सिनेमन
1) हीरो फिल्म सुपरहिट हो गई थी। शहर के सारे लपाड़े लौंडों ने पुलिस अफसरों की बेटियों को अपना गर्लफ्रैंड समझना शुरू कर दिया था। किसी भी दर्ज़ी के पास जाइये वो पीले रंग की कमीज़ सीलने लगा था। ब्लैक पतलून और एल्लो शर्ट। सुभाष घई सत्यजीत रे जैसे लगने लगे थे। मूर्खता की उम्र में मस्ती का अपना चार्म था। मीनाषी शेषाद्री भूले नहीं भूलती थी। दीवानों में न कोई अमीर होता है न ग़रीब होता है...किसी किसी को ये प्यार नसीब होता है...मोहल्ले के लौंडे लोफर को किसी ने पहली बार दिल से जानू पुकारा था। जैकी का अपना अतीत मिथक में बदल गया था. वो शायद मुंबई का लफुआ था जो हीरो बना था। उसे भी नहीं मालूम कि हिन्दुस्तान भर के लफुआ आशावाद के शिकार हो गए थे। (सिनेमन सीरीज़- मन पर सिनेमा का असर-सिनेमन,समझी जानेमन)
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2)दोस्तों मेरी ये ज़िंदगी गीतों की अमानत है। मैं इसीलिए पैदा हुआ हूं। कई बार स्टेटस पर डिस्को डांसर की यह लाइन लिख चुका हूं। पता नहीं क्यों जब भी सुनता हूं कुछ हो जाता है। आप भी सोचते होंगे कि जानकीपुल पर संजीव के लेख पर पगला जाने के बीच मुझ पर डिस्को डांसर का दौरा कैसे चढ़ जाता है। पर प्राइम टाइम भी तो करना है। नौकरी जीवन का सत्य और समझौता हर नौकरी की शर्त। मुझे सचमुच अब बाबाओं के शो की एंकरिंग करने की तलब हो रही है। वो सब करने का मन कर रहा है जिसकी आलोचना करता रहा हूं। बस डिस्को डांसर का गाना एक बार और सुन लेने दीजिए। क्या करें मुझे रेणु को पढ़ने से ज्यादा सुख इसी में मिलता है। आप करते रहिए विवेचना। अरी ओ सुलोचना.....लोग कहते हैं मैं तब भी गाता था...जब बोल पाता नहीं था....
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3)कौन सी फिल्म हिट हुई या गाना हिट हुआ ये हम बाक्स आफिस से नहीं जानते थे। छठ और दशहरा सरस्वती पूजा में जो गीत सबसे ज्यादा बजा वही हिट। यही हमारा पिपुल्स मीटर होता था। कामचोर फिल्म का वो गाना..तुमसे बढ़कर दुनिया में न देखा कोई और...ज़ुबा पर आज दिल की....उस उम्र में जब किसी को किसी से बढ़कर नहीं देखा था तब भी ये गाना खूबसूरत लगता था...। पूजा के पंडालों के बैनरों पर नाम का छपना और क्लब बनाने का सपना अधूरा रह गया। रेडियो और टेप रिकार्डर पोपुलर होने लगा था फिर भी गाना दूर कहीं से आती आवाज़ से ही सुनना होता था। किसी और के मोहल्ले में, किसी और के पंडाल में लगे लाउडस्पीकर को भी नहीं मालूम था कि कोई इन गानों से अपनी यादें बना रहा है। लाउडस्पीकर बनाम लाउडस्पीकर हो जाता। गाने एक दूसरे से टकराने लगते। एक तरफ से आवाज़ आती..तुम्हें अपना साथी बनाने से पहले..मेरी जा मुझको बहुत सोचना है....तो दूसरी तरफ से आवाज़ आती...गोरी का साजन...साजन की गोरी...लो जी शुरू हो गई...लव स्टोरी..हे...घचाक...साइकिल खड्डे में। चक्का पंचर। चरनामृत पीकर बाल में पोछा और हाथ फैलाकर बुनिया और केला मांगा। कान वहीं टिका रहा। लाउडस्पीकरवा पर।
(एक ड्राईवर की आत्मकथा-लप्रेक)
कार चलाने का मतलब ये नहीं कि हम सिर्फ सफ़र पूरा करते हैं। वैसे भी हमारा सफ़र तो होता नहीं। वो तो मालिक का पूरा होता है। हम तो बस एक होटल से दूसरे ढाबे के बीच की बस्तियों को गिनते चले जाते हैं। मैंने इतनी मंज़िलें तय की हैं लेकिन एक भी मेरी मंज़िल नहीं थी। किशोर से लेकर सुशीला रमण तक के गाने सुने हैं लेकिन एक भी गाना मेरी कल्पनाओं में नहीं बजता था। बीड़ी और माचिस सीट के नीचे दबी दबी सिकुड़ जाती थी। बगल की सीट पर दैनिक जागरण का टुकड़ा जिस देश की खबर बताता था वो तो कब का पीछे छूट चुका होता था। पीछे की सीट पर बैठे दोनों एक दूसरे को निहारते, मुस्कुराते और कभी कभी छू लेते थे। बीच बीच में अंकल चिप्स के टुकड़ें खाने लगते,जिसकी गंध मेरे पेट में उमड़ पैदा कर देती थी। जिसे शांत करने के लिए कपड़े में लिपटे कोक के बोतल को सीट के नीचे से निकालता और कार चलाते चलाते पीने लगता। सिहरन सी होने लगती थी। कुछ कुछ जलन भी। मुझे भी समझ नहीं आया कि दोनों जब नींद में मदहोश हो जाते थे तो मैं बैक मिरर देखकर कार क्यों चलाने लगता था। पीछे की सीट और आगे की सीट में कितना फर्क हो जाता है। कार में हम ड्राईवर साहब होते हैं मगर सफ़र उसका होता है जो मालिक होता है। हमारे पास मालिकों की पूरी सीडी है साहब जी। कैसे नहीं होगी। सत्तर लाख की कार में आगे की सीट पर एक ग़रीब जो बैठा होता था। वो उस सफर और मंज़िल को समझने के लिए मालिक की बातों को सुनता रहता है,उसे हैरत से देखता रहता है कि एक कार के भीतर दो तरह के लोग कैसे हो सकते हैं। मैं दो भारत की बात नहीं कर रहा।
लप्रेक-लव इन कोलकाता- इन द टाइम आफ ममता
बेहाला में कहानी देखकर लोकल में बैठ तो गए मगर हावड़ा तक दोनों के भीतर कहानी चलती रही। ट्रेन की खिड़की से तृणमूल और सीपीएम के झंडे अब भी नज़र आ रहे थे। पाब्लो ने बेला को खूब समझाया। पोलिटिकल डिफारेंस और पार्सनल डिफारेंस के बाद भी प्यार होता है। बेला ने चुप्पी तोड़ी। कब तक हम बेहाला से गड़ियाहाट का सफर तय करेंगे। मैं थक गई हूं। हावड़ा से एस्प्लानेड, वहां से गड़ियाहाट। रोज़ की तरह आज भी एस्प्लानेड पहुंच गए दोनों। ममता के काफिले के लिए रास्ते खाली हो गए थे। सायरन से सिहर कर बेलो बोली। दीदी देख लेगी पाब्लो तू भाग यहां से। ऐ बेला, आमी पाब्लो। इंटरनेशनल कबि पाब्लो नेरूदा। भूले गेछो तुमी। भय पाच्छी न। दोनों की लड़ाई तृणमूल बनाम सीपीएम में बदल गई थी।
(2)
स्मार्ट फोन पर आधी रात पाब्लो का ईमेल आ गया। बेला थरथराने लगी। पागल है। कोबी तो हुआ नहीं नेरूदा के नाम पर मरवा देगा। तृणमूल के वर्कर से दिल लगाता है और ईमेल भी करता है। रिप्लाई न आने पर पाब्लो ईमेल पर ईमेल भेजा रहा था। बेला इनबाक्स से डिलिट करती फिर डिलिट बाक्स से डिलिट करती। तभी साइबेर सेल से बिकास का फोन आने लगा। बेला कांपने लगी। साल्ट लेक के पेड़ों पर चिड़ियों ने शोर मचा दी। बेला घर से निकल भाग...ने लगी। स्मार्ट फोन बजता रहा। पाब्लो का नाम फ्लैश होने लगा। तू पागल है पाब्लो। ईमेल क्यों भेजा। तू भाग क्यों रही है बेला। मैं स्मार्ट फोन को साल्ट लेक में फेंकने जा रही हूं। ईमेल पकड़ ली गई तो। बेला...तुमी जानो न...ईमेल छोड़ कर कोई नहीं भाग सकता। ईमेल से कोई नहीं भाग सकता। तो पाब्लो तुई भाग न।
(3)
प्रियो पाब्लो,अमिनिया की बिरयानी की तरह तुम्हारी याद आती है। मैंने सियासत और इश्क़ के इम्तहान में सियासत चुन लिया है। बिरयानी की जब भी महक आती है, पाब्लो तू याद तो आता है मगर चौंतीस साल के बाम संत्रास की याद में मैं दीदी सी हो जाती हूं। बदल की पोलिटिक्स,अदल-बदल से नहीं हो सकती। पाब्लो हमारा प्यार पंजाबी ढाबा के चिकन भर्ते की तरह हो गया है। तू याद तो आता है लेकिन साइबर सेल का बिस्सास साये की तरह पीछा करता है। हम पार्टी तो नहीं बदल सकते, प्यार भी नहीं बदल सकते? मुड़ी भाजा सी हालत हो गई है मेरी। पाब्लो तू प्यार चाहता है या पार्टी। मैं तुझसे नहीं खुद से पूछ रही हूं। क्या चाहती हूं? प्यार या पार्टी?
(2)
स्मार्ट फोन पर आधी रात पाब्लो का ईमेल आ गया। बेला थरथराने लगी। पागल है। कोबी तो हुआ नहीं नेरूदा के नाम पर मरवा देगा। तृणमूल के वर्कर से दिल लगाता है और ईमेल भी करता है। रिप्लाई न आने पर पाब्लो ईमेल पर ईमेल भेजा रहा था। बेला इनबाक्स से डिलिट करती फिर डिलिट बाक्स से डिलिट करती। तभी साइबेर सेल से बिकास का फोन आने लगा। बेला कांपने लगी। साल्ट लेक के पेड़ों पर चिड़ियों ने शोर मचा दी। बेला घर से निकल भाग...ने लगी। स्मार्ट फोन बजता रहा। पाब्लो का नाम फ्लैश होने लगा। तू पागल है पाब्लो। ईमेल क्यों भेजा। तू भाग क्यों रही है बेला। मैं स्मार्ट फोन को साल्ट लेक में फेंकने जा रही हूं। ईमेल पकड़ ली गई तो। बेला...तुमी जानो न...ईमेल छोड़ कर कोई नहीं भाग सकता। ईमेल से कोई नहीं भाग सकता। तो पाब्लो तुई भाग न।
(3)
प्रियो पाब्लो,अमिनिया की बिरयानी की तरह तुम्हारी याद आती है। मैंने सियासत और इश्क़ के इम्तहान में सियासत चुन लिया है। बिरयानी की जब भी महक आती है, पाब्लो तू याद तो आता है मगर चौंतीस साल के बाम संत्रास की याद में मैं दीदी सी हो जाती हूं। बदल की पोलिटिक्स,अदल-बदल से नहीं हो सकती। पाब्लो हमारा प्यार पंजाबी ढाबा के चिकन भर्ते की तरह हो गया है। तू याद तो आता है लेकिन साइबर सेल का बिस्सास साये की तरह पीछा करता है। हम पार्टी तो नहीं बदल सकते, प्यार भी नहीं बदल सकते? मुड़ी भाजा सी हालत हो गई है मेरी। पाब्लो तू प्यार चाहता है या पार्टी। मैं तुझसे नहीं खुद से पूछ रही हूं। क्या चाहती हूं? प्यार या पार्टी?
क्या टीवी ट्वीटर हो गया है?
मुझे ऐसा क्यों लगता है कि टीवी ट्वीटर हो गया है। जैसे आप ट्वीटर में करते हैं उसी तरह से टीवी में होने लगा है। टीवी के फार्मेट को देखें। ट्वीटर के फारमेट को देखें। ट्वीटर में एक सौ चालीस करैक्टर का बक्सा बना होता है तो टीवी में भी वक्ता को एक बक्से में डाला जाता है। ट्वीटर में कोई वक्ता एक से अधिक पहचान के साथ आपको फॉलो करता है। टीवी में भी यही होता है। कई वक्ता हैं जो एक से अनेक मुद्दों पर अलग-अलग पहचान के साथ बोलने आते हैं। मसलन आप एम सी डी के चुनावों का विश्लेषण कर सकते हैं। आप विधानसभा चुनावों का करते हुए आरक्षण के विरोध के मसले पर बोल सकते हैं। फिर आप गांधीवाद पर लंबा आख्यान पैदा करने लगते हैं। कहीं से कोई भी कुछ भी बोल रहा है। बोल देता है। वक्ता की पहचान ट्वीटर के अलग-अलग अकाउंट की तरह है। जिस तरह से ट्वीटर में कोई भी कहीं से फॉलो करता हुआ आ जाता है और बोलने लगता है उसी तरह से टीवी में भी होने लगा है। पहले चंद चेहरे हुआ करते थे अब इन चेहरों का रेंज बढ़ने लगा है। आप कह सकते हैं कि सीमित है लेकिन तब भी दायरा बढ़ा ही है। औपचारिक प्रवक्ताओं के साथ साथ कई अनौपचारिक प्रवक्ता भी स्टुडियो स्टुडियो घूम रहे हैं। एंकर भी अब ट्वीट की तरह बड़बड़ा रहा है। कुछ भी बोलता है। बोलकर छोड़ देता है। लोग आपस में भिड़ जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि टीवी पर बहस के कार्यक्रम नहीं थे। मगर वो बहस और चर्चा के कार्यक्रम थे। अब तो टीवी पर लगातार मुद्दे ट्वीटर की तरह ट्रेंड कर रहे हैं। रिपोर्ट गायब है। स्पीड न्यूज़ भी एक किस्म का खुंदकिया खबर ट्वीट है। लो ये लो दनादन। एक पढ़ा नहीं,सुना नहीं कि दूसरा लोड होकर आ गया। पहले वाला नीचे चला गया। जिस तरह आपके ट्वीट की गिनती होने लगती है उसी तरह से स्पीड न्यूज़ ख़बरों को गिनता हुआ आगे बढ़ने लगता है। स्पीड न्यूज एक किस्म का ट्वीट है। खबर अफवाह की तरह लगती हैं इसमें। कौन बोला किसने बोला और कैसे बोला। यह सब कुछ नहीं। कोई विवरण नहीं है। मुझे नहीं मालूम कि यह दर्शकों में क्यों लोकप्रिय है? यह भी नहीं मालूम कि दर्शकों ने इसे थोपे जाने पर पसंद किया या फिर उन्हें वाकई अब ये काम का लगता है। जिस दर्शक के पास आधे घंटे में पांच खबर के लिए वक्त नहीं था वो अब उसी आधे घंटे में दो सौ खबरें सुन रहा है। समझ रहा है। टैम मीटर भी ट्वीटर की तरह खबरों को नापता है। उसने बताया है कि अलग अलग सेकेंड में अलग अलग दर्शक आते हैं। कभी भी आते हैं और कहीं से भी आते हैं। इसीलिए एक ही बात बार बार बोलते रहिए। जो शुरू से लेकर आखिर तक देख रहा है वो झेल रहा है कि बात आगे क्यों नहीं बढ़ रही है। इसका भी फैसला अभी बाकी है कि कटेंट कौन तय करता है। दर्शक,बाज़ार या अच्छा बुरा संपादक। यह सवाल अधूरा है। फिर भी स्पीड न्यूज़ को आप ट्वीट की तरह देख सकते हैं। जैसे बड़े बड़े न्यूज़ घराने एक पंक्ति की खबर ट्वीट करते हैं और लोगों का काम चल जाता है उसी तरह स्पीड न्यूज टीवी के माध्यम का ट्वीट है।
ट्वीटर और टीवी के फॉरमेट एक से लगने लगे हैं। दोनों की बेचैनियों और बोलियों में फर्क भी मिटता जा रहा है। जैसे ट्वीट करते ही कोई उसकी धुनाई चालू कर देता है या रिट्वीट करने लगता है उसी तरह टीवी के डिबेट में भी होता है। रिट्वीट कुछ और नहीं बल्कि हां हां है। हामी भरने को ही रिट्वीट कहते हैं। ट्वीटर पर आप कहीं से आकर कुछ भी बोल जाते हैं। उसकी कोई जवाबदेही नहीं होती। खुंदक निकालने की तो एक परंपरा ही कायम हो गई है। मानव सभ्यता के इतिहास में इससे पहले खुंदकों का लिखित खजाना पहले कभी नहीं पाया गया था। खुंदकधारी ट्वीट ने अपने अकाउंट नाम भी अजब गजब बनाए हैं। उसी तरह टीवी के वक्त भी अपनी पहचान गढ़ रहे हैं। सुहेल सेठ को आप एक ट्वीट अकाउंट की तरह ले सकते हैं। जो हैं कुछ लेकिन अकाउंट नेम अलग-अलग रखते हैं। इस टाइप का भाव आता है। अभय दुबे एक अलग अकाउंट की तरह नज़र आते हैं। वो फेक नहीं लगते हैं। कुछ पत्रकार अपने अखबार या टीवी के ट्वीट अकाउंट लगते हैं। तो मैं कह रहा था कि टीवी के बहस बक्सों में भी यही हो रहा है। एक कुछ बोलता है दूसरा कुछ और बोलने लगता है। बस चीज़ें ट्रेंड करने लगती हैं। मुद्दा पटरी से उतर जाता है।
सार्थक बहस एक मिथक है। कई बार सार्थक बहस भी होती है। जैसे कि ट्वीटर पर भी कई बार सार्थक बहस हो जाती है। मगर दलील की प्रवृति एक सी है। जैसी प्रतिक्रिया होगी वैसे ही शब्द होंगे। तार्किक दलील कम होगी। ट्वीटर में भी मूल और प्रमाणिक सूचनाएं कम होती हैं। होती भी हैं तो कुतर्कों की भीड़ में गायब हो जाती हैं। आयं बायं सायं बका जाने लगता है। इम्पल्स मूल भाव है ट्वीटर का। लिखा हुआ देखकर आपने किस मनोभाव में पढ़ा ये तय करता है आपके उस पर रिएक्ट कैसे करेंगे। टीवी के बहस बक्सों में भी यही होने लगा है। वक्ता अब सूचना के आधार पर कम,भावना के आधार पर ज्यादा बोलने लगे हैं। बात पर बात। बात का दाल भात। यही होता चला जाता है। कुछ भोले और फालतू दर्शक निराश हो जाते हैं कि निष्कर्ष नहीं निकला। दुनिया में किस बातचीत का निष्कर्ष निकला।
कल जब दिल्ली में मुख्यमंत्रियों की बैठक हो रही थी तब यह मसला ट्वीटर पर भी था और टीवी पर भी था। सब अपनी अपनी जानकारी और पूर्वाग्रहों से बोल रहे थे। टीवी का काम क्या होना चाहिए था। रिपोर्टिंग से जनता को सूचित करना चाहिए था कि सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद विरोधी मुख्यमंत्रियों के राज्यों में ही पुलिस सुधार पर कितना काम हुआ है। पुलिस सुधार के दो पक्ष हैं। एक उपरकरण और ट्रेनिंग का पक्ष और दूसरा प्रशासनिक स्वायत्तता का पक्ष। जिसे करने में पैसे की ज़रूरत नहीं है। क्या इस मामले में मोदी से लेकर अखिलेश और नीतीश और पृथ्वीराज चौहान ने ठोस काम किये हैं। किये भी हैं तो उन्हें सामने लाकर एक जानकारीप्रद परिप्रेक्ष्य का निर्माण हो सकता था। उसके बाद किसी एक कार्यक्रम में बहस हो सकती थी। लेकिन अब हर कार्यक्रम ही बहस है। रिपोर्टिंग बंद है। इसीलिए बहस की सार्थकता कभी पूरी नहीं होगी। हां कुछ बहस अच्छी ज़रूर हो जाएगी। कुछ एंकर ज़रूर अच्छा कर लेंगे। लेकिन सब ट्वीटर के तरह तुरंता ही है। कुछ भी कहीं से भी बोलते चलो। बस जिस वक्त जो बोल रहे हो वो कर्णप्रिय लगे। आकर्षित करे। एंकर अपने सारे शोध गूगल के आधार पर करता है। कुछ रिपोर्टरों का भी सहयोग होता है। लेकिन गहराई से रिपोर्टिंग नहीं होती। रिपोर्टर को मार कर आप टीवी को ट्वीटर तो बना सकते हैं मगर न्यूज़ चैनल नहीं।
इतना ही नहीं ट्वीटर के फॉलोअर का भी एंकर पर असर पड़ने लगा है। कई एंकरों संपादकों के पांच लाख छह लाख फॉलोअर हैं। लोग उन्हें रगेद देते हैं। अपनी खुंदक से लेकर खबर तक के सवालों को लेकर चहेंट देते हैं। संपादक एंकर उनकी बातों को नज़रअंदाज़ नहीं करता। वो भी टीवी की बहस का हिस्सा बन जाते हैं। मुद्दे को तय करने में और प्रतिक्रिया देने में। इसलिए उनके ट्वीट को फ्लैश किया जाता है। दर्शकों से ट्वीट मांगा जाता है। जिस तरह से आप किसी ट्वीट पर उबल जाते हैं और मुद्दे को छोड़ कर कुछ भी बोल निकल जाते हैं वैसा ही टीवी के डिबेट में होता है। जिसके दिमाग में जो उस वक्त चल रहा होता है वो वही बोलता है। बहस होती है मगर बहस जैसी नहीं होती। कोई नतीजा नहीं निकलता। बस गिनती गिन ली जाती है। जैसे ट्वीट में आप देखते हैं कि कितने लोगों ने फॉलो किया उसी तरह से टीवी में देखते हैं कि कितनी रेटिंग आई। टीवी ट्वीटर को काफी गंभीरता से लेता है।
इसीलिए यह टीवी का ट्वीटर युक्त वक्ताकाल है। टीवी दिखाता नहीं है। सुनाता है। बुलवाता है। दिल्ली के एमसीडी के चुनावों में वक्ताओं के नाम और चेहरे देखिये। बड़े लोग नहीं हैं। जैसे ट्वीटर में आप किसी के अकाउंट को फोलो कर सकते हैं और वहां जाकर बोल सकते हैं। उसी तरह टीवी में भी नए लोगों को मौका मिल रहा है। जितने बोलने वाले हैं अब सब टीवी पर हैं। अखबार अगर अपने रिपोर्टर और डेस्क संपादकों को भी अनुमति दे दे की जाओ टीवी पर जाओ। कुछ बोल कर आओ। ट्वीट की तरह फॉलो करो। कमेंट करो। तो वो भी आ जायेंगे। बहस की दिशाहिनता सवालों के चिरकुटई से ढांक दी जाती है। आप एंकरों को ध्यान से सुनिये। उनके पास पूछने के लिए पहला ही सवाल ठीक से नहीं होता है। अलबला जाते हैं। दलील प्रधान होती जा रही है। बात प्रवृत्ति के नकल की है। उसके एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रसार की है। इसलिए मुझे लगता है कि टीवी की प्रवृत्ति ट्वीटर की तरह हो गई है। तो अब न्यूज़ चैनल को भी सोशल मीडिया का ही अंश माना जाना चाहिए। वे भी ट्वीटर की तरह हो गए हैं।हम खबर दिखाते हैं, इस टाइप के स्लोगन जल्दी बदल जायेंगे। हम करतें हैं बकर बकर। आप सुनते हैं बकर-बकर। इस तरह के स्लोगन होने लगेंगे।
ऐसा नहीं है कि टीवी पर बहस के कार्यक्रम नहीं थे। मगर वो बहस और चर्चा के कार्यक्रम थे। अब तो टीवी पर लगातार मुद्दे ट्वीटर की तरह ट्रेंड कर रहे हैं। रिपोर्ट गायब है। स्पीड न्यूज़ भी एक किस्म का खुंदकिया खबर ट्वीट है। लो ये लो दनादन। एक पढ़ा नहीं,सुना नहीं कि दूसरा लोड होकर आ गया। पहले वाला नीचे चला गया। जिस तरह आपके ट्वीट की गिनती होने लगती है उसी तरह से स्पीड न्यूज़ ख़बरों को गिनता हुआ आगे बढ़ने लगता है। स्पीड न्यूज एक किस्म का ट्वीट है। खबर अफवाह की तरह लगती हैं इसमें। कौन बोला किसने बोला और कैसे बोला। यह सब कुछ नहीं। कोई विवरण नहीं है। मुझे नहीं मालूम कि यह दर्शकों में क्यों लोकप्रिय है? यह भी नहीं मालूम कि दर्शकों ने इसे थोपे जाने पर पसंद किया या फिर उन्हें वाकई अब ये काम का लगता है। जिस दर्शक के पास आधे घंटे में पांच खबर के लिए वक्त नहीं था वो अब उसी आधे घंटे में दो सौ खबरें सुन रहा है। समझ रहा है। टैम मीटर भी ट्वीटर की तरह खबरों को नापता है। उसने बताया है कि अलग अलग सेकेंड में अलग अलग दर्शक आते हैं। कभी भी आते हैं और कहीं से भी आते हैं। इसीलिए एक ही बात बार बार बोलते रहिए। जो शुरू से लेकर आखिर तक देख रहा है वो झेल रहा है कि बात आगे क्यों नहीं बढ़ रही है। इसका भी फैसला अभी बाकी है कि कटेंट कौन तय करता है। दर्शक,बाज़ार या अच्छा बुरा संपादक। यह सवाल अधूरा है। फिर भी स्पीड न्यूज़ को आप ट्वीट की तरह देख सकते हैं। जैसे बड़े बड़े न्यूज़ घराने एक पंक्ति की खबर ट्वीट करते हैं और लोगों का काम चल जाता है उसी तरह स्पीड न्यूज टीवी के माध्यम का ट्वीट है।
ट्वीटर और टीवी के फॉरमेट एक से लगने लगे हैं। दोनों की बेचैनियों और बोलियों में फर्क भी मिटता जा रहा है। जैसे ट्वीट करते ही कोई उसकी धुनाई चालू कर देता है या रिट्वीट करने लगता है उसी तरह टीवी के डिबेट में भी होता है। रिट्वीट कुछ और नहीं बल्कि हां हां है। हामी भरने को ही रिट्वीट कहते हैं। ट्वीटर पर आप कहीं से आकर कुछ भी बोल जाते हैं। उसकी कोई जवाबदेही नहीं होती। खुंदक निकालने की तो एक परंपरा ही कायम हो गई है। मानव सभ्यता के इतिहास में इससे पहले खुंदकों का लिखित खजाना पहले कभी नहीं पाया गया था। खुंदकधारी ट्वीट ने अपने अकाउंट नाम भी अजब गजब बनाए हैं। उसी तरह टीवी के वक्त भी अपनी पहचान गढ़ रहे हैं। सुहेल सेठ को आप एक ट्वीट अकाउंट की तरह ले सकते हैं। जो हैं कुछ लेकिन अकाउंट नेम अलग-अलग रखते हैं। इस टाइप का भाव आता है। अभय दुबे एक अलग अकाउंट की तरह नज़र आते हैं। वो फेक नहीं लगते हैं। कुछ पत्रकार अपने अखबार या टीवी के ट्वीट अकाउंट लगते हैं। तो मैं कह रहा था कि टीवी के बहस बक्सों में भी यही हो रहा है। एक कुछ बोलता है दूसरा कुछ और बोलने लगता है। बस चीज़ें ट्रेंड करने लगती हैं। मुद्दा पटरी से उतर जाता है।
सार्थक बहस एक मिथक है। कई बार सार्थक बहस भी होती है। जैसे कि ट्वीटर पर भी कई बार सार्थक बहस हो जाती है। मगर दलील की प्रवृति एक सी है। जैसी प्रतिक्रिया होगी वैसे ही शब्द होंगे। तार्किक दलील कम होगी। ट्वीटर में भी मूल और प्रमाणिक सूचनाएं कम होती हैं। होती भी हैं तो कुतर्कों की भीड़ में गायब हो जाती हैं। आयं बायं सायं बका जाने लगता है। इम्पल्स मूल भाव है ट्वीटर का। लिखा हुआ देखकर आपने किस मनोभाव में पढ़ा ये तय करता है आपके उस पर रिएक्ट कैसे करेंगे। टीवी के बहस बक्सों में भी यही होने लगा है। वक्ता अब सूचना के आधार पर कम,भावना के आधार पर ज्यादा बोलने लगे हैं। बात पर बात। बात का दाल भात। यही होता चला जाता है। कुछ भोले और फालतू दर्शक निराश हो जाते हैं कि निष्कर्ष नहीं निकला। दुनिया में किस बातचीत का निष्कर्ष निकला।
कल जब दिल्ली में मुख्यमंत्रियों की बैठक हो रही थी तब यह मसला ट्वीटर पर भी था और टीवी पर भी था। सब अपनी अपनी जानकारी और पूर्वाग्रहों से बोल रहे थे। टीवी का काम क्या होना चाहिए था। रिपोर्टिंग से जनता को सूचित करना चाहिए था कि सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद विरोधी मुख्यमंत्रियों के राज्यों में ही पुलिस सुधार पर कितना काम हुआ है। पुलिस सुधार के दो पक्ष हैं। एक उपरकरण और ट्रेनिंग का पक्ष और दूसरा प्रशासनिक स्वायत्तता का पक्ष। जिसे करने में पैसे की ज़रूरत नहीं है। क्या इस मामले में मोदी से लेकर अखिलेश और नीतीश और पृथ्वीराज चौहान ने ठोस काम किये हैं। किये भी हैं तो उन्हें सामने लाकर एक जानकारीप्रद परिप्रेक्ष्य का निर्माण हो सकता था। उसके बाद किसी एक कार्यक्रम में बहस हो सकती थी। लेकिन अब हर कार्यक्रम ही बहस है। रिपोर्टिंग बंद है। इसीलिए बहस की सार्थकता कभी पूरी नहीं होगी। हां कुछ बहस अच्छी ज़रूर हो जाएगी। कुछ एंकर ज़रूर अच्छा कर लेंगे। लेकिन सब ट्वीटर के तरह तुरंता ही है। कुछ भी कहीं से भी बोलते चलो। बस जिस वक्त जो बोल रहे हो वो कर्णप्रिय लगे। आकर्षित करे। एंकर अपने सारे शोध गूगल के आधार पर करता है। कुछ रिपोर्टरों का भी सहयोग होता है। लेकिन गहराई से रिपोर्टिंग नहीं होती। रिपोर्टर को मार कर आप टीवी को ट्वीटर तो बना सकते हैं मगर न्यूज़ चैनल नहीं।
इतना ही नहीं ट्वीटर के फॉलोअर का भी एंकर पर असर पड़ने लगा है। कई एंकरों संपादकों के पांच लाख छह लाख फॉलोअर हैं। लोग उन्हें रगेद देते हैं। अपनी खुंदक से लेकर खबर तक के सवालों को लेकर चहेंट देते हैं। संपादक एंकर उनकी बातों को नज़रअंदाज़ नहीं करता। वो भी टीवी की बहस का हिस्सा बन जाते हैं। मुद्दे को तय करने में और प्रतिक्रिया देने में। इसलिए उनके ट्वीट को फ्लैश किया जाता है। दर्शकों से ट्वीट मांगा जाता है। जिस तरह से आप किसी ट्वीट पर उबल जाते हैं और मुद्दे को छोड़ कर कुछ भी बोल निकल जाते हैं वैसा ही टीवी के डिबेट में होता है। जिसके दिमाग में जो उस वक्त चल रहा होता है वो वही बोलता है। बहस होती है मगर बहस जैसी नहीं होती। कोई नतीजा नहीं निकलता। बस गिनती गिन ली जाती है। जैसे ट्वीट में आप देखते हैं कि कितने लोगों ने फॉलो किया उसी तरह से टीवी में देखते हैं कि कितनी रेटिंग आई। टीवी ट्वीटर को काफी गंभीरता से लेता है।
इसीलिए यह टीवी का ट्वीटर युक्त वक्ताकाल है। टीवी दिखाता नहीं है। सुनाता है। बुलवाता है। दिल्ली के एमसीडी के चुनावों में वक्ताओं के नाम और चेहरे देखिये। बड़े लोग नहीं हैं। जैसे ट्वीटर में आप किसी के अकाउंट को फोलो कर सकते हैं और वहां जाकर बोल सकते हैं। उसी तरह टीवी में भी नए लोगों को मौका मिल रहा है। जितने बोलने वाले हैं अब सब टीवी पर हैं। अखबार अगर अपने रिपोर्टर और डेस्क संपादकों को भी अनुमति दे दे की जाओ टीवी पर जाओ। कुछ बोल कर आओ। ट्वीट की तरह फॉलो करो। कमेंट करो। तो वो भी आ जायेंगे। बहस की दिशाहिनता सवालों के चिरकुटई से ढांक दी जाती है। आप एंकरों को ध्यान से सुनिये। उनके पास पूछने के लिए पहला ही सवाल ठीक से नहीं होता है। अलबला जाते हैं। दलील प्रधान होती जा रही है। बात प्रवृत्ति के नकल की है। उसके एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रसार की है। इसलिए मुझे लगता है कि टीवी की प्रवृत्ति ट्वीटर की तरह हो गई है। तो अब न्यूज़ चैनल को भी सोशल मीडिया का ही अंश माना जाना चाहिए। वे भी ट्वीटर की तरह हो गए हैं।हम खबर दिखाते हैं, इस टाइप के स्लोगन जल्दी बदल जायेंगे। हम करतें हैं बकर बकर। आप सुनते हैं बकर-बकर। इस तरह के स्लोगन होने लगेंगे।
आरक्षण बनाम आरक्षण
11 अप्रैल को महात्मा ज्योतिबा फुले की 185 वीं जयंती थी। जिन्होंने मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के साथ आरक्षण की बुनियाद रखी थी। उसके अगले दिन यानी 12 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया जिसमें निजी स्कूलों में ग़रीब बच्चों के लिए पचीस फीसदी सीट आरक्षित करने के फैसले पर मुहर लगा दी गई। 14 अप्रैल को आरक्षण को वैचारिक और राजनीतिक जामा पहननाने वाले डॉ भीभराव आंबेडकर की 121वीं जयंती थी। एक तरह से देखें तो अप्रैल का यह हफ्ता आरक्षण के लिए काफी क्रांतिकारी रहा है। जो यह सवाल कर रहा है कि क्या हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वर्ग आधारित आरक्षण की दिशा में बढ़ने लगे हैं। क्या यह आरक्षण के प्रति राजनीतिक सोच की सार्वभौमिकता की शुरूआत है? जहां इसे सिर्फ जाति के दायरे में नहीं देखा जा सकता। यह वर्ग आधारित असमानता को दूर करने का भी कारगर हथियार होने लगा है। यह कहना मुश्किल होगा कि जाति आधारित आरक्षण अप्रसांगिक होने लगा है लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि आरक्षण को लेकर सहमति इतनी व्यापक होने लगी है कि जाति,लिंग,धर्म और अब वर्ग के आधार पर इसकी मांग होने लगी है।
बींसवीं सदी की शुरूआत से लेकर अबतक आरक्षण ने अपनी दौ सौ तेरह साल की विकास यात्रा में अनेक राजनीतिक उतार-चढ़ाव देखे हैं। पूना पैक्ट से लेकर मंडल आयोग फिर महिला आरक्षण से लेकर मुसलमानों के लिए आरक्षण की हालिया राजनीति तक। जातिगत असमानता और भेदभाव को दूर करने के लिए आरक्षण का राजनीतिक आधार सबसे मज़बूत रहा है। सामाजिक न्याय का दूसरा नाम आरक्षण रहा है। 1990 में मंडल आयोग के वक्त उठी विरोध की लहर ने पहली बार एक ऐसी बुनियाद डाली जिसने आरक्षण की यात्रा में आर्थिक आधार का बीजारोपण कर दिया। सारी पार्टियां धीरे धीरे मांग करने लगी कि आर्थिक आधार पर अगड़ों को आरक्षण दिया जाएगा। संसद में भले ही महिला आरक्षण पास न हुआ हो लेकिन कई राज्यों में पंचायत से लेकर निगमों तक में पचास फीसदी सीट महिलाओं के लिए आरक्षित करना आज की राजनीति का सबसे प्रगतिशील कदम माने जाने लगा है।
लेकिन क्या आरक्षण और उसकी राजनीति अब अपनी सीमा को छूने लगी हैं? जब सुप्रीम कोर्ट ने गरीब बच्चों के लिए पचीस फीसदी सीट रिज़र्व करने के फैसले को सही ठहराया तो सबने कहा कि ऐतिहासिक है। सर्वणों की तरफ से भी आवाज़ नहीं आई कि ग़लत है। पिछड़ों और दलितों की तरफ से आवाज़ नहीं आई कि उनके हक में सेंधमारी है। क्या ग़रीबी आरक्षण का आधार अब तक सबसे सर्वमान्य आधार है? जब आंकड़ें बताते हैं कि ग़रीबों में सबसे अधिक दलित ही हैं। आदिवासी ही हैं। इसके बाद भी दलित समाज के नेताओं ने भी स्कूलों में वर्ग आधारित आरक्षण को सही माना। शिक्षा के अधिकार कानून में दलित पिछड़ों और आदिवासियों के लिए आरक्षण होने के बाद भी प्रतिशत की बात नहीं है। पहली बार आरक्षण के पारंपरिक उत्तराधिकारियों के साथ साथ आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों को भी जोड़ दिया गया है। आरक्षण के इतिहास में यह पहली बार हुआ है जहां सभी को एक ही प्रतिशत के दायरे में रखा गया है। किसी के लिए अलग से प्रतिशत तय नहीं किया गया है।
क्या यह बड़ा बदलाव नहीं है? आप सहमत हों या नहीं हों लेकिन क्या इस सवाल से मुंह मोड़ सकते हैं। आरक्षण को लेकर ऐसी सहमति कब देखी थी। आर्थिक रूप से कमज़ोर अगड़ों को आरक्षण देने की मांग बीस साल से उठ ही रही है। किसी ने सार्थक पहल नहीं की। लेकिन केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा के अधिकार कानून में चुपचाप कर दी। यही सहमति एक दिन आरक्षण की ज़रूरत और स्वरूप के सवाल पर पारंपरिक राजनीतिक लाइन बदल देगी।
महात्मा ज्योतिबा फुले ने ही सबसे पहले नौकरियों में आरक्षण के साथ सबके लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की बात की थी। 185 साल लग गए उनकी इस बात को साकार होने में। हो सकता है अपने सवा दौ साल की विकास यात्रा में आरक्षण अपना चोला बदल रहा हो। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे समाज में जातिगत ढांचे में आए बदलाव के बाद भी जातिगत भेदभाव अब भी है। लेकिन इस आर्थिक दौर में आर्थिक आधार पर बनी असमानता का भेदभाव भी कम ज़हरीला नहीं है। खासकर अमीर और गरीब के बढ़ते अंतर के कारण यह ज़हर और तेज़ होता जा रहा है। शायद यही वजह है कि वर्ग के आधार पर आरक्षण की जो बुनियाद पड़ी है उसके चलते कोई सामाजिक भूचाल नहीं आया जो मंडल आयोग के लागू होने के वक्त आया था और जो उच्च शिक्षा में पिछड़ों को आरक्षण देने के वक्त विरोध की औपचारिकता निभाने के साथ ठंडा पड़ चुका था। इतना कि जब उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने प्रमोशन से आरक्षण खत्म करने का एलान किया तो कोई भी दलित या पिछड़ा संगठन सड़कों पर नहीं उतरा।
यह फैसला एक ऐसे समय में आया है जब देश में मुसलमानों को आरक्षण देने के सवाल पर सहमति बन रही है । भारतीय जनता पार्टी के घोषित विरोध को छोड़ दें तो सारी पार्टियां सहमति जता रही हैं। पचास फीसदी के दायरे में अठारह करोड़ लोगों को जोड़ देने से आरक्षण का प्रतिशत छोटा ही होता चला जाएगा। यह भी कह सकते हैं कि पचास प्रतिशत शिक्षा के अधिकार माडल की तरह बेमानी हो जाएगा। याद रखिये कि इस प्रतिशत में आर्थिक रूप से पिछड़े सर्वणों को भी ठूंसना बाकी है। यानी पचास फीसदी के भीतर इतनी बड़ी आबादी एक वर्ग के रूप में आपस में प्रतिस्पर्धा करेगी। गुर्जर और जाट भी आरक्षण की मांग पर शांत नहीं हुए हैं। जातिगत आरक्षण अपने आप वर्गीय आधार में बदल रहा है।
यह आरक्षण की कामयाबी है जिसके कारण अब हर कोई इसकी मांग कर रहा है। मेरिट के आधार पर इसके विरोधी भी अब वर्ग के आधार पर मिल रहे आरक्षण का स्वागत कर रहे हैं। सबको आरक्षण चाहिए। यह मान्य हो चुका है कि असमानता का तात्कालिक और दीर्घकालिक उपाय आरक्षण है। आरक्षण ने जिस तरह दलितों में कुलिन पैदा किये हैं। जिस तरह से उनके भीतर आत्मविश्वास पैदा किया है उसे भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद कहते हैं कि अब दलित भी आरक्षण का ठप्पा नहीं लेना चाहता। इस बात के बावजूद कि कई दलितों को इसकी सख्त ज़रूरत है। मगर हां अब समय सीमा तय करने का वक्त आ गया है। आरक्षण सौ साल तक यह जारी नहीं रह सकता। राजनीतिक दलों ने इसे आइटम में बदल कर बकवास बना दिया है। आरक्षण के नाम पर सहमति और असहमति की जगह मज़ाक की राजनीति होने लगी है।
आरक्षण की अवधारणा और स्वीकार्यता बदल रही है। आरक्षण अब नकारात्मक ठप्पा नहीं है। लेकिन इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि इससे किसी हद तक जातिगत भेदभाव की दीवार टूटने के बाद वर्ग की दीवार भी टूट जाएगी। मौजूदा पूंजीवादी उदारवादी ढांचे की बुनियादी शर्त है आर्थिक असमानता। चंद हज़ार बच्चों के प्राइवेट स्कूलों में पहुंच जाने से वर्ग का भेदभाव समाप्त हो जाता तो कार्ल मार्क्स मज़दूरों को एकजुट करने के बजाए दुनिया के स्कूलों एक हों का नारा देते। लेकिन इतना ज़रूर है कि समाज का एक वर्ग उन प्राइवेट स्कूलों में पहुंचेगा जो उनके ख्वाब से दूर थे। जब तक अलग अलग तरह के स्कूल रहेंगे यह अंतर बना रहेगा। सवाल यहां दूसरा है कि शिक्षा के बाद क्या हम नौकरियों में आरक्षण की इस सार्वभौमिकता को स्वीकार कर लेंगे? क्या राजनीति यह मान लेगी कि भेदभाव का नया ज़रिया वर्ग है, जाति नहीं? आसान नहीं लगता मगर किसी चीज़ की बुनियाद पड़ती है तो वो एक दिन इमारत में ज़रूर तब्दील होती है।
(यह लेख आज के दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ है।)
बींसवीं सदी की शुरूआत से लेकर अबतक आरक्षण ने अपनी दौ सौ तेरह साल की विकास यात्रा में अनेक राजनीतिक उतार-चढ़ाव देखे हैं। पूना पैक्ट से लेकर मंडल आयोग फिर महिला आरक्षण से लेकर मुसलमानों के लिए आरक्षण की हालिया राजनीति तक। जातिगत असमानता और भेदभाव को दूर करने के लिए आरक्षण का राजनीतिक आधार सबसे मज़बूत रहा है। सामाजिक न्याय का दूसरा नाम आरक्षण रहा है। 1990 में मंडल आयोग के वक्त उठी विरोध की लहर ने पहली बार एक ऐसी बुनियाद डाली जिसने आरक्षण की यात्रा में आर्थिक आधार का बीजारोपण कर दिया। सारी पार्टियां धीरे धीरे मांग करने लगी कि आर्थिक आधार पर अगड़ों को आरक्षण दिया जाएगा। संसद में भले ही महिला आरक्षण पास न हुआ हो लेकिन कई राज्यों में पंचायत से लेकर निगमों तक में पचास फीसदी सीट महिलाओं के लिए आरक्षित करना आज की राजनीति का सबसे प्रगतिशील कदम माने जाने लगा है।
लेकिन क्या आरक्षण और उसकी राजनीति अब अपनी सीमा को छूने लगी हैं? जब सुप्रीम कोर्ट ने गरीब बच्चों के लिए पचीस फीसदी सीट रिज़र्व करने के फैसले को सही ठहराया तो सबने कहा कि ऐतिहासिक है। सर्वणों की तरफ से भी आवाज़ नहीं आई कि ग़लत है। पिछड़ों और दलितों की तरफ से आवाज़ नहीं आई कि उनके हक में सेंधमारी है। क्या ग़रीबी आरक्षण का आधार अब तक सबसे सर्वमान्य आधार है? जब आंकड़ें बताते हैं कि ग़रीबों में सबसे अधिक दलित ही हैं। आदिवासी ही हैं। इसके बाद भी दलित समाज के नेताओं ने भी स्कूलों में वर्ग आधारित आरक्षण को सही माना। शिक्षा के अधिकार कानून में दलित पिछड़ों और आदिवासियों के लिए आरक्षण होने के बाद भी प्रतिशत की बात नहीं है। पहली बार आरक्षण के पारंपरिक उत्तराधिकारियों के साथ साथ आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों को भी जोड़ दिया गया है। आरक्षण के इतिहास में यह पहली बार हुआ है जहां सभी को एक ही प्रतिशत के दायरे में रखा गया है। किसी के लिए अलग से प्रतिशत तय नहीं किया गया है।
क्या यह बड़ा बदलाव नहीं है? आप सहमत हों या नहीं हों लेकिन क्या इस सवाल से मुंह मोड़ सकते हैं। आरक्षण को लेकर ऐसी सहमति कब देखी थी। आर्थिक रूप से कमज़ोर अगड़ों को आरक्षण देने की मांग बीस साल से उठ ही रही है। किसी ने सार्थक पहल नहीं की। लेकिन केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा के अधिकार कानून में चुपचाप कर दी। यही सहमति एक दिन आरक्षण की ज़रूरत और स्वरूप के सवाल पर पारंपरिक राजनीतिक लाइन बदल देगी।
महात्मा ज्योतिबा फुले ने ही सबसे पहले नौकरियों में आरक्षण के साथ सबके लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की बात की थी। 185 साल लग गए उनकी इस बात को साकार होने में। हो सकता है अपने सवा दौ साल की विकास यात्रा में आरक्षण अपना चोला बदल रहा हो। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे समाज में जातिगत ढांचे में आए बदलाव के बाद भी जातिगत भेदभाव अब भी है। लेकिन इस आर्थिक दौर में आर्थिक आधार पर बनी असमानता का भेदभाव भी कम ज़हरीला नहीं है। खासकर अमीर और गरीब के बढ़ते अंतर के कारण यह ज़हर और तेज़ होता जा रहा है। शायद यही वजह है कि वर्ग के आधार पर आरक्षण की जो बुनियाद पड़ी है उसके चलते कोई सामाजिक भूचाल नहीं आया जो मंडल आयोग के लागू होने के वक्त आया था और जो उच्च शिक्षा में पिछड़ों को आरक्षण देने के वक्त विरोध की औपचारिकता निभाने के साथ ठंडा पड़ चुका था। इतना कि जब उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने प्रमोशन से आरक्षण खत्म करने का एलान किया तो कोई भी दलित या पिछड़ा संगठन सड़कों पर नहीं उतरा।
यह फैसला एक ऐसे समय में आया है जब देश में मुसलमानों को आरक्षण देने के सवाल पर सहमति बन रही है । भारतीय जनता पार्टी के घोषित विरोध को छोड़ दें तो सारी पार्टियां सहमति जता रही हैं। पचास फीसदी के दायरे में अठारह करोड़ लोगों को जोड़ देने से आरक्षण का प्रतिशत छोटा ही होता चला जाएगा। यह भी कह सकते हैं कि पचास प्रतिशत शिक्षा के अधिकार माडल की तरह बेमानी हो जाएगा। याद रखिये कि इस प्रतिशत में आर्थिक रूप से पिछड़े सर्वणों को भी ठूंसना बाकी है। यानी पचास फीसदी के भीतर इतनी बड़ी आबादी एक वर्ग के रूप में आपस में प्रतिस्पर्धा करेगी। गुर्जर और जाट भी आरक्षण की मांग पर शांत नहीं हुए हैं। जातिगत आरक्षण अपने आप वर्गीय आधार में बदल रहा है।
यह आरक्षण की कामयाबी है जिसके कारण अब हर कोई इसकी मांग कर रहा है। मेरिट के आधार पर इसके विरोधी भी अब वर्ग के आधार पर मिल रहे आरक्षण का स्वागत कर रहे हैं। सबको आरक्षण चाहिए। यह मान्य हो चुका है कि असमानता का तात्कालिक और दीर्घकालिक उपाय आरक्षण है। आरक्षण ने जिस तरह दलितों में कुलिन पैदा किये हैं। जिस तरह से उनके भीतर आत्मविश्वास पैदा किया है उसे भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद कहते हैं कि अब दलित भी आरक्षण का ठप्पा नहीं लेना चाहता। इस बात के बावजूद कि कई दलितों को इसकी सख्त ज़रूरत है। मगर हां अब समय सीमा तय करने का वक्त आ गया है। आरक्षण सौ साल तक यह जारी नहीं रह सकता। राजनीतिक दलों ने इसे आइटम में बदल कर बकवास बना दिया है। आरक्षण के नाम पर सहमति और असहमति की जगह मज़ाक की राजनीति होने लगी है।
आरक्षण की अवधारणा और स्वीकार्यता बदल रही है। आरक्षण अब नकारात्मक ठप्पा नहीं है। लेकिन इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि इससे किसी हद तक जातिगत भेदभाव की दीवार टूटने के बाद वर्ग की दीवार भी टूट जाएगी। मौजूदा पूंजीवादी उदारवादी ढांचे की बुनियादी शर्त है आर्थिक असमानता। चंद हज़ार बच्चों के प्राइवेट स्कूलों में पहुंच जाने से वर्ग का भेदभाव समाप्त हो जाता तो कार्ल मार्क्स मज़दूरों को एकजुट करने के बजाए दुनिया के स्कूलों एक हों का नारा देते। लेकिन इतना ज़रूर है कि समाज का एक वर्ग उन प्राइवेट स्कूलों में पहुंचेगा जो उनके ख्वाब से दूर थे। जब तक अलग अलग तरह के स्कूल रहेंगे यह अंतर बना रहेगा। सवाल यहां दूसरा है कि शिक्षा के बाद क्या हम नौकरियों में आरक्षण की इस सार्वभौमिकता को स्वीकार कर लेंगे? क्या राजनीति यह मान लेगी कि भेदभाव का नया ज़रिया वर्ग है, जाति नहीं? आसान नहीं लगता मगर किसी चीज़ की बुनियाद पड़ती है तो वो एक दिन इमारत में ज़रूर तब्दील होती है।
(यह लेख आज के दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ है।)
पॉल रॉबसन- तुम्हारी मिसिसिपी और मेरी गंगा
पहलेजा घाट से बच्चा बाबू के जहाज़ से एलसीटी घाट तक की यात्रा में एक ही कसक होती थी। उफनती लहरों के बीच उबला अंडा बाबूजी खिला दें। उसका पीला हिस्सा और ऊपर काली मिर्च की कतरनें। धोती कुर्ता में पितृपुरुष जब पूछ लेते थे कि खाना है तो लगता था कि गंगा की तरह कितनी ममता है इनमें। गांव से पटना की बीच गंगा ज़रूर होती थी। उसके बाद स्कूल के रास्ते में कई वर्षों तक समानांतर बहती रही। ठीक से याद है कि ज़माने तक गांव से लेदी(गाया का चारा) और हमलोगों के खाने का अनाज नाव पर लाद कर आता था। गंगा ले आती थी। जब नाव आती थी तो घर मलाहों से भर जाता था। मछली का स्वाद बदल जाता था। उनकी चमकती बाज़ुओं की बलिष्ठता आकर्षित करती थी। लगता था कि कितनी शक्ति है इन मलाहों में। सिक्स पैक वाले ख़ानों से बहुत पहले हमने स्वाभाविक बलिष्ठता अपने गांव के मलाहों में देखी थी। मालूम नहीं था कि सड़क और मोटर क्रांति नदियों से सामाजिक रिश्ते को खत्म कर देगी। और फिर एक दिन नदियां भी खत्म होने लगेंगी।
फिर वो वक्त आया जब पटना एशिया से लेकर विश्व तक में प्रसिद्ध हो गया। गंगा नदी पर पुल बन गया। गांधी सेतु। हम गंगा के ऊपर से उड़ने लगे। मोतिहारी पटना की दूरी कई घंटों की जगह पांच घंटे में सिमट गई। अब उबले अंडे का रोमांच चला गया था। वो विशिष्ठ नहीं रहा। पटना की सड़कों पर सर्दी में मिलने लगा था। बाबूजी कहते थे कि साहब लोगों का नाश्ता होता है। सीखो खाना। लेकिन बाबूजी अब मोतिहारी पटना के बीच बने लाइन होटलों पर रूकने लगे। मीट और भात। सिरुआ और पीस की बात होने लगी। हाजीपुर रूककर बस से हाथ निकालकर मालभोग केला। दूर कहीं गंगा छूटती नज़र आने लगती थी। उसकी ठंडी हवा याद दिलाती रहती थी कि हमारी धारा से न सही, धारा के ऊपर से तो गुज़रने लगे हो। फिर भी हाईवे पर ट्रकों के कपार पर गंगा तेरा पानी अमृत लिखा देखता तो कुछ हो जाता। लगता कि गंगा है तो। भले ही गंगा हमारे रास्ते में नहीं है। अब तो गंगा तेरा पानी अमृत भी सड़क साहित्य से गायब हो चुका है। हमलोगों ने गांधी सेतु को रास्ता बना लिया था। गंगा छूट गई थी। दिल्ली आने के बाद बनारस के पास गंगा दिखने लगी। तेज़ी से गुज़र जाती। कई सालों तक दिल्ली पटना के रास्ते में खिड़की पर बैठा बनारस का इंतज़ार करता रहता था। गंगा को प्रणाम करने के लिए। आज भी करता हूं। किसी अंध श्रद्दा से नहीं। गहरे रिश्ते के कारण। गंगा को देखना और देखते रहना आज भी जीवन के सर्वोत्तम रोमांच में से एक है। धीरे धीरे पटना जाना कम होने लगा। गंगा दिखनी कम हो गई।
जब पहली बार हवाई जहाज़ से पटना गया तो शहर के ऊपर से निकलते हुए जहाज़ अचानक गंगा के ऊपर से मुड़ने लगा। खिड़की से झांककर देखा तो गंगा बीमार लग रही थी। उसकी गोद से रेत के गाद निकल आए थे। ऐसा लगा कि किसी ने गंगा की लाद को चीर दिया है। प्रणाम तब भी किया। हाथ तो नहीं जो़ड़ा लेकिन मन ही मन। देख रही हो न गंगा। अब हम हवा में उड़ रहे हैं। बहुत दुख हुआ अपनी गंगा को देखकर। गांधी सेतु भी गंगा की तरह जर्जर हो चुका है। गंगा को हमने खूब देखा है। चौड़े पाट। बेखौफ लहरें। नावें। कभी कभी मोहल्ले के दोस्तों के साथ बांस घाट में नहाना। वो भाव कभी नहीं उमड़ा जो पटना में गंगा को देखकर होता था। हरिद्वार और बनारस में गंगा अल्बम की तस्वीर लगती थी। अभी तक मैंने नदियों के मसले को लेकर किसी आंदोलन के बारे में कुछ भी नहीं पढ़ा था। बस एक रिश्ता था जो स्मृतियों में धंसा हुआ है।
पहली बार नयना से पता चला था पॉल राबसन के बारे में। ऐसा लगा कि मिसिसिपी गंगा की मौसी है। दोनों बहने हैं। दोनों की व्यथा एक है। भूपेन हज़ारिका की आवाज़ में सुना तो धड़कनें तेज़ हो गई। गंगा तुम गंगा बहती हो क्यों। किसके लिए ये नदी बहती आ रही है। मनुष्य का नदियों से प्रयोजन पूरा हो चुका है। वो नदी मार्ग से सड़क मार्ग की ओर प्रस्थान कर चुका है। नदियों की धाराओं और मार्गों के नाम को लेकर कोई लड़ाई नहीं है। हर मनुष्य का ख्वाब है कि कोई सड़क उसके नाम हो जाए। तब भी गंगा क्यों बही जा रही है। हम जैसे रिश्तेदारों को तड़पाने के लिए। कुछ तीज त्योहारों के लिए। गंगा उपक्रम नहीं रही है। वो कर्मकांड बन चुकी है। पॉल रॉबसन के बारे में जानकर बड़ा गर्व हुआ था। वैसे ही जैसे पहली बार पानी के जहाज़ में उबला अंडा खाकर बड़े लोगों का नाश्ता सीख लिया था। लेकिन जब एनडीटीवी के न्यूज़ रूम में अचानक एक दिन कह दिया कि पॉल रॉबसन को सुना है। किसी ने सर नहीं हिलाया। सोचा क्या फर्क पड़ता है। गंगा तब भी बहती जा रही होगी। पॉल रॉबसन तब भी गाया जाता रहेगा।
गंगा को लेकर गाने यूट्यूब पर खूब सुनता रहा हूं। गंगा मइया,मइया,हो गंगा मइया,गंगा मइया में जब तक कि पानी रहे, मेरे सजना तेरी ज़िंदगानी रहे। क्यों रो देता हूं मालूम नहीं। गंगा तेरा पानी अमृत झर झर बहता जाए। याद तो नहीं जब गंगा मइया तोरे पियरे चढइबो देखी थी तो दिल खूब मचला था । आज भी इसके गाने यूट्यूब पर सुनता हूं। इस गाने में बनारस की गंगा की जवानी देखियेगा। क्या लहरें हैं। क्या मस्ती है। कितनी नावें एक साथ चल रही हैं। हे गंगा मइया तोहे पियरी चढइबो, सइयां से कर दे मिलनवा हाय राम। मालूम ही नहीं था गंगा महबूब के आने का रास्ता भी है। उसे मिलाने का ज़रिया भी है। इस गाने में गंगा में जो नावों की भीड़ है वो बताती है कि गंगा पवित्र पावनी से ज्यादा नदी मार्ग थी। हमारे आने जाने का ज़रिया। पॉल रॉबसन तुम्हारी मिसिसिपी को हमने नहीं देखा है। पढ़ा था कभी किताबों में। समझ सकता हूं एक नदी का बुढ़ाना। अविनाश के फेसबुक वॉल पर तुम्हारे जन्मदिन की बात देखी। बुढ़े नदी को कुछ तो मालूम ही है। गंगा को भी कुछ क्या सब मालूम है। पर उसे मालूम ही नहीं कि वो बहती है क्यों।
फिर वो वक्त आया जब पटना एशिया से लेकर विश्व तक में प्रसिद्ध हो गया। गंगा नदी पर पुल बन गया। गांधी सेतु। हम गंगा के ऊपर से उड़ने लगे। मोतिहारी पटना की दूरी कई घंटों की जगह पांच घंटे में सिमट गई। अब उबले अंडे का रोमांच चला गया था। वो विशिष्ठ नहीं रहा। पटना की सड़कों पर सर्दी में मिलने लगा था। बाबूजी कहते थे कि साहब लोगों का नाश्ता होता है। सीखो खाना। लेकिन बाबूजी अब मोतिहारी पटना के बीच बने लाइन होटलों पर रूकने लगे। मीट और भात। सिरुआ और पीस की बात होने लगी। हाजीपुर रूककर बस से हाथ निकालकर मालभोग केला। दूर कहीं गंगा छूटती नज़र आने लगती थी। उसकी ठंडी हवा याद दिलाती रहती थी कि हमारी धारा से न सही, धारा के ऊपर से तो गुज़रने लगे हो। फिर भी हाईवे पर ट्रकों के कपार पर गंगा तेरा पानी अमृत लिखा देखता तो कुछ हो जाता। लगता कि गंगा है तो। भले ही गंगा हमारे रास्ते में नहीं है। अब तो गंगा तेरा पानी अमृत भी सड़क साहित्य से गायब हो चुका है। हमलोगों ने गांधी सेतु को रास्ता बना लिया था। गंगा छूट गई थी। दिल्ली आने के बाद बनारस के पास गंगा दिखने लगी। तेज़ी से गुज़र जाती। कई सालों तक दिल्ली पटना के रास्ते में खिड़की पर बैठा बनारस का इंतज़ार करता रहता था। गंगा को प्रणाम करने के लिए। आज भी करता हूं। किसी अंध श्रद्दा से नहीं। गहरे रिश्ते के कारण। गंगा को देखना और देखते रहना आज भी जीवन के सर्वोत्तम रोमांच में से एक है। धीरे धीरे पटना जाना कम होने लगा। गंगा दिखनी कम हो गई।
जब पहली बार हवाई जहाज़ से पटना गया तो शहर के ऊपर से निकलते हुए जहाज़ अचानक गंगा के ऊपर से मुड़ने लगा। खिड़की से झांककर देखा तो गंगा बीमार लग रही थी। उसकी गोद से रेत के गाद निकल आए थे। ऐसा लगा कि किसी ने गंगा की लाद को चीर दिया है। प्रणाम तब भी किया। हाथ तो नहीं जो़ड़ा लेकिन मन ही मन। देख रही हो न गंगा। अब हम हवा में उड़ रहे हैं। बहुत दुख हुआ अपनी गंगा को देखकर। गांधी सेतु भी गंगा की तरह जर्जर हो चुका है। गंगा को हमने खूब देखा है। चौड़े पाट। बेखौफ लहरें। नावें। कभी कभी मोहल्ले के दोस्तों के साथ बांस घाट में नहाना। वो भाव कभी नहीं उमड़ा जो पटना में गंगा को देखकर होता था। हरिद्वार और बनारस में गंगा अल्बम की तस्वीर लगती थी। अभी तक मैंने नदियों के मसले को लेकर किसी आंदोलन के बारे में कुछ भी नहीं पढ़ा था। बस एक रिश्ता था जो स्मृतियों में धंसा हुआ है।
पहली बार नयना से पता चला था पॉल राबसन के बारे में। ऐसा लगा कि मिसिसिपी गंगा की मौसी है। दोनों बहने हैं। दोनों की व्यथा एक है। भूपेन हज़ारिका की आवाज़ में सुना तो धड़कनें तेज़ हो गई। गंगा तुम गंगा बहती हो क्यों। किसके लिए ये नदी बहती आ रही है। मनुष्य का नदियों से प्रयोजन पूरा हो चुका है। वो नदी मार्ग से सड़क मार्ग की ओर प्रस्थान कर चुका है। नदियों की धाराओं और मार्गों के नाम को लेकर कोई लड़ाई नहीं है। हर मनुष्य का ख्वाब है कि कोई सड़क उसके नाम हो जाए। तब भी गंगा क्यों बही जा रही है। हम जैसे रिश्तेदारों को तड़पाने के लिए। कुछ तीज त्योहारों के लिए। गंगा उपक्रम नहीं रही है। वो कर्मकांड बन चुकी है। पॉल रॉबसन के बारे में जानकर बड़ा गर्व हुआ था। वैसे ही जैसे पहली बार पानी के जहाज़ में उबला अंडा खाकर बड़े लोगों का नाश्ता सीख लिया था। लेकिन जब एनडीटीवी के न्यूज़ रूम में अचानक एक दिन कह दिया कि पॉल रॉबसन को सुना है। किसी ने सर नहीं हिलाया। सोचा क्या फर्क पड़ता है। गंगा तब भी बहती जा रही होगी। पॉल रॉबसन तब भी गाया जाता रहेगा।
गंगा को लेकर गाने यूट्यूब पर खूब सुनता रहा हूं। गंगा मइया,मइया,हो गंगा मइया,गंगा मइया में जब तक कि पानी रहे, मेरे सजना तेरी ज़िंदगानी रहे। क्यों रो देता हूं मालूम नहीं। गंगा तेरा पानी अमृत झर झर बहता जाए। याद तो नहीं जब गंगा मइया तोरे पियरे चढइबो देखी थी तो दिल खूब मचला था । आज भी इसके गाने यूट्यूब पर सुनता हूं। इस गाने में बनारस की गंगा की जवानी देखियेगा। क्या लहरें हैं। क्या मस्ती है। कितनी नावें एक साथ चल रही हैं। हे गंगा मइया तोहे पियरी चढइबो, सइयां से कर दे मिलनवा हाय राम। मालूम ही नहीं था गंगा महबूब के आने का रास्ता भी है। उसे मिलाने का ज़रिया भी है। इस गाने में गंगा में जो नावों की भीड़ है वो बताती है कि गंगा पवित्र पावनी से ज्यादा नदी मार्ग थी। हमारे आने जाने का ज़रिया। पॉल रॉबसन तुम्हारी मिसिसिपी को हमने नहीं देखा है। पढ़ा था कभी किताबों में। समझ सकता हूं एक नदी का बुढ़ाना। अविनाश के फेसबुक वॉल पर तुम्हारे जन्मदिन की बात देखी। बुढ़े नदी को कुछ तो मालूम ही है। गंगा को भी कुछ क्या सब मालूम है। पर उसे मालूम ही नहीं कि वो बहती है क्यों।