हिन्दी में समाचार

अंतिका प्रकाशन से आई नई किताब का नाम है जिसे लिखा है जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के शोधार्थी और पत्रकार अरविंद दास ने । हिन्दी में मीडिया पर लिखने वाले लेखकों को मैं(वैसे मैं हूं ही कौन लेकिन फिर भी) दो श्रेणी में बांटता हूं। पहला कामचोर लेखकों की जमात जो किसी का इंटरव्यू,स्क्रिप्ट और कतरनों को लेकर मीडिया और सरोकार,एंकरिंग और रिपोर्टिंग कैसे करें टाइप के शीर्षकों से किताब लिख मारता है। कोर्स में लगवा कर मीडिया की फूफागिरी प्राप्त कर लेता है। दूसरी जमात में वे लेखक हैं जो परिश्रम और टेक्निक से किताबें लिख रहे हैं। गंभीरता के साथ अपने निष्कर्षों को आलोचना और सराहना के लिए पेश कर रहे हैं। विनित, मिहिर और अब अरविंद दास की किताब है। हाल ही में एक और किताब आई है अभय और पंकज की दर दर गंगे जिसमें हिन्दी जगत टाइप की सड़ांध से निकल कर ज्ञानोत्पादन करने का प्रयास दिखता है। यह एक अच्छा संकेत हैं। आज इनकी किताबों में भले कमियां हो लेकिन आने वाले समय में ये अगर इसी तरह से लिखते रहे तो हिन्दी में कुछ ठोस कर पायेंगे । आप अरविंद दास की इस नई किताब को पढ़ते हुए कम से कम इस संतोष से गुज़रते हैं कि कुछ पता चल रहा है। बीते दशकों में हिन्दी पत्रकारिता के एक बड़े अखबार नवभारत टाइम्स के बहाने दिखा रहे हैं कि कैसे चीज़ें बदल रही हैं। राबिन जेफ्री ने दिखाया है कि कैसे भाषाई अखबारों की प्रसार संख्या बढ़ रही है अरविंद इस विषय को नवभारत टाइम्स के सैंपल से देख रहे हैं यह समझने के लिए कि प्रसार के बीच सामग्री कटेंट में क्या बदलाव आ रहा है।

कम शब्दों और तमाम उद्धरणों के सहारे भूमंडलीकरण की एक संक्षिप्त समझ पेश करते हुए अरविंद अपने मूल विषय पर आ जाते हैं कि इसका प्रभाव नवभारत टाइम्स की खबरों के चयन, प्राथमिकता,भाषा और प्रस्तुति वगैरह पर क्या पड़ा। अव्वल तो अरविंद की निगाह से एक बात रह गई कि इन बदलावों में शामिल नवभारत टाइम्स के पत्रकारों की भूमंडलीयता क्या थी। मतलब उनका आउटलुक और चिन्तन जगत से है।  वे समाज के किस तबके से आकर बिना विदेश गए(धारणाधारित) कैसे एक ही साथ लोकल और ग्लोबल हो रहे थे। सुधीश पचौरी का संदर्भ है जिसमें वे कहते हैं कि हिन्दी के अखबारों में एक साथ लोकल और ग्लोबल सूचनाओं का आधिक्य बढ़ा है। वे सूचनाएं क्या हैं। हैरतअंगेज़ खबरों की ग्लोबल सूचनाएं या वेनेज़ुएला में आए बदलाव की विस्तृत समझ वाली सूचनाएं मुझे नहीं मालूम। फिर भी झांसी से आया कोई पत्रकार डेस्क पर एजेंसी और गार्डियन टाइम्स और बीच बीच में बीबीसी हिन्दी सेवा की साइट देखकर झटाक से ग्लोबल खबरों को ऐसे लिखने लगता है जैसे औरैया या मेरठ की घटनाओं पर लिख रहा हो यह कम बड़ी बात नहीं है। ग्लोबल जगत में गए बिना हम ग्लोबल हो सकते हैं। यही एक समस्या है आप किताब की समीक्षा लिखने बैठते हैं और अपनी बात और सवालों में भटक जाते हैं। शायद अच्छी किताब का यही काम होता होगा।


खैर हिन्दी के समाचार ग्लोबल और लोकल हो गए। मनोरंजन की खबरों की प्रमुखता बढ़ी बल्कि खबरें मनोरंजन की शैली में लिखी जाने लगी। अरविंद के सामने अस्सी के दशक के अखबार हैं और इक्कीसवीं सदी के कुछ साल के अखबार हैं। वे अपने सैंपल के बारे में ईमानदारी से बता देते हैं और कह देते हैं कि इसी सीमा के तहत मैं इन बदलावों को देख रहा हूं। उनकी एक पंक्ति पर मेरी निगाह बार बार टिकती रही कि अस्सी के दशक में हिन्दी के जो अखबार निस्तेज थे वे भूमंडलीय संचार तकनीक विशेष रूप से कंप्यूटर के इस्तमेमाल की वजह से वर्तमान में सर्वांग सुन्दर हैं। निस्तेज। क्या इस लेखक ने सिर्फ साज सज्जा के आधार पर लिखा होगा। प्रसार संख्या और सर्वांग सुन्दरता हासिल होने के बाद क्या प्रभाव में भी हिन्दी के अखबारों का निस्तेज तेज में बदला है। इस पर आप लोग टिप्पणी करें तो अच्छा होगा। हिन्दी के अखबारों का असर है कि नहीं। है तो कहां है और नहीं है तो कहां कहां नहीं हैं।


भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में अखबार अब राजनीति को आधुनिक मानव की नियति और नियंता नहीं मानते हैं। महानगरों में अखबारों के माध्यम से बनने वाली हिंदी की सार्वजनिक दुनिया में राजनीतिक खबरों और बहस-मुबाहिसा के बदले मनोरंजन का तत्व ज्यादा हावी है। दूसरे शब्दों में अखबार यथास्थिति को बरकरार रखने में राज्य और सत्ता के सहयोगी हैं यह अरविंद के शब्द हैं जिनका एक निष्कर्ष है कि १९८६ में राजनीतिक खबरों का महत्व था जो २००५ तक आते आते राजनीति से ज्यादा अर्थतंत्र और खेल की खबरों को तरजीह दी जाने लगी। अरविंद ने साफ किया है कि उन्होंने अपने सैंपल में उन घटनाओं को शामिल नहीं किया है जिनके कारण लोग ज्यादा खबरें पढ़ने लगते हैं जैसे बाबरी मस्जिद का ध्वंस या किसी प्रधानमंत्री का इस्तीफा वगैरह। वे सामान्य काल को अपना आधार बनाकर लिख रहे हैं।
अब अरविंद भी उसी दिक्कत में फंसते हैं जिससे निकलने के लिए वे राबिन जेफ्री की सीमाओं को चिन्हित करते हैं। सुर्खियों के सैंपल से कंटेंट का सैंपल नहीं मिलता। किस तरह की राजनीतिक खबरें छपा करती थीं और अब जो छप रही हैं उसकी भाषा और तेवर कैसे हैं। अस्सी के दशक का राजनीतिक उथल पुथल और २००५ के आस पास का राजनीतिक दौर अलग है। अब राजनीति खासकर दिल्ली की राजनीति आर्थिक नीतियों से चल रही है। इसलिए लेखक को आगे चलकर आर्थिक खबरों के राजनीतिक टोन को भी देखना चाहिए। नब्बे के दशक के बाद राजनीतिक अस्थिरता कम हुई है। चुन कर आने वाली सरकारों का प्रतिशत बढ़ा है। प्रसार संख्या के साथ साथ वोटों का प्रतिशत बढ़ रहा है। विकास एक मंत्र की तरह पेश किया जाने लगा है। 

क्या इस लिहाज़ से राजनीतिक चेतना या लोकतंत्र में अखबारों की भूमिका को देखा जाना चाहिए था? मुझे नहीं मालूम, मैं सिर्फ अरविंद के दिलचस्प निष्कर्ष के साथ अपना एक सवाल जोड़ रहा हूं जिसमें वे कहते हैं कि आधुनिक लोकतंत्र में अखबार राजनीतिक खबरों को नियंता नहीं मानते हैं। आर्थिक चेतना,उपभोग के सवाल राजनीति के मुद्दे बनते हैं। कब टीवी सस्ता करना है और बाइक के दाम बढ़ाने हैं ये भले ही आर्थिक और उपभोग के फैसले लगें लेकिन इनके पीछे राजनीतिक चालें भी होती होंगी। मध्यमवर्ग को लुभाने वाली खबरों के तहत ऐसी सूचनाएं अपना काम करती होगीं। क्योंकि लेखक खुद पेज ७८ पर ज्यां ब्रौद्रिला से सहमत होते कहते हैं कि मध्य वर्ग की लालसा की पूर्ति के लिए कि हिन्दी अखबारों के सहारे ही भूमंडलीकरण ने हिन्दी प्रदेश के महानगरों,कस्बों और गावों में अपना पांव फैलाया है। तो भूमंडलीकरण ने मीडिया के ज़रिये अपना पांव फैलाया या इस क्रम में मीडिया को भी फैला दिया। यह निष्कर्ष कुरेदता है। हिन्दी प्रदेश के महानगर? दिल्ली या मुंबई या लखनऊ? महानगरों का स्पेस जो चलाता है वो किस प्रदेश से आता है हिन्दी से या अंग्रेजी से। नवभारत टाइम्स अंग्रेजी की नकल में चल रहा है या अपने रास्ते किसी स्वतंत्र चेतना का निर्माण कर रहा है। क्या यह सही नहीं है कि हिन्दी प्रदेशों से चुन कर आए दलों के गठबंधन से बनी और टिकी सरकारों के आर्थिक फैसलों से भूमंडलीकरण आया और उन्हीं से फैला जब मुलायम मायावती नीतीश नरेंद्र मोदी शिवराज सिंह चौहान और रमण सिंह जैसे अंग्रेजी न बोलने वाले नेताओं ने विकास और जीडीपी को राजनीतिक स्लोगन में बदला या किन्ही और कारकों से।


मैंने कोई अस्सी पन्ने पढ़े हैं। चूंकि लेखक ने ही कहा है कि मेरी किताब की बखिया उधेड़ दीजिए लेकिन किताब बखिया उधेड़ने वाली नहीं है। मैंने समीक्षा कम अपने उन सवालों को ज्यादा जोड़ दिया है जिसका जवाब मैं ढूंढ रह हूं। कुछ तो इम्प्रैस करूंगा न भाई। यहां तो कितने लिलपड़ाक भाव भंगिमा धर कर हिन्दी जगत के विचारक बने घूम रहे हैं। मैं काहे अलग रहूं किसी से। तो मित्रों यह किताब हिन्दी पत्रकारिता में दिलचस्पी रखने वालों के इसलिए काम आएगी क्योंकि लेखक ने गट फीलिंग के आधार पर लिखने से बचने का प्रयास किया है। मुझे पसंद आई है और पढ़ते वक्त मेरा टाइम खराब नहीं हुआ है। अरविंद को एक सलाह है। जब किताब लिखें तो किसी का भी अलग से इंटरव्यू न छापें। उसे किताब का ही हिस्सा बनायें। इसी शनिवार शाम को आई आई सी में इसका लोकार्पण करण थापर कर रहे हैं।

11 comments:

  1. अरविन्द दास जैसे ओरिजिनल लेखक की बहुत जरुरत है हिंदी को.

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  2. हिंदी में समाचार और अरविन्द दास के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए उनका ब्लॉग देखें :
    http://arvinddas.blogspot.in/

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  3. Hi Raveesh,

    I cant type Hindi from my laptop.
    I am following your Hindi blog since long. Reading you gives me immense pleasure. You give proper flow of words to my thoughts that releases all the pressure of soaring imotions and thoughts. I need to / have to read your blog bcoz this is exactly what I want to speak but I find myself un-able to streamline my thinking in words. So great work.....just to inform you that NBT blogger Mr Sanjay Khati (Jindagi Nama) and Mr Prasoon Joshi also have the same effect on me. Such a fantastic control over language Mr Khati has....and nobody need to say anything about Mr Prasoon Joshi's command over language.
    thanks a lot for writing.

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  4. I cant type Hindi from my laptop.
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    thanks a lot for writing.

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  5. मजा तो गहरे उतरने में ही है।

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  6. रवीश,अगर अखबारी दृष्टी से मुंबई और दिल्ली के अंतर को देखा जाए तो मुख्य अंतर यही है कि मुंबई में हिंदी का एक भी अख़बार ठीक-ठाक नहीं है।

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  7. Ravishji aap ka bhi to confution ya to kah lo dual standard :p jaahir ho raha hai kya?:)kya?:)ek taraf aap kah dete ho-ki-hindi patrakarita nistej hai aur dusri aur kahte ho-hindiwale symulteniously local+globle both hai:)hows that?:-/ vaise sahi bhi to ho aap:)cut-peaste ki value collage jitni hi hogina?innovation is unvaluable:)samjhe?:)hahaha

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  8. A thoughtful review of Arvind Das’s book. I think his choice of two periods—or eras—for comparison seems apt because so much has changed in the news media in the last few decades. Although my knowledge of this subject is very limited, I think one can attribute the rise in the importance of economic news to an increasingly globalized world. Television in the 1980s seemed young, if not entirely new. Today, it is difficult to imagine even a remote village that does not have a few households with a TV of their own. We have come a long way in terms of the expansion of the news media in the country. Even so, we have a long distance ahead. Generally speaking, political news in the country is still presented more as a spectacle, in which politicians appear on the news media to present their point of view and the audiences (the public) watch the presentation with a range of emotions. On the parts of both, there is more weight-throwing, venting, and less dispassionate, honest analyzing of issues. The government still seems “shut off” to the news media.

    For example, I have seldom seen reporters reporting from inside the parliament or legislative assemblies. It’s almost as if the government wants to claim “privacy” for its own house, howsoever absurd this notion seems (given that the very premise of a democratic government is that it belongs to people). As a rule, our news media is too respectful of politicians. Respecting everyone is good, and certainly politicians deserve our respect. But respecting them too much crosses a line. After all, the media is a watchdog in a democracy and has to ask tough, uncomfortable questions (if they don’t, who will?). Anyway, I’m getting lost in the trees here while making my point, which is that political journalism in India needs to become more analytical and bold. We need many more writers than there are currently. Over the years, some among our writing journalists have either lost their former sharpness or crossed lines of journalistic objectivity. We need more professionalization in the news media. I’m not sure how many Indian universities offer graduate programs in journalism, but we need to have many, many more programs. –
    Anish Dave

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  9. barka likhaar banne ke fera me hain kya bhaiya?

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  10. 'लिलपड़ाक' Congrats for using this word to great effect.

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