । घर की कितनी औरतों ने उनके पाँव छुए होंगे लेकिन बड़की माई को कोई फ़र्क ही नहीं पड़ा । मेरी माँ की जीजी हैं बड़की माई । 

हमारे बाबूजी को शायद बहुत प्यार करती हैं । हर दूसरी लाइन में अपने दुलारे देवर को याद करती रहती हैं । वो कितना छोटा था मुझसे पहले दुनिया से चला गया । देवर था तो यहाँ ले गया वो दिखा दिया । देवर ने ही ये ख़रीद दिया वो खिला दिया । देवर था तो मेरा शान था । काश कि उनकी बातों को भोजपुरी में ही लिख पाता लेकिन कई लोग समझ नहीं पायेंगे । बाबूजी को भी किसी ग़ुस्से के क्षण में अपनी भौजी को बोलते नहीं सुना । कभी बोला होगा तो मुझे जानकारी नहीं । लेकिन बड़की माई अपने देवर को जिस निश्छलता से याद करती हैं उसे देखने का सुख विरले हैं । छठ के दौरान जितनी बार टकराया बस देवर की बात । " आज हमार देवर रहते त उ कोरा( गोद) में उठा के गाड़ी में बइठा देते । " जीप से किसी तरह उतार कर घर के भीतर ले जाते वक्त कुछ ऐसा ही बड़बड़ा रही थीं । तुमलोग आते रहो यहाँ । उनकी आत्मा यही हैं । 

भले रहो, खूब ढंग से जीयो । भगवान ठीक से रखें तुम लोगों को । यही दुआ हमें देती हैं , यही दुआ सबको देती हैं । अपने अनगिनत नाती पोतों को भी । तमाम बेटियों और दामादों को भी । बड़किया को कभी किसी से माँगते चाहते नहीं देखा है । कभी किसी से माँगा नहीं । न खाने की इच्छा जताई न पहनने के लिए कुछ माँगा । उनकी बेटियाँ बहुत सक्षम हैं और नाती पोते बहुत लायक । ज़रूर ही वो लोग बड़की माई को कलकत्ता मुंबई अमरीका ले गए होंगे । मैंने पूछा नहीं पर मेरे बाबूजी का नाम खूब जपती रहीं कि वो उनको हरिद्वार ले गए थे । जिसने भी दिया है बड़की माई को, जितना दिया नहीं उससे कहीं ज़्यादा उन्होंने सबको आशीष दिया है । याद रखा है । कुछ भी दे दीजिये बड़की माई उतना ही आशीर्वाद देंगी जितना सबको देती आईं हैं । जीते रहो, ख़ुश रहो । नाती पोता हो । बेटा हो । पर अब बेटियों को भी आशीर्वाद देने लगी हैं । मुझे कहा भगवान करे तुम्हारी बेटियाँ कलक्टर बने । बेटा बेटी कुछ नहीं होता है । वर्ना तो बेटे के अलावा, खैर । बार बार कहती रहीं देखना बेटियाँ कमाल करेंगी । वक्त अपने आप बदल देता है । 

बाबूजी के सबसे बड़े भाई हमारे बड़का बाबूजी । दोनों भाइयों के मछली ख़रीदने और खाने के क़िस्से मशहूर हैं । तमाम झगड़ों के बीच बाबूजी ने जब भी मछली ख़रीदा अपने भइया के लिए भी ख़रीदा । बन गई तो उसमें से भी मछली भैया को भिजवा देते थे । कुछ तो था दोनों के बीच जो आज भी बड़का बाबूजी की बातों से झलक जाता है । इस बार छठ में गाँव आए तो सबसे पहले अपने दिवंगत भाई की तस्वीर साफ़ कराई । नाती से कहा पहले साफ़ करो तब खायेंगे । बेहद कमज़ोर और बच्चे से हो गए हैं बड़का बाबूजी । सबको पहचान भी नहीं पाते लेकिन वाॅकर से चल चल कर बाबूजी की तस्वीर के पास जाकर देखते हैं । माले को इस तरह से हटवाया कि उनका चेहरा दिखता रहे । वो बोल नहीं पाते हैं मगर पता नहीं अपने छोटे भाई को कैसे मिस करते होंगे । उनके पास हम जैसों की तरह बोलने की शैली नहीं है मगर जब मेरे ही सामने किसी से तस्वीर से माले को किनारे करने को कहा तो इस प्यार को देखकर कलेजा फट गया । क्या है दोनों के बीच । क्या था ? था तो ज़िंदा रहते क्यों नहीं दिखा या हम समझ ही नहीं पाए । 

वही हाल बड़की माई का । कोई उनके सामने देवर की शिकायत करके देख ले । बाबूजी भी हम सबसे दूर अपने भैया भौजी को मिस करते ही होंगे । बड़का बाबूजी की आवाज़ में मेरे बाबूजी की आवाज़ ज़िंदा है । सुनकर सिहर जाता हूँ । ख़ून इसे कहते हैं ।बस  यही अपना होता है क्या ?  उनकी बहू ने बताया कि जब प्राइम टाइम आता है तो टीवी खोल देती हैं । अम्मा जी देख लीं राउर भतीजा आवतारे । बता रहीं थीं कि पूरे शो के दौरान बड़का बाबूजी मेरे बाबूजी को याद कर देखते रोते रहते हैं । बड़की माई मुझे देखकर रोती रहती है और वही आशीर्वाद देती रहती हैं । गाँव में मिलीं तो कहने लगी कि शिकायत है । मैं ठिठक गया । बोली कि जब तुम टीवी में दिखते हो तो हम तुमसे इतना बात करते हैं । खूब बात करते हैं और तुम खाली उन्हीं लोगों से बात करते रहते हो । थोड़ा हमसे नहीं बात कर सकते । उफ्फ । जान निकल गई मेरी । मैंने बड़की माई को टेक्नालजी नहीं समझाईं । बस कहा कि हाँ बात करना चाहिए । ग़लती हो गई । 

ज़िंदगी में वक्त कम पड़ जाता है । हम सब जब परिवार और घर छोड़ कर अपने जीवन की तलाश में दिल्ली मुंबई आ गए । न जाने कितनों ने अपनी किसी बड़की माई के साथ रहने का वक्त गँवा दिया । माँ बाप के साथ रहने जीने का वक्त गँवा दिया । बड़की माई थोड़ी और बड़ी हो गईं हैं । बूढ़ी हो गईं हैं । पता नहीं क्या क्या बोलती रहती हैं । देवर पहले क्यों गया । भगवान हमको क्यों नहीं ले गए । बड़की माई तुम सचमुच सबकी बड़की हो । हमने तुमको हमेशा बूढ़ी माई के रूप में देखा मगर तुम हमारी यादों में बिल्कुल जवान हो । 

ध्यानचंद के लिए कोई नहीं !

मुझे लगा था कि नेता मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न दिये जाने की मांग ज़ोर शोर से करेंगे । यहाँ तो सब अपने अपने नेताओं को देने की मांग में लग गए । अजीब हालत है राजनीति की । जिसे मिला है कम से कम उसकी तो खुशी मना लेते । जैसे बच्चे करते हैं न । पप्पू को दिया तो बब्लू को भी दो । जब लोग सचिन और ध्यानचंद को देने की मांग कर रहे थे उसके लिए नियम बदलने की चर्चा हो रही थी तभी क्यों नहीं कहा कि सचिन ध्यानचंद को छोड़ो पहले अटल बिहारी वाजपेयी को दो, कर्पूरी ठाकुर को दो लोहिया को दो । हद है । मुझे लगा था कि ये ध्यानचंद के लिए कम से कम नक़ली आँसू तो बहायेंगे । मगर ये तो दो मिनट में भूल कर अपने नेताओं का जाप करने लगे । लगता है कहने कोसिए बेचैन हैं मगर कह नहीं पा रहे हैं कि सचिन को क्यों दिया । हमें क्यों नहीं । कोई विवेचना के लिए तैयार भी है कि वाजपेयी को क्यों मिलना चाहिए । कर्पूरी ठाकुर को क्यों मिलना चाहिए । कांशीराम को क्यों नहीं मिलना चाहिए ? कम से कम लोगों को पता तो चले कि इन्होंने ऐसा क्या किया था । और तो और एक और नया धंधा शुरू हो गया है कि पहले किसको दिया का । पटेल को बाद में दिया सचिन को जल्दी दिया । हर भारत रत्न के साथ यही कहानी है । लोकपाल को दे दीजिये वही तय करेगा किसे मिलना चाहिए । पहले लोकपाल बना तो दीजिये । 

राजनीति का सम्मान किया जाए

आदरणीय सी एन आर राव जी,

पहले तो बधाई आपको । इसलिए नहीं कि भारत रत्न मिला है बल्कि इसलिए कि इसके बहाने आपके बारे में जानने का मौक़ा मिला है । लगा कि कोई इतना भी काम कर सकता है । आप जैसों को ही भारत रत्न मिले तो इस पुरस्कार की महिमा बढ़ेगी । 

मगर सर । नेता मूर्ख होते हैं इस तरह के बयान मत दीजिये । राजनीति में नेताओं को चोर समझने वाले मूर्खों की कमी नहीं । इस देश में राजनीति ने जितना सामाजिक परिवर्तन किया है उतना विज्ञान ने नहीं । इस तरह के जनरल बयान वैज्ञानिकों के बारे में भी दिये जा सकते हैं । उचित ही आपने स्पष्टीकरण दे दिया । लेकिन राजनीति और सरकारी अस्पताल से दूर मत जाइये । जायेंगे तभी उसकी हक़ीक़त जानेंगे । बहुत लोग चोर हैं और मूर्ख भी मगर किसी अच्छे नेता और डाक्टर से आपकी मुलाक़ात हो ही जाएगी । आपने फ़ंड की कमी का रोना तो रो लिया सर लेकिन महज़ विचार के पीछे अपने घर से पैसे लगाकर राजनीति में दिन रात खपा देने वाला कार्यकर्ता तो किसी के पास रो भी नहीं सकता । वह भी राजनीति के किसी विचार से समाज कोसबदलने में खुद को समाप्त कर लेता है । कुछ लोग चोर बन जाते है को कुछ दलाल । इसीलिए राजनीति में हमेशा वही आगे रहेगा जिसके पास पैसा है । ज़मींदार है स्कूल है बिज़नेस है । ऐसे लोगों को बाहर करने और कार्यकर्ताओं और नेताओं को ऐसा न बनने देने पर विचार किया जाना चाहिए । न कि राजनेताओं को लतियाना गरियाना । विज्ञान जगत की भी समीक्षा कीजिये । समाज को एक अच्छे राजनेता और वैज्ञानिक दोनों की ज़रूरत है । उम्मीद हा आप राजनीति में लगे लोगों का हौसला बढ़ाने और सम्मान बनाए रखने में मदद करेंगे । बहुत दिक्क्त है तो भारत रत्न लौटा दीजिये लेकिन इससे क्या हासिल होगा । कुछ भी नहीं । 

आपका विज्ञान से घबराने वाला पत्रकार
रवीश कुमार

बकरी घास खाती है


खान पान की आदत तो सबकी बदली है । खान पान ही नहीं खाने की शैली भी । घास क़ीमती हो गई है शायद । किसान ने बताया कि घास को गठरी में बाँध देने से चारे की बर्बादी कम होती है । एक पक्ष यह भी होगा कि अब बच्चे स्कूल जा रहे हैं । बकरी चराने या घास लाने के लिए कोई नहीं होगा । ऐसा नहीं है कि बकरियाँ चरती नहीं हैं । आख़िर की तस्वीर अन्य जगह की है । यहाँ बकरियाँ गाय की तरह टोकरी में खा रही हैं ।



अपने गाँव से लौटकर

भाई साहब, रोज़ सौ दो सौ लोग मेरे साइबर कैफ़े में फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल खुलवाने आते हैं । फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल ? कौन लोग ? स्मार्ट फ़ोन वाले ? नहीं । साधारण साधारण लोग जिनके पास दो से पाँच हज़ार तक के फ़ोन होते हैं । फ़ेसबुक का एक प्रोफ़ाइल खोलने का दस रुपया लेते हैं । 


जल्दी में हुई इस बातचीत को लेकर देर तक सोचता रहा । साइबर कैफ़े वाले ने बताया कि वो ज़िले में कांग्रेस का कार्यकर्ता है । जबकि उसी की पार्टी सोशल मीडिया के इस्तमाल में पिछड़ गई । नरेद्र मोदी ने अपने प्रचार के रूप में सोशल मीडिया के इस प्रसार का सबसे पहले इस्तमाल कर लिया । तो राजनीति के अलावा अर्थशास्त्र भी दिमाग़ में घूम रहा था  । मोबाइल फ़ोन पर फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल खोलकर कोई दिन में दो हज़ार रुपये से लेकर महीने में पचास हज़ार तक कमा सकता है ! लगता है हिन्दुस्तान ने बिज़नेस करने के संस्कार सीख लिये हैं । लोग तरह तरह के प्रयास कर रहे है । काश कि मेरे पास वक्त होता कि मैं उसके कैफे पर जाकर खुद देख आता लेकिन मोतिहारी स्टेशन पर सप्तक्रांति के आने का समय नज़दीक़ आता जा रहा था । उसने जल्दी में एक और बात बताई कि वो ज़िले के कई प्रमुख लोगों का प्रोफ़ाइल मेंटेन करता है । जानकर रोमांचित हुआ कि गूगल फ़ेसबुक और ट्विटर कमाई का ज़रिया बन रहे हैं । वैसे मुझे ट्विटर पर फोलो करने वाले कुछ लोग गाँव के भी मिले । जो गाँव में रहते हैं और कुछ शहर में । गांव के एक सुनसान से रास्ते पर बोलेरे से एक नौजवान उतरा था।उतरते ही हाथ मिलाया और ई मेल आईडी मांगा। मुझे लगा कि बंदा दिल्ली में रहता है । उसने बताया कि गाँव में ही रहता है मगर रात में फ़ेसबुक करता है । गाँव में भी कुछ युवा लोग मिले जो अपने मोबाइल से इंटरनेट का इस्तमाल जानते हैं । इन युवाओं का गाँव और शहरों के बीच आना जाना लगा रहता है । दिल्ली में रहने वाले कुछ युवाओं ने मिलकर मायअरेराज डाँट काम नाम की साइट बना ली है । ये लड़के कुष्ठ रोगियों के कल्याण के लिए काम करना चाहते हैं । 

 

 

मैं किसी स्वर्ण युग की तस्वीर नहीं खींच रहा बल्कि अपने गाँव में देख रहा था कि वहाँ क्या क्या हो रहा है । इसमें बिहार में आए राजनीतिक बदलाव की भूमिका देखी जा सकती है बल्कि एक सीमा तक ही । यह बदलाव किसी सरकार की प्रत्यक्ष भूमिका से संभव नहीं हुआ है । लोग नीतीश को श्रेय तो देते हैं मगर इस आर्थिक बदलाव में किसी एक सरकार की भूमिका नहीं है । मेरे गाँव में बिजली के खम्भे हैं मगर आज तक बिजली नहीं आई । स्कूल और पंचायत भवन की इमारत साधारण ही है । प्राथमिक अस्पताल की बात न करूँ तो वही ठीक रहेगा । मैं अपने ही गाँव को मेगास्थनीज़ या फाहियान की तरह देखता हुआ दर्ज करना चाहता था । महँगाई  की सर्वदलीय हकीकत से हटकर ।   


गाँव में बहुत कुछ बदला है । बाहर मज़दूरी करने वाले और अच्छी नौकरी करने वालों के भेजे गए सीमित पैसे से गाँव की अपनी अर्थव्यवस्था में तरलता आई है । इस तरलता से उपभोग का स्वरूप बदला है और तरह तरह के धंधों का विस्तार हुआ है । छठ के मौक़े पर अतिरिक्त क्रयशक्ति का प्रदर्शन हो सकता है लेकिन इसके बावजूद गाँव में दो दो सलून देखकर हैरान हो गया । नाई से सामाजिक पारंपरिक रिश्ता समाप्त हो चुका है । वो घर आकर बाल नहीं बनाता बल्कि आपको सलून में जाना होगा । छठ के दिन तो नज़ारा देखने लायक था,अतिरिक्त कुर्सियाँ लगी थीं और लोग अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे । सलून में नंबर लगा रहे थे । सलून में इतनी भीड़ तो दिल्ली में नहीं दिखती है । वो भी सिर्फ दाढ़ी बनाने को लिए ।


मैं इस लेख को सूची बनाने की तरह लिख रहा हूँ । आप इसे संपूर्ण तस्वीर मानने की जगह इस तरह से देखिये कि क्या क्या हो रहा है । गाँव के भीतर मुर्ग़ा और मीट की दुकान हैरान करने वाली थी । दिल्ली की तरह का स्टैंड बन गया है और बकरा टाँग दिया गया है । पहले ऐसा नहीं था । साइकिल पर मीट या मछली बेचने वाला फेरी लगाता था या लोग नदी से मछली मार कर लौट रहे मछुआरे से ख़रीद रहे थे । छठ के सुबह वाले दिन मछली खाने की होड़ लग जाती है । लोग घाट से लौटते ही मछली ख़रीदने लौटते हैं । मेरे घर के लोग भी गाड़ी लेकर गए और दो घंटे बाद लौटे तो ख़ाली हाथ । मछली नहीं मिली । मेरे लिए यह सूचना किसी सदमे से कम नहीं थी । क्या भीड़ थी या इतनी जल्दी बिक गई पूछने पर  जवाब मिला कि थोड़ी सी मछली थी वो भी जल्दी ख़त्म हो गई । एक सज्जन में बताया कि पहले मल्लाह जाति के लोग छठ समाप्ति की सुबह मछली मार कर रखते थे कि अधिक दाम में मछली बिकेगी । लेकिन अब मल्लाहों के पास पैसा आ गया है इसलिए वे भी छठ करने लगे हैं । छठ के आयोजन में काफी पैसा लगता है । तो सज्जन बता रहे थे कि मल्लाह भी दो तीन दिन के बाद ही मछली मारेंगे । इस बदलाव को छठ की बढ़ती लोकप्रियता के संदर्भ में भी देखा जा सकता है ।


विषयांतर हो रहा है लेकिन वक्त आ गया है कि छठ का आर्थिक सामाजिक अध्ययन किया जाए । लोगों के कपड़े, दौरे में प्रसाद और सामग्रियों की गुणवत्ता और मात्रा तक का अध्ययन । शारदा सिन्हा के गीतों की जगह घटिया गाने बज रहे थे । छठ की सामूहिकता भी गुटबाज़ी को कारण टूटती नज़र आई । कई घाट बन गए हैं । एक विशालकाय घाट पर साथ गए सज्जन ने बताया कि ये एरिया हरिजनों का है । मैं चौंक गया । छठ में ? उसने तड़ से एक बच्चे का नाम पूछ लिया जो अपने घर की व्रती माँ या भाभी के लिए घाट की सफ़ाई कर रहा था । लड़के ने अपना नाम बताया इक़बाल पासवान । इक़बाल और पासवान ? इस पर भी चौंक सकते हैं । सज्जन अपने इस लैब टेस्ट से काफी ख़ुश नज़र आए और कहा कि ज़रूर लिखियेगा । 



ख़ैर, मेरे गाँव की सीमा पर कुछ दुकानें जगमग हो गईं हैं । कई सालों तक हमने वहाँ सिर्फ चाय और पकौड़ी की एक दुकान देखी है । लोगों के पास पैसे भी नहीं होते थे दुकान पर पैसे ख़र्च करने को । आज वहाँ दो दो मिठाई की दुकानें हैं ।  दुकान में कई तरह के ताज़ा आइटम बन रहे हैं जो लगे हाथ बिक गए । चीनी मिठाई खाने वाले कम रह गए हैं । अब मेहमान के आने पर चाय के साथ दो तीन आइटम मिठाई भी पेश किया जा रहा है । तीन चार साल पहले तक आपको छह सात किमी दूर चलकर जाना पड़ता था मिठाई के लिए । यहाँ एक ठेला वाला भी आता है जो किसी शहर में लगने वाले अंडे के ठेले की तरह है । यह ठेलावाला दिन में ही मटन फ्राई ( तास मटन) तलने लगता है । लोग पव्वा को साथ चखना चखते हुए चट कर जाते हैं । शराब की लत के शिकार कई नौजवान दिख जाते हैं । 


इसी जगह पर दो चमकदार जनरल स्टोर्स भी दिखा, इसके अलावा दो तीन औसत किस्म के भी जनरल स्टोर भी । गाँव में बाज़ार का ये आलम । एक स्टोर में देखा कि मैगी,फ़ेयर एंड लवली, तरह तरह के बिस्कुट,तेल, शैम्पू, कापी किताब अनेक चीज़ें । गाँव के सीमान्त पर बिजली होने पर दुकान में फ्रिज भी था । जिसमें कोक, पेप्सी स्प्राइट की बोतलें नज़र आईं । दुकानदार ने बताया कि लोग खूब पी रहे हैं । दुकान में दो या तीन फोटोकोपियर मशीनें भी दिखीं । जैसी हम घरों में रखते हैं । दुकानदार ने बताया कि लोग फ़ेयर एंड लवली चाव से लगा रहे हैं । माँ ने किसी बुज़ुर्ग महिला का क़िस्सा बताया कि तीन चार ट्यूब लगा है गोरा होने के लिए । नहीं हुईं गोरी । मैगी बच्चे खूब खा रहे हैं । लोगों को दतवन करते नहीं देखा । बबूल बिक रहा है क्योंकि यह बोलने में आसान है । महिलाएँ मिट्टी या साबुन की जगह शैम्पू के पाउच खूब लगा रही हैं ।



बच्चे चिप्स खा रहे हैं और जन्मदिन मन रहे हैं । ब्रिटानिया का केक जो कभी स्पेशल आइटम हुआ करता था अब जनरल हो चुका है । अरेराज में गिफ़्ट सेंटर भी खुल गया है । अरेराज हमारे इलाक़े का तहसील है और सौ दो सौ से ज़्यादा दुकानें हैं यहाँ । यह बाज़ार भी पूरी तरह से अतीत को छोड़ चुका है । 


हमने गाँवों के भीतर बाज़ार की इस सरकार के बारे में राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के नतीजों के संदर्भ पढ़ा तो था मगर यह नहीं सोचा था कि तस्वीर इतनी बदल जाएगी । ये और बात है िक आप गाँव के लोगों से पूछेंगे तो वे यही कहेंगे कि कुछ नहीं बदला है । पैसा नहीं हैं । अगर कुछ नहीं बदला तो साढ़े छह हज़ार की आबादी वाले पंचायत में बीस बोलेरो, स्कार्पियो कहाँ से आ गईं हैं । ठेकेदारी के पैसे से ? ये गाड़ियाँ हर पाँच मिनट में आती जाती दिख जाती हैं । एक पूर्व मुखिया ने अंदाज़ के आधार पर कहा कि बीस बोलेरो और एक हज़ार बाइक तो होगा ही । पहले एक आदमी के पास बाइक होती थी । 


बाहर का पैसा गाँव को नचा रहा है । ट्रैक्टर पर राईस मशीन लेकर व्यापारी आता है और दरवाज़े पर ही धान कूट कर चला जाता है । अब धान कूटवाने के लिए बहुत श्रम की ज़रूरत नहीं है । कोई सरकार चाहे तो हर पंचायत को राइस मशीन देकर वोट लूट सकती है क्योंकि गाँव में अब मज़दूर बचे नहीं । लोगों के कपड़े बदल गए हैं । जीन्स गाँव गाँव में घुस गया है । अरेराज मेन मार्केट पड़ता है । वहाँ मैंने देखा कि कम से कम दस पंद्रह जीन्स सेंटर और कार्नर खुल गए हैं । कारोलबाग का माल खूब खप रहा है । गाँव के लोग भी जीन्स में अड़स अड़स कर चलने लगे हैं । अब अरेराज के कपड़ों की दुकानों का नाम वस्त्रालय नहीं रहा । 




अब आइये गाँव में । रौशन नाम के दर्ज़ी को मैं सालों से देख रहा हूँ । इस बार रौशन के घर के बाहर बड़ा सा सोलर पैनल देखा तो पूछने लगा । रौशन ने बारह हज़ार का सोलर पैनल लगाया है जिससे वो पाँच छह बल्ब जलाता है । उसने मांग के अनुकूल उत्पादकता बढ़ा ली है । साथ में उसकी पत्नी ने बिस्कुट और पान की दुकान खोल ली है । कई अन्य जगहों पर भी दुकानदारी के धंधे में औरतों को बेझिझक काम करते देखा और लड़कियों के स्कूल कोचिंग जाते हुए । लेकिन रौशन का अपने धंधे में निवेश कुछ नई कहानी तो कहता ही है जो आपको सच्चर की रिपोर्ट में नहीं मिलेगा । इस शांति काल ने मुस्लिम समाज को भी नए किस्म का आत्मविश्वास दिया है ।




मास्टर ह्रदय कुमार गाँव में कोचिंग चलाते हैं । ढाई सौ बच्चों पढ़ रहे हैं । प्रतिस्पर्धा के लिए अतिरिक्त पढ़ाई की चाह गाँव में पनप गई है । इसका नतीजा दस साल बाद दिखेगा । ह्रदय कुमार ने बताया सब जाति के बच्चे पढ़ रहे हैं । लोग पैसे ख़र्च कर रहे हैं । उनके साथ घूमते हुए महसूस हुआ कि हर बच्चा प्रणाम सर कहने की परंपरा आज भी ढो रहा है । आख़िर उसके ज्ञान का अंतिम ज़रिया मास्टर साहब ही तो हैं । मास्टर ने बताया कि वे नियमित प्राइम टाइम देखते हैं । सोलर पावर से या जनरेटर जला कर अब ठीक से याद नहीं है । ख़ैर । 


कोई समय जड़ नहीं हो सकता । कुछ न कुछ बदलता ही है । लोगों ने बिजली का इंतज़ार छोड़ दिया है । हालाँकि जहाँ बिजली है वहाँ लोगों ने बताया कि छह से दस घंटे की बिजली मिल जाती है । बिजली को कारण भी कई तरह के बदलाव आ रहे हैं जो मीडिया में दर्ज नहीं किये जा रहे हैं । फिर भी एल ई डी लाइट ने मिट्टी तेल वाले लालटेन को प्राय समाप्त कर दिया है । एवरेडी का एल ई डी वाला लालटेन नुमा टार्च लोकप्रिय है । सोलर से चलने वाले कई तरह के डिजी लाइट गाँवों में दिखेंगे । गाँव के लोगों ने अपने आप सौर ऊर्जा की ताक़त समझ ली है । शहरों से ज़्यादा गाँव के लोग सोलर ब्रांड के बारे में जानते हैं । टाटा का अच्छा है भारत का नहीं । एक ने कहा । 



मास्टर ह्रदय कुमार ने एक और मुस्लिम लड़के से मिलाया जो सोलर पैनल से मोबाइल फ़ोन की बैटरी चार्ज कर कमाता है । दुकान में वो अन्य चीज़ें भी रखता है और नाटक वग़ैरह में कामेडी भी करता है । 

गांव या पंचायत के अब सत्तर फ़ीसदी घर पक्के हो गए हैं । इस सत्तर फ़ीसदी पक्के मकानों में आधे से ज़्यादा अभी अभी बने लगते हैं । जिनकी दीवारों पर सीमेंट नहीं लगा है । रंग रोगन नहीं हुआ है । ऐसे घर पिछड़ी और दलित जातियों के ज़्यादा हैं ।


एक सज्जन ने बताया कि अब लोग पंजाब नहीं गुजरात कमाने जाता है । वहाँ राज मिस्त्री को सात सौ रुपये दिन के मिलते हैं । इसी तरह से गाँवों में पैसे आ रहे हैं । जो पैसे आते हैं वे खर्चे के होते हैं । गुजरात से कमाकर आने वाला मालामाल मज़दूर नरेंद्र मोदी के ब्रांड एंबेसडर हैं । मोदी ने इन्हें तारीफ़ करने के तर्क और शैली दोनों थमा दिये है । गाँव से लेकर मोतिहारी और ट्रेन में जिससे भी मिला सबने नरेंद्र मोदी की बात की । खूब बात की । इसमें कई जाति और तबके के लोग थे । बल्कि कुछ चिन्हित कांग्रेसी परिवारों में भी गया तो वहाँ भी लोगों ने नरेंद्र मोदी के बारे में ही पूछा । ट्रेन में जब इन बातों की सूची बना रहा था लिखने के लिए तो ध्यान आया कि किसी ने भी राहुल गांधी के बारे में एक लाइन नहीं पूछा । एक आदमी ने नहीं पूछा कि सोनिया क्या करेंगी या राहुल क्या कर रहे हैं । गाँव गाँव में मोदी के पोस्टर हैं । नीतीश कुमार के भी नहीं । अगर आप झंडा बैनर को एक पैमाना माने तो लगता ही नहीं कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं । नीतीश को मोदी से सीखना होगा कि कैसे प्रचार किया जाता है । भले इतिहास सीखने की ज़रूरत न पड़े । राहुल गांधी के भी पोस्टर नहीं दिखे । दूर दूर घूमा । कई लोगों से मिला तब भी ।  


बिहार बदल रहा है । इसमें मनोवैज्ञानिक और ढाँचागत योगदान राज्य सरकार का ही है लेकिन बिहार को दस साल और शांति के मिल गए तो यह राज्य अपना रास्ता खुद बना लेगा । ज़मीन पर जो राजनीति बदल रही है उसे देख कर कैसे न लिखें । नरेंद्र मोदी शहर तक सीमित नहीं हैं । वे पसर चुके हैं । कांग्रेस में वो नज़रिया नहीं है कि महँगाई के इस दौर में गाँवों की इन तस्वीरों को कैसे पेश करे । 

मोदी ने खाली स्लेट पर अपना नाम सबसे ऊपर और सबसे पहले लिख दिया है । 


नोट- इस लेख में तस्वीरें नहीं लगी हैं । वक्त मिलते ही लगाऊँगा । दूसरा इसमें बदलाव भी कर सकता हूँ । तीसरा कि ये पूरे बिहार की तस्वीर नहीं है । तीन चार दिनों में जो देखा सुना उतना ही लिखा है ।




सूफ़ी संत सचिन

सुबह से ही सचिन ऐसे खेल रहे थे जैसे वे गुज़िश्ता चौबीस साल के एक एक लम्हे को फिर से जी लेना चाहते हों । जैसे विदाई के वक्त बेटी आख़िर तक  अपने उस आँगन को मुड़ मुड़ कर देखती हुई वहाँ गुज़ारे चौबीस या तीस साल के तमाम पलों को सहेज लेना चाहती है । सचिन लोगों को याद दिला रहे थे कि देखो ऐसे ही देखा था तुमने सचिन को । इसी तरह के शाट के दरम्यान तुमने सचिन को प्यार करना सीखा था । सचिन आज सचिन की तरह खेल रहे थे । बल्ले से हुई दो चार चूकें भी आश्वस्त कर रही थीं कि नहीं देखो । देखते रहो । यह वही सचिन है । अपनी लय में है । पहले पचास फिर सत्तर फिर चौहत्तर । सौ वाला सचिन है ये तो । जा रहा है धीरे धीरे शतक की ओर ।

आउट ! स्टेडियम में उदासी पसर गई । लेकिन सचिन की तरह दर्शक भी संभले हुए थे । सब खड़े हो गए । इस महान खिलाड़ी को विदाई देने ।  एक शानदार पारी खेल कर जा रहे थे । ऐसा नहीं हुआ कि सचिन का विकेट हवा में उड़ गया । शतक सचिन का मुकुट है । लेकिन बादशाह हमेशा मुकुट के ही जँचते हो ज़रूरत नहीं । सचिन ने जो सल्तनत क़ायम की थी वो सिर्फ मीडिया और मार्केट की बनाई सल्तनत नहीं है । उनकी बादशाहत का यही तो कमाल है कि वो सचिन के क्रिकेटीय करामातों की बुनियाद पर क़ायम है । हर समाज अपने महान खिलाड़ी को ऐसे ही देखता है । सचिन उस दौर के खिलाड़ी हैं जिन्हें सबने कभी न कभी देखा है । हो सकता है बहुतों ने कभी कपिल गावस्कर को टीवी पर । देखा हो। रेडियो पर सुना हो और अख़बारों में पढ़ा हो । सचिन की हर पारी चाहे वो देश की है विदेश की, देखी गई है । सचिन की कोई न कोई छवि सबके दिलों में बड़े हैं । वे गांधी और नेहरू से कभी बड़े नहीं हो सकते । यही पर खेल का ग्लैमर राजनीति से मार खा जाता है । गावस्कर को क्या मालम था कि कोई सचिन आ जाएगा । क्या सचिन को मालूम होगा । 

क्रिकेट के सूफ़ी संत हैं सचिन । आनंद के चरम पर ले जाते है । खेल और मनोरंजन के उस एकात्म की तरफ़ जिसे देखने वाले महज़ श्रद्धा मान बैठते हैं । जबकि सचिन की संतई इसी बात की है कि उसमें हम सब अपना चेहरा देखने लगते हैं । सूफ़ी संत इशा मोड़ पर आकर ख़ुदा और बंदों के बीच माध्यम बन जाते हैं । सचिन हमारे और क्रिकेट के बीच वो माध्यम हैं जिसका सिलसिला उन्होंने ही क़ायम की और उन्हीं के साथ समाप्त भी हो जाएगा । 

संघ का सरदार कौन

सार्वजनिक मुद्दों की एक ख़ास बात होती है । इनके गुप्त और ज़ाहिर पहलु और तथ्य इतने होते हैं कि आप राय रखते समय सबसे नहीं गुज़र रहे होते हैं । कुछ न कुछ छूट जाता है । कुछ लोग उन तथ्यों को ला लाकर संतुलन की दावेदारी करते रहते हैं तब भी कई तरह से सोचना रह जाता है । नेता का कमाल यही है कि वो ऐसे ही मुद्दों को उछाले ताकि वो सही ग़लत से ऊपर उठकर लोगों की चर्चा में बना रहे । 

सरदार पटेल पर हो रही बहस में यही हो रहा है । हर कोई मूलत कांग्रेस और बीजेपी की विरासत के बीच मोदी की नई दावेदारी में उलझा हुआ है । इसी बहस को मैंने शुरूआत में सरदार को कुर्मी समाज के नायक के रूप में पेश कर नीतीश को चुनौती देने की नज़र से देखा था । गुजरात के पटेल और बिहार के पटेल दोनोंं सरनेम एक तो हैं मगर सरदार कुर्मी नहीं थे । इसके बावजूद नीतीश ने लालू से अलग होकर कुर्मी रैली की थी तब उस पोस्टर में सरदार पटेल भी मौजूद थे । यू ट्यूब पर कई वीडियों हैं जो पटेल जयंती के मौक़े पर अलग अलग कुर्मी समाज की सभाओं की रिकार्डिंग हैं । सरदार पटेल की जयंती पर कुर्मी समाज की सभा ? तो मैंने इसी लिहाज़ से देखा कि नरेंद्र सरदार को किसान बनाकर बिहार में नीतीश और यूपी में बेनी प्रसाद वर्मा की दावेदारी को धक्का मारेंगे । 


इसी ब्लाग पर मैंने यह भी लिखा है कि मोदी ने सरदार की प्रतिमा बनाकर आडवाणी की पटेल कहे जाने की विरासत को समाप्त कर दिया । आडवाणी जो खुद लौह पुरुष के विशेषण व्यंजन से आह्लादित होते रहे उन्होंने भी कभी सरदार की विरासत को इस स्केल पर ले जाने के बारे में नहीं सोचा था । मोदी कांग्रेस से उपेक्षा का वाजिब हिसाब मांग रहे हैं मगर इसमें एक सवाल आडवाणी जी से भी है कि आप सरदार बनकर भी सरदार को भूल गए । बीजेपी के किस नेता ने आडवाणी को लौह पुरुष नहीं पुकारा होगा । एक झटके में और वो भी बहुत आसानी से मोदी ने दुनिया को बता दिया कि सरदार पटेल को याद करने वाले वे पहले हैं । जबकि हक़ीक़त यह है कि बीजेपी में हमेशा नेहरू और पटेल रहे हैं । अटल बिहारी वाजपेयी की तुलना नेहरू से होती रही जबकि आडवाणी की सरदार पटेल से । मोदी ने एक प्रतिमा से अटल के नेहरू होने और आडवाणी के पटेल होने की दावेदारी पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया या कहें तो दोनों को बेदख़ल कर दिया । अटल जी ने भी कभी नेहरू की विरासत को चुनौती नहीं दी जिस तरह से मोदी ने दी है । इसी ब्लाग पर अपने एक लेख में मैंने लिखा था कि गोवा में प्रचार अभियान समिति का चेयरमैन चुनें जाने के चंद दिनों में मोदी पटेल की प्रतिमा की बात करेंगे । मेरे पास इसकी कोई जानकारी नहीं थी मगर हुआ यही । लिखने से पहले एक पत्रकार से पूछा था तो यही कहा कि तीन साल से बात ही कर रहे हैं पटेल की प्रतिमा की मगर होगा कुछ नहीं । मगर गोवा से अहमदाबाद आते ही अगले एक दो दिनों में मोदी ने पटेल की प्रतिमा बनाने की घोषणा की थी । वे नक़ली सरदार आडवाणी को परास्त कर लौटे थे । दिल्ली में बीजेपी के प्रथम लौह पुरुष कोप भवन में रो रहे थे और अहमदाबाद में मोदी असली सरदार की बात करना शुरू कर चुके थे । अब बीजेपी में लौह पुरुष के दावेदार आडवाणी नहीं मोदी हैं । मोदी स्लेट पर लिखी हर पुरानी बात को मिटा रहे हैं । अपनी बात लिखने के लिए । 

मोदी ने इस तीर से एक काम और किया । बहुत दावे से तो नहीं लिख रहा मगर मन में बात है तो लिख रहा हूँ । असहमतियाँ हो सकती हैं । मुझे लगता है कि मोदी ने बीजेपी के भीतर सरदार पटेल की दावेदारी को फिर से उभार कर संघ को भी लपेटे में ला दिया है । इस पूरे विवाद में ज़्यादा बड़े सवाल संघ को लेकर ही खड़े हो रहे हैं । भले ही संघ की तरफ़ से गुरुमूर्ति और हमारे मित्र राकेश सिन्हा बचाव कर रहे हैं मगर क्या इस वक्त आर एस एस के संविधान और करतूत के बचाव की नौबत आनी चाहिए थी । मोदी ने संघ को भी धकियाया है । हर तरफ़ सरदार पटेल की वो चिट्टी ही छप रही है जिसमें उन्होंने कहा था कि संघ ने सांप्रदायिक ज़हर फैलाया था जिसने आख़िरकार गांधी की जान ले सी । निशाने पर संघ है । कांग्रेस भी पटेल के बहाने संघ पर ही हमला कर रही है । बड़ी चालाकी से संघ का वो इतिहास व्यापक स्तर पर सार्वजनिक हो रहा है जिससे संघ बहुत दूर निकल आने की ख़ुमारी में होगा । संघ भले ही सरदार की तारीफ़ के भी पत्र निकाल रहा है मगर सरदार के ये पत्र भी तो बाहर आ रहे हैं कि कि वे संघ को लेकर कितने नाराज़ थे । गोपाल कृष्ण गांधी ,राजमोहन गांधी ने आसानी से बता दिया कि पटेल न तो हिन्दुत्ववादी थे और न इस्लाम विरोधी । उन्होंने कभी नेहरू का अपमान नहीं किया और हमेशा नेहरू को अपना नेता माना । आख़िर उस सरदार को बाग़ी कैसे मान सकते हैं जिन्होंने बीमारी के कारण दिल्ली छोड़ते वक्त एन वी गाडगिल का हाथ पकड़ कर वचन माँगा था कि लगता नहीं कि मेरी ज़िंदगी अब बची है इसलिए तुम मेरे बाद जवाहर का हाथ नहीं छोड़ोगे । 

आप इस पूरी बहस के स्केल को देखिये आर एस एस की भूमिका को लेकर कितने सवाल खड़े हो रहे हैं । मोदी ने कांग्रेस पर हमला किया मगर संघ का बचाव नहीं किया । बल्कि यह सवाल भी फ़िज़ा में घुम गया कि मोदी ने हेडगेवार,सावरकर, गोलवलकर, श्याम प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और कम से कम बीजेपी के इतिहास के अब तक के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी की प्रतिमा के बारे में क्यों नहीं सोचा । ज़रूर इसके सौ जवाब होंगे लेकिन मोदी ने इनको छोड़ा तो सही । मायावती ने जब मोदी से पहले महापुरुषों की प्रतिमा पार्क के बारे में सोचा तो वे किसी एक के बारे में तय नहीं कर पाईं । इसलिए सबको शामिल किया । मोदी ने एक को चुना । मोदी अपने रास्ते निकल पड़े हैं । संघ को लेकर जितनी कहानी बनानी हो बना लीजिये । संघ मोदी के साथ है और अब रहना ही होगा । मगर मोदी तो पटेल के साथ हैं ।

मोदी के विरोधियों की एक दिक्क्त ये है कि वे उन्हें पुराने चश्मे से देखते हैं । जबकि मोदी एक तीर से कई निशाने लगाते हैं । जो नेता बिहार जाकर खुद को द्वारकाधीश कृष्ण का नुमाइंदा बताकर यादवों का रक्षक घोषित कर सकता है और लालू की तारीफ़ कर सकता है वो सरदार पटेल के बहाने सिर्फ कांग्रेस पर ही बोल रहा है ऐसा नहीं हो सकता । मोदी इस बहाने संघ और आडवाणी पर भी बोल रहे हैं । फ़र्क इतना है कि मोदी नहीं बोल रहे हैं उनकी जगह लोग बोल रहे हैं और संघ अपना बचाव कर रहा है । मोदी की यही बात राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले मेरे जैसे लोगों को कई तरह से सोचने पर मजबूर करती है । मोदी लगातार खुद को बहस को केंद्र में रख रहे हैं । एक बहस छेड़ते हैं और इससे पहले कि वो पूरी हो मोदी दूसरी बहस पर जंप कर जाते हैं । नीतीश ने जब उनके इतिहास बोध को ललकारा तो तेज़ी से पटेल पर शिफ़्ट हो गए और उल्टा वे कांग्रेस के इतिहास बोध से भिड़ गए । यह बहस भी पूरी होती तब तक वो लता मंगेशकर के पास जा चुके थे । उनकी हर बात पहले से तय है । सबकुछ उनके हिसाब से हो रहा है । बाकी लोग बाद में हरकत में आ रहे हैं । जब इतनी योजना और संसाधन से कोई लड़ रहा है तो उनके विरोधी सिर्फ लाचार नज़र नहीं आ सकते । यह भी सही है कि विरोधी भी धीरे धीरे उनकी रणनीति समझने लगे हैं । इसलिए वे मोदी को तुरंत पकड़ते हैं । नीतीश ने दो दिन के भीतर पकड़ा तो कांग्रेस ने उनके प्रतिमा शिलान्यास से पहले अहमदाबाद पहुँच कर सरदार को सेकुलर बता आई तो मोदी के बिहार जाने से पहले यह सवाल उठा दिया गया कि जो अहमदाबाद के नरोदा पाटिया के दंगा पीड़ितों से आज तक मिलने नहीं गया वो बिहार में हेलिकॉप्टर से उड़ उड़कर अपनी पार्टी के शहीद कार्यकर्ताओं से मिल रहा है । मुक़ाबला दिलचस्प हो रहा है । जो जीतेगा वही सिकंदर । फिर किसे पड़ेगा कि सिकंदर गंगा तक आया था या नहीं । 

लाश तुम सिर्फ एक लाश नहीं हो

प्रिय लाश, 

दुनिया तुम्हें समाप्त मान कर भूल जाये मगर मैं तुम्हें समाप्त नहीं मानता । तुम अपार संभावना होगा । सब तुम्हारा कुछ न कुछ करते हैं । इसलिए सोचा कि तुम्हारे नाम एक ख़त लिखूँ । तुमसे संवाद करूँ । तुम तो बोल नहीं पाओगी इसलिए तुमको सामने रख मैं चीख़ूँ । भाषण दूँ पर हमारा संस्कार है जिसके यहाँ कोई मरा हो वहाँ चीख़ते नहीं है । मौन धरकर जाया जाता है । लाश तुम इस ख़त को मेरा मौन समझना । छपरा में भी समझना, पटना में भी और नरोदा पाटिया और दतियां में भी । 


राजनीति के लिए तुम सिर्फ लाश नहीं होती हो । तभी यह तुम्हें मरने नहीं देती । ज़िंदा कर देती है । मरे हुए लोगों को पता तक नहीं चलता कि वो ज़िंदा कर दिया गया है और कंधे पर घूम रहा है । राजनेता हर लाश का कुछ नहीं करते पर कुछ लाश का बहुत कुछ करते हैं । तुम्हारी यात्रा निकालते हैं , बयान देते हैं और फिर फूँक देते हैं, फूँकने के बाद अस्थियाँ चुन लेते हैं और शहर शहर घुमाते हैं । तुम कहाँ कहाँ नहीं घुमाई गई हो । गुजरात में भी, बिहार में भी, यूपी में भी दिल्ली में भी । हिन्दुस्तान की राजनीति का तुम यूँ ही प्रिय विषय नहीं हो । लाशों की राजनीति । एक करता है और दूसरा नहीं करता है मगर तुम पर बोलता दोनों है । बोलने के लिए तुमको कैटेगरी में बदल दिया गया है । आम आदमी लाश, शहीद लाश, कार्यकर्ता लाश, नागरिक लाश । शहीद लाश भी दो प्रकार की होती हैं । सीमा पर मरने वाला शहीद और पार्टी की विचारधारा के लिए मरने वाला शहीद ।लाश तुम सिर्फ एक लाश नहीं हो । एक लाश में भी कई लाशें हो सकती हैं । कई लाशें भी एक लाश नहीं हो सकती हैं । कभी तुम ढेर हो कभी तुम एक हो । कभी तुम लावारिस तो कभी तुम लापता । कभी तुम बिछ जाती हो तो कभी गिर जाती हो ।

राजनेता तय करता है तुम्हारी राजनीति कब करनी है । पटना में कब करनी है, दतियां में क्यों नहीं करनी है, उत्तराखंड में कब करनी है, हैदराबाद में क्यों नहीं करनी है । गूगल में सर्च करोगी तो पता चलेगा कि हर दल के लोग तुम्हारी राजनीति करते है । कभी वे उसी दिन करते हैं जिस दिन तुम गिरती हो तो कभी तुम्हारी अंत्येष्टि के बाद । लेकिन सब एक साथ नहीं करते । एक टाइम पे एक पार्टी लाशों की राजनीति करती है तो दूसरे टाइप पर दूसरी पार्टी ।

जिसके घर में कोई मरा हो उसकी अस्थियाँ मांग कर ले जाते है । बदले में पहुँचकर नेता संवेदना और मुआवज़ा देते हैं और फिर भूल जाते हैं । उस परिवार की ग़मी से किसे लेना देना है । नेता अपने शहर में बिछी लाशों को छोड़ नेता दूसरे शहर की लाशों को कंधे पर उठा लेता है । नेताओं ने ही बताया था कि ये लाशों की राजनीति है । वो कर रहे हैं, हम नहीं । हम तो सम्मान कर रहे हैं । बात इसकी नहीं कि कोई गुजरात के दंगा पीड़ितों के शिविरों में गया या नहीं गया और बिहार क्यों गया । ये दलील तो ज़िंदा लोगों के मामले में भी लागू है कि किसान को पूछा तो जवान को नहीं । बात यह है कि हर दल की अपनी अपनी लाशें होती हैं । 

प्रिय लाश, ऐसा नहीं है कि सिर्फ तुम लाश हो और तुम्हारी राजनीति हो रही है । लाश हम भी हैं । नेता हमें भी लाश समझता है । सेकुलर लाश, स्युडो सेकुलर लाश, प्रांतीय लाश, राष्ट्रवादी लाश, मज़हबी लाश, धार्मिक लाश, गांधी लाश, पटेल लाश, टैगोर लाश, मीडिया लाश, सोशल मीडिया लाश, कांग्रेसी लाश, भाजपाई लाश । हे लाश तुम सर्वदलीय हो । हम सब लाश हो चुके हैं । कोई नेता आता है हमें कंधे पर उठाता है और घुमाते घुमाते हुए चला जाता है । हम हैं कि तुम्हारी तरह देखते रह जाते हैं । देखने वाला ही कहता है लाशों की तरह देखते हैं । 

इसलिए लाश तुम सिर्फ जला देने की चीज़ नहीं हो । राजनीति फ़िल्म का संवाद कितना अच्छा था । ठीक से याद नहीं पर ऐसा कुछ था कि राजनीति में मुर्दे गाड़े नहीं उखाड़े जाते हैं । ऐसा ही है । तुम सिर्फ जलाई नहीं जाती हो ज़िंदा भी की जो सकती हो । लाश तुम एक काश हो ।

तुम्हारा
रवीश कुमार 'एंकर'