दिल्ली से इंदौर जा रहा था। जेट लाईट की फ्लाईट में विंडो सीट मिल गई थी। बगल में एक मोटा सा शख्स आ कर अपने आप को कुर्सी के बीच में ठूंस दिया। थोड़ी देर बर्दाश्त किया फिर मुझसे कहने लगा कि आप ज़िन्दगी में थोड़े समझौते कर लो। पैसा बरस जाएगा। मन नहीं था लेकिन बात करने लगा कि आपको कैसे पता कि मैं समझौते नहीं करता। नौकरी करने वाला कोई भी शख्स यह बोले कि समझौता नहीं करता तो वो नब्बे फीसदी से ज्यादा झूठ बोलता है। मोटा आदमी हंसने लगा और मेरी हथेली से पवन वर्मा की किताब भारतीयता की ओर निकाल कर रेखाओं को बांचने लगा। कहा कि ये सब पढ़कर क्या होगा।
जब तक बातचीत औपचारिक से अनौपचारिक होती उससे पहले ही वो अपनी अंगूठे के नाखून से हथेली की रेखाओं को खुरचने लगा। बोला ये देखिये फेट लाइन यहां से मुड़़ कर यहां जुड़ गई और यहां से मुड़ रही थी तो आपने ज़िन्दगी का सबसे बड़ा मौका गंवा दिया। मैं सोचने लगा कि वो कौन सा मौका होगा। फिर देखा कि मोटा आदमी हथेली को रगड़ ही रहा है। रहा नहीं गया तो बोल दिया कि लगता है आप आज किस्मत खोद कर निकाल ही लेंगे। वो हंसने लगा। हंसमुख था। बोला कि आदर्श एक बेवकूफी है। आप बिजनेस करो। सब समझ में आ जाएगा। मोटा आदमी खुद को हस्तरेखा विशेषज्ञ बताने लगा और कहा कि देखिये मेरी हथेली। बाप ने कहा कि खोटा सिक्का है लेकिन मैं साल में पंद्रह करोड़ कमाता हूं। दस से बीस करोड़ रुपये तक रिश्वत देता हूं। उत्तर भारत के सभी राज्यों के अफसरों और नेताओं को घूस खिलाई है। बस इस स्वीकृति से उससे दोस्ती जम गई। ऐसी आत्मकथा पहली बार सुन रहा था। वैसे एक शख्स को जानता हूं जो हर दिन तीन हज़ार रुपये रिश्वत देते हैं और देने के बाद उसके दफ्तर में आरटीआई लगाकर उसके खिलाफ कार्रवाई भी करवाते हैं। खैर, मोटे आदमी को मालूम नहीं था कि मैं न्यूज़ रिपोर्टर हूं। वो टीवी और अखबार में अपना टाइम बर्बाद नहीं करता। उसका मानना था कि मीडिया से कुछ नहीं होता। रिश्वत ही जड़ है और रिश्वत ही परिवर्तन है।
रिश्वत की खूबी बताते हुए मोटा आदमी मेरी हथेली को थामे रखा। फिर कहने लगा कि फलां मुख्यमंत्री के भाई को चार करोड़ दी। उन्होंने चालीस करोड़ का काम दे दिया। फलां अफसर का तीन करोड़ फंसा था तो मैंने दे दिया। बस मुझे सौ करोड़ का काम मिल गया। मेरे पास साल का सात सौ करोड़ का काम है। मैं साल में कई करोड़ तो रिश्वत देता हूं। तीन-चार करोड़ रुपये तो लोग मेरा मार लेते हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता जी। मैंने पूछा कि आप मुझसे ये सब क्यों कह रहे हैं? तो उसने ऊर्जा समन्वय समझाना शुरू कर दिया जैसे मैं किसी भगवान का अवतार हूं। कहा कि आपको देख ही लगा कि एनर्जी मैच करती है। फिर उसने कहा कि देखिये सुबह कानपुर से चला हूं। कार से। इस फ्लाईट से इंदौर जा रहा हूं। वहां से टैक्सी लेकर तीन चार घंटे चलकर औरंगाबाद जाऊंगा। वहां सुबह दस बजे की मीटिंग है। वहां एक अफसर को पांच करोड़ रुपये रिश्वत दूंगा और पचास करोड़ के काम लूंगा। फिर लौट कर इंदौर आऊंगा और इसी जहाज से वापस दिल्ली और दिल्ली से सुबह की फ्लाईट लेकर गुवाहाटी। वहां तीन दिन रहना है। तीन करोड़ फंसा हुआ है। वो लेकर कानपुर आऊंगा और एक पार्टी को दे दूंगा। जब वो अगले दिन रात को इंदौर एयरपोर्ट पर मिला तो उसके हाथ में गुवाहाटी का टिकट था। कहा कि मैं साल में तीन सौ विमान यात्राएं करता हूं।
खैर वापसी में वो मेरे बगल में नहीं बैठा था। मगर दिल्ली से इंदौर जाने के रास्ते में वो बकता ही रहा। जब फिर से रहा नहीं गया तो कह दिया कि आप ये सब एक पत्रकार को क्यों बता रहे हैं? थोड़ी देर रूका और फिर कहा कि मैंने बोला न कि आप सही आदमी मालूम पड़ते हो। एनर्जी मैच करती है। कहता ही जा रहा था, बीच-बीच में मेरी हथेली खुरच कर बोले जा रहा था कि उम्र नब्बे साल की होगी। जीवन में शोहरत नहीं है। संघर्ष है। जिद्दी न बनें। दफ्तर में शत्रु है जो एक दिन पराजित हो जाएंगे। मगर नए शत्रु आ जायेंगे। संपर्क में रहिए। लोगों से मिलिए। पैसा आएगा। रिस्क लीजिए। पत्रकारिता में क्या रखा है?
मोटा आदमी कई आईएएस अफसरों के बारे में बता रहा था। कई नेताओं के बारे में बताया। बोला कि देने और लेने में संकोच मत करो। मैंने कहा कि आपको डर नहीं लगता। बोला कि देखिये मैं पकड़ा भी गया तो रिश्वतखोरी बंद नहीं होगी। मेरी जगह कोई और आ जाएगा। जब तक मैं पकड़ा नहीं जाता हूं तब तक कमा लेने में हर्ज क्या है। मेरे पिताजी रामायण का पाठ करते हैं। रिटायर करने के बाद पेंशन नहीं ली। ऐसी बात नहीं है कि हम ईमानदार लोग नहीं है। मगर हम प्रैक्टिकल लोग है। धर्म और फर्ज का तेल हो रहा था और मेरे दिमाग का भुर्ता। इंदौर एयरपोर्ट पर उसने कहा कि आपने मेरे चेहरे पर थकान देखी। मैंने कहा नहीं। बोला कि कभी नहीं देखेंगे। पैसा मिलता है तो थकान नहीं होती। आप मेरे संपर्क में रहा करो। मुझे पूरा यकीन है कि एक दिन मैं आपके काम आऊंगा। तब से मेरी नींद उड़ी जा रही है। क्योंकि उसने कहा कि डेस्टनी में लिखा है कि हम और आप फिर मिलेंगे। हे भगवान अगर कहीं हो तो मुझे महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनवा दो लेकिन उस आदमी से मत मिलवाना। हंसमुख रिश्वतवादा से। थोड़ी देर बाद किनारे बैठे शख्स परेशान हो उठे थे। मोटा आदमी उनकी हथेली खुरचने लगा था।
हिन्दी न्यूज़ चैनलों की घड़ी ठीक हो गई क्या?
आज तक से मिलाइये घड़ी। 6 बजे की खबरें ठीक 6 बजे। देखिए आज शाम ठीक 6 बजे। दोपहर में भी चल रहा था कि 2 बजे की ख़बरें 2 बजे। आज बहुत दिनों बाद इस तरह का फ्लैश देखा तो मन गदागद हो गया। कोई अगर तीन महीने बाद अमरीका से लौटा हो और हिन्दी न्यूज चैनल देख रहा हो तो चकरा जाएगा। एक चैनल कहता है कि 2 बजे की ख़बरें 1:57 पर देखिये। कोई चैनल यह कह रहा है कि 2 बजे की ख़बरें 2 बजे देखिये। पूछेगा ही कि हो क्या रहा है। 2 बजे की खबर 2 बजे नहीं देखते हैं तो कब देखते हैं और अब क्यों कह रहे हैं कि इस बजे की ख़बर इसी बजे देखिये। पता नहीं हिन्दी न्यूज चैनलों के इस टाइम ज़ोन को बदलने की शुरूआत किस चैनल ने की, इसकी सूचना नहीं है। मगर लोग कहते हैं कि तीन मिनट पहले खिसकाने की शुरूआत आज तक ने ही की थी। शुरू में 9 बजे की ख़बरें एक मिनट पहले आने लगी। फिर धीरे-धीरे टीआरपी पंडितों ने कहीं से फार्मूला निकाला कि हम दो मिनट पहले ही शुरू कर देते हैं तो इस खेल में और इसकी चपेट में सारे चैनल आ गए। मुझे भी अपनी रिपोर्ट का वक्त बताने में तकलीफ होती है। लोगों को 9:28 बजे का समय बोध कराते यानी रटाते-रटाते थक गया हूं। अगर आज तक के इस प्रभाव में ये तकलीफ दूर हो जाए तो खुशी होगी। वर्ना मैंने तो इस उम्मीद में इसी ब्लॉग पर लेख दिया था कि जल्दी ही 2 बजे की ख़बरें 1:30 बजे होने लगेंगी। पर हिन्दी न्यूज़ चैनलों की एक सबसे बड़ी ख़ूबी पर किसी की नज़र नहीं गई है। वो ख़ूबी यह है कि यहां हर बुराई अस्थाई है। अस्थाई बुराइयों का ऐसा सिलसिला है जो टूटता नहीं बल्कि स्वरूप बदलता रहता है।
तो आज तक पर नज़र पड़ते ही मुझे दो,तीन और चार बजे जैसे समय बोध की सम्मान वापसी पर खुशी हुई। किसी ने बताया कि आज तक ने यह भी कहा कि सोच कर देखिये कि अगर दो बजे की फ्लाईट तीन मिनट पहले उड़ जाए तो क्या हो। अगर वाकई ऐसा चला है तो इस आइडिया के अन्वेषक को बधाई। काश पहले ही सोच कर सोच लिया गया होता। ट्रको पर लिखा होता है सोच कर सोचो साथ क्या जाएगा। चलिये अब ख़बरों की उड़ान तीन मिनट पहले शुरू नहीं होगी। यह सब बदलाव साबित करते हैं कि टीआरपी और उसका अध्ययन-विश्लेषण पूरा फ्राड मामला है। एक्ज़िट पोल की तरह। काश इसे कोई चुनाव आयोग टाइप की संस्था बंद करवा देती। वैसे स्वीस कंपनी के साथ मिलकर एक नई घड़ी बनानी की मेरी योजना पर पानी फेर दिया है आज तक ने। मैं एक ऐसी घड़ी बनवा रहा था जिसमें 12 की जगह 11:57 और 9 की जगह 8:57 लिखा होता। दुनिया की पहली घड़ी होती तो हिन्दी न्यूज़ चैनलों के हिसाब से होती। ख़ैर। कोई पहली बार नहीं है जब कोई सपना टूटा हो।
उम्मीद की जानी चाहिए कि परम अनुकरणीय आज तक की इस पहल का सब अनुकरण करेंगे। उसका असर मेरी रिपोर्ट के समय पर भी होगा। IBN-7 पर तो एक विज्ञापन भी देखा। न धोनी न सहवाग। देखिये शाम 6:30 बजे। मेरी खुशी और दुगनी हो गई। IBN-7 ने यह नहीं कहा कि देखिये शाम 6:27 बजे। लेकिन स्क्रोल के स्पेस पर चल रहा था नो एंट्री-6:27 बजे। मेरी खुशी उतर गई। थोड़ा तो वक्त लगेगा वक्त को सुधरने में। इंतज़ार कर लेंगे। इंडिया टीवी पर लेख लिखे जाने के वक्त फ्लैश आ रहा था-गंभीर बेच रहे हैं-7बजे। पता नहीं तीन मिनट पहले ही बेचने लगे या फिर ठीक सात बजे से बेचने लगे। देख नहीं सका। वैसे हिन्दी चैनलों के बीच नकल को लेकर हमेशा से स्वस्थ प्रतियोगिता रही है। मैंने कभी नहीं सुना कि कोई चैनल दूसरे चैनल को डांट रहा हो कि स्पीड न्यूज़ मैंने शुरू की तो आपने नकल क्यों की? बल्कि सब इस बात में खुशी होते हैं कि देखा नकल हो रही है,मेरा आइडिया सही था। इसीलिए हम अलग उत्पाद की खोज सिर्फ अपने लिए नहीं करते,औरों के लिए भी करते हैं। किसी बिजनेस में आपने ऐसी स्वस्थ प्रतियोगिता देखी है?
जल्दी ही मैं एनबीए नाम की संस्था से मांग करने वाला हूं कि न्यूज़ चैनलों को ट्रैफिक रेगुलेटर की भी ज़रूरत है। कुछ ख़बरों की रफ्तार इतनी तेज हो चुकी है कि चेतना के स्तर पर दुर्घटना होने का ख़तरा है। स्पीड न्यूज़ की रफ्तार तय होनी चाहिए। जब कारों के लिए स्पीड ब्रेकर है तो न्यूज़ के लिए क्यों न हो। निर्बाध गति से खबरों की रफ्तार नहीं होनी चाहिए। स्पीड न्यूज़ में लगने वाले क्लच ब्रेक और रगड़ खाते चक्कों की आवाज़ से उत्तेजना फैलती है। स्पीड न्यूज़ देखने के बाद हो सकता है कि कोई अपनी कार की रफ्तार तीन गुनी तेज़ कर दे। सारी दूरियां तीन मिनट में तय कर लेने के लिए। संपादक योग शक्ति से अपनी क्षमता का विकास कर लें। तीन मिनट में तीन सौ खबरों पर फैसला देने का। उप संपादक और संवाददाता तीन सेकेंड में तीस ख़बरों के निर्देश सुनने और समझने की क्षमता का विकास कर लें। नहीं कर सकते हैं तो मुझसे कहिए। मैं आईआईटी रूड़की जाकर लिप्स्टिक से एक न्यूज़ मानव तैयार करता हूं। जो फिजिक्स को भी बदल देगा कि खबरों की रफ्तार प्रकाश और ध्वनि से भी तेज़ होती है। क्या करें? हिन्दी न्यूज़ चैनलों के पास वक्त कम है। धीरज भी कम है। उन्हें सुपर सोनिक स्पीड की तलाश है ताकि तीन हज़ार ख़बरें एक ही मिनट में निपटा कर स्वर्ग और सेक्स जैसे विषयों में वक्त लगा सकें। इसके लिए टाइम और स्पीड दोनों ज़रूरी हैं। वैसे मैं 2010 को हिन्दी न्यूज़ चैनलों के सुपर-सोनिक वर्ष के रूप में मनाना चाहता हूं।
(लिप्स्टिक का संदर्भ यह है कि रूड़की में एक प्रतियोगिता हो गई। लड़कों ने लड़कियों के होठों पर अपने दांतों के बीच दबी लिप्स्टिक लगा दी,न्यूज़ चैनलों ने मार कर दिया,कालेज प्रशासन ने लिप्स्टिक रोगन प्रतियोगिता में शामिल अधर-द्वय को सस्पेंड कर दिया,बहुत नाइंसाफी है)
तो आज तक पर नज़र पड़ते ही मुझे दो,तीन और चार बजे जैसे समय बोध की सम्मान वापसी पर खुशी हुई। किसी ने बताया कि आज तक ने यह भी कहा कि सोच कर देखिये कि अगर दो बजे की फ्लाईट तीन मिनट पहले उड़ जाए तो क्या हो। अगर वाकई ऐसा चला है तो इस आइडिया के अन्वेषक को बधाई। काश पहले ही सोच कर सोच लिया गया होता। ट्रको पर लिखा होता है सोच कर सोचो साथ क्या जाएगा। चलिये अब ख़बरों की उड़ान तीन मिनट पहले शुरू नहीं होगी। यह सब बदलाव साबित करते हैं कि टीआरपी और उसका अध्ययन-विश्लेषण पूरा फ्राड मामला है। एक्ज़िट पोल की तरह। काश इसे कोई चुनाव आयोग टाइप की संस्था बंद करवा देती। वैसे स्वीस कंपनी के साथ मिलकर एक नई घड़ी बनानी की मेरी योजना पर पानी फेर दिया है आज तक ने। मैं एक ऐसी घड़ी बनवा रहा था जिसमें 12 की जगह 11:57 और 9 की जगह 8:57 लिखा होता। दुनिया की पहली घड़ी होती तो हिन्दी न्यूज़ चैनलों के हिसाब से होती। ख़ैर। कोई पहली बार नहीं है जब कोई सपना टूटा हो।
उम्मीद की जानी चाहिए कि परम अनुकरणीय आज तक की इस पहल का सब अनुकरण करेंगे। उसका असर मेरी रिपोर्ट के समय पर भी होगा। IBN-7 पर तो एक विज्ञापन भी देखा। न धोनी न सहवाग। देखिये शाम 6:30 बजे। मेरी खुशी और दुगनी हो गई। IBN-7 ने यह नहीं कहा कि देखिये शाम 6:27 बजे। लेकिन स्क्रोल के स्पेस पर चल रहा था नो एंट्री-6:27 बजे। मेरी खुशी उतर गई। थोड़ा तो वक्त लगेगा वक्त को सुधरने में। इंतज़ार कर लेंगे। इंडिया टीवी पर लेख लिखे जाने के वक्त फ्लैश आ रहा था-गंभीर बेच रहे हैं-7बजे। पता नहीं तीन मिनट पहले ही बेचने लगे या फिर ठीक सात बजे से बेचने लगे। देख नहीं सका। वैसे हिन्दी चैनलों के बीच नकल को लेकर हमेशा से स्वस्थ प्रतियोगिता रही है। मैंने कभी नहीं सुना कि कोई चैनल दूसरे चैनल को डांट रहा हो कि स्पीड न्यूज़ मैंने शुरू की तो आपने नकल क्यों की? बल्कि सब इस बात में खुशी होते हैं कि देखा नकल हो रही है,मेरा आइडिया सही था। इसीलिए हम अलग उत्पाद की खोज सिर्फ अपने लिए नहीं करते,औरों के लिए भी करते हैं। किसी बिजनेस में आपने ऐसी स्वस्थ प्रतियोगिता देखी है?
जल्दी ही मैं एनबीए नाम की संस्था से मांग करने वाला हूं कि न्यूज़ चैनलों को ट्रैफिक रेगुलेटर की भी ज़रूरत है। कुछ ख़बरों की रफ्तार इतनी तेज हो चुकी है कि चेतना के स्तर पर दुर्घटना होने का ख़तरा है। स्पीड न्यूज़ की रफ्तार तय होनी चाहिए। जब कारों के लिए स्पीड ब्रेकर है तो न्यूज़ के लिए क्यों न हो। निर्बाध गति से खबरों की रफ्तार नहीं होनी चाहिए। स्पीड न्यूज़ में लगने वाले क्लच ब्रेक और रगड़ खाते चक्कों की आवाज़ से उत्तेजना फैलती है। स्पीड न्यूज़ देखने के बाद हो सकता है कि कोई अपनी कार की रफ्तार तीन गुनी तेज़ कर दे। सारी दूरियां तीन मिनट में तय कर लेने के लिए। संपादक योग शक्ति से अपनी क्षमता का विकास कर लें। तीन मिनट में तीन सौ खबरों पर फैसला देने का। उप संपादक और संवाददाता तीन सेकेंड में तीस ख़बरों के निर्देश सुनने और समझने की क्षमता का विकास कर लें। नहीं कर सकते हैं तो मुझसे कहिए। मैं आईआईटी रूड़की जाकर लिप्स्टिक से एक न्यूज़ मानव तैयार करता हूं। जो फिजिक्स को भी बदल देगा कि खबरों की रफ्तार प्रकाश और ध्वनि से भी तेज़ होती है। क्या करें? हिन्दी न्यूज़ चैनलों के पास वक्त कम है। धीरज भी कम है। उन्हें सुपर सोनिक स्पीड की तलाश है ताकि तीन हज़ार ख़बरें एक ही मिनट में निपटा कर स्वर्ग और सेक्स जैसे विषयों में वक्त लगा सकें। इसके लिए टाइम और स्पीड दोनों ज़रूरी हैं। वैसे मैं 2010 को हिन्दी न्यूज़ चैनलों के सुपर-सोनिक वर्ष के रूप में मनाना चाहता हूं।
(लिप्स्टिक का संदर्भ यह है कि रूड़की में एक प्रतियोगिता हो गई। लड़कों ने लड़कियों के होठों पर अपने दांतों के बीच दबी लिप्स्टिक लगा दी,न्यूज़ चैनलों ने मार कर दिया,कालेज प्रशासन ने लिप्स्टिक रोगन प्रतियोगिता में शामिल अधर-द्वय को सस्पेंड कर दिया,बहुत नाइंसाफी है)
सिन्दूर के तीस रंग
मध्यप्रदेश के ओरछा में राम राजा मंदिर के बाहर बिक रही सिन्दूर की कठौतियों की तस्वीर है। दुकानदार ने बताया कि पिछले दो दशकों से देहात की औरतें साड़ी के रंग से मिलान करके सिन्दूर लगाने लगी हैं। ये रंगोली बनाने के लिए अबीर-गुलाल नहीं हैं बल्कि सिन्दूर ही हैं। ओरछा के राम राजा मंदिर में देहातों से महिलाएं आती हैं। अपने साथ ग्रे, ब्लू, बैंगनी और गुलाबी रंग के सिन्दूर खरीद कर ले जाती हैं। सिन्दूर का लाल रंग भी कई वेरायटी में मिलता है। कत्थई से लेकर सुरमई और गाढ़ा लाला। तीस से अधिक प्रकार के रंग दिखे। पता करने की कोशिश की कि कहीं सीरीयलों का असर तो नहीं हैं लेकिन यहां बिजली की कमी और भयंकर गरीबी के कारण कई घरों में टीवी नहीं है।
राजशाही चूल्हा
उत्तरप्रदेश के मुज़फ्फरनगर के मोहम्मदपुर जाट गांव गया था। बीस बीघे के जोतदार एक मुस्लिम परिवार का चूल्हा है। चूल्हे की बनावट मुगलकालीन महलों से मिलती है। बीच के खंभे की शक्ल महलों के खंभे से मिलती है। चूल्हे की एक छत है जिस पर बर्तन रखे गए हैं। छत पर छज्जे भी बने हैं। पूरी तरह से एक किले का रूप झलकता है। राजशाही चूल्हा लगता है। इन चूल्हे में रात भर उपले की हल्की आंच में दूध रख दिया जाता है। जिससे घी और मलाई बनती है। छाछ भी सुबह सुबह तैयार हो जाती है। रसोई के आस-पास का माहौल गोबर से लीप कर साफ कर दिया गया है। बाकी भोजन बगल के छोटे चूल्हे में तैयार होता होगा।
एक कमरा हो सपनों का
मुज़फ़्फ़रनगर के मालेरी गांव गया था। वहां एक दलित परिवार की बेटी मोनिका से मिलना था। मोनिका के पिता ट्रक से सामान उतारने की मज़दूरी करते हैं। एक कमरे में छह वयस्कों का परिवार रहता है। मगर कमरे की सजावट बता रही थी कि अपने घर को सुन्दर रखने की जिज्ञासा कितना कलात्मक बना देती है। दस बाई दस फुट के इस कमरे की सजावट देखने लायक थी। हर कोना साफ। एक छोटा सा पंखा लटका था उसे भी पुरानी साड़ी से लपेट दिया गया था। कमरे की छत खराब थी। इसलिए उसे छुपाने के लिए पुरानी साड़ी का इस्तमाल किया गया है। जैसे शामियाने में करते हैं। छत की सुन्दरता देखने लायक रही। अंबेडकर,करीना,कृष्णा और कैटरीना सबकी तस्वीर थी। घड़ी भी है। टीवी और डीवीडी प्लेयर भी। मोनिका कहती है कि वो और उसके भाई चाहते हैं कि घर हमेशा साफ-सुथरा रहे। हालांकि गांव में व्यापक स्तर पर गंदगी का राज हो गया है। इसका कारण यह है कि गांव-गांव में पक्के मकान बिना योजना के बनने लगे हैं। नाली के पानी की निकासी का सार्वजनिक इंतज़ाम नहीं है। प्लास्टिक के टेट्रापैक औऱ गुटका के पाउच से कचरे का ढेर जमा हो रहा है।
खोमचाप्लेक्स- सिनेमा का नया अड्डा
पूरे देश में खोमचाप्लेक्स की मौजूदगी पर किसी की निगाह नहीं गई। खोमचाप्लेक्स मल्टीप्लेक्स के बरक्स गली-गली में पसर गया है। पान,बीड़ी,गुटका,चिप्स,बिसलरी,माचिस,बिस्कुट जैसी तमाम एफएमसीजी उत्पादों को बेचने वाले खोमचे सिनेमा हॉल का काम कर रहे हैं। बीच में टीवी रखा होता है जिसमें केबल या डीवीडी के ज़रिये या तो कोई फिल्म चल रही होती है। जब फिल्म नहीं चल रही होती है तो कोई म्यूज़िक वीडियो या फिर रामायण महाभारत का प्रसारण चल रहा होता है। पान खाने आए या बेकार घूम रहे लोग पांच-दस मिनट के लिए खड़े हो जाते हैं और संवाद में ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि होश ही न रहे कि घर भी जाना है। ये लोग मुफ्त का सिनेमा देखने का कोई मौका नहीं छोड़ते। पता नहीं अभी तक किसी खोमचेवाले को ये आइडिया क्यों नहीं आया कि वो एक या दो रुपये की उगाही भी कर ले। मध्यप्रदेश के ओरछा में जिस भी दुकान पर गया वहां टीवी लगा देखा। आठ-दस लोगों से गुमटी घिरी रहती थी। लोग तल्लीन होकर सिनेमा देख रहे थे। पूरी फिल्म देखने का सब्र भले ही इक्का दुक्का में हो लेकिन दर्शकों का एक तबका इस तरह से भी सिनेमा देख रहा है।
मोहल्ला,जनतंत्र और यात्रा द्वारा प्रायोजित बहसतलब में अनुराग कश्यप ने कहा था कि फिल्म मेकिंग की एक बड़ी प्रोब्लम है, इंटरवल। ताकि इंटरवल के दौरान एफएमसीजी उत्पादों की बिक्री हो सके। दर्शक टिकट के साथ पॉपकार्न और कोक पर भी खर्च करे। अब तो कई हॉल में चिकन नगेट्स भी मिलने लगे हैं। टिकट चेक करने वाला सीट पर ही मेन्यू लेकर आ जाता है और डिलिवरी कर देता है। खोमचाप्लेक्स में ऐसा नहीं है। सामान के बिकने के लिए इंटरवल की ज़रूरत ही नही हैं। फिल्म देखते हुए सामान खरीद सकते हैं या फिर सामान खरीदते हुए फिल्म देख सकते हैं। खोमचाप्लेक्स ज्यादा लचीला है। आप कभी भी किसी भी प्वाइंट से सिनेमा देख सकते हैं और बिना बताये एक्ज़िट मार सकते हैं।
खोमचाप्लेक्स ज्यादातर बी और सी ग्रेड शहरों में लोकप्रिय हो रहे हैं। चौराहों की रौनक अब इन्हीं से गुलज़ार होती है। कुछ खोमचे में व्यक्तिगत दर्शन के लिए टीवी या डीवीडी का इंतज़ाम होता है जबकि ज्यादातर खोमचे सार्वजनिक मनोरंजन के हिसाब से बने होते हैं। इनमें टीवी इस तरह से रखा होता है कि ज्यादा से ज्यादा लोग देख सकें। लगे कि दुकान के सामने भीड़ है। लोगों को सुनाई दे इसके लिए बड़े-बड़े स्पीकर भी लगे होते हैं। सबसे अधिक भीड़ गीत या मार-पीट या फिर क्लामेक्स के दृश्यों के वक्त होती है। समाजशास्त्री अध्ययन भी कर सकते हैं कि किस तरह के सीन में घुमंतू दर्शक ज्यादा देर तक अटकता है।
ग़ाज़ियाबाद के वैशाली मोहल्ले में भी कई खोमचे या गुमटी में लैपटॉप की साइज़ का डीवीटी प्लेयर रखा देखा। जिसमें केबल टीवी से कनेक्शन भी जुड़ जाता है। लाजपतराय मार्केट से चार से पांच हज़ार रुपये के चाइनीज़ लैपटॉप ने कमाल कर रखा है। इसके ज़रिये दुकानदार सामान बेचते हुए सिनेमा का लुत्फ उठा रहा है। पांच हज़ार रुपये में लैपटॉप की शक्ल का टीवी वो भी डीवीडी युक्त। जो लोग सिनेमा के बाज़ार को खोज रहे हैं उन्हें इन दुकानों के ज़रिये सिनेमा के प्रसारण का सामाजिक अध्ययन करना चाहिए। कम से कम सिनेमा की भूख का लाभ उठा कर कोई चाइनीज़ कंपनी डीवीडी प्लेयर का नया वेराइटी उतारकर पैसा तो बना ही रही है। सिनेमा या सीरीयल की भूख मिटाने के लिए बाज़ार इंतज़ार नहीं करता। वो सामान ले आता है।
दर्शकों के बीच नेता, नेताओं के बीच खेल
राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान स्टेडियम में दर्शकों के बीच सोनिया गांधी और राहुल गांधी की मौजूदगी की तस्वीरें आपने देंखी होंगी। भारत पाकिस्तान के बीच हुए हॉकी मैच में सोनिया गांधी ताली बजा रही हैं। जीत पर दोनों हाथ उठा कर जश्न में शामिल हो रही हैं। आम तौर पर सार्वजनिक जीवन में अति-गंभीर दिखने वाली सोनिया की यह तस्वीर थोड़ी अलग है। राजनीति में सांकेतिक कार्यों का अपना महत्व है। सवा सौ साल की बूढ़ी कांग्रेस अपने इन्हीं सांकेतिक प्रतीकों के सहारे अचानक जवान लगने लगती है। जबकि कई नौजवान पार्टियों के नेता ऐसे आयोजनों में दिखाई नहीं देते है। उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि जब भी जनता के बीच जायें गंभीरता का लबादा ओढ़ना ज़रूरी है।
शायद यही प्रवृत्ति राजनीति को जीवन से दूर कर देती है। पहलवानी से जीवन शुरू करने वाले मुलायम सिंह यादव भी सुशील कुमार की शानदार कुश्ती देखने जा सकते थे। दर्शकों के बीच बैठकर जब हर दांव पर दाद देते और उन्हें समझाते तो अलग ही माहौल बनता। किताबों में खोये रहने वाले प्रकाश करात अगर किसी दर्शक दीर्घा में होते तो मार्क्सवाद का नुकसान नहीं हो जाता। मायावती अगर महिला तीरंदाजी का मैच ही देख आती तों कम से कम लाखों दलितों में एक नया संदेश तो जाता ही। समाज के विकास के कई मानक हैं। खेल भी एक मानक है। उमर अब्दुल्ला अगर किसी मैच में ताली बजा रहे होते तो पता चलता कि विलय पर सवाल उठा कर वो एक देश के जश्न से बाहर होने का कितना बड़ा मौका खोने जा रहे थे। मध्यप्रदेश में कुपोषण के शिकार बच्चों को अंडा न देने पर अड़े शिवराज सिंह चौहान अगर उन्हें अंडा भी खिला देते और मध्यप्रदेश के खिलाड़ियों के मैच में आकर हौसला भी बढ़ा देते तो राज्य में एक नई ऊर्जा का संचार हो जाता। जनता को प्रोटीन चाहिए। प्रोटीन चाहे दाल से मिले या अंडा से।
आखिर खेलों के दौरान राहुल सोनिया,शीला,भूप्रेंद्र सिंह हुड्डा ही क्यों देखने आए? क्या यह आयोजन कांग्रेस नीत सरकार का था इसलिए? फिल्मों में रुचि रखने वाले लाल कृष्ण आडवाणी को भी अपनी पूरी पार्टी के नेताओं के साथ किसी स्टेडियम में होना चाहिए था। कम से कम आडवाणी तो ऐसे मौके पर राजनेता की एकरंगी छवि को तोड़ने की कोशिश करते हैं। उन्हें इस बात से झिझक नहीं होती कि कंगना रानाऊत के साथ तस्वीर खिंच जाने पर जनता क्या कहेगी। किताबों और सितारों के आसानी से रिश्ता बना लेने वाला आडवाणी खिलाड़ियों के बीच भी कम जवान नहीं लगते। शुभारंभ समारोह में आडवाणी की मौजूदगी औपराचिक थी। लेकिन अगर वो किसी सामान्य मैच में ताली बजा रहे होते और दोनों उठाकर झूम रहे होते तो खेलों को सही मायने में सार्वजनिक होने का मौका मिलता। अरुण जेटली के अलावा बीजेपी के बड़े नेताओं को भी खेलों में दिलचस्पी दिखानी चाहिए।
ठीक है कि सोनिया और राहुल गांधी ने खेलों के लिए कुछ भी ऐसा बड़ा काम नहीं किया है जिससे स्टेडियम में उनकी मौजूदगी को एक हद से आगे सराहा जाए। सुरेश कलमाडी उसी कांग्रेस की देन है जिनका नाम आजकल राष्ट्रीय अनादर के संदर्भ में लिया जा रहा है। मणिशंकर अय्यर उसी कांग्रेस की पैदाइश रहे हैं जो राष्ट्रमंडल खेलों में हज़ारों करोड़ों रुपये के घोटाले के आरोप लगा रहे हैं। इसके बाद भी सोनिया राहुल ने दर्शक बन कर खेलों का लुत्फ उठाने का प्रयास किया है तो दोनों की तस्वीर अखबारों में छपने लायक बन ही जाती है। दोनों समझते हैं कि खेल भी सार्वजनिक जीवन का हिस्सा हैं।
राजनेताओं ने खेल को कुछ नहीं दिया। बड़े खेलों के आयोजन के अलावा। हरियाणा के भिवानी के बारे में लोगों को तब पता चला जब यहां के बॉक्सरों ने बीजिंग ओलम्पिक में तहलका मचा दिया। भिवानी के गांव-गांव में बिना सोनिया-राहुल के ही खेल संस्कार पैदा हो गए हैं। राहुल गांधी को भिवानी जाकर देखना चाहिए कि किस तरह से यहां बॉक्सिंग ही नहीं कई तरह के खेलों को बढ़ावा मिल रहा है। इसमें भारतीय खेल प्राधिकरण की भूमिका को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। लेकिन अगर राहुल अपनी दिलचस्पी को तस्वीरों से आगे ले जाना चाहते हैं तो उन्हें भिवानी जाकर समझना चाहिए कि सिस्टम बेहतर होता तो भारत का प्रदर्शन कितना अच्छा होता। हम अजीब देश है,मामूली उपलब्धियों पर भी गौरव का ढिंढ़ोरा पीटने लगते हैं।
खेलों की तमाम तैयारियों को देंखें तो बड़े शहरों में केंद्रित हैं। जबकि कामयाब खिलाड़ी महानगरों से बाहर के हैं। हमारी सरकारों ने इनाम में दरियादिली तो खूब दिखाई है। हरियाणा से लेकर मध्यप्रदेश तक सब लाखों रुपये दे रहे हैं। मगर सिर्फ विजेता खिलाड़ी और कोच के लिए हैं। खिलाड़ी के लिए नहीं। जो हार गया है उसका हौसला बढ़ाने के लिए कुछ नहीं। दिल्ली के अखाड़ों की हालत देख आइये। हरियाणा के अखाड़ों की भी हालत खराब मिलेगी। गनीमत है कि हरियाणा के ग्रामीण पहलवानी को सम्मान देते हैं। गांव में चाचा-ताऊ बीस-बीस किलोमीटर अपने बेटे-भतीजे के लिए दूध लेकर जाते हैं। मध्यमवर्ग भी कम ढोंगी नहीं है। कोई अपने बेटे को पहलवानी में नहीं भेजेगा। हज़ारों रुपये लगाकर जिम में ज़रूर भेज देगा। हमारा मध्यमवर्ग सिर्फ ताली बजाकर देशभक्त होना चाहता है। राजनीति भी मध्यमवर्ग की तरह प्रतीकात्मक होती जा रही है।
(यह लेख राजस्थान पत्रिका में छपा है)
शायद यही प्रवृत्ति राजनीति को जीवन से दूर कर देती है। पहलवानी से जीवन शुरू करने वाले मुलायम सिंह यादव भी सुशील कुमार की शानदार कुश्ती देखने जा सकते थे। दर्शकों के बीच बैठकर जब हर दांव पर दाद देते और उन्हें समझाते तो अलग ही माहौल बनता। किताबों में खोये रहने वाले प्रकाश करात अगर किसी दर्शक दीर्घा में होते तो मार्क्सवाद का नुकसान नहीं हो जाता। मायावती अगर महिला तीरंदाजी का मैच ही देख आती तों कम से कम लाखों दलितों में एक नया संदेश तो जाता ही। समाज के विकास के कई मानक हैं। खेल भी एक मानक है। उमर अब्दुल्ला अगर किसी मैच में ताली बजा रहे होते तो पता चलता कि विलय पर सवाल उठा कर वो एक देश के जश्न से बाहर होने का कितना बड़ा मौका खोने जा रहे थे। मध्यप्रदेश में कुपोषण के शिकार बच्चों को अंडा न देने पर अड़े शिवराज सिंह चौहान अगर उन्हें अंडा भी खिला देते और मध्यप्रदेश के खिलाड़ियों के मैच में आकर हौसला भी बढ़ा देते तो राज्य में एक नई ऊर्जा का संचार हो जाता। जनता को प्रोटीन चाहिए। प्रोटीन चाहे दाल से मिले या अंडा से।
आखिर खेलों के दौरान राहुल सोनिया,शीला,भूप्रेंद्र सिंह हुड्डा ही क्यों देखने आए? क्या यह आयोजन कांग्रेस नीत सरकार का था इसलिए? फिल्मों में रुचि रखने वाले लाल कृष्ण आडवाणी को भी अपनी पूरी पार्टी के नेताओं के साथ किसी स्टेडियम में होना चाहिए था। कम से कम आडवाणी तो ऐसे मौके पर राजनेता की एकरंगी छवि को तोड़ने की कोशिश करते हैं। उन्हें इस बात से झिझक नहीं होती कि कंगना रानाऊत के साथ तस्वीर खिंच जाने पर जनता क्या कहेगी। किताबों और सितारों के आसानी से रिश्ता बना लेने वाला आडवाणी खिलाड़ियों के बीच भी कम जवान नहीं लगते। शुभारंभ समारोह में आडवाणी की मौजूदगी औपराचिक थी। लेकिन अगर वो किसी सामान्य मैच में ताली बजा रहे होते और दोनों उठाकर झूम रहे होते तो खेलों को सही मायने में सार्वजनिक होने का मौका मिलता। अरुण जेटली के अलावा बीजेपी के बड़े नेताओं को भी खेलों में दिलचस्पी दिखानी चाहिए।
ठीक है कि सोनिया और राहुल गांधी ने खेलों के लिए कुछ भी ऐसा बड़ा काम नहीं किया है जिससे स्टेडियम में उनकी मौजूदगी को एक हद से आगे सराहा जाए। सुरेश कलमाडी उसी कांग्रेस की देन है जिनका नाम आजकल राष्ट्रीय अनादर के संदर्भ में लिया जा रहा है। मणिशंकर अय्यर उसी कांग्रेस की पैदाइश रहे हैं जो राष्ट्रमंडल खेलों में हज़ारों करोड़ों रुपये के घोटाले के आरोप लगा रहे हैं। इसके बाद भी सोनिया राहुल ने दर्शक बन कर खेलों का लुत्फ उठाने का प्रयास किया है तो दोनों की तस्वीर अखबारों में छपने लायक बन ही जाती है। दोनों समझते हैं कि खेल भी सार्वजनिक जीवन का हिस्सा हैं।
राजनेताओं ने खेल को कुछ नहीं दिया। बड़े खेलों के आयोजन के अलावा। हरियाणा के भिवानी के बारे में लोगों को तब पता चला जब यहां के बॉक्सरों ने बीजिंग ओलम्पिक में तहलका मचा दिया। भिवानी के गांव-गांव में बिना सोनिया-राहुल के ही खेल संस्कार पैदा हो गए हैं। राहुल गांधी को भिवानी जाकर देखना चाहिए कि किस तरह से यहां बॉक्सिंग ही नहीं कई तरह के खेलों को बढ़ावा मिल रहा है। इसमें भारतीय खेल प्राधिकरण की भूमिका को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। लेकिन अगर राहुल अपनी दिलचस्पी को तस्वीरों से आगे ले जाना चाहते हैं तो उन्हें भिवानी जाकर समझना चाहिए कि सिस्टम बेहतर होता तो भारत का प्रदर्शन कितना अच्छा होता। हम अजीब देश है,मामूली उपलब्धियों पर भी गौरव का ढिंढ़ोरा पीटने लगते हैं।
खेलों की तमाम तैयारियों को देंखें तो बड़े शहरों में केंद्रित हैं। जबकि कामयाब खिलाड़ी महानगरों से बाहर के हैं। हमारी सरकारों ने इनाम में दरियादिली तो खूब दिखाई है। हरियाणा से लेकर मध्यप्रदेश तक सब लाखों रुपये दे रहे हैं। मगर सिर्फ विजेता खिलाड़ी और कोच के लिए हैं। खिलाड़ी के लिए नहीं। जो हार गया है उसका हौसला बढ़ाने के लिए कुछ नहीं। दिल्ली के अखाड़ों की हालत देख आइये। हरियाणा के अखाड़ों की भी हालत खराब मिलेगी। गनीमत है कि हरियाणा के ग्रामीण पहलवानी को सम्मान देते हैं। गांव में चाचा-ताऊ बीस-बीस किलोमीटर अपने बेटे-भतीजे के लिए दूध लेकर जाते हैं। मध्यमवर्ग भी कम ढोंगी नहीं है। कोई अपने बेटे को पहलवानी में नहीं भेजेगा। हज़ारों रुपये लगाकर जिम में ज़रूर भेज देगा। हमारा मध्यमवर्ग सिर्फ ताली बजाकर देशभक्त होना चाहता है। राजनीति भी मध्यमवर्ग की तरह प्रतीकात्मक होती जा रही है।
(यह लेख राजस्थान पत्रिका में छपा है)
राम अब लीगल हो गए हैं।
कोई भी फ़ैसला मुकम्मल नहीं हो सकता न ही कोई समीक्षा हो सकती है। परिवार में भाइयों के बीच जिस तरह ज़मीन का बंटवारा होता है,उसी तरह का बंटवारा है। बेहतर है तीनों छिट-पुट मनमुटावों के साथ-साथ एक व्यापक सहमति के साथ जीना सीख लें। उसी तरह जैसे गांव में बंटवारे के बाद भी तीनों भाई एक ही साथ अपने बच्चे का रिश्ता करने जाते हैं। उन्हें मालूम होता है कि तीनों भाइयों में दामाद को लेकर एक किस्म की प्रतिस्पर्धा होती है,फिर भी वो एक चौकी पर बैठे होते हैं, बताने के लिए कि हमारा परिवार कितना महान है। यह सब कुछ सिर्फ नौटंकी नहीं होती। कुछ रिश्ते तो फिर भी बचे ही रह जाते हैं जिसके नाम पर हम चाचा को प्रणाम करते हैं और बड़ी मां का दिया हुआ खा लेते हैं। जानते हुए कि बंटवारे के वक्त ज़मीन के एक कतरे को लेकर किस तरह से नरक रच दिया गया था। हिन्दुस्तान में हर दिन किसी न किसी का परिवार ज़मीन के टुकड़ों में बंटता है। फिर भी रिश्ते बचे रह जाते हैं। झगड़े चलते रहते हैं। यह हिन्दुओं में भी होता है और मुसलमानों में भी।
यह फ़ैसला इसी नज़ीर को आगे बढ़ाता है। ज़मीन तो सबको मिलेगी। कोई इसे पंचायत का फैसला बता कर खारिज कर सकता है। इसका फैसला पंचायती शक्ल में ही हो सकता था। कोई इसे यह कह कर भी खारिज कर सकता है कि आस्था पर अदालत का फैसला आया है। इसके परिणाम ज़रूर अच्छे नहीं होंगे। मगर इस फैसले को इसी मुकदमे के संदर्भ में रखकर सोचा जाना चाहिए। क्या हम यह मानकर चलते हैं कि अदालतें नास्तिक हैं। वो सिर्फ कानून पर चलती हैं। कानून कैसे बनता है? परंपराओं और परंपरा विरोधी दलीलों के बीच चलने वाले द्वंद से। जिसमें दोनों का पलड़ा भारी होता रहता है। यही हुआ। सेवानिवृत जस्टिस शर्मा ने अपनी ब्राह्मणवादी व्याख्या में पूरी ज़मीन राम को देने की बात लिखी है। मगर मानी नहीं गई। अगर उनके अनुसार फैसला आता तो मैं भी ब्रह्मा का बालसखा बनकर पूरी कायनात या नहीं तो कम से कम भारत पर दावा कर देता कि ये मुल्क किसी और का नहीं सिर्फ और सिर्फ ब्रह्मा का है। जो सृष्टि के रचयिता हैं। मैं उसी ब्रह्मा का मित्र हूं। ये और बात है कि कोई सृष्टि के रचयिता को पूछता तक नहीं। सब उनकी सृष्टि को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट कर अपने-अपने हिस्से करने में लगे हैं। फिर भी एक बार सोचकर खुश हो गया कि वाह पूरा भारत मेरा। एक किसिम की ईस्ट इंडिया कंपनी बन जाता है। पोप्रटी डीलरों और बिल्डरों की एक नई सेना बनाकर उसका सुप्रीम कमांडर बन जाता। पूरे भारत में मेरी होर्डिंग लगी होती। ब्रह्मा सखा रवीश कुमार के मुल्क में एक घर आपका भी हो सकता है। टू बीएचके,थ्री बीएचके। इस फैसले के बाद मैं राम रूट बनवाना चाहता हूं। अयोध्या से श्रीलंका तक का एक्सप्रेस वे।
मुद्दे की आलोचनाओं से यह कहां साबित होता है कि पदों पर बैठे लोग धार्मिक नहीं हैं। उनकी सोच धार्मिक तत्वों से भी प्रभावित होती हैं। हमने ऐसा समाज तो रचा ही नहीं है। जब तक ऐसा समाज नहीं बनेगा तब तक मान्यताएं हमें अब अदालत की दहलीज़ से भी आदेश लेकर मनवाती रहेंगी। हमें जल्दी से याद भी कर लेना चाहिए कि यहीं वो अदालतें भी हैं जो कई बार मान्यताओं के ख़िलाफ़ भी खड़ी होती रही हैं। ईश्वर का वजूद शायद पहली बार किसी अदालत से तय हुआ होगा। यह चौरासी हज़ार देवी-देवताओं के लिए राहत की बात है। जल्दी से इनकी भी जनगणना कराकर एक सूची जारी कर देनी चाहिए ताकि हम बाद में पैदा होने वाले भगवानों को खारिज करते रहे। तीनों जजों ने राम की लाज रख ली। अब यह तय हो गया था कि भगवान राम एक जगह पर पैदा हुए थे। राम का वजूद लीगल हो गया। संघ परिवार कह सकता है कि राम सांस्कृतिक प्रतीक तो हैं ही,कानूनी भी हैं। जल्दी से अदालत सरकार से यह भी करे कि वो पूरी अयोध्या में खुदाई कर पता लगाए कि राम कहां-कहां खेले, स्वंयवर कहां हुआ और दशरथ ने दम कहां तोड़ा। इन सब का मंदिरनुमा स्मारक बनना चाहिए। पहली बार कोई भगवान लीगल हुए है तो जश्न में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए।
कहीं हम यह मान कर तो नहीं चल रहे थे कि फैसला एक तरफा आयेगा। हिन्दुओं की तरफ या मुसलमानों की तरफ। क़ब्ज़ा मुखालिफ़त का कानून तो पहले से विराजमान है। तमाम तरह के लोग मकान मालिकों के घरों में इसी दलील के दम पर घुसे पड़े हैं और पांच- पांच रुपये में रह रहे हैं। हिन्दू भी और मुसलमान भी। जब हम आस्था के नाम पर सरकार से साल में दस-दस छुट्टियां ले सकते हैं तो सरकार उसके नाम पर फैसला भी करवा सकती है। समाज खुद को भी तो इस किस्म के दोहरेपन से मुक्त करें। ठीक है कि साफ नहीं कि मुसलमानों को किस हिस्से की ज़मीन मिलेगी लेकिन जो भी ज़मीन मिलेगी वो होगी तो वहीं की और उन्हीं की। कोई सोने का मंदिर बना ले और चाहे तो कोई हीरे की मस्जिद।
बीजेपी यह राजनीति ज़रूर कर रही है कि मुसलमान सहयोग करें। भई अब मुसलमान क्या सहयोग करे। आपको ज़मीन मिली है और आप अपनी ज़मीन पर बनाइये। दूसरे की ज़मीन की बात क्यों कर रहे हैं। सहयोग की राजनीति के बहाने क्या आप यह कह रहे हैं कि मुसलमान अपना दावा छोड़ दें। वो दावा छोड़ेगा तभी राष्ट्रीय एकता का पुनर्निमाण होगा। इस देश में धर्मनिरपेक्षता का इम्तहान मुसलमान ही क्यों दे? बीजेपी क्यों नहीं ज़मीन दान कर देती है कि लो भाई तुम दुखी हो तो हमारे राम को ले लो। खुश रहो। बीजेपी किस दलील के दम पर कह रही हैं कि मंदिर के निर्माण से राष्ट्रीय एकता का पुनर्निमाण होगा। आप क्या हमें यह बता रहें हैं कि तीस सितंबर से पहले हम किसी किस्म के राष्ट्रीय एकता के माहौल में जी ही नहीं रहे थे। जो एकता अभी है उसके पुनर्निमाण की ज़रूरत क्या है। मंदिर राष्ट्रीय एकता का प्रतीक कैसे हो सकता है? अव्वल तो बीजेपी को फैसले की शाम बैठकर प्रतिक्रिया ही नहीं देनी चाहिए थी। रविशंकर प्रसाद छद्म धर्मनिरपेक्षों को गरियाने लगे। अरे भाई आप भी तो छद्म राष्ट्रवादी हैं। आपकी पार्टी में जब रेड्डी बंधु जैसे देशभक्त हैं तो फिर छद्म धर्मनिरपेक्षों को क्यों गरिया रहे हैं। रेड्डियों और मुंडाओं और सोरेने से कर लीजिए न राष्ट्रीय एकता का पुनर्निमाण।
नरेंद्र दामोदर मोदी तो गुजरात की जनता को शांति के लिए धन्यवाद देने लगे। उसी शाम को धन्यवाद देना था इनको। आकर यूपी में देख लेते। प्रशासन की सख्ती के आगे किसी भी जनता की हिम्मत नहीं हुई कि बाहर निकर आ जाएं। मायावती के अफसर देर रात तक अपने अपने विभागों की लाल बत्ती वाली गाड़ियां लेकर घूमते रहे। ठीक है कि कुछ हिन्दू जनता को लगा कि चलो उनकी आस्था की बात रह गई लेकिन आप देखेंगे कि आम हिन्दू(सवर्ण) भी उत्तेजित नहीं है। वो अपने घरों में ही रहा। वर्ना कर्फ्यू को तोड़ने के लिए पब्लिक सड़क पर तो निकल ही आती है न। वो भी जानती है कि ये मुद्दा मंदिर भर तक है। बीजेपी और संघ परिवार ने अयोध्या मुद्दे की एटीएम मशीन से नगद पहले ही निकाल कर खर्च कर लिया है। इसी तरह की प्रतिक्रिया मुस्लिम इलाकों में भी है। उन्हें दुख ज़रूर पहुंचा है मगर कोई पहाड़ नहीं टूटा है। फैसले से पहले पंद्रह दिनों तक पुरानी दिल्ली में टहलता रहा। सब यही कहते थे कि क्या फैसले से पहले वहां अस्पताल नहीं बन सकता। स्कूल बनवा दीजिए। उनकी भी लिस्ट में मस्जिद नहीं थी। फैसले के बाद मौलाना देहलवी ने फोन कर कहा कि भाई अब इस मुद्दे को छोड़ देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट नहीं जाना चाहिए। फैसले के अगले दिन लखनऊ एयरपोर्ट पर जेद्दा की फ्लाईट लेने के लिए बड़ी संख्या में मस्लिम परिवार आए थे। सब एक दूसरे को बिछड़ने के गम के साथ विदा कर रहे थे। कोई फैसले की बात नहीं कर रहे थे। एक सज्जन से पूछा तो मेरा सवाल रोक कर शमशाद को कहने लगे कि पासपोर्ट बनवा लेना। पलट कर कहा कि भाई अदालत का फैसला है। हम मानेंगे। हमें मंजूर नहीं हो तब भी मानेंगे। वाकई यह एक परिपक्व दौर है।
हाशिम अंसारी की प्रतिक्रिया के बराबर क्या किसी बीजेपी नेता की प्रतिक्रिया आपने सुनी? एक सदी के लगभग उनकी उम्र होने को आई। यह मुकदमा उनसे सिर्फ पैंतालीस साल ही तो छोटा है। फैसले के दिन पूरी मीडिया ने कटियार,आदित्यनाथ और कल्याण सिंह जैसे नेताओं पर रोक लगा रखी थी। इनको किसी ने पूछा ही नहीं। वो भी समझ गए हैं कि मंदिर मुद्दा नहीं है। अठारह साल पहले ही यह मुद्दा ध्वस्त हो गया था। बस कहने के लिए एक मुद्दा मिल रहा है कि देखो हम ठीक कहते थे। हमारी लड़ाई अदालत से साबित हुई है। कुछ चिरकुट लोग यह भी बता रहे थे कि भारत आगे बढ़ना चाहता है। वो ऐसे मुद्दों के भंवर में नहीं फंसेगा। ये लोग भारत को नहीं जानते। भारत जब 92 के बाद हुए दंगों और गुजरात के भयावह दंगों के बाद भी आगे बढ़ सकता है तो किसी फैसले से उसके आगे बढ़ने के टाइप्ड ड्रीम पर असर नहीं पड़ने वाला था।
अगर आप यह बतानें लगें कि भारत ब्राह्मणवादी नहीं रहा है तो नहीं मानूंगा। इस फैसले ने भी साबित किया है कि धर्म की व्याख्या इस देश में ब्राह्मणवादी ही होगी। गनीमत है कि राजनीतिक रूप से नहीं हो सकती वर्ना दलितो का उभार ठीक उसी वक्त नहीं होता जब देश में राम भक्तों का सियासी जलवा कायम हो रहा था। बेहतर है इस फैसले की संयमित राजनीतिक प्रतिक्रिया हो। उत्तेजित नहीं। दरअसल बात सिर्फ बीजेपी की नहीं है। सभी दलों में ऐसे कमज़ोर पक्ष हैं। उन्हें मालूम है कि कुछ कमज़ोरी और गलतियों के बाद भी उनका वजूद बना हुआ है। कांग्रेस हो या बीजेपी या फिर कोई भी सियासी दल,ये सब राष्ट्रीय एकता के कब ठेकेदार बन जाते हैं और कब धर्मनिरपेक्षता और तुष्टीकरण के वकील सबको मालूम है।
न धर्मनिरपेक्षता कमज़ोर हुई है न सांप्रदायिकता। इस गफ़लत में न रहें तो अच्छा होगा। देखना है तो हिन्दी के अखबारों की हेडलाइन्स देख लीजिए। नई दुनिया ने लाल लाल हेंडिंग लगाई और लिखा कि- वहीं रहेंगे रहेंगे रामलला। दैनिक जागरण ने लिखा- विराजमान रहेंगे रामलला। अमर उजाला- रामलला विराजमान रहेंगे। दैनिक भास्कर- भगवान को मिली भूमि। हिन्दुस्तान- मूर्तियां नहीं हटेंगी, ज़मीन बटेंगी। राष्ट्रीय सहारा- तीन हिस्सों में बांटी जाएगी ज़मीन। नवभारत टाइम्स ने लिखा- किसी एक की नहीं अयोध्या। राजस्थान पत्रिका की हेडिंग सबसे अच्छी थी-राम वहीं,पास में रहीम। छाती पीटने की ज़रूरत नहीं हैं। जैसा कि मैंने कहा कि कोई भी फैसला मुकम्मल नहीं होता और न ही उसकी समीक्षा। मुग़ल-ए-आज़म का डॉयलॉग याद आ गया- शहंशाहों के इंसाफ और ज़ुल्म में कितना कम फर्क होता है। टेंशन मत लीजिए।
यह फ़ैसला इसी नज़ीर को आगे बढ़ाता है। ज़मीन तो सबको मिलेगी। कोई इसे पंचायत का फैसला बता कर खारिज कर सकता है। इसका फैसला पंचायती शक्ल में ही हो सकता था। कोई इसे यह कह कर भी खारिज कर सकता है कि आस्था पर अदालत का फैसला आया है। इसके परिणाम ज़रूर अच्छे नहीं होंगे। मगर इस फैसले को इसी मुकदमे के संदर्भ में रखकर सोचा जाना चाहिए। क्या हम यह मानकर चलते हैं कि अदालतें नास्तिक हैं। वो सिर्फ कानून पर चलती हैं। कानून कैसे बनता है? परंपराओं और परंपरा विरोधी दलीलों के बीच चलने वाले द्वंद से। जिसमें दोनों का पलड़ा भारी होता रहता है। यही हुआ। सेवानिवृत जस्टिस शर्मा ने अपनी ब्राह्मणवादी व्याख्या में पूरी ज़मीन राम को देने की बात लिखी है। मगर मानी नहीं गई। अगर उनके अनुसार फैसला आता तो मैं भी ब्रह्मा का बालसखा बनकर पूरी कायनात या नहीं तो कम से कम भारत पर दावा कर देता कि ये मुल्क किसी और का नहीं सिर्फ और सिर्फ ब्रह्मा का है। जो सृष्टि के रचयिता हैं। मैं उसी ब्रह्मा का मित्र हूं। ये और बात है कि कोई सृष्टि के रचयिता को पूछता तक नहीं। सब उनकी सृष्टि को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट कर अपने-अपने हिस्से करने में लगे हैं। फिर भी एक बार सोचकर खुश हो गया कि वाह पूरा भारत मेरा। एक किसिम की ईस्ट इंडिया कंपनी बन जाता है। पोप्रटी डीलरों और बिल्डरों की एक नई सेना बनाकर उसका सुप्रीम कमांडर बन जाता। पूरे भारत में मेरी होर्डिंग लगी होती। ब्रह्मा सखा रवीश कुमार के मुल्क में एक घर आपका भी हो सकता है। टू बीएचके,थ्री बीएचके। इस फैसले के बाद मैं राम रूट बनवाना चाहता हूं। अयोध्या से श्रीलंका तक का एक्सप्रेस वे।
मुद्दे की आलोचनाओं से यह कहां साबित होता है कि पदों पर बैठे लोग धार्मिक नहीं हैं। उनकी सोच धार्मिक तत्वों से भी प्रभावित होती हैं। हमने ऐसा समाज तो रचा ही नहीं है। जब तक ऐसा समाज नहीं बनेगा तब तक मान्यताएं हमें अब अदालत की दहलीज़ से भी आदेश लेकर मनवाती रहेंगी। हमें जल्दी से याद भी कर लेना चाहिए कि यहीं वो अदालतें भी हैं जो कई बार मान्यताओं के ख़िलाफ़ भी खड़ी होती रही हैं। ईश्वर का वजूद शायद पहली बार किसी अदालत से तय हुआ होगा। यह चौरासी हज़ार देवी-देवताओं के लिए राहत की बात है। जल्दी से इनकी भी जनगणना कराकर एक सूची जारी कर देनी चाहिए ताकि हम बाद में पैदा होने वाले भगवानों को खारिज करते रहे। तीनों जजों ने राम की लाज रख ली। अब यह तय हो गया था कि भगवान राम एक जगह पर पैदा हुए थे। राम का वजूद लीगल हो गया। संघ परिवार कह सकता है कि राम सांस्कृतिक प्रतीक तो हैं ही,कानूनी भी हैं। जल्दी से अदालत सरकार से यह भी करे कि वो पूरी अयोध्या में खुदाई कर पता लगाए कि राम कहां-कहां खेले, स्वंयवर कहां हुआ और दशरथ ने दम कहां तोड़ा। इन सब का मंदिरनुमा स्मारक बनना चाहिए। पहली बार कोई भगवान लीगल हुए है तो जश्न में कोई कमी नहीं रहनी चाहिए।
कहीं हम यह मान कर तो नहीं चल रहे थे कि फैसला एक तरफा आयेगा। हिन्दुओं की तरफ या मुसलमानों की तरफ। क़ब्ज़ा मुखालिफ़त का कानून तो पहले से विराजमान है। तमाम तरह के लोग मकान मालिकों के घरों में इसी दलील के दम पर घुसे पड़े हैं और पांच- पांच रुपये में रह रहे हैं। हिन्दू भी और मुसलमान भी। जब हम आस्था के नाम पर सरकार से साल में दस-दस छुट्टियां ले सकते हैं तो सरकार उसके नाम पर फैसला भी करवा सकती है। समाज खुद को भी तो इस किस्म के दोहरेपन से मुक्त करें। ठीक है कि साफ नहीं कि मुसलमानों को किस हिस्से की ज़मीन मिलेगी लेकिन जो भी ज़मीन मिलेगी वो होगी तो वहीं की और उन्हीं की। कोई सोने का मंदिर बना ले और चाहे तो कोई हीरे की मस्जिद।
बीजेपी यह राजनीति ज़रूर कर रही है कि मुसलमान सहयोग करें। भई अब मुसलमान क्या सहयोग करे। आपको ज़मीन मिली है और आप अपनी ज़मीन पर बनाइये। दूसरे की ज़मीन की बात क्यों कर रहे हैं। सहयोग की राजनीति के बहाने क्या आप यह कह रहे हैं कि मुसलमान अपना दावा छोड़ दें। वो दावा छोड़ेगा तभी राष्ट्रीय एकता का पुनर्निमाण होगा। इस देश में धर्मनिरपेक्षता का इम्तहान मुसलमान ही क्यों दे? बीजेपी क्यों नहीं ज़मीन दान कर देती है कि लो भाई तुम दुखी हो तो हमारे राम को ले लो। खुश रहो। बीजेपी किस दलील के दम पर कह रही हैं कि मंदिर के निर्माण से राष्ट्रीय एकता का पुनर्निमाण होगा। आप क्या हमें यह बता रहें हैं कि तीस सितंबर से पहले हम किसी किस्म के राष्ट्रीय एकता के माहौल में जी ही नहीं रहे थे। जो एकता अभी है उसके पुनर्निमाण की ज़रूरत क्या है। मंदिर राष्ट्रीय एकता का प्रतीक कैसे हो सकता है? अव्वल तो बीजेपी को फैसले की शाम बैठकर प्रतिक्रिया ही नहीं देनी चाहिए थी। रविशंकर प्रसाद छद्म धर्मनिरपेक्षों को गरियाने लगे। अरे भाई आप भी तो छद्म राष्ट्रवादी हैं। आपकी पार्टी में जब रेड्डी बंधु जैसे देशभक्त हैं तो फिर छद्म धर्मनिरपेक्षों को क्यों गरिया रहे हैं। रेड्डियों और मुंडाओं और सोरेने से कर लीजिए न राष्ट्रीय एकता का पुनर्निमाण।
नरेंद्र दामोदर मोदी तो गुजरात की जनता को शांति के लिए धन्यवाद देने लगे। उसी शाम को धन्यवाद देना था इनको। आकर यूपी में देख लेते। प्रशासन की सख्ती के आगे किसी भी जनता की हिम्मत नहीं हुई कि बाहर निकर आ जाएं। मायावती के अफसर देर रात तक अपने अपने विभागों की लाल बत्ती वाली गाड़ियां लेकर घूमते रहे। ठीक है कि कुछ हिन्दू जनता को लगा कि चलो उनकी आस्था की बात रह गई लेकिन आप देखेंगे कि आम हिन्दू(सवर्ण) भी उत्तेजित नहीं है। वो अपने घरों में ही रहा। वर्ना कर्फ्यू को तोड़ने के लिए पब्लिक सड़क पर तो निकल ही आती है न। वो भी जानती है कि ये मुद्दा मंदिर भर तक है। बीजेपी और संघ परिवार ने अयोध्या मुद्दे की एटीएम मशीन से नगद पहले ही निकाल कर खर्च कर लिया है। इसी तरह की प्रतिक्रिया मुस्लिम इलाकों में भी है। उन्हें दुख ज़रूर पहुंचा है मगर कोई पहाड़ नहीं टूटा है। फैसले से पहले पंद्रह दिनों तक पुरानी दिल्ली में टहलता रहा। सब यही कहते थे कि क्या फैसले से पहले वहां अस्पताल नहीं बन सकता। स्कूल बनवा दीजिए। उनकी भी लिस्ट में मस्जिद नहीं थी। फैसले के बाद मौलाना देहलवी ने फोन कर कहा कि भाई अब इस मुद्दे को छोड़ देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट नहीं जाना चाहिए। फैसले के अगले दिन लखनऊ एयरपोर्ट पर जेद्दा की फ्लाईट लेने के लिए बड़ी संख्या में मस्लिम परिवार आए थे। सब एक दूसरे को बिछड़ने के गम के साथ विदा कर रहे थे। कोई फैसले की बात नहीं कर रहे थे। एक सज्जन से पूछा तो मेरा सवाल रोक कर शमशाद को कहने लगे कि पासपोर्ट बनवा लेना। पलट कर कहा कि भाई अदालत का फैसला है। हम मानेंगे। हमें मंजूर नहीं हो तब भी मानेंगे। वाकई यह एक परिपक्व दौर है।
हाशिम अंसारी की प्रतिक्रिया के बराबर क्या किसी बीजेपी नेता की प्रतिक्रिया आपने सुनी? एक सदी के लगभग उनकी उम्र होने को आई। यह मुकदमा उनसे सिर्फ पैंतालीस साल ही तो छोटा है। फैसले के दिन पूरी मीडिया ने कटियार,आदित्यनाथ और कल्याण सिंह जैसे नेताओं पर रोक लगा रखी थी। इनको किसी ने पूछा ही नहीं। वो भी समझ गए हैं कि मंदिर मुद्दा नहीं है। अठारह साल पहले ही यह मुद्दा ध्वस्त हो गया था। बस कहने के लिए एक मुद्दा मिल रहा है कि देखो हम ठीक कहते थे। हमारी लड़ाई अदालत से साबित हुई है। कुछ चिरकुट लोग यह भी बता रहे थे कि भारत आगे बढ़ना चाहता है। वो ऐसे मुद्दों के भंवर में नहीं फंसेगा। ये लोग भारत को नहीं जानते। भारत जब 92 के बाद हुए दंगों और गुजरात के भयावह दंगों के बाद भी आगे बढ़ सकता है तो किसी फैसले से उसके आगे बढ़ने के टाइप्ड ड्रीम पर असर नहीं पड़ने वाला था।
अगर आप यह बतानें लगें कि भारत ब्राह्मणवादी नहीं रहा है तो नहीं मानूंगा। इस फैसले ने भी साबित किया है कि धर्म की व्याख्या इस देश में ब्राह्मणवादी ही होगी। गनीमत है कि राजनीतिक रूप से नहीं हो सकती वर्ना दलितो का उभार ठीक उसी वक्त नहीं होता जब देश में राम भक्तों का सियासी जलवा कायम हो रहा था। बेहतर है इस फैसले की संयमित राजनीतिक प्रतिक्रिया हो। उत्तेजित नहीं। दरअसल बात सिर्फ बीजेपी की नहीं है। सभी दलों में ऐसे कमज़ोर पक्ष हैं। उन्हें मालूम है कि कुछ कमज़ोरी और गलतियों के बाद भी उनका वजूद बना हुआ है। कांग्रेस हो या बीजेपी या फिर कोई भी सियासी दल,ये सब राष्ट्रीय एकता के कब ठेकेदार बन जाते हैं और कब धर्मनिरपेक्षता और तुष्टीकरण के वकील सबको मालूम है।
न धर्मनिरपेक्षता कमज़ोर हुई है न सांप्रदायिकता। इस गफ़लत में न रहें तो अच्छा होगा। देखना है तो हिन्दी के अखबारों की हेडलाइन्स देख लीजिए। नई दुनिया ने लाल लाल हेंडिंग लगाई और लिखा कि- वहीं रहेंगे रहेंगे रामलला। दैनिक जागरण ने लिखा- विराजमान रहेंगे रामलला। अमर उजाला- रामलला विराजमान रहेंगे। दैनिक भास्कर- भगवान को मिली भूमि। हिन्दुस्तान- मूर्तियां नहीं हटेंगी, ज़मीन बटेंगी। राष्ट्रीय सहारा- तीन हिस्सों में बांटी जाएगी ज़मीन। नवभारत टाइम्स ने लिखा- किसी एक की नहीं अयोध्या। राजस्थान पत्रिका की हेडिंग सबसे अच्छी थी-राम वहीं,पास में रहीम। छाती पीटने की ज़रूरत नहीं हैं। जैसा कि मैंने कहा कि कोई भी फैसला मुकम्मल नहीं होता और न ही उसकी समीक्षा। मुग़ल-ए-आज़म का डॉयलॉग याद आ गया- शहंशाहों के इंसाफ और ज़ुल्म में कितना कम फर्क होता है। टेंशन मत लीजिए।