राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान स्टेडियम में दर्शकों के बीच सोनिया गांधी और राहुल गांधी की मौजूदगी की तस्वीरें आपने देंखी होंगी। भारत पाकिस्तान के बीच हुए हॉकी मैच में सोनिया गांधी ताली बजा रही हैं। जीत पर दोनों हाथ उठा कर जश्न में शामिल हो रही हैं। आम तौर पर सार्वजनिक जीवन में अति-गंभीर दिखने वाली सोनिया की यह तस्वीर थोड़ी अलग है। राजनीति में सांकेतिक कार्यों का अपना महत्व है। सवा सौ साल की बूढ़ी कांग्रेस अपने इन्हीं सांकेतिक प्रतीकों के सहारे अचानक जवान लगने लगती है। जबकि कई नौजवान पार्टियों के नेता ऐसे आयोजनों में दिखाई नहीं देते है। उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि जब भी जनता के बीच जायें गंभीरता का लबादा ओढ़ना ज़रूरी है।
शायद यही प्रवृत्ति राजनीति को जीवन से दूर कर देती है। पहलवानी से जीवन शुरू करने वाले मुलायम सिंह यादव भी सुशील कुमार की शानदार कुश्ती देखने जा सकते थे। दर्शकों के बीच बैठकर जब हर दांव पर दाद देते और उन्हें समझाते तो अलग ही माहौल बनता। किताबों में खोये रहने वाले प्रकाश करात अगर किसी दर्शक दीर्घा में होते तो मार्क्सवाद का नुकसान नहीं हो जाता। मायावती अगर महिला तीरंदाजी का मैच ही देख आती तों कम से कम लाखों दलितों में एक नया संदेश तो जाता ही। समाज के विकास के कई मानक हैं। खेल भी एक मानक है। उमर अब्दुल्ला अगर किसी मैच में ताली बजा रहे होते तो पता चलता कि विलय पर सवाल उठा कर वो एक देश के जश्न से बाहर होने का कितना बड़ा मौका खोने जा रहे थे। मध्यप्रदेश में कुपोषण के शिकार बच्चों को अंडा न देने पर अड़े शिवराज सिंह चौहान अगर उन्हें अंडा भी खिला देते और मध्यप्रदेश के खिलाड़ियों के मैच में आकर हौसला भी बढ़ा देते तो राज्य में एक नई ऊर्जा का संचार हो जाता। जनता को प्रोटीन चाहिए। प्रोटीन चाहे दाल से मिले या अंडा से।
आखिर खेलों के दौरान राहुल सोनिया,शीला,भूप्रेंद्र सिंह हुड्डा ही क्यों देखने आए? क्या यह आयोजन कांग्रेस नीत सरकार का था इसलिए? फिल्मों में रुचि रखने वाले लाल कृष्ण आडवाणी को भी अपनी पूरी पार्टी के नेताओं के साथ किसी स्टेडियम में होना चाहिए था। कम से कम आडवाणी तो ऐसे मौके पर राजनेता की एकरंगी छवि को तोड़ने की कोशिश करते हैं। उन्हें इस बात से झिझक नहीं होती कि कंगना रानाऊत के साथ तस्वीर खिंच जाने पर जनता क्या कहेगी। किताबों और सितारों के आसानी से रिश्ता बना लेने वाला आडवाणी खिलाड़ियों के बीच भी कम जवान नहीं लगते। शुभारंभ समारोह में आडवाणी की मौजूदगी औपराचिक थी। लेकिन अगर वो किसी सामान्य मैच में ताली बजा रहे होते और दोनों उठाकर झूम रहे होते तो खेलों को सही मायने में सार्वजनिक होने का मौका मिलता। अरुण जेटली के अलावा बीजेपी के बड़े नेताओं को भी खेलों में दिलचस्पी दिखानी चाहिए।
ठीक है कि सोनिया और राहुल गांधी ने खेलों के लिए कुछ भी ऐसा बड़ा काम नहीं किया है जिससे स्टेडियम में उनकी मौजूदगी को एक हद से आगे सराहा जाए। सुरेश कलमाडी उसी कांग्रेस की देन है जिनका नाम आजकल राष्ट्रीय अनादर के संदर्भ में लिया जा रहा है। मणिशंकर अय्यर उसी कांग्रेस की पैदाइश रहे हैं जो राष्ट्रमंडल खेलों में हज़ारों करोड़ों रुपये के घोटाले के आरोप लगा रहे हैं। इसके बाद भी सोनिया राहुल ने दर्शक बन कर खेलों का लुत्फ उठाने का प्रयास किया है तो दोनों की तस्वीर अखबारों में छपने लायक बन ही जाती है। दोनों समझते हैं कि खेल भी सार्वजनिक जीवन का हिस्सा हैं।
राजनेताओं ने खेल को कुछ नहीं दिया। बड़े खेलों के आयोजन के अलावा। हरियाणा के भिवानी के बारे में लोगों को तब पता चला जब यहां के बॉक्सरों ने बीजिंग ओलम्पिक में तहलका मचा दिया। भिवानी के गांव-गांव में बिना सोनिया-राहुल के ही खेल संस्कार पैदा हो गए हैं। राहुल गांधी को भिवानी जाकर देखना चाहिए कि किस तरह से यहां बॉक्सिंग ही नहीं कई तरह के खेलों को बढ़ावा मिल रहा है। इसमें भारतीय खेल प्राधिकरण की भूमिका को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। लेकिन अगर राहुल अपनी दिलचस्पी को तस्वीरों से आगे ले जाना चाहते हैं तो उन्हें भिवानी जाकर समझना चाहिए कि सिस्टम बेहतर होता तो भारत का प्रदर्शन कितना अच्छा होता। हम अजीब देश है,मामूली उपलब्धियों पर भी गौरव का ढिंढ़ोरा पीटने लगते हैं।
खेलों की तमाम तैयारियों को देंखें तो बड़े शहरों में केंद्रित हैं। जबकि कामयाब खिलाड़ी महानगरों से बाहर के हैं। हमारी सरकारों ने इनाम में दरियादिली तो खूब दिखाई है। हरियाणा से लेकर मध्यप्रदेश तक सब लाखों रुपये दे रहे हैं। मगर सिर्फ विजेता खिलाड़ी और कोच के लिए हैं। खिलाड़ी के लिए नहीं। जो हार गया है उसका हौसला बढ़ाने के लिए कुछ नहीं। दिल्ली के अखाड़ों की हालत देख आइये। हरियाणा के अखाड़ों की भी हालत खराब मिलेगी। गनीमत है कि हरियाणा के ग्रामीण पहलवानी को सम्मान देते हैं। गांव में चाचा-ताऊ बीस-बीस किलोमीटर अपने बेटे-भतीजे के लिए दूध लेकर जाते हैं। मध्यमवर्ग भी कम ढोंगी नहीं है। कोई अपने बेटे को पहलवानी में नहीं भेजेगा। हज़ारों रुपये लगाकर जिम में ज़रूर भेज देगा। हमारा मध्यमवर्ग सिर्फ ताली बजाकर देशभक्त होना चाहता है। राजनीति भी मध्यमवर्ग की तरह प्रतीकात्मक होती जा रही है।
(यह लेख राजस्थान पत्रिका में छपा है)
@राजनीति भी मध्यमवर्ग की तरह प्रतीकात्मक होती जा रही है।
ReplyDeleteयही सत्य है.........
लोकप्रियता हासिल करने के लिए ये भी एक तरीका है ....
ReplyDeletevaise suna hai ki commonwealth khelon ke kisi match mein gandhi-dwyi sonia-rahul ki tarj par khiladoyon ka utsas badhate na nazar aaye mulayam jaise kayi neta gaon mein bade-bade dangal karate rahe hain jahan se hi sushil paida hote hain aur fir commonwealth mein pahunchne par sonia-rahul jaise housla afjahi karne wale samvedanshil netaon ki najrein inayat patein hain....ravish ji
ReplyDeleteबहुत खूब रवीश भाई! लगे हाथॉं,मम्मी-बेटा की चमचागिरी भी कर ली और विपक्ष को लताड़ कर नम्बर भी झटक लिये! (मनमोहन सिहं का भी एक फ़ोटो सेशन करवा दीजिये)
ReplyDeleteएक तरफ ताली बजा कर,फ़ोटो खिचांकर हो रही देशभक्ति को आपका दण्वत दूसरी ओर मध्यम्वर्ग को धिक्कार कर एकदम डाक्यूमैंटरी अन्दाज़ में लेख का समापन भी!
धन्य प्रभु वाह! वाह!
katu saty...
ReplyDeleteआज सुबह जब ये आलेख पढ़ा पत्रिका में जो यहाँ इंदौर के स् संस्करण में भी है तब से ये प्रश्न मन में है की आप माँ बेटे की सराहना कर रहे है ?या की उनका प्रचार ?जो की खुद उन लोगो ने संकेतात्मक प्रतिक दिए है |
ReplyDeleteमध्यम वर्ग के सहारे ही तो सबकी रोटी चलती है |
रवीश जी, इसमें आपने रेल मंत्री ममता दीदी को क्यों छोड़ दिया. गोल्ड मेडल जीतने वाली एक महिला खिलाड़ी.. जो रेलवे में ही काम करती थी.. उसे न केवल 15 महीने का वेतन नहीं दिया गया.. बल्कि नौकरी से भी निकाल दिया.. ऐसे भी ममता बनर्जी के लिए पश्चिम बंगाल से बढ़कर कुछ नहीं है... देश का सम्मान भी नहीं...
ReplyDeleteरवीश जी, इसमें आपने रेल मंत्री ममता दीदी को क्यों छोड़ दिया. गोल्ड मेडल जीतने वाली एक महिला खिलाड़ी.. जो रेलवे में ही काम करती थी.. उसे न केवल 15 महीने का वेतन नहीं दिया गया.. बल्कि नौकरी से भी निकाल दिया.. ऐसे भी ममता बनर्जी के लिए पश्चिम बंगाल से बढ़कर कुछ नहीं है... देश का सम्मान भी नहीं...
ReplyDeleteहमारा मध्यमवर्ग सिर्फ ताली बजाकर देशभक्त होना चाहता है|
ReplyDeleteबहुत खूब..
पर वो उन शरद पवार से बेहतर है जो भूखो की लाश पर क्रिकेट की बादशाहत पर जमा रहना चाहता है.
पर वो उस मंत्री से बेहतर है जो पुलेला गोपीचंद से पूछता है की आप कौन है ?
पर वो उस बुरोक्रेसी से बेहतर है जो विस्वनाथ आनंद से पूछता है की आपकी नागरिकता क्या है ?
जनाब किसी मंत्री ने किसी खेल समारोह में जाके हाजिरी क्या दे दी आप उसे देशभक्त करार देने के लिए खड़े हो गए.
इन हाजिरी देने वालो से ये भी तो पूछे की खेलो को बढ़ावा देने में इनका क्या योगदान है ?
रवीश जी बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteलेख पढ़ने के बाद पता चला कि आप कांग्रेसी हो गए हैं। पत्रकारिता छोड़ कांग्रेस में शामिल होने के लिए आपको बधाई। अब तो आपका राज्यसभा का टिकट सुनिश्चित हो गया होगा।
मुझे तो शीर्षक देख कर लगा था की शायद आप ये कहेंगे की नेताओ को कम से कम खेलो को अपने प्रचार का अड्डा नहीं बनाना चाहिए | आखाड़ो पर आप की रिपोर्ट भी देखी थी उस स्थिति को देख कर पहलवानों के मैडल जितने पर और गर्व हुआ क्या आप उन बुरी स्थिति में पड़े अखाड़ो में अपने पुत्र भाई को भेजना चाहेंगे शायद नहीं | मुझे लगता है की आप को अपनी वो रिपोर्ट फडरेशन को या खेल मंत्री को दिखाना चाहिए ३८ करोड़ के गुब्बारे से देश की शान बढ़ने का ढोंग करने के बजाये वो पैसा यहाँ खर्च होता तो शायद और मैडल हमारी ज्यादा शान बढ़ाते | वैसे ये मैडल दो नेताओ को ही सबसे ज्यादा ख़ुशी दे रहे होंगे नाम आप जानते है ये मैडल उनके पाप जो धो ( भुला ) रहे है |
ReplyDeletePahalwani se sambandhit NDTV main aapki report dekhi thi. Hamare Mantri Gil saheb report kee seekh ka 10% bhi amal karte to hamare gold medal ke nos 50 se uper ho gaye hote.
ReplyDeletemaine pehale bhi kaha tha ki apko rajyasabha mein jana hai,secularwad ke license ke sath,apka congressi hath.
ReplyDeletesau phisidi sahi
ReplyDeleteसोनिया और राहुल आम दर्शक दीर्घा में बैठे , इसे सिवाय नौटंकी के कुछ नहीं कहा जा सकता | जो इसकी तारीफ़ कर रहे हैं उन्हें आत्मावलोकन करना चाहिए कि कहीं उन्होंने खुद अपना जमीर सुरक्षित रखा है या नहीं |
ReplyDeleteजहां तक cwg में पैसे के घोटाले की बात है तो OC ( i.e. Suresh Kalamadi ), Delhi Govt.( i.e. Shiela Dikshit ), Sports Ministry ( i.e. M.S.Gill ), Urban Dev. Ministry ( i.e. Jaipal Reddy ) and PMO ( i.e. Manmohan Singh ) ये सभी बराबर के और सामूहिक रूप से जिम्मेदार हैं , इन्हें जिम्मेदारी लेनी ही चाहिए |
कौन इस्तीफा दे , कौन जेल जाए , कौन माफी मागें और कौन राजनीति से संन्यास ले यह निर्णय कांग्रेस पार्टी को करना चाहिए, यदि वह कोइ मानदंड स्थापित करना चाहती तो| जिसकी कि मनमोहन सिंह जी से अपेक्षा है क्योंकि उनकी एक ही पूंजी है उनकी इमानदारी | इस पूंजी पर एक दाग पहले से है - 'पार्लियामेंट में नोट के बदले वोट मामले का' यह दूसरा बड़ा दाग न बने इस लिए एक्सन जरूरी है | सुधान्सू मित्तल पर छापा डलवा कर और न्यूज लीक कर के इसे घुमाया नहीं जा सकता | आज भले ही उनकी सत्ता के आगे स्वार्थ बस प्रचार तन्त्र चुप हो लेकिन इतिहास बोलेगा , वह चुप नहीं बैठेगा |प्रधान मंत्री जी को छ: साल तक सर्वोच्च पड़ पर बने रहने के बाद हिस्टोरिकल लेगेसी की चिंता जरूर होगी | इस लिए यह केस लिटमस टेस्ट है | यह केस दूसरा बोफोर्स भी हो सकता है |
रवीश जी आप प्रत्युत्तर में टिप्पडी दे सकते हैं , क्या कारण है कि आज कल आप ने टिप्पड़ियों पर आपना प्रत्युत्तर बिलकुल कम या कहे लगभग बंद ही कर रखा है |
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ReplyDeleteSIR YOUR STREET SHOP CINEMA HALL REPORT AND LORD RAM JI LEGALIZE NARRATION IS WONDERFUL BECAUSE YOUR IRONICAL TERM EXPRESSION LIKE A BHOJPURI IDIOMS "SINA PAR CHOT KAINI BINA MARE TALA, ANT MEIN CHIKANO RAHNI KA KEHUKE HAMAR KAIL BUJHALA " I AM PRAKASH PANDEY A PATH BEGGAR JOURNALIST....SEE MY ARTICLE ON WWW.CAVES TODAY BLOGSPOT.COM.....LAL KI JAI
ReplyDeleteरविश जी ,नमस्कार ,मैंने आपका लेख पढ़ा. हमारे जो जनप्रतिनिधि हैं वह सिर्फ चुनाव के समय ही नजर आते हैं. चुनाव जितने के बाद वे यदि लोकसभा के सदस्य हैं तो लोक सभा में मार करता हैं यदि वे विधान सभा में सदस्य हैं वहा वे मार करते हैं. हमरे जनप्रतिनिधियो का आचरण अमर्यादित हो गया हैं. वे भूल जाते हैं की उनके द्वारा किये जा रहे आचरण से पूरा का पूरा समाज प्रभावित होता हैं.
ReplyDeletewww.amitkrguptasamajikaurrajnitkmudde.blogspot.com