(1)
मेट्रो ने मालवीय नगर को माडल टाउन से जोड़ दिया है। घंटे भर में दनदनाती हुई ट्रेन ने दोनों की दूरी काफी कम कर दी है। वक्त तो बच गया मगर कहने को कुछ बचा ही नहीं। वे तमाम योजनाएं जो दोनों ने बनाईं थी अब आउटसोर्स होने लगी हैं। साथ साथ कुछ सोचने और करने का फ़न कम होता जा रहा था। यार तुम बस से आया करो न। क्यों? मेट्रो में क्या प्रोब्लम है? कम से कम फोन कर पूछने का मौका तो मिलेगा कि कहां हो, कब आओगे। इश्क में हम बेरोज़गार हो गए हैं। चलना न फिरना। कब तक मेट्रो से उतर कर हम मॉल के खंभों से चुपचाप चिपके रहेंगे। इस मेट्रो को कह दो कि जाये यहां से।
दर दर गंगे
अच्छे संपादन की कमी से कई बार एक अच्छी किताब बहुत अच्छी किताब होने से रह जाती है। अच्छा संपादक होता तो इस किताब को ग्रंथ में बदल देता। पर शायद गंगा की तरह किसी को ग्रंथ भी तो नहीं चाहिए। पेंगुइन बुक्स ने दर दर गंगे नाम की एक किताब छापी है। लेखक के नाम हैं अभय मिश्र और पंकज रामेंदु। अलग अलग चरणों में तीन साल तक गंगा के किनारे बसे इलाकों की यात्रा कर यह किताब लिखी गई है। इसमें गंगा को लेकर पौराणिक गान नहीं है बल्कि हमने अपने जीवन के लिए गंगा को कैसे इस्तमाल किया है उन छोटी छोटी कहानियों के ज़रिये यह किताब आपको गंगा की शानदार यात्रा करवाती है। गंगोत्री से लेकर गंगा सागर तक तीस शहरों बस्तियों और कस्बों की कथाओं के सहारे गंगा की त्रासदी का वर्णन है। गंगोत्री, उत्तरकाशी, टिहरी, देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, नरौरा,गंगा नहर, कन्नोज, बिठुर,कानपुर, कड़ा मनिकपुर, इलाहाबाद, विंध्याचल,बनारस,गाज़ीपुर, बक्सर, पटना, बख़्तियारपुर,मुंगेर,सुल्तानगंज, भागलपुर, कहलगांव,राजमहल, फरक्का, मायापुरी, कोलकाता और गंगासागर। आप इन जगहों के किस्सों के बहाने गंगा से जुड़े जीवन में आए बदलाव को पढ़ सकते हैं। कैसे गंगा बदलती है तो इनके किनारों का जीवन बदलता है। कैसे लोगों ने गंगा का इस्तमाल किया है। यह किताब अपने तरीके से दस्तावेज़ बन जाती है जो गंगा के नहीं बचने पर शायद ज्यादा काम आएगी। आप तीस शहरों की यात्रा के साथ गंगा और उसके जन जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों की एक लाइव डोक्यूमेंट्री तो देख ही सकते हैं।
“गुरूजी विल्सन का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि गंगा को तो हमने बहुत
पहले ही बेचना शुरू कर दिया था जो आज भी जारी है। विल्सन द्वारा भागीरथी में ऊपर
से काट कर डाले गए पेड़ ऋषिकेश में निकाल लिये जाते थे। काफी समय बाद यही तरीका
अंग्रेजों ने अपनाया और मात्रा ४५० रुपये में टिहरी नरेश से टिहरी और उत्तरकाशी के
जंगल खरीद लिये। इन जंगलों से बड़ी मात्रा में पेड़ काटे गए। काटे गए पेड़ों को
भागीरथी के ट्रांसपोर्टेशन के हवाले कर दिया जाता और तेजी से यह पेड़ नीचे ऋषिकेश
पहुंच जाते। जिनका इस्तेमाल रेल पटरी और कोच बनाने में होता था। स्थानीय लोग
तूमड़ी(नाव) में बैठकर इन लट्ठों को पकड़ा करते थे। वक्त बीतते बीतते गंगा विकास
की आंधी में फंस गई ।“
“गुरूजी यह कहानी सुनाते सुनाते रूक जाते हैं। राज्य में एक फौजी
मुख्यमंत्री बना तो उसने सभी अवोध निर्माण ध्वस्त करने की ठान ली फिर वो चाहे
धार्मिक हो या व्यावसायिक। इसी कड़ी में एक आश्रम का नंबर आया जिसने गंगा की धारा
के बीच में चबूतरा बनाकर शिवजी की विशाल मूर्ति स्थापित कर दी थी। लेकिन
मुख्यमंत्री नहीं माने तो मुनि जी दिल्ली गए और गंगा दशहरा पर आयोजित कार्यक्रम
में मुख्यमंत्री जी की पार्टी के अध्यक्ष को मुख्य अतिथि बनाकर आश्रम आने का
न्योता दे आए। पार्टी अध्यक्ष भी बेहद धार्मिक व्यक्ति थे। फिर हुआ यों कि गंगा
दशहरा पर शिव जी के चबूतरे के पास आरती हुई जिसमें आरती की थाल अध्यक्ष
जी के हाथ में थी,मुख्यमंत्री जी घंटा बजा रहे थे और
मुनी जी शंख से ध्वनि निकाल रहे थे।“
इन दो प्रसंगों को सुनाते सुनाते अभय
और पंकज हरिद्वार आ जाते हैं । गंगा सभा और गरीबों के नाम पर खाना खिलाने का
गोरखधंधा कई छोटे छोटे जीवंत प्रसंगों से उजागर कर देत हैं। पढ़ते हुए ऐसा लगता है
कि आप भी वहीं हैं और ये सब देख रहे हैं या देख चुके हैं। गढ़मुक्तेश्वर का प्रसंग
दिलचस्प है। कैसे गंगा के संकटग्रस्त होने से मल्लाह अन्य पेशों की तरफ जा रहे हैं।
“कई
मल्लाह ज़बरन पुरोहित बन गए हैं। लोगों को मोक्ष दिला रहे हैं। बीते दस सालों में
उन्हीं पुरोहितों को पीछे छोड़ मलकू सहित कई दूसरी जातियों ने अपनी दादागिरी से
यहां पंडागिरी शुरू कर दी है कुछ पेट की आग की वजह से पुरोहित बन गए और कुछ को
लालच ने झुलसाया।“
"गढ़मुक्तेश्वर जहां लोग खुद को मुक्त
करने की कामना करने आते थे, वहां गंगा खुद के मोक्ष की कामना करती
नज़र आती है। वास्तव में गढ़मुक्तेश्वर का दूसरा रूख ज़्यादा दर्दनाक है,जिसे आज गढ़मुक्तेश्वर के रूप में प्रचारित किया जाता है जो वास्तव
में बृजघाट है,गढ़ में तो गंगा सौ साल पहले बहा करती
थी,अब वहां १०० सीढ़ियों वाला गंगा मंदिर ही बचा
है और बचे हैं पुराने पंडे जिनके पास अब कोई भूला भटका ही जजमान चला आता है।
बृजघाट दिल्ली रोड पर पड़ता है इसलिए लोग इसी को गढ़मुक्तेश्वर समझ कर स्नान कर
लेते हैं।" ठीक यही बात हरिद्वार के संदर्भ में कही गई है। “ हरिद्वार की रचना कुछ इस तरह से की गई है कि हर
की पैड़ी जिसे अगर नहर कह दिया जाए तो गंगा सभा से लेकर वे तमाम प्रकार की सभाएं
नाराजड होकर आपको गंगा में विसर्जित करके ही दम लेंगे जो कितनी भी आम होने के बाद
भी गंगा के लिए खुद को खास बी बताती हैं। उस महत्वपूर्ण हर की पैड़ी से गुज़रे
बगैर आप किसी भी तरह शहर से मुलाकात नहीं कर सकते हैं। इस वजह से हर की पैड़ी ने
अपना स्थान अग्रणी भी रखा हुआ है।“
इस किताब में ऐसे अनेक प्रसंग हैं
जिनका यहां ज़िक्र करने लगूं तो पूरी किताब फिर से टाइप हो जाएगी। गंगा को
राजनीतिक नारेबाज़ी से शोर मुक्त माहौल में मानवीय किस्सों की त्रासदी से समझने के
लिए ये एक अच्छी किताब है। कम से कम मेरी प्रिय पुस्तकों में से एक हो गई है। कई
बार हम बड़ी तस्वीर देखने के चक्कर में उन तस्वीरों को नहीं देख पाते जो दरअसल उस
संकट को रोज़ाना जी रही होती हैं। किसी को कहीं बेचैनी नहीं है कि गंगा मर रही है।
शोर भर है । गंगा के नाम पर हम आसानी से बरगलाये जा रहे हैं। इसलिए नहीं कि हम
नासमझ हैं। इसलिए कि अब गंगा हमारे लिए प्रासंगिक है तो सिर्फ ढोंग के लिए। दर दर
गंगे की लघु कथायें उस महावृतांत को समृद्ध करेगी जो गंगा के विलीन हो जाने पर
विलाप करने के लिए रची जायेंगी। गंगा को बचाने के लिए नहीं बल्कि गंगा को अंतिम
विदाई देने के लिए तो यह किताब पढ़ ही सकते हैं। लेखकों को विशेष बधाई।
ब्राह्मण वोट प्रतियोगिता
मंगल पांडे ब्राह्मण थे ।मुलायम सिंह यादव का बयान है। दि हिन्दू अखबार की एक खबर पढ़ रहा था। १८५७ की क्रांति के अन्य नायकों की पहले भी जाति खोजी जा चुकी है। गुर्जर और दलित शहीद की प्रतिमाएं गढ़ीं जा चुकी हैं। लखनऊ में जब मुलायम सिंह यादव ये बात कह रहे थे तो नई बात नहीं थी। समाजवाद तो मंगल पांडे से ही आगे बढ़ा है। ब्राह्मण समाज ने देश और समाज की प्रगति के लिए काफी कुछ किया है। अखबार बताता है कि समाजवादी पार्टी के भीतर ब्राह्मण सभा भी है जिसके अध्यक्ष कोई मंत्री हैं जिनका नाम है मनोज पांडे। मुलायम सिंह बता रहे हैं कि उनकी सरकार बनी थी तभी परशुराम जयंती पर छुट्टी का फैसला हुआ था। अब समाजवादी पार्टी के दिवंगत नेता जनेश्वर मिश्र को भी ब्राह्मण के रूप में खोजते हुए मुलायम बताते हैं कि लखनऊ में लोहिया पार्क से भी बड़ा छोटे लोहिया के नाम से जाने गए जनेश्वर मिश्र पार्क बन रहा है। जनश्वेर मिश्र की जात ही काम आई आखिर। बेकार में ये विचार और वो विचार में जीवन खपाये रहे छोटे लोहिया साहब। जात का एतना बड़ा टिकट पास में था और विचारधारा के भ्रम में बेटिकट घूमते रह गए। इसीलिए छोटे लोहिया शानदार भाषण देकर भी संसद में भाषणबाज़ से आगे नहीं जा सके।
यही नहीं आचार्य महावीर दिवेदी जिनका लिखा हुआ कई कोर्स में है मगर अब उनकी जीवनी इसलिए कोर्स में ठेली जाएगी क्योंकि आचार्य जी ब्राह्मण थे। हिन्दी साहित्य के सेमिनारी साहित्यक जमात इसका देखते हैं कैसे विरोध करती है। लेकिन ब्राह्मणों के वोट को लेकर प्रतियोगिता मुलायम ने तो शुरू नहीं की। मायावती ने २००७ के चुनावों में राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो चुके ब्राह्मण नेताओं और मतदाताओं की पुनर्खोज की थी। भाईचारा कमेटी बनाकर उन्हें बीएसपी के पाले में ले आईं। सतीश मिश्रा इसी कोटे से महत्वपूर्ण बन गए। अब मुलायम सिंह यादव भी वही कर रहे हैं। चूंकि ब्राह्मणों तक पहुंचना था इसलिए कार्यक्रम का नाम प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन रखा गया। इस नाम के सम्मेलन तो दलितों और पिछड़ों ने कभी अपने लिए तो नहीं कराये। कराये भी होंगे तो मुझे मालूम नहीं है।
राजनीति का अपना एक चक्र होता है। हमारी राजनीति में अब वैचारिक धार रही नहीं। इतना श्रम कौन करे। जल्दी जात को पहचानों और उसकी तारीफ करो। अतीत की तस्वीरों को अपने हिसाब से गढ़ों और ध्वस्त करो। राजनीति किसी दूसरी जाति की पहचान से लड़ नहीं सकती। समझौता करती है। कोई नाम दे देती है कि अब ब्राह्मण भी बदल रहे हैं। यह नहीं कहती कि हम बदल रहे हैं। हमें सिर्फ वोट की ज़रूरत है। विचारधारा पार्टी के नाम पर जुगाड़ पाने की उम्मीद में बैठे कुछ खाली लोग लघु पत्रिका चलाने का फंड खोजते रहते हैं। राजनीतिक दलों में ब्राह्मण वोट प्रतियोगिता चल रही है। इसलिए पहला रास्ते की नारेबाज़ी का ज़माना चला गया। जो भी जात जहां है और जैसा है के आधार अपनी संख्या क्षमता के कारण वोट है। इसे जोड़ों। इसलिए कांग्रेस और बीजेपी अपने चरित्र में घोर ब्राह्मणवादी होते हुए भी ब्राह्मण मतदाताओं से ऐसी बातें खुलकर करने से बचती हैं। क्योंकि जैसे ही वे यह बात करेंगी उनका दूसरे समाज का वोट घट जाता है। लेकिन मुलायम और मायावती के कहने से उनके वोट बैंक में कुछ जु़ड़ जाता है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि फिर से अपनी जातिगत पहचानों को लेकर सर उठाने का टाइम लौट रहा है। मालूम नहीं। यह भी तो हो सकता है कि जातिवाद का स्वरुप काफी टूट गया हो। दलितों और पिछड़ों ने एक किस्म की राजनीतिक बराबरी हासिल कर ली हो और अब वे अपनी तरफ से हाथ बढ़ा रहे हों। पर इस प्रक्रिया को उनके अवसरवाद से कैसे अलग करके देखें। बात ब्राह्मण की नहीं है। बात जातियों के गठबंधन की है जो इस सघन प्रतियोगिता के वक्त सभी राजनीतिक दल बनाते हैं। कहने का मतलब ये है कि उनका गठन भले ही ऐसी बातों की पृष्ठभूमि में हुआ होता होगा कि जाति का ढांचा तोड़ना है लेकिन वे भी अंत में इसी ढांचे का हिस्सा बन जाते हैं या वैसे ही हो जाते हैं जिसके खिलाफ होने निकले थे। ब्लाग पर ऐसे प्रसंगों में त्वरित टिप्पणी ही की जा सकती है ऐसे मामलों पर प्रो विवेक कुमार, दिपांकर गुप्ता, योगेंद्र यादव और चंद्रभान जैसे काफी लिखते रहते हैं। जब समाजवाद समाजवाद नहीं रहा तो ब्राह्मणों को लेकर समाज के पिछड़े तबकों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों की प्रतियोगिता सकारात्मक तरीके से भी तो देखी जा सकती है। जातिवाद टूट रहा है ये नहीं मालूम पर इसी ढांचे के भीतर सब बराबर हो रहे हैं। ऐसा है मैं दावा नहीं कर सकता, क्या पता ऐसा ही हो।
लेकिन जब आज भी दलितों को हरियाणा या कहीं और के गांवों से मारकर भगा दिया जाता है तो बाकी दल चुप क्यों रहते हैं। उन पर ज़ुल्म करने वालों का जातियों के हिसाब से प्रोफाइल बनाना चाहिए। हर जात के ज़ुल्मी हैं लेकिन हर दल को हर जात चाहिए। इसलिए जाट जब दलितों को भगा देते हैं तो सरकार पर हमला होता है। एक जाति की ताकत या उसकी मानसिकता से लड़ने का प्रयास इतना ही है कि सताए हुए लोग मीडिया में रिपोर्टर ढूंढते रहते हैं कि कवर कर दीजिए। खबर कवर भी होती है और शून्य के सन्नाटे में खो जाती है। इन सताये हुए लोगों को अब नेता नहीं मिलता। न बहन जी मिलती हैं न भाई साहब। बाकी इनके छोड़े हुए विचारक हैं जो थोड़ी बहुत ईमानदारी से लड़ते रहते हैं।
लघु प्रेम कथा
(1)
चार कदमों से दो लोग आगे बढ़ते जा रहे हैं। दो हाथ बंधे हैं और दो खुले। पांव के नीचे की सड़क चल रही है और सर से आसमान गुज़र रहा है। हिन्दू कालेज की दीवारों के साथ गिरे पड़े पत्तों पर फ्रूटी के टेट्रा पैक फेंकने की धप्प आवाज़ से नींद टूट गई थी। हम दीवारों के साये में क्यों चल रहे हैं समर। इस तरफ से क्यों नहीं जिस तरफ़ खुली सड़क है। ऐसा होता नहीं है मेरी दोस्त। इश्क में जिस तरफ से भी चलो तुम दीवारों के साये से घिर ही जाओगी। ये जो आसमान है जिसे तुम्हें लगता है कि एक खुला सा साया है दरअसल पहरा है। तो समर मैं तुम्हारी निगाह में हूं या कायनात की। ऐसा नहीं है...मेरी निगाह में तो हो तुम लेकिन दीवारों की निगाह से बचके नहीं। कम से कम तुम मेरा नाम लेकर तो बुला सकते थे...या कोई सुन भी रहा है.....
(2)
दिल्ली की बसें कितनी बदल गईं है न। हां लेलैंड से मार्कोपोलो हो गईं हैं। चलती कम है भटकाती ज्यादा हैं। तुम हमेशा इतने निगेटिव कैसे हो जाते हैं। अरे नहीं इस शहर में यही तो पोज़िटिव है । क्या? मार्कोपोलो। ये बस न होती तो तुम कहां भटकती है, हम कहां मिलते। सरोजिनी नगर में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। लाजपत नगर का यही हाल है। शहर का हर उजाला कैमरे में कैद है। मार्कोपोलो का भटकना हमारे लिए अच्छा है दोस्त। बस का नाम लेते हो और मेरा नाम क्यों नहीं समर.....। हम बस में हैं...और कोई सुन लेगा।
चार कदमों से दो लोग आगे बढ़ते जा रहे हैं। दो हाथ बंधे हैं और दो खुले। पांव के नीचे की सड़क चल रही है और सर से आसमान गुज़र रहा है। हिन्दू कालेज की दीवारों के साथ गिरे पड़े पत्तों पर फ्रूटी के टेट्रा पैक फेंकने की धप्प आवाज़ से नींद टूट गई थी। हम दीवारों के साये में क्यों चल रहे हैं समर। इस तरफ से क्यों नहीं जिस तरफ़ खुली सड़क है। ऐसा होता नहीं है मेरी दोस्त। इश्क में जिस तरफ से भी चलो तुम दीवारों के साये से घिर ही जाओगी। ये जो आसमान है जिसे तुम्हें लगता है कि एक खुला सा साया है दरअसल पहरा है। तो समर मैं तुम्हारी निगाह में हूं या कायनात की। ऐसा नहीं है...मेरी निगाह में तो हो तुम लेकिन दीवारों की निगाह से बचके नहीं। कम से कम तुम मेरा नाम लेकर तो बुला सकते थे...या कोई सुन भी रहा है.....
(2)
दिल्ली की बसें कितनी बदल गईं है न। हां लेलैंड से मार्कोपोलो हो गईं हैं। चलती कम है भटकाती ज्यादा हैं। तुम हमेशा इतने निगेटिव कैसे हो जाते हैं। अरे नहीं इस शहर में यही तो पोज़िटिव है । क्या? मार्कोपोलो। ये बस न होती तो तुम कहां भटकती है, हम कहां मिलते। सरोजिनी नगर में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। लाजपत नगर का यही हाल है। शहर का हर उजाला कैमरे में कैद है। मार्कोपोलो का भटकना हमारे लिए अच्छा है दोस्त। बस का नाम लेते हो और मेरा नाम क्यों नहीं समर.....। हम बस में हैं...और कोई सुन लेगा।
हिन्दी में समाचार
अंतिका प्रकाशन से आई नई किताब का नाम
है जिसे लिखा है जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के शोधार्थी और पत्रकार अरविंद दास
ने । हिन्दी में मीडिया पर लिखने वाले लेखकों को मैं(वैसे मैं हूं ही कौन लेकिन
फिर भी) दो श्रेणी में बांटता हूं। पहला कामचोर लेखकों की जमात जो किसी का
इंटरव्यू,स्क्रिप्ट
और कतरनों को लेकर मीडिया और सरोकार,एंकरिंग और रिपोर्टिंग कैसे करें टाइप के
शीर्षकों से किताब लिख मारता है। कोर्स में लगवा कर मीडिया की फूफागिरी प्राप्त कर
लेता है। दूसरी जमात में वे लेखक हैं जो परिश्रम और टेक्निक से किताबें लिख रहे हैं।
गंभीरता के साथ अपने निष्कर्षों को आलोचना और सराहना के लिए पेश कर रहे हैं। विनित, मिहिर और अब
अरविंद दास की किताब है। हाल ही में एक और किताब आई है अभय और पंकज की दर दर गंगे
जिसमें हिन्दी जगत टाइप की सड़ांध से निकल कर ज्ञानोत्पादन करने का प्रयास दिखता है।
यह एक अच्छा संकेत हैं। आज इनकी किताबों में भले कमियां हो लेकिन आने वाले समय में
ये अगर इसी तरह से लिखते रहे तो हिन्दी में कुछ ठोस कर पायेंगे । आप अरविंद दास की
इस नई किताब को पढ़ते हुए कम से कम इस संतोष से गुज़रते हैं कि कुछ पता चल रहा है।
बीते दशकों में हिन्दी पत्रकारिता के एक बड़े अखबार नवभारत टाइम्स के बहाने दिखा
रहे हैं कि कैसे चीज़ें बदल रही हैं। राबिन जेफ्री ने दिखाया है कि कैसे भाषाई
अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ रही है अरविंद इस विषय को नवभारत टाइम्स के सैंपल से
देख रहे हैं यह समझने के लिए कि प्रसार के बीच सामग्री कटेंट में क्या बदलाव आ रहा
है।
कम शब्दों और तमाम उद्धरणों के सहारे
भूमंडलीकरण की एक संक्षिप्त समझ पेश करते हुए अरविंद अपने मूल विषय पर आ जाते हैं
कि इसका प्रभाव नवभारत टाइम्स की खबरों के चयन, प्राथमिकता,भाषा और प्रस्तुति वगैरह पर क्या पड़ा। अव्वल
तो अरविंद की निगाह से एक बात रह गई कि इन बदलावों में शामिल नवभारत टाइम्स के
पत्रकारों की भूमंडलीयता क्या थी। मतलब उनका आउटलुक और चिन्तन जगत से है। वे समाज के किस तबके से आकर बिना विदेश
गए(धारणाधारित) कैसे एक ही साथ लोकल और ग्लोबल हो रहे थे। सुधीश पचौरी का संदर्भ
है जिसमें वे कहते हैं कि हिन्दी के अखबारों में एक साथ लोकल और ग्लोबल सूचनाओं का
आधिक्य बढ़ा है। वे सूचनाएं क्या हैं। हैरतअंगेज़ खबरों की ग्लोबल सूचनाएं या
वेनेज़ुएला में आए बदलाव की विस्तृत समझ वाली सूचनाएं मुझे नहीं मालूम। फिर भी झांसी
से आया कोई पत्रकार डेस्क पर एजेंसी और गार्डियन टाइम्स और बीच बीच में बीबीसी
हिन्दी सेवा की साइट देखकर झटाक से ग्लोबल खबरों को ऐसे लिखने लगता है जैसे औरैया
या मेरठ की घटनाओं पर लिख रहा हो यह कम बड़ी बात नहीं है। ग्लोबल जगत में गए बिना
हम ग्लोबल हो सकते हैं। यही एक समस्या है आप किताब की समीक्षा लिखने बैठते हैं और
अपनी बात और सवालों में भटक जाते हैं। शायद अच्छी किताब का यही काम होता होगा।
खैर हिन्दी के समाचार ग्लोबल और लोकल
हो गए। मनोरंजन की खबरों की प्रमुखता बढ़ी बल्कि खबरें मनोरंजन की शैली में लिखी जाने
लगी। अरविंद के सामने अस्सी के दशक के अखबार हैं और इक्कीसवीं सदी के कुछ साल के
अखबार हैं। वे अपने सैंपल के बारे में ईमानदारी से बता देते हैं और कह देते हैं कि
इसी सीमा के तहत मैं इन बदलावों को देख रहा हूं। उनकी एक पंक्ति पर मेरी निगाह बार
बार टिकती रही कि अस्सी के दशक में हिन्दी के जो अखबार निस्तेज थे वे भूमंडलीय
संचार तकनीक विशेष रूप से कंप्यूटर के इस्तमेमाल की वजह से वर्तमान में सर्वांग
सुन्दर हैं। निस्तेज। क्या इस लेखक ने सिर्फ साज सज्जा के आधार पर लिखा होगा।
प्रसार संख्या और सर्वांग सुन्दरता हासिल होने के बाद क्या प्रभाव में भी हिन्दी
के अखबारों का निस्तेज तेज में बदला है। इस पर आप लोग टिप्पणी करें तो अच्छा होगा।
हिन्दी के अखबारों का असर है कि नहीं। है तो कहां है और नहीं है तो कहां कहां नहीं
हैं।
“भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में अखबार अब राजनीति को
आधुनिक मानव की नियति और नियंता नहीं मानते हैं। महानगरों में अखबारों के माध्यम
से बनने वाली हिंदी की सार्वजनिक दुनिया में राजनीतिक खबरों और बहस-मुबाहिसा के
बदले मनोरंजन का तत्व ज्यादा हावी है। दूसरे शब्दों में अखबार यथास्थिति को बरकरार
रखने में राज्य और सत्ता के सहयोगी हैं ।“ यह अरविंद के शब्द हैं जिनका एक निष्कर्ष है
कि १९८६ में राजनीतिक खबरों का महत्व था जो २००५ तक आते आते राजनीति से ज्यादा
अर्थतंत्र और खेल की खबरों को तरजीह दी जाने लगी। अरविंद ने साफ किया है कि
उन्होंने अपने सैंपल में उन घटनाओं को शामिल नहीं किया है जिनके कारण लोग ज्यादा
खबरें पढ़ने लगते हैं जैसे बाबरी मस्जिद का ध्वंस या किसी प्रधानमंत्री का इस्तीफा
वगैरह। वे सामान्य काल को अपना आधार बनाकर लिख रहे हैं।
अब अरविंद भी उसी दिक्कत में फंसते हैं
जिससे निकलने के लिए वे राबिन जेफ्री की सीमाओं को चिन्हित करते हैं। सुर्खियों के
सैंपल से कंटेंट का सैंपल नहीं मिलता। किस तरह की राजनीतिक खबरें छपा करती थीं और
अब जो छप रही हैं उसकी भाषा और तेवर कैसे हैं। अस्सी के दशक का राजनीतिक उथल पुथल
और २००५ के आस पास का राजनीतिक दौर अलग है। अब राजनीति खासकर दिल्ली की राजनीति
आर्थिक नीतियों से चल रही है। इसलिए लेखक को आगे चलकर आर्थिक खबरों के राजनीतिक
टोन को भी देखना चाहिए। नब्बे के दशक के बाद राजनीतिक अस्थिरता कम हुई है। चुन कर
आने वाली सरकारों का प्रतिशत बढ़ा है। प्रसार संख्या
के साथ साथ वोटों का प्रतिशत बढ़ रहा है। विकास एक मंत्र की तरह पेश किया जाने
लगा है।
क्या इस लिहाज़ से राजनीतिक चेतना या लोकतंत्र में अखबारों की भूमिका को देखा जाना चाहिए था? मुझे नहीं मालूम, मैं सिर्फ अरविंद के दिलचस्प निष्कर्ष के साथ अपना एक सवाल जोड़ रहा हूं जिसमें वे कहते हैं कि आधुनिक लोकतंत्र में अखबार राजनीतिक खबरों को नियंता नहीं मानते हैं। आर्थिक चेतना,उपभोग के सवाल राजनीति के मुद्दे बनते हैं। कब टीवी सस्ता करना है और बाइक के दाम बढ़ाने हैं ये भले ही आर्थिक और उपभोग के फैसले लगें लेकिन इनके पीछे राजनीतिक चालें भी होती होंगी। मध्यमवर्ग को लुभाने वाली खबरों के तहत ऐसी सूचनाएं अपना काम करती होगीं। क्योंकि लेखक खुद पेज ७८ पर ज्यां ब्रौद्रिला से सहमत होते कहते हैं कि मध्य वर्ग की लालसा की पूर्ति के लिए कि हिन्दी अखबारों के सहारे ही भूमंडलीकरण ने हिन्दी प्रदेश के महानगरों,कस्बों और गावों में अपना पांव फैलाया है। तो भूमंडलीकरण ने मीडिया के ज़रिये अपना पांव फैलाया या इस क्रम में मीडिया को भी फैला दिया। यह निष्कर्ष कुरेदता है। हिन्दी प्रदेश के महानगर? दिल्ली या मुंबई या लखनऊ? महानगरों का स्पेस जो चलाता है वो किस प्रदेश से आता है हिन्दी से या अंग्रेजी से। नवभारत टाइम्स अंग्रेजी की नकल में चल रहा है या अपने रास्ते किसी स्वतंत्र चेतना का निर्माण कर रहा है। क्या यह सही नहीं है कि हिन्दी प्रदेशों से चुन कर आए दलों के गठबंधन से बनी और टिकी सरकारों के आर्थिक फैसलों से भूमंडलीकरण आया और उन्हीं से फैला जब मुलायम मायावती नीतीश नरेंद्र मोदी शिवराज सिंह चौहान और रमण सिंह जैसे अंग्रेजी न बोलने वाले नेताओं ने विकास और जीडीपी को राजनीतिक स्लोगन में बदला या किन्ही और कारकों से।
क्या इस लिहाज़ से राजनीतिक चेतना या लोकतंत्र में अखबारों की भूमिका को देखा जाना चाहिए था? मुझे नहीं मालूम, मैं सिर्फ अरविंद के दिलचस्प निष्कर्ष के साथ अपना एक सवाल जोड़ रहा हूं जिसमें वे कहते हैं कि आधुनिक लोकतंत्र में अखबार राजनीतिक खबरों को नियंता नहीं मानते हैं। आर्थिक चेतना,उपभोग के सवाल राजनीति के मुद्दे बनते हैं। कब टीवी सस्ता करना है और बाइक के दाम बढ़ाने हैं ये भले ही आर्थिक और उपभोग के फैसले लगें लेकिन इनके पीछे राजनीतिक चालें भी होती होंगी। मध्यमवर्ग को लुभाने वाली खबरों के तहत ऐसी सूचनाएं अपना काम करती होगीं। क्योंकि लेखक खुद पेज ७८ पर ज्यां ब्रौद्रिला से सहमत होते कहते हैं कि मध्य वर्ग की लालसा की पूर्ति के लिए कि हिन्दी अखबारों के सहारे ही भूमंडलीकरण ने हिन्दी प्रदेश के महानगरों,कस्बों और गावों में अपना पांव फैलाया है। तो भूमंडलीकरण ने मीडिया के ज़रिये अपना पांव फैलाया या इस क्रम में मीडिया को भी फैला दिया। यह निष्कर्ष कुरेदता है। हिन्दी प्रदेश के महानगर? दिल्ली या मुंबई या लखनऊ? महानगरों का स्पेस जो चलाता है वो किस प्रदेश से आता है हिन्दी से या अंग्रेजी से। नवभारत टाइम्स अंग्रेजी की नकल में चल रहा है या अपने रास्ते किसी स्वतंत्र चेतना का निर्माण कर रहा है। क्या यह सही नहीं है कि हिन्दी प्रदेशों से चुन कर आए दलों के गठबंधन से बनी और टिकी सरकारों के आर्थिक फैसलों से भूमंडलीकरण आया और उन्हीं से फैला जब मुलायम मायावती नीतीश नरेंद्र मोदी शिवराज सिंह चौहान और रमण सिंह जैसे अंग्रेजी न बोलने वाले नेताओं ने विकास और जीडीपी को राजनीतिक स्लोगन में बदला या किन्ही और कारकों से।
मैंने कोई अस्सी पन्ने पढ़े हैं। चूंकि
लेखक ने ही कहा है कि मेरी किताब की बखिया उधेड़ दीजिए लेकिन किताब बखिया उधेड़ने
वाली नहीं है। मैंने समीक्षा कम अपने उन सवालों को ज्यादा जोड़ दिया है जिसका जवाब
मैं ढूंढ रह हूं। कुछ तो इम्प्रैस करूंगा न भाई। यहां तो कितने लिलपड़ाक भाव
भंगिमा धर कर हिन्दी जगत के विचारक बने घूम रहे हैं। मैं काहे अलग रहूं किसी से।
तो मित्रों यह किताब
हिन्दी पत्रकारिता में दिलचस्पी रखने वालों के इसलिए काम आएगी क्योंकि लेखक ने “गट फीलिंग” के आधार पर लिखने
से बचने का प्रयास किया है। मुझे पसंद आई है और पढ़ते वक्त मेरा टाइम खराब नहीं हुआ
है। अरविंद को एक सलाह है। जब किताब लिखें तो किसी का भी अलग से इंटरव्यू न छापें।
उसे किताब का ही हिस्सा बनायें। इसी शनिवार शाम को आई आई सी में इसका लोकार्पण करण
थापर कर रहे हैं।
जर्मन दूतावास और फूल मोहम्मद का रिक्शा
दिल्ली में दूतावासों की बस्ती है चाणक्यापुरी। शांतिपथ के दोनों तरफ बने किलानुमा दूतावास। एक दिन यूं हीं जर्मन दूतावास टपक पड़ा। बात करने की आदत ने फूल मोहम्मद से दोस्ती करा दी। शुरू के सारे सवालों को फूल मोहम्मद ने यू अनदेखा कर दिया जैसे मेरे सवाल पतझड़ के पत्तों की तरह टूट कर गिरे हैं और अभी किसी गुज़रती कार के पीछे उड़ते दौड़ते गायब हो जाएंगे। नाम क्या है। ऐं क्यों बतायें। अरे जनाब नाम पूछा है। चलिये चाय पिला दीजिए। नज़र पड़ी फूल मोहम्मद के साइकिल रिक्शे पर। पैर से लाचार फूल मोहम्मद की झुंझलाहट मगर बात करने की मेरी आदत। टकराने लगी। अरे साहब आप बात क्यों नहीं करते हैं। तभी एक आटो आकर रूका। बुजुर्ग से ड्राइवर। यहां क्या कर रहे हैं साहब। पहली बार टीवी से बाहर देखा। ओए फूल साहब को चाय पिला। बस अब तो फूल मोहम्मद को खुलना ही था। पहले एक खिड़की फिर दरवाज़ा खुला और मैं फूल मोहम्मद की दुनिया के आंगन में।
इंदिरा गांधी की हत्या से पहले से यहां चाय बेच रहा हूं। इंदिरा जी ने ये साइकिल रिक्शा दी थी। विकलांगों के रोज़गार के लिए। ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति थे। दोनों ने बुलाकर ये रिक्शा दी। हमने इसे रोज़गार का ज़रिया बना लिया। फूल मोहम्मद साइकिल रिक्शे पर टेढ़े होकर बैठे थे। पीछे के हिस्से में बड़ा सा बक्सा बना था। जिसमें एक स्टोव, चाय का सामान, बिस्कुट, सिगरेट आदि आदि आराम से आ जाते थे। बक्सा बंद तो साइकिल रिक्शा बिस्तर औऱ खुल गया तो दुकान। दूतावास का इलाका भारी सुरक्षा का होता है। हर दो मिनट में पुलिस। आप कार खड़ी करें तो चालान हो जाए। तो फूल मोहम्मद साहब आपको पुलिस तंग नहीं करती। नहीं साहब। वो भी समझते हैं। अब तो पचीस साल से भी ज्यादा हो गए हैं। मेरे बारे में सब जानते हैं। अगर आपका चरित्र अच्छा है तो कोई दिक्कत नहीं है। कहीं भी धंधा कर सकते हैं।
मेरी नज़र साइकिल रिक्शे से हट ही नहीं रही थी। जिसके पास चलने फिरने का कोई विकल्प नहीं उसने इस साइकिल रिक्शों को किस तरह से विकल्प बना दिया है। खुद भी चलता है और ज़िंदगी भी। फूल मोहम्मद बिहार के सहरसा ज़िले से आए थे। तब दिल्ली ऐसी नहीं थी। कहने लगे। मेरे लिए तो वक्त ही नहीं बदला। हां जर्मन दूतावास के सब अफसर जानते हैं मुझे। किसी महिला राजदूत की बात करने लगा। जिन्होंने फूल मोहम्मद की चाय वाली साइकिल रिक्शा को हटने नहीं दिया। फूल ने कहा कि उनके पास दूतावास के किसी अधिकारी से मिला प्रमाण पत्र भी है। हमारी पुलिस का यह पक्ष अच्छा लगता है। पता है कि यह इलाका संवेदनशील है लेकिन फिर भी कुछ चाय वालों को, कुछ आइसक्रीम वालों को, कुछ भेलपुरी वालों को दुकान लगाने देते हैं। जो आधे दो घंटे में उस जगह से हट कर कहीं और चले जाते हैं। हां आप इसके पीछे के दूसरे तर्कों को देखेंगे। ज़रूर देखिये। लेकिन दूतावास के अधिकारियों की सहनशीलता की तारीफ होनी चाहिए। अपने शानदार दफ्तर के बाहर एक चाय की दुकान इसलिए चलने दे रहे हैं ताकि फूल मोहम्मद का कारोबार चलता रहे। बातचीत से ऐसे लगा कि यह शख्स जर्मनी को कितना जानता है। वो बीस सालों से लोगों को जर्मनी जाते देख रहा होगा मगर उसकी अपनी ज़िंदगी कभी उड़ान नहीं भर पाई होगी। बातचीत में काफी वक्त गुज़र गया। आटो वाले भाई साहब जाकर फिर लौट आए। मैंने कहा कि आप फिर आ गए। इसी इलाके में चलाते हैं क्या। नहीं साहब। जहां दिल लग जाता है वहां आदमी बार बार लौट कर आ ही जाता है।
इंदिरा गांधी की हत्या से पहले से यहां चाय बेच रहा हूं। इंदिरा जी ने ये साइकिल रिक्शा दी थी। विकलांगों के रोज़गार के लिए। ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति थे। दोनों ने बुलाकर ये रिक्शा दी। हमने इसे रोज़गार का ज़रिया बना लिया। फूल मोहम्मद साइकिल रिक्शे पर टेढ़े होकर बैठे थे। पीछे के हिस्से में बड़ा सा बक्सा बना था। जिसमें एक स्टोव, चाय का सामान, बिस्कुट, सिगरेट आदि आदि आराम से आ जाते थे। बक्सा बंद तो साइकिल रिक्शा बिस्तर औऱ खुल गया तो दुकान। दूतावास का इलाका भारी सुरक्षा का होता है। हर दो मिनट में पुलिस। आप कार खड़ी करें तो चालान हो जाए। तो फूल मोहम्मद साहब आपको पुलिस तंग नहीं करती। नहीं साहब। वो भी समझते हैं। अब तो पचीस साल से भी ज्यादा हो गए हैं। मेरे बारे में सब जानते हैं। अगर आपका चरित्र अच्छा है तो कोई दिक्कत नहीं है। कहीं भी धंधा कर सकते हैं।
मेरी नज़र साइकिल रिक्शे से हट ही नहीं रही थी। जिसके पास चलने फिरने का कोई विकल्प नहीं उसने इस साइकिल रिक्शों को किस तरह से विकल्प बना दिया है। खुद भी चलता है और ज़िंदगी भी। फूल मोहम्मद बिहार के सहरसा ज़िले से आए थे। तब दिल्ली ऐसी नहीं थी। कहने लगे। मेरे लिए तो वक्त ही नहीं बदला। हां जर्मन दूतावास के सब अफसर जानते हैं मुझे। किसी महिला राजदूत की बात करने लगा। जिन्होंने फूल मोहम्मद की चाय वाली साइकिल रिक्शा को हटने नहीं दिया। फूल ने कहा कि उनके पास दूतावास के किसी अधिकारी से मिला प्रमाण पत्र भी है। हमारी पुलिस का यह पक्ष अच्छा लगता है। पता है कि यह इलाका संवेदनशील है लेकिन फिर भी कुछ चाय वालों को, कुछ आइसक्रीम वालों को, कुछ भेलपुरी वालों को दुकान लगाने देते हैं। जो आधे दो घंटे में उस जगह से हट कर कहीं और चले जाते हैं। हां आप इसके पीछे के दूसरे तर्कों को देखेंगे। ज़रूर देखिये। लेकिन दूतावास के अधिकारियों की सहनशीलता की तारीफ होनी चाहिए। अपने शानदार दफ्तर के बाहर एक चाय की दुकान इसलिए चलने दे रहे हैं ताकि फूल मोहम्मद का कारोबार चलता रहे। बातचीत से ऐसे लगा कि यह शख्स जर्मनी को कितना जानता है। वो बीस सालों से लोगों को जर्मनी जाते देख रहा होगा मगर उसकी अपनी ज़िंदगी कभी उड़ान नहीं भर पाई होगी। बातचीत में काफी वक्त गुज़र गया। आटो वाले भाई साहब जाकर फिर लौट आए। मैंने कहा कि आप फिर आ गए। इसी इलाके में चलाते हैं क्या। नहीं साहब। जहां दिल लग जाता है वहां आदमी बार बार लौट कर आ ही जाता है।
सिनेमा का सुहागरात
पता नहीं कहाँ से ख़ुराफ़ात सूझी कि सुहागरात के फ़िल्मी दृश्यों पर लिखने का मन करने लगा । जानना चाहता हूँ कि हिन्दी सिनेमा में सुहागरात का सीन कैसे प्रवेश करता है । शुरू के सुहागरात के दृश्य किस तरह के होते होंगे । जैसे ही नायक दरवाज़ा बंद करता है एक नई दुनिया दर्शकों के सामने नुमायां होने लगती है । शादी के बाद कमरे में प्रवेश करने का सीन हमेशा से पुरुषों के लिहाज़ से रचा गया । उसका प्रवेश करना एक किस्म का एकाधिकार है । ब्याह कर लाई गई दुल्हन पलंग पर शिकार की तरह बैठी होती है । वो सिर्फ एक हासिल है । सुहागरात के सीन में एक पुरुष दर्शक किस एकाधिकार से प्रवेश करता है और एक महिला दर्शक कैसे प्रवेश करती है मालूम नहीं । इसका किसी ने अध्ययन किया हो तो बताइयेगा । हिन्दी फ़िल्मों ने हमीमून भले ही पश्चिम से चुराया है मगर सुहागरात मौलिक आइडिया लगता है । सुहागरात के दृश्यों ने आम वैवाहिक जीवन की 'पहली रात' को कितना रोमांटिक और ख़ौफ़नाक बनाया इसका विश्लेषण होना बाक़ी है । अव्वल तो आप और हम सब जानते हैं मगर हमने कभी इसे सार्वजनिक नहीं किया है ।
जैसे सुहागरात के सीन में दूध का ग्लास कब प्रवेश करता है । दूध का ग्लास सिर्फ मर्द के लिए क्यों होता है और औरत क्यों नहीं पीती है। दूध का ग्लास कई रूपों में आता है । साज़िश, ज़हर, शरारत और भय के रूप में । ननद या सौतेली सास जब दूध का ग्लास लेकर आती है तो बैकग्राउंड म्यूज़िक 'पहली रात' को आख़िरी सीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता । दूध के ग्लास का गिर जाना एक किस्म का इंकार है । सिनेमा में प्रेम से ज्यादा हवस के सुहागरात दिखाये गए होंगे । बल्कि कब प्रेम से हवस में बदला ।उसी तरह से दूल्हे के आने का अंदाज़ भी सुहागरात का पेटेंट सीन है । शराब के नशे में , पागल दूल्हा, बेवकूफ दूल्हा , बूढ़ा दूल्हा आदि आदि के प्रवेश करने का अंदाज़ भी खास तरह से गढ़ा गया होगआ । नशे और उम्र के कारण लड़खड़ाने के बाद भी पुरुष का एकाधिकार बना रहता है ।
सुहागरात के सीन में दिखाये गए दूल्हा दुल्हन के प्रकार की भी सूची बननी चाहिए । हिन्दी सिनेमा के निर्देशकों ने सुहागरात को भयावह भी बनाय है । भ्रष्टाचार फ़िल्म में शिल्पा शिरोडकर पर फ़िल्माया गया है । यू ट्यूब में जैसे ही सुहागरात टाइप किया पता नहीं यही एक दृश्य क्यों बार बार उभरता रहा । यू ट्यूब में अपलोड करने वाले ने इस दृश्य को किस नज़र से देखा होगा बार बार सोचता रहा । खलनायक की अतिमर्दानगी विचित्र है । दूल्हे की नपुंसकता का सीन भी एकाधिकार के फ़्रेम में शूट हुआ है । दुल्हन को छूने और साथ में अलग तरह की संगीत रचना भी सुहागराती सीन है । दूल्हा हमेशा या कई बार दोस्तों के पी पा के बाद ही कमरे में आता है । सिर्फ । दुल्हन ही कमरे में पहले से बैठी रहती है ।
सुहागरात की बात हो और सेज़ की न हो ठीक नहीं लगेगा । सेज़ मतलब एक प्रकार का स्टेज समझिये । जहां दोनों का ' सीन' परफार्म होता है । 'गजरे के सफ़ेद फूलों से लदा पलंग । आख़िरी सीन में फूलों की लड़ियों का टूटना, दुल्हे की कलाई और दुल्हन के जूड़े में गजरा । सेज़ को लेकर गाने भी खूब लिखे गए है । बेला चमेली का सेज़ बिछाया सोवै गोरी का यार बलम तरसे रंग बरसे । सुहागरात में सेज़ कैसे बदलता है यह भी देखना है । कैमरा कैसे दुल्हन के पाँव का क्लोज़ अप करता है, पायल कैसे रगड़ खाकर टूटती है । इन सबको स्त्री को अधीन बनान वाले दृश्यों और प्रसंगों को रूप में देखा जाना चाहिए । यह एक किस्म का भयानक कंस्ट्रक्ट है जिसे रोमांटिक समझ कर लोग आम जीवन में उतारते हैं । गाँव गाँव में सुहागरात के सीन की असली नक़ल होती रही है । सबकी निगाहों से बचाकर फूल लाये जाते हैं । दरवाज़ा बंद कर भीतर ही भीतर कमरे को वैसे ही सजा दिया जाता है जैसे फ़िल्मों में दिखाया जा चुका होता है । आपमें से कितनों के जीवन में सिनेमा के यह दृश्य रचें गए, इसका वृतांत इतना गुप्त क्यों हैं । क्या दुल्हन वैसे ही बिस्तर पर घूँघट में बैठी थी जैसे सिनेमा ने दिखाया था । कितना कुछ है जानने को ।
जैसे ही मैंने यू ट्यूब पर सुहागरात टाइप किया सुहागरात के अनगिनत मल़याली दृश्यों से घिर गया । लगता है मल़याली फ़िल्मों में सुहागरात ख़ासा कमाऊ सीन है । पर सभी फ़िल्मों के नहीं थे । पर कई में मल़याली 'हाट बेब' के साथ सुहागरात टाइप कुछ लिखा देखा । आप ज़्यादा कल्पना न करें इसे पढ़ते हुए । मैंने इन दृश्यों को चला कर नहीं देखा है । डर्टी माइंड ! पर मैं गंभीर हूँ । सिनेमा में सुहागरात पर लिखना चाहता हूँ । कुछ फ़िल्मों के नाम और असली जीवन के प्रसंगों की चर्चा करें तो अच्छा रहेगा । हाल की फ़िल्मों में सुहागरात के सीन कम हो गए हैं । कई फ़िल्में देखी हैं पर सुहागरात का कोई सीन याद नहीं आ रहा । शायद यह सीन अब पकाऊ हो गया है इसीलिए निर्देशकों को इसमें अब वो पहली रात वाली बात नज़र नहीं आती या फिर दुल्हन का किरदार ही स्वतंत्र हो गया है ।
जैसे सुहागरात के सीन में दूध का ग्लास कब प्रवेश करता है । दूध का ग्लास सिर्फ मर्द के लिए क्यों होता है और औरत क्यों नहीं पीती है। दूध का ग्लास कई रूपों में आता है । साज़िश, ज़हर, शरारत और भय के रूप में । ननद या सौतेली सास जब दूध का ग्लास लेकर आती है तो बैकग्राउंड म्यूज़िक 'पहली रात' को आख़िरी सीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता । दूध के ग्लास का गिर जाना एक किस्म का इंकार है । सिनेमा में प्रेम से ज्यादा हवस के सुहागरात दिखाये गए होंगे । बल्कि कब प्रेम से हवस में बदला ।उसी तरह से दूल्हे के आने का अंदाज़ भी सुहागरात का पेटेंट सीन है । शराब के नशे में , पागल दूल्हा, बेवकूफ दूल्हा , बूढ़ा दूल्हा आदि आदि के प्रवेश करने का अंदाज़ भी खास तरह से गढ़ा गया होगआ । नशे और उम्र के कारण लड़खड़ाने के बाद भी पुरुष का एकाधिकार बना रहता है ।
सुहागरात के सीन में दिखाये गए दूल्हा दुल्हन के प्रकार की भी सूची बननी चाहिए । हिन्दी सिनेमा के निर्देशकों ने सुहागरात को भयावह भी बनाय है । भ्रष्टाचार फ़िल्म में शिल्पा शिरोडकर पर फ़िल्माया गया है । यू ट्यूब में जैसे ही सुहागरात टाइप किया पता नहीं यही एक दृश्य क्यों बार बार उभरता रहा । यू ट्यूब में अपलोड करने वाले ने इस दृश्य को किस नज़र से देखा होगा बार बार सोचता रहा । खलनायक की अतिमर्दानगी विचित्र है । दूल्हे की नपुंसकता का सीन भी एकाधिकार के फ़्रेम में शूट हुआ है । दुल्हन को छूने और साथ में अलग तरह की संगीत रचना भी सुहागराती सीन है । दूल्हा हमेशा या कई बार दोस्तों के पी पा के बाद ही कमरे में आता है । सिर्फ । दुल्हन ही कमरे में पहले से बैठी रहती है ।
सुहागरात की बात हो और सेज़ की न हो ठीक नहीं लगेगा । सेज़ मतलब एक प्रकार का स्टेज समझिये । जहां दोनों का ' सीन' परफार्म होता है । 'गजरे के सफ़ेद फूलों से लदा पलंग । आख़िरी सीन में फूलों की लड़ियों का टूटना, दुल्हे की कलाई और दुल्हन के जूड़े में गजरा । सेज़ को लेकर गाने भी खूब लिखे गए है । बेला चमेली का सेज़ बिछाया सोवै गोरी का यार बलम तरसे रंग बरसे । सुहागरात में सेज़ कैसे बदलता है यह भी देखना है । कैमरा कैसे दुल्हन के पाँव का क्लोज़ अप करता है, पायल कैसे रगड़ खाकर टूटती है । इन सबको स्त्री को अधीन बनान वाले दृश्यों और प्रसंगों को रूप में देखा जाना चाहिए । यह एक किस्म का भयानक कंस्ट्रक्ट है जिसे रोमांटिक समझ कर लोग आम जीवन में उतारते हैं । गाँव गाँव में सुहागरात के सीन की असली नक़ल होती रही है । सबकी निगाहों से बचाकर फूल लाये जाते हैं । दरवाज़ा बंद कर भीतर ही भीतर कमरे को वैसे ही सजा दिया जाता है जैसे फ़िल्मों में दिखाया जा चुका होता है । आपमें से कितनों के जीवन में सिनेमा के यह दृश्य रचें गए, इसका वृतांत इतना गुप्त क्यों हैं । क्या दुल्हन वैसे ही बिस्तर पर घूँघट में बैठी थी जैसे सिनेमा ने दिखाया था । कितना कुछ है जानने को ।
जैसे ही मैंने यू ट्यूब पर सुहागरात टाइप किया सुहागरात के अनगिनत मल़याली दृश्यों से घिर गया । लगता है मल़याली फ़िल्मों में सुहागरात ख़ासा कमाऊ सीन है । पर सभी फ़िल्मों के नहीं थे । पर कई में मल़याली 'हाट बेब' के साथ सुहागरात टाइप कुछ लिखा देखा । आप ज़्यादा कल्पना न करें इसे पढ़ते हुए । मैंने इन दृश्यों को चला कर नहीं देखा है । डर्टी माइंड ! पर मैं गंभीर हूँ । सिनेमा में सुहागरात पर लिखना चाहता हूँ । कुछ फ़िल्मों के नाम और असली जीवन के प्रसंगों की चर्चा करें तो अच्छा रहेगा । हाल की फ़िल्मों में सुहागरात के सीन कम हो गए हैं । कई फ़िल्में देखी हैं पर सुहागरात का कोई सीन याद नहीं आ रहा । शायद यह सीन अब पकाऊ हो गया है इसीलिए निर्देशकों को इसमें अब वो पहली रात वाली बात नज़र नहीं आती या फिर दुल्हन का किरदार ही स्वतंत्र हो गया है ।
पत्थर के ही इंसा पाये हैं.....
बुतखाना समझते हो जिसको
पूछो न वहां क्या हालत है
हमलोग वहीं लौटे हैं
बस शुक्र करो लौट आये हैं
तुम शहर ए मोहब्बत कहते हो
हम जान बचाकर आए हैं
हम सोच रहे हैं मुद्दत से
अब उम्र गुज़ारे भी तो कहां
सहरा में खुशी के फूल नहीं
शहरों में ग़मों के साये हैं
सुदर्शन फ़ाकिर की लिखी ये ग़जल बार बार सुनता रहता हूं। क्यों सुनता हूं मालूम नहीं। शायद ख़ुद की सफ़ाई के लिए। अपने भीतर की उस हिंसा को बार बार पहचानने के लिए जो किसी के जवाब में तुनक आती है। जो हिंसा किसी सवाल करने वाले के भीतर इस कदर बैठी है कि वो हैवानियत में देख ही नहीं पाती कि नेता ने उसे किस कदर भांड बना डाला है। बार बार सुनता हूं ये ग़ज़ल। कई बार लगता है कि इतनी ख़ूबसूरत बातें लिखने वालों की बातों को ज़माने ने समझा क्यों नहीं। क्या ये सारी पंक्तियां किसी एकांत में किसी महबूब को याद करने का बहाना भर थी। हमने क्या सीखा इनसे। शायरी कविता हमारे भीतर कोई दूसरा शख्स ढूंढने में मदद करती है या हम उनके इस काम में मदद ही नहीं करना चाहते। हम इन पंक्तियों को सुनते हुए ख़ुद से भागने लगते हैं। वक्त को गुज़र जाने का इंतज़ार करने लगते हैं।
नेताओं ने अपना लाउडस्पीकर खोल दिया है। चौरासी के नरसंहार का ज़िक्र अब २००२ के गुजरात दंगों के सामने फुटबाल मैच की तरह होने लगा है। गोधरा हुआ या इंदिरा की हत्या हुई। दंगे तो और भी बहुत हुए। पहले होते थे अब नहीं होते । हम क्या कह रहे हैं हमें ही नहीं मालूम। बस अपनी अपनी राजनीतिक निष्ठाओं की भांडगिरी हो रही है। दो चार नेताओं को खलनायक बनाकर अनगिनत लोग जाने किस तफरीह से इन बहसों को सुनते होंगे जो बसों और जीपों में लद कर आए और इंसानों को गाजर मूली की तरह काट कर चले गए। तिस पर ये नाकामी नश्तर की तरह चुभती नहीं कि उन दो चार नेताओं को भी कौन सी सज़ा हुई आज तक। टाइटलर बनाम फुल्का,मोदी बनाम नीतीश सारी लड़ाई अब शहर के इस नाले पर हो रही है। समाज तब भी बुज़दिल की तरह चुप था, अब भी है। वो इन नेताओं के पीछे छिप कर अपनी बुज़दिली ज़ाहिर करता है। इनके नाम पर लड़कर बहादुर बनता है। एक नाइंसाफी की मिसाल देकर दूसरी नाइंसाफी के लिए रियायत मांगता है। इस पूरी कवायद में उनकी चिंताएं और आवाज़ें धीरे धीरे पीछे हटती चली जाती हैं जिन पर दंगे का कहर टूटता है। वे अखबारों की हेडलाइन से गायब हो जाते हैं और वो भीड़ सामान्य जीवन में लौट कर फिर से उसी राजनीति के रास्ते सत्ता की सीढ़ियां चढ़ आती हैं। चौरासी बनाम २००२ के दंगों का नतीजा यही है कि जब तब कुछ नहीं हुआ तो अब क्यों हों। एक अफसोस करता है और एक नहीं करता। क्या यही इन नरसंहारों का अंतिम इंसाफ है। या ये है कि जो भी शामिल था उसे सज़ा मिले।
८४ या २००२ में सिर्फ नेता नहीं थे। एक भीड़ थी जो उनके इशारे पर काम करती थी। उस भीड़ का अपना मज़हब होगा। इसके अलावा असंख्य लोगों की वो भीड़ होगी जो अपने घरों में चुप यह तमाशा देखती होगी। जिसका भी एक मज़हब होगा। जिसने भी गीता और कुरआन पढ़ा होगा। इंसाफ किसे मिला है। जिन दलों पर आरोप लगे वो इन सबके बावजूद अलग अलग जगहों में बारी बारी से हुकूमत करते रहे हैं। वो आगे भी हुकूमत करेंगे।
कोई हारेगा कोई जीतेगा। मरेगा वही जो दंगों से बचा होगा। वो बार बार मरेगा। अहमदाबाद में, भागलपुर में और लाजपतनगर और नंदनगरी में। जो बुज़दिल होंगे वे जगजीत सिंह की गाई इस ग़ज़ल को सुनकर सुदर्शन फाकिर को भूल जायेंगे। हम जान बचाकर लौटे हैं, शुक्र करो लौट आये हैं। इन ग़ज़लों का बार बार पाठ किया जाना चाहिए। अलग अलग संदर्भों में।
पत्थर के खुदा
पत्थर के सनम
पत्थर के ही इंसा पाये हैं
आप कहां रहते हैं
महानगरों में आपके रहने का पता एक नई जाति है। दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में जाति की पहचान की अपनी एक सीमा होती है। इसलिए कुछ मोहल्ले नए ब्राह्मण की तरह उदित हो गए हैं और इनके नाम ऋग्वेद के किसी मंत्र की तरह पढ़े जाते हैं। पूछने का पूरा लहज़ा ऐसा होता है कि बताते हुए कोई भी लजा जाए। दक्षिण हमारे वैदिक कर्मकांडीय पंरपरा से एक अशुभ दिशा माना जाता है। इस पर एक पुराना लेख इसी ब्लाग पर है। सूरज दक्षिणायन होता है तो हम शुभ काम नहीं करते। जैसे ही उत्तरायण होता है हम मकर संक्रांति मनाने लगते हैं। लेकिन मुंबई और दिल्ली में दक्षिण की महत्ता उत्तर से भी अधिक है। दक्षिण मतलब स्टेटस। मतलब नया ब्राह्मण।
जब तक रिपोर्टर था तब तक तो लोगों को मेरे ग़ाज़ियाबादी होने से कोई खास दिक्कत नहीं थी। जब से एंकर हो गया हूं लोग मुझसे मेरा पता इस अंदाज़ में पूछते हैं कि जैसे मैं कहने ही वाला हूं कि जी ज़ोर बाग वाली कोठी में इनदिनों नहीं रहता । बहुत ज़्यादा बड़ी है। सैनिक फार्म में भी भीड़ भाड़ हो गई है। पंचशील अमीरों के पते में थोड़ा लापता पता है। मतलब ठीक है आप साउथ दिल्ली में है। वो बात नहीं । फ्रैंड्स कालोनी की लुक ओखला और तैमूर नगर के कारण ज़ोर बाग वाली नहीं है मगर महारानी बाग के कारण थोड़ा झांसा तो मिल ही जाता है। आप कहने को साउथ में है पर सेंट्रल की बात कुछ अलग ही होती है । मैं जी बस अब इन सब से तंग आकर अमृता शेरगिल मार्ग पर रहने लगा हूं। खुशवंत सिंह ने बहुत कहा कि बेटे रवीश तू इतना बड़ा स्टार है, टीवी में आता है, तू न सुजान सिंह पार्क में रहा कर। अब देख खान मार्केट से अमृता शेर गिल मार्ग थोड़ी दूर पर ही है न। सुजान सिंह पार्क बिल्कुल क्लोज। काश ऐसा कह पाता । मैं साउथ और सेंट्रल दिल्ली में रहने वालों पर हंस नहीं रहा। जिन्होंने अपनी कमाई और समय रहते निवेश कर घर बनाया है उन पर तंज नहीं है। पर उनके इस ब्राह्रणवादी पते से मुझे तकलीफ हो रही है। मुझे हिक़ारत से क्यों देखते हो भाई ।
तो कह रहा था कि लोग पूछने लगे हैं कि आप कहां रहते हैं। जैसे ही ग़ाज़ियाबाद बोलता हूं उनके चेहरे पर जो रेखाएं उभरती हैं उससे तो यही आवाज़ आती लगती है कि निकालो इसे यहां से। किसे बुला लिया। मैं भी भारी चंठ। बोल देता हूं जी, आनंद विहार के पास, गाज़ीपुर है न वो कचड़े का पहाड़,उसी के आसपास रहता हूं। मैं क्या करूं कि गाज़ियाबाद में रहता हूं। अगर मैं टीवी के कारण कुछ लोगों की नज़र में कुछ हो गया हूं तो ग़ाज़ियाबाद उसमें कैसे वैल्यू सब्सट्रैक्शन (वैल्यू एडिशन का विपरीत) कैसे कर देता है। एक माॅल में गया था। माॅल का मैनेजर आगे पीछे करने लगा। चलिये बाहर तक छोड़ आता हूं। मैं कहता रहा कि भाई मुझे घूमने दो। जब वो गेट पर आया तो मेरी दस साल पुरानी सेंट्रो देखकर निराश हो गया। जैसे इसे बेकार ही एतना भाव दे दिये। वैसे दफ्तर से मिली एक कार और है। रिक्शे पर चलता फिरता किसी को नज़र आता हूं तो लोग ऐसे देखते हैं जैसे लगता है एनडीटीवी ने दो साल से पैसे नहीं दिये बेचारे को।
कहने का मतलब है कि आपकी स्वाभाविकता आपके हाथ में नहीं रहती। प्राइम टाइम का एंकर न हो गया फालतू में बवाल सर पर आ गया है । तभी कहूं कि हमारे कई हमपेशा एंकर ऐसे टेढ़े क्यों चलते हैं। शायद वो लोगों की उठती गिरती नज़रों से थोड़े झुक से जाते होंगे। मुझे याद है हमारी एक हमपेशा एंकर ने कहा था कि मैं फ्रैड्स कालोनी रहती हूं । डी ब्लाक। फ्रेड्स कालोनी के बारे में थोड़ा आइडिया मुझे था। कुछ दोस्त वहां रहते हैं। जब बारीकी से पूछने लगा तो ओखला की एक कालोनी का नाम बताने लगीं। बड़ा दुख हुआ। आप अपनी असलीयत को लेकर इतने शर्मसार हैं तो जाने कितने झूठ रचते होंगे दिन भर। इसलिए जो लोग मुझे देख रहे हैं उनसे यही गुजारिश है कि हम लोग बाकी लोगों की तरह मामूली लोग होते हैं। स्टार तो बिल्कुल ही नहीं। हम भी कर्मचारी हैं । काम ही ऐसा है कि सौ पचास लोग पहचान लेते हैं। जैसे शहर के चौराहे पर कोई होर्डिंग टंगी होती है उसी तरह से हम टीवी में टंगे होते हैं। मैंने कई एंकरों की चाल देखी है । जैसे पावर ड्रेसिंग होती है वैसे ही पावर वाॅक होती है । ऐसे झटकते हैं जैसे अमित जी जा रहे हों । उनकी निगाहें हरदम नापती रहती हैं कि सामने से आ रहा पहचानता है कि नहीं । जैसे ही कोई पहचान लेता है उनके चेहरे पर राहत देखिये । और जब पहचानने वाला उन्हें पहचान कर दूसरे एंकर और चैनल का नाम लेता है तो उस एंकर के चेहरे पर आफ़त देखिये !
तो हज़रात मैं ग़ाज़ियाबाद में रहता हूं। मूल बात है कि औकात भी यही रहने की है। इसलिए सवाल मेरी पसंद का भी नहीं है। बाकी एंकरों का नहीं मालूम। आप उनसे पूछ लीजिएगा। लेकिन नाम सही लीजियेगा । बेचारों पर कुछ तो दया कीजिये ।
मोदी का भाषण-मोदी का राशन
बिना भाषण के राजनीति का राशन नहीं
चलता। लेकिन हाल के दिनों में नरेंद्र मोदी ने भाषण को कुछ इस तरह से महत्वपूर्ण
बना दिया है कि उनके कथनों की एक एक पंक्ति की समीक्षा होने लगती है। ये शुरूआत
संगठित रूप से मोदी के इंटरनेट पर मौजूद चंद समर्थकों ने ही की है। जैसे ही
नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी भाषण देते हैं एक किस्म का मैच छिड़ जाता है। जीताने
हराने की शैली में बातों की मीमांसा की जाने लगती है। हाल के दिनों में नरेंद्र
मोदी ने दिल्ली और कोलकाता में चार या पांच बार भाषण दिये हैं। वो जहां जाते हैं
गुजरात में अपने विकास कार्यों को लेकर भारत के बारे में एक सपना रचते हैं। देश के
स्तर पर स्वपन देखने की राजनीतिक प्रवृत्ति भौगोलिक खंडों के राष्ट्र राज्यों में
उदय होने के साथ चली आ रही है। शासक खुद को युगदृष्टा के रूप में पेश करना चाहता
है। न भी करे तो उसकी बात को इस नज़र से भी देखा ही जाता है। इसके लिए हर नेता
अपने पसंद से किसी कालखंड का चुनाव करता है और उसे गया गुज़रा या स्वर्णिम बताते
हुए तथ्यों और मिथकों को मिलाकर ऐसी तस्वीर खींचता है कि आपको अपना वर्तमान भी
अजनबी जैसा लगने लगता है।
नरेंद्र मोदी के भाषणों की शैली की
बहुत चर्चा होती है। सार्वजनिक जीवन में अच्छे वक्ता की शैली भी देखी जाती है।
लेकिन राजनीति का इतिहास बताता है कि सिर्फ शानदार शैली वाले नेताओं ने नहीं बल्कि
साधारण कद काठी और शैली वाले नेताओं ने भी गहरा प्रभाव डाला है। इसलिए शैली पर
ज़ोर देने से समस्या यह होती है कि लालू प्रसाद यादव की शैली याद आ जाती है। वो
अपनी शैली के कारण ही बिहार की सत्ता में पंद्रह साल काबिज़ रहे और नवीन पटनायक,
शीला दीक्षित या शिवराज सिंह चौहान अपनी भाषण शैली के साधारण होते
हुए भी जनता के बीच विकास के चुनावी पैमाने पर पसंद किये जाते रहे हैं। मनमोहन
सिंह की भाषण शैली तो राजनेता की लगती ही नहीं है। इन सबके बीच नरेंद्र मोदी एक
खास शैली का खाका बनाये रखते हुए मंच लूट ले जाते हैं। शैली में मीडिया और मंच के
नीचे मौजूद श्रोता की दिलचस्पी ज्यादा रहती है लेकिन नेता खासकर नरेंद्र मोदी जैसे
नेता को मालूम रहता है कि लोग उन्हें गौर से सुन रहे हैं इसलिए उनकी नज़र सिर्फ
शैली पर नहीं बातों पर भी है।
नरेंद्र मोदी के भाषणों में स्पष्टता
इसलिए है कि प्रशासन और उपलब्धियों का लंबा अनुभव है । वे भरोसे के साथ अपने काम
का प्रदर्शन करते हैं। भारत के बारे में क्या सोचते हैं वे खुलकर सामने रखते हैं।
तभी उनकी बातों की आलोचना और सराहना घनघोर तरीके से होती है। उनके हाल के चार पांच
भाषणों को बार बार पढ़ने के बाद यह लिख रहा हूं कि वे अपने पसंद का कालखंड चुनते
हैं और उनका महिमंडन करते हैं या धज्जियां उड़ा देते हैं। पिछले कई भाषणों में
उन्होंने कहा है कि गुजरात एक ऐसा प्रदेश है जहां किसानों को मिट्टी की जांच के
लिए हेल्थ कार्ड दिया गया है। निश्चित रूप से उन्हें सिर्फ गुजरात के बारे में बात
करने का हक है लेकिन यह जताने का भाव नहीं होना चाहिए कि हेल्थ कार्ड सिर्फ गुजरात
में दिया गया है। मिट्टी जांच के लिए हेल्थ कार्ड गुजरात के अलावा पंजाब, हरियाणा,कर्नाटक,उत्तर प्रदेश
बिहार और आंध्र प्रदेश में भी दिये गए हैं। जब वो गुजरात के पर्यटन सेक्टर में डबल
डिजिट ग्रोथ की बात करते हैं तो ऐसा लगता है कि गुजरात ने बड़ा बदलाव किया है। तुलनात्मक
रूप से किया होगा मगर २०११ के केंद्रीय आंकड़े के अनुसार आज भी मध्यप्रदेश में
घरेलु पर्यटक गुजरात से ज्यादा आते हैं। मध्यप्रदेश और बिहार ने भी पर्यटन के
क्षेत्र में डबल डिजिट ग्रोथ हासिल किया है। सबसे ज्यादा
यूपी और आंध्र प्रदेश में पंद्रह करोड़ लोग जाते हैं। गुजरात में दो करोड़ से कुछ
ज्यादा घरेलु पर्यटक गए हैं। सवाल है कि आप अपनी उपलब्धियों की पैकेजिंग कैसे करते
हैं। आंकड़ों का आधार क्या है। क्या हम इस तरह से नेताओं के भाषण को देखते समझते
हैं। यह सवाल खुद से पूछना चाहिए।
गौर से देखेंगे तो राहुल गांधी और
नरेंद्र मोदी की बातें कई जगहों पर मिलती जुलती लगती हैं। जैसे राहुल गांधी कहते
हैं कि एक अरब आवाज़ को सिस्टम में जगह देनी है। ऐसा सिस्टम बनाना है जिसमें
व्यक्ति की अहमियत न रहे और सिस्टम इस तरह से चले कि सबको न्याय मिले। नरेंद्र
मोदी भी फिक्की की महिला उद्योगपतियों से कहते हैं कि पचास फीसदी आबादी को आर्थिक
विकास की प्रक्रिया से जोड़ने के बारे में सोचना होगा। राहुल गांधी की तरह वे भी
गुजरात की औरतों की कामयाबी के किस्से चुनते हैं। इस ईमानदारी से स्वीकार करते हुए
कि इन किस्सों में गुजरात सरकार का कोई योगदान नहीं है वे बताने का प्रयास करते
हैं कि आम आदमी संभावनाओं के इंतज़ार में नहीं है बल्कि वो इस्तमाल करने लगा है।
ज़रूरत है तो एक सिस्टम बनाकर उसे धक्का देने की।
मोदी एक मामले में साहसिक नेता है।
पार्टी के भीतर ही इतने विरोध के बावजूद वो दिल्ली आने की सभी कोशिशों में कामयाब
हो जाते हैं। पार्टी के बाकी नेता जहां चुप हैं वहां वे खुलकर खुद को प्रोजेक्ट
करते हैं। प्रधानमंत्री का दावेदार नहीं कहते लेकिन तब तक वे चुप क्यों रहे। इसका
मतलब है कि वे सत्ता के लिए आतुर हैं। उन्होंने जो सोचा है उसे करने के लिए सत्ता
ही चाहिए ये प्रदर्शित करने में जरा भी संकोच नहीं करते हैं। मध्यप्रदेश के
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के हाल के बयान के संदर्भ में मोदी को देखा जाना
चाहिए। शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि अच्छे कामों को प्रचार की ज़रूरत नहीं है।
प्रधानमंत्री पद की बात करने से बीजेपी का मज़ाक उड़ रहा है। शिवराज सिंह चौहान से
पूछा गया कि वे ट्विटर पर आए हैं क्या उनके समर्थक भी अब प्रचार में जुट जायेंगे
तो शिवराज तुरंत कहते हैं कि मेरे समर्थक क्या होते हैं। जो भी समर्थक हैं वो
बीजेपी के हैं और मैं उनमें से एक हूं। शिवराज सिंह चौहान अटल बिहारी वाजपेयी और
लाल कृष्ण आडवाणी के प्रति अपने सम्मान को विनम्रता से ज़ाहिर करने में संकोच नहीं
करते लेकिन मोदी की शैली में मैं मैं और मेरा गुजरात ज्यादा प्रमुख हो जाता है। एक
ही पार्टी के दो प्रमुख नेताओं की शैली में इतना अंतर है।
फैसला जनता को करना है। उसके पास बहुत
सारे विकल्प हैं। मोदी खुद को एक विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं। खूब बोल रहे
हैं। दांव पर लगाने वाले को ही पता चलता है कि वो जीता या हारा। मगर राजनीति में
चुप रहकर काम करने वाले नेताओं की कामयाबी के किस्से अभी सुनाये नहीं गए हैं। ज़रा
इन्हें भी सुनने की तैयारी कीजिए। लोकसभा चुनावों के नजदीक आते ही हर भाषण दूसरे
पर भारी पड़ेगा। व्यक्तिवाद या विचारवाद इसकी लड़ाई नरेंद्र मोदी ने छेड़ दी है।
फैसला आना बाकी है।
(यह लेख आज के राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है)
हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना
हो मेरे दम से ही मेरे वतन की ज़ीनत
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत
ज़िंदगी हो मेरी परवान की सूरत यारब
इल्म की शम्मा को हो मुझसे मोहब्बत यारब
हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत करना
दर्दमंदों से ज़ईफ़ों से मोहब्बत करना
मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको
नेक जो राह हो उस रह पे चलाना मुझको
मालूम नहीं आज इस गाने को क्यों बार बार सुनता चला गया । आपको भी सुनना चाहिए । इन दिनों राहुल गांधी और नरेंद्र दामोदर मोदी अपने अपने भारत का सपना बेचने निकले हैं। दोनों के सपने ख्वाब कम कोरे भाषण ज़्यादा लगते हैं। ये कैसा ख़्वाब है जिसमें सब अपने अपने भारत के नाम पर तमाम सपनों को कुचल रहे हैं। इतनी शाब्दिक हिंसा के साथ कोई भारत का ख़्वाब कैसे देख सकता है। काबुलीवाला की तरह ये दोनों अभी कई बाज़ारों में निकलेंगे। इनके भाषणों में भारत का अतीत और उसके नायक विचित्र तरीके से आते हैं और इनके काम में सीनाज़ोरी के साथ भुला दिये जाते हैं। तुर्रा ये कि इनके भारत ने जैसे कुछ किया ही न हो। जैसे इन्हीं दो के आगमन का इंतज़ार है कुछ होने के लिए। एक ऐसे भारत की तस्वीर खींची जा रही है जहां हकीकत का ऐसा अतिरेक है कि आप चाहें भी तो यकीन नहीं कर सकते कि सचमुच हम किसी अतीत में अटके हुए वतन हैं। केंद्र से लेकर राज्यों के बीच कई सरकारों से गुज़रते हुए इस मुल्क ने काफी कुछ हासिल किया है। उसके बड़े ही गौरवक्षण हैं। भारत को दांव पर लगाकर अपने सत्ता स्वपनों को हासिल करने के लिए घुड़सवार छोड़ देने से भारत नहीं मिल जाता। बुद्ध को समझ लेने से आज का भारत नहीं मिल जाता। इनके भाषणों का भारत नारेबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं। सब स्लोगन है। कुछ रोचक है तो कुछ ताली कमाऊं हैं। दलीलों के अपने अपने गुट हैं। इन्हीं में जो जीतेगा दिल्ली से हुकूमत की सत्ता उसके हाथ में होगी। ये इतिहास की एक सामान्य घटना है जो लोकतंत्र के कारण हर पांच साल पर स्वत घट जाती है। लेकिन आप इनके भाषणों को सुनिये। मिलान कीजिए। देखिये कि सत्ता की भूख कितनी है और भारत के लिए त्याग कितना है। कैसे ये दोनों एक दूसरे के भाषणों के संदर्भों को उड़ा लेते हैं, उन्हें भावनात्मक रूप देकर अपने कार्यकर्ताओं के बीच ताली बजवा लेते हैं। यही दो दावेदार हैं जो निकले हैं आपके वोट के लिए। भारत के लिए कोई नहीं निकलता। सत्ता ही वो भारत है जिसे हर राजनीतिक दल हासिल करना चाहता है। आजकल दल नहीं उनके नेता हासिल करना चाहते हैं। राजनीति का एक दिलचस्प दौर शुरू हो चुका है। तल्ख़ियों और पटखनियों के बीच भारत एक सपने के रूप में आज भी वहीं टंगा है जहां से इस खूबसूरत प्राथर्ना की आवाज़ आ रही है।
ज़िंदगी शम्मा की सूरत हो खुदाया मेरी
लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी
मैंने ट्विटर फेसबुक अकाउंट बंद कर दिया है
बस यूं ही मन किया और ट्विटर फेसबुक बंद कर दिया। पहले भी नहीं सोचा न अब सोच रहा हूं। एक बार पहले भी ऐसा कर चुका हूं। कुछ मित्रों से पता चला कि मेरे ऐसा करने से कुछ फालतू लोगों को अफवाह टाइप बेचैनी हो रही है। वे सब बातें सच भी हों तो आप मेरी क्या मदद कर सकते हैं ज़रा इसका भी नुस्खा पेश कर दिया जाता। हद है। सोशल मीडिया न हो गया मोहल्ले के चबूतरे पर बैठे रिटायर्ड लोगों को जमावड़ा हो गया कि कौन कहां जा रहा है उस पर नज़र रखना ही काम हो गया। हम हैं कौन जो बंद करने से पहले प्रेस कांफ्रेंस करते। अच्छा हुआ मैंने ये सब बकवास पढ़ा नहीं। आपको कुछ भी कहना ठीक लगता है तो मौज लीजिए।
कितना लिखें और कितना बकें बस एक सीमा पार करते हुए कहने से थकान होने लगी। ऊब गया। खालीपन अवांट- बवांट लिखने के लिए बाध्य कर रहा था। चार पत्रकारों को दस हज़ार सहचरों के बीच सेलिब्रेटी गढ़ देने से कोई सेलिब्रेटी नहीं हो जाता। औकात बोध से बड़ा कोई बोध नहीं है और बकरी पाल लीजिए मगर मुगालता मत पालिये। मैंने देखा है कि चार आने के एंकरों को टेढ़ा होकर चलते हुए और सामने आते हुए लोगों को गेस करते हुए कि ये वाला पहचानेगा कि नहीं। पहचान लिया तो बस हां हां। ये सब बीमारी है। गनीमत है कि इन सबका शिकार नहीं हुआ। एक दुपहर मन किया कि चलते हैं इस दुनिया से। चले गए। बात खत्म।
जिस काम के पीछे कोई कारण नहीं उस पर कोई कहकहे लगाता तो कोई बात नहीं थी मगर कारणों का कयास। भारत के एक फालतू प्रधान देश भी है। हमारे पास सचमुच कोई काम नहीं बचा है। अब हम इंतज़ार कर रहे हैं हिन्दी के फटीचर पत्रकारों के बिग्रेड में से दो चार को पहले सेलिब्रेटी टाइप घोषित करो फिर चंद धूलधूसरित करने वाले किस्सों का पता लगाकर फलूदा निकाल दो। पूर्व में ऐसे सारे प्रयास भी बेकार गए हैं। आगे भी जायेंगे। हकीकत देखिये। किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ता। जिस पर आरोप लगता है उसी का अभिषेक हो जाता है। मूर्खों थोड़ा तो जागो। नहीं तो कोई बात नहीं ये शौक भी पूरा कर लीजिए। मतलब क्या कहें। चार आदमी न पहचान लिया कि एंकर भी अब लिखे जाने लायक हो गए। बहुत सही।
सारी अफवाहें सत्य हैं। तो ? ट्विटर फेसबुक एक सशक्त माध्यम है। उससे अलग हो जाने से मेरी राय नहीं बदली है। वहां सक्रिय नेताओं के भांड के बारे में पहले भी लिखता रहा हूं। वहीं लिखा है। अपने गांव खानदान में ऐसे लोगों को देखा है। जो कुछ नहीं कर पाये तो नेताओं को झोला उठाकर गांव में भांड बन जाते थे। ठीक है। सपोर्ट करने के नाम पर महत्वपूर्ण होने की बीमारी असलियत और वर्चुअल दोनों जगहों पर बराबर है। जो कार्यकर्ता है उसकी सक्रियता तो समझ आती है कि उसे अपना जीवन किसी पार्टी के लिए देना है। उसकी बातों का सम्मान भी करता हूं। इसलिए कि राजनीति को गंभीरता से बरतने की आदत है। लेकिन जो भांड हैं? नेता लोग अलग अलग आइडी से अपना भांड बना रहे हैं। आईटी सेल को तभी मैं भांड सेल कहता हूं। भांडगीरी को ही अंग्रेजी में प्रोपैगैंडा कहते हैं।
दूसरी बात कि सोशल मीडिया का मीडिया पर क्या असर पड़ा इस पर भी ट्विटर की टाइम लाइन पर बहस कराता रहता हूं। अलग अलग किस्म की राय आती रहती है। मैं इस टाइप का व्यक्ति तो हूं नहीं कि अपना शो बेचूं। कहां लुंगी खरीदी उसकी जानकारी दूं और कहां तौलिया पसारा वो जगह भी बता दूं। कुछ निजता तो फिर भी चाहिए न। वर्ना आईडी के साथ पासवर्ड भी सार्वजनिक कर दीजिए। इस हल्ला हंगामा से निकलने का अधिकार है कि नहीं है। मैं भी टाइमलाइन पर मौजूद कुछ संजीदा और अच्छे मित्रों दर्शकों को मिस करता हूं लेकिन क्या इसके बाद भी मुझे एकांत नहीं मिलना चाहिए। फैनलोलुपता कभी रही नहीं। सब अपने ही हैं। किसी का दिल दुखाने के लिए तो नहीं गया हूं। अपना दिल बहलाने के लिए निकल आया हूं। आसक्ति ही दुख का कारण है। गए हैं तो गए हैं यार । सामान्य बने रहना सीखीये और दूसरे को भी सामान्य बने रहने दीजिए।
जो लोग मेरा फेक अकाउंट या मेरी तस्वीर लगाकर ट्विट कर रहे हैं उनसे कोई शिकायत नहीं है। ये बीमार लोग होते हैं। इसी बहाने इन्हें जीने का कुछ बहाना मिल जाता है। ऐसे लोगों से कोई शिकायत मत रखियेगा। इन्हें आपकी मदद की ज़रूरत है। सोचिये इतने काम में से फर्जी होने का काम चुनने वाला आपकी दया का पात्र है कि नहीं। आप इतने क्रूर कैसे हो सकते हैं।
चश्मे बद्दूर
कुछ फिल्में पैसा वसूल होती हैं। डेविड धवन को फालतू फिल्म बनाने के फन में कोई मात नहीं दे सकता। वे फालतू फिल्म भी इतनी दिलचस्प बना देते हैं कि स्पाइक हेयर कट वाली नौजवान पीढ़ी सिनेमा हाल में गर्लफ्रैंड की बाहों से निकल कर कभी कभी एकाध सीन देखकर हंस हंस कर लोट पोट होती रहती है। कहानी कुछ भी नहीं पर वही हमारे आपके जीवन में कुछ होने और कुछ न होने पाने और कुछ हो जाने के बाद न होते रहने की जद्दोजहद है। डेविड की यह फिल्म सिनेमा के संसार ने जो मानस तैयार किया है उसके भीतर उन्हीं सिनेमा के किस्सों से किस्सा रचती है। यह भी एक ज़माना है जब आप सिनेमा के लिए सिनेमा से ही कहानी प्रसंग और गाने ढूंढ कर लाते हैं। चश्मे बद्दूर का नायक विश्वजीत और जॉय मुखर्जी का हाइब्रीड परंतु खूबसूरत है। उसकी आवाज़ में कयामत से कयामत तक वाले आमिर की तरह कशिश और मासूमियत तो नहीं है पर डब की हुई बनावटी आवाज़ की शक्ल में भी नायक नई हवा की तरह लगता है। नायिका इमरान खान की पहली फिल्म जाने तू जाने न की जेनेलिया की तरह लगती है। कमसिन नायिका ने अच्छा अभिनय किया है। कुछ है नहीं उसके जीवन में जिससे उसका अभिनय का कैनवस बड़ा होता । फिर भी अपने साधारणपन और खालीपन के बीच वो बाप से बगावत करने के हास्यास्पद सीन के बाद काफी कुछ कर जाती है। डेविड ने सिनेमा के कई दौर और लोकेशन को अपनी कहानी में पिरो दिया है। छात्रों का कमरा उसी संसार का एक नमूना है। सीन और प्लाट नितांत साधारण हैं पर किरदारों ने धक्का मार दिया है। पुरानी चश्मे बद्दूर का अतीत भी मत ढूंढने जाइयेगा। चमको पावडर होने और फारुख शेख का ज़िक्र होने के बाद भी दीप्ति नवल वाली बात नहीं मगर ये जोड़ी भी उस जोड़ी से कम नहीं है।
चुटकुलों और मुहावरों को फिर से परिभाषित करते हुए डेविड एक की जगह दो या दो की जगह तीन लगाकर मुहावरों में नई जान डाल देते हैं। ऋषि कपूर अपने इस दौर में खूब जमते हैं। जैसे कोई अपनी कहानी में बूढ़ा और परिपक्व हो गया हो। लिलेट की प्रतिभा का हिन्दी सिनेमा ने कम ही इस्तमाल किया। पता नहीं क्यों लिलेट हमेशा हाशिये के रोल में रहती हैं। आवाज़ में जो ख़राश है और खूबसूरती कुछ इस तरह कि उन्हें जूली जैसी फिल्मों की सुलोचना बनते हुए दुख होता है। ऋषि कपूर आज के टाइम के डेविड हैं। गोवा का लोकेशन बैंकाक जैसा लगता है। डेविड ने फिल्मी सपनों के सारे परिदृश्यों और संवादों की जो पिटाई की है उससे पैसा वसूल हो जाता है। फिल्म देख सकते हैं । समझने के लिए कि क्या बात है कि जिस सिनमा हाल में ये फिल्म देख रहा था उसमें ज्यादातर किरदारों की उम्र के ही नौजवान थे। वे लोटपोट हो रहे थे। रद्दी मुहावरों और हास्यास्पद हिन्दी वाला किरदार हिन्दी सिनेमा कई बार आया है। शराबी में मीता बच्चन साहब नत्थू राम के शर की वज़न ही ठीक करते रह जाते हैं। इस फिल्म को देख सकते हैं। बस पैसा वसूल के लिए। किसी सामाजिक उद्देश्य और सिनेमा में क्रांतिकारी मोड़ को ढूंढने के लिए नहीं।