डिवाइन दुकान और आपसे चंद सवाल




होर्डिंग के ज़रिये अभिव्यक्ति की शैली को समझना एक दिलचस्प सामाजिक अध्ययन है। अपने उत्पादों को घटोत्कची फॉन्ट और रंगीन फ्लैक्स पटल पर अभिव्यक्त करती हुईं दुकानें हिन्दुस्तान के कोने कोने में मिल जायेंगी। आपको पता चल जाए और याद रह जाए इसके चक्कर में कई सारे प्रयोग हो रहे हैं। ध्यानाकर्षण प्रस्ताव हर तरफ नज़र आता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि फ्लैक्स बोर्ड की चमक और हिन्दी न्यूज़ चैनलों के सुपर टिकर काफी मिलते जुलते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम संवाद और संचार के इन्हीं भड़कदार अभिव्यक्तियों के अभ्यस्त रहे हैं। आप सबकी राय चाहिए। ऐसा क्यों हैं कि बावासीर का विज्ञापन और डिवाइन दुकानदारी का यह बोर्ड अलग नहीं लगता। जितना मेरा अनुभव है उसके आधार पर कहने का मन करता है कि पूरे हिन्दुस्तान में फ्लैक्स अभिव्यक्ति की क्रांति हो चुकी है। किसी को बधाई देनी हो या सूचना देनी हो तो बोर्ड बनवा कर टांग देता है। मगर इसमें एक खास किस्म का पैटर्न नज़र आता है। उसी पैटर्न को समझने के लिए मैं तस्वीरें खींचता रहता हूं। बहुत कुछ आपने इस ब्लॉग पर देखी भी होंगी। फ्लैक्स अभिव्यक्ति समानार्थी है। भाषा-बोली में बदलकर भी फॉर्म यानी स्वरूप में बदलाव नहीं दिखता।


क्या हम लाउड किस्म की बोलचाल शैली वाले समाज में रहते हैं जहां ज्यादातर लोग इस तरह के संकेतों को पढते और समझते हैं। कुछ लोगों को छोड़ दीजिए तो अभिव्यक्ति में शालीनता या एस्थेटिक की जगह कम है। कम से कम हमारे समाज में। मैं बस हिन्दुस्तान की कथा-शैली को समझने और आपसे जानने की कोशिश कर रहा हूं। प्रवचनों में भी गया। माहौल आध्यात्म का है लेकिन संत हाई पिच पर कुछ बोल रहा है। अचानक आवाज़ नीचे आती है और फिर वो मूल कथा को छोड़ हरि बोल हरि बोल करने लगता है। एक मिनट में ही हरि बोल जनता के बीच नारों में बदल जाता है। संत कथा जारी रखता है और किसी एक वाक्य को ऊंचाई पर ले जाकर छोड़ देता है,जैसे ही वाचक उस वाक्य को छोड़ता है ठीक उसी जगह पर भजन संगीत चालू हो जाता है। बोर होने की गुज़ाइश नहीं छोड़ी जाती। रामायण अपने टेक्स्ट से लोकप्रिया हुआ या रामलीला की नाटकीय शैली से? कई घरों में सुंदरकाण्ड के पाठ के समय गया। पूजा का माहौल है। एक चौपाई शांति से तो अगली चौपाई बिल्कुल अलग नाटकीय शैली में पढ़ी जा रही है। अचानक ढोल मंजीरा बजने लगता है। लोक गीतों में भी हाई पिच ज्यादा देखा है। कहीं ऐसा तो नहीं हिन्दी न्यूज चैनलों ने बोलने सुनने की इन शैलियों को समझा है। जिसे हममें से कई लोग पसंद नहीं करते। घटिया कहने लगते हैं। आखिर लोगों ने ऊंची आवाज़ में बल्कि चीख चीख कर बोली जाने वाली खबरों को कभी सुनना बंद तो नहीं किया। जानते हुए कि ये खबर नहीं है,वो क्यों देख रहे हैं। आशाराम बापू और किसी हिन्दी न्यूज़ चैनल की बोल-चाल या प्रस्तुति शैली में बहुत फर्क क्यों नहीं है?

मैं अपनी बात सवाल के रूप में रख रहा हूं। हिन्दी और अंग्रेजी की बोल चाल शैली के पिच में फर्क क्यों होता है। क्यों टाइम्स नाउ कभी कभी हिन्दी चैनलों की तरह बोलता हुआ लगता है। क्यों लोग एनडीटीवी इंडिया के बारे में कहते हैं कि सुस्त लगता है। एनर्जी नहीं है। हमारी बोलचाल की शैली में सौम्यता अपवाद क्यों हैं? एक मिसाल दूरदर्शनल और रेडियो का भी है। पसंदीदा रेडियो चैनल ऑल इंडिया रेडियो में बोलचाल की शैली सामान्य और शांत है। वाक्य विन्यासों को संतुलित आवाज़ में पेश किया जाता है। लेकिन बाकी प्राइवेट एफएम को देखें तो एक किस्म की चीख है। उत्तेजना है। भाएं-भुईं हैं। मैं पिछले कई महीनों से इन विषयों के अध्य्यन में लगा हुआ हूं। टीवी अब न के बराबर देखता हूं। छह महीने में कुछ एक घंटा भी टीवी नहीं देखा होगा। मेरी एंकरिंग को इसमें शामिल न करें तो कुल मिलाकर यही अनुपात है। लेकिन जो लोग देख रहे हैं उन्हें ऐसे ही खारिज नहीं कर सकते। उन्हें समझना तो पड़ेगा ही, जानना तो पड़ेगा। आखिर क्या वजह थी कि एक एमएनसी में काम करने वाला लगभग साल के अस्सी लाख रूपये कमाने वाला शख्स पूरी तन्मयता के साथ दुनिया के खत्म हो जाने का कार्यक्रम देख रहा था। उसने कहा कि कितना रोचक है। आखिर क्या वजह है कि एक सुपारी काटने वाली महिला ने कह दिया कि आप से क्यों बात करें? आपके हिसाब से तो दुनिया अगले साल खतम हो जाएगी,फिर इंटरभू काहे लेने आए हो।

तमाम तरह की प्रतिक्रियाओं के बीच प्रस्तुति के संकट को समझने की कोशिश इन्हीं सब गलियों में क्यों भटक जाती है। लाल,पीला,हरा और नीला रंग। सफेद के बीच नीला। मोतियाबिंद दर्शकों के लिए हिन्दी न्यूज़ चैनल समाज सेवा कर रहे हैं या अपने समाज की ही भाषा-बोली में बात कर रहे हैं।

26 comments:

  1. अब सब कुछ टिप टाप फ्क्लेक्स्नुमा चल पडा है

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  2. "कम से कम हमारे समाज में। अगर ऐसा नहीं होता तो इतनी आलोचनाओं के बाद भी हिन्दी न्यूज़ चैनलों की लोकप्रियता कम क्यों नहीं हुई।"

    TINA factor Ravish ji, There is no alternative !!!

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  3. गोदियाल साहब

    मैं सहमत नहीं हूं। बहुत विकल्प हैं। अखबार से लेकर दूरदर्शन तक। रेडियो भी।

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  4. हिन्दुस्तान को अनोखा देश यूं ही नहीं कहा जाता है। रंग और तामझाम जितने ज्यादा होंगे, भारतीयों को उनमें उतना ही आकर्षण नज़र आता है। इसीलिए आप देखेंगे कि गांव-देहात के लोग नए कपड़े खरीदेंगे तो उनका रंग कुछ अजीब ही होगा। चटख लाल या फिर पीला..।

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  5. रवीश जी, क्षमा करना, सहमति और असहमति वैचारिक भिन्नताओ से जुडा मसला है ! यह कदापि जरूरी नहीं है कि जो मैं सोचता हूँ अगला भी ठीक वैसे ही सोचता हो ! लेकिन कहना चाहूंगा कि आपके इस सुन्दर लेख से मैंने सिर्फ एक ख़ास बिंदु पर अपना मत व्यक्त किया है! आपके इस आलेख में कही गई बातों में से बहुत सी बातों पर मैं पूर्ण सहमत हूँ और मैंने भी इस बाबत अपने ब्लॉग पर कई लेखो में उदाहरण दिए है! उसका सार मेरे नजरिये से इस तरह से है कि भेड़ो का जो झुण्ड होता है, उसकी चाल, दिशा और गति दो बातो पर निर्भर करती है, एक, गडरिये की हांक पर कि गडरिया किस तरह और किस दिशा में उन्हें हांक रहा है, और दूसरा अग्रिम पंक्ति में चल रही भेड़ो की चाल-ढाल पर! यह देखा गया है कि अगर भेड़ो का झुण्ड किसी नदी के ऊपर से पुल से होकर गुजर रहा है, और अगर आगे चल रही एक-दो भेड़े गलती से भी नदी में कूद जाए, तो सभी भेड़े एक-एक कर कूद पड़ती है, परिणामो की अनदेखी करके........ ! यहाँ क्या हो रहा है? यहाँ भी तो सदियों से यही सब हो रहा है !

    लेकिन जहां तक मेरी पिछली टिपण्णी का सवाल है, आपको बताना चाहूंगा कि देश के दूरदराज के गाँवों में आज भी रेडियो ही लोकप्रिय है, या तो दूरदर्शन है नहीं या यदि है भी तो दूरदर्शन की खबरे सिर्फ सीमित अवधि पर ही आती है ! और वह सरकार नियंत्रित है, अत: खबरों की विस्तृतता की मजबूरी आप खुद समझ सकते है ! रही बात हिन्दी न्यूज चैनलों की लोकप्रियता की तो यह लोकप्रियता देश की कुल कितने प्रतिशत आवादी पर आंकलित की जाती है ? शहरों की जहां तक बात है तो मैं आपको बताऊ कि मुझे वाद-विवाद के प्रोग्राम देखना और दूसरे देश के खबरिया चैनल की मार्फ़त अपने देश की खबर सुनना बहुत पसंद है ! एक वक्त था जब मै एनडीटीवी के "we the people", reality bites और "हम लोग" प्रोग्राम की कोई कड़ी नहीं मिस करता था ! क्योंकि और विकल्प नहीं थे, मगर आज कर लेता हूँ क्योंकि अब timesnow का डिबेट उससे बेहतरीन लगता है ! सी एन एन और बीबीसी तो खैर हिंदुस्तान की ख़बरों को प्राथमिकता ही नहीं देते मगर जब तक पाकिस्तान टीवी आता था, उसे भी सुनता था, अपने ये डिस प्रोभाईडर दूरदर्शन के चैनल तो बोलकर भी नहीं देते ! तो कहने का तात्पर्य यह है कि विकल्प हों तो इन हिन्दी के न्यूज चैनलों को अपनी लोकप्रियता की सच्चाई भी पता लग जाए मगर अफ़सोस कि है नहीं और दिन भर आदमी खबरों के लिए सुबह आये अखबार को ही नहीं पढ़ सकता !

    लम्बी टिपण्णी के लिए क्षमा !

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  6. बहुत सही कहा आपने---मोतियाबिंद दर्शकों को कहाँ समझ आएगा ? क्या हम बहरे होने की डगर पर नही है ?

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  7. waah kya baat hai...sahi kaha aapne

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  8. आपने बहुत सही बात लिखी है रवीश जी । यह लाउडनेस हमारे लगभग हर सामाजिक व्यवहार में आगई है। शादी-ब्याह जागरण समारोहों और राजनीति से लेकर भगवत्भजन तक हर जगह यह चीख है। धीरे धीरे यह फूहड़पन हमारी पहचान बन गया है चाहे हम माने या न माने। इसे रेखांकित करने के लिए साधुवाद।

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  9. SACHIN KUMAR...
    IS IT REALLY REQUIRED TO SPEAK LOUDLY SO THAT OTHER SHOULD UNDERSTAND?...IT MAY BE FOR SOMETIME BUT IN GENERAL WE NEITHER WANT TO SPEAK LOUDLY NOR WANT TO LISTEN WHO SPEAKS LOUD...MAY BE FOR SOME NEWS IT REQUIRED...BADI KHABAR AA RAHI HAI...5 ATANKI SIMA PAAR KAR CHUKE HAI...KHUFIA AGENCIES ME HARKANP MACHA HUA HAI...PM ISTHITI PAR NAJAR RAKHE HUIEN HAI..JADA JANKARI KE LIYE BAAT KARTE HAI....MAY BE IN THIS NEWS SOME AGRESSIVNESS REQUIRED...MAY BE IN NEWS TYPE SHIVE SENA KI GUNDAGARDI OR MODI-MAYA KO SC KI FATKAR...BUT INDIA HAVE WON OR LOSS THE MATCH...IT MAY BE IN BIT HAPPY OR SORRY MOOD...INDIA DID WELL IN INTERNATION LEVEL MAY BE SOME TYPE OF PROUD LIKE EXPRESSION...IF TO GIVE GOVERNMENT SOME DECISION OR INFORMATION MAY BE THEN EXPRSSION LIKE INFORMATIVE? I DONOT HOW ANCHORS WILL MAKE SUCH EXPRESSION..
    LAST DAY I SAW A PTC OF RUBINA(I THINK NAME IS RIGHT) NDTV INDIA BHOPAL...SHE WAS DOING ON THAT 4 CRORE FOUND IN RAID...LAST SENTENCE...SHE WAS TAKING ON SHIVRAJ GOVT..AND END IT WITH ANDHER NAGRI AND ....THINK...NOT CHAUPAT RAJA...SHE SAID ANDHER NAGRI AND SAYAD DHILA RAJA......THAT HITS ME...SHE HAS CHANGED WHAT WE ARE FOLLOWING...AND VERY EARLY ON I DO BELEIVE IF TRY TO DO SOME THING NEW IN ALL THE NEWS...EITHER BY VOICE OVER, IN SCRIPT, IN GFX...IN ANCHOR PART....IN BYTE...SOME THING DIFFERENT THAT MUST LOOK GOOD....

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  10. एक सही स्थान पर पहुँचने की राह जरूरी नहीं कि राजमार्ग सी हो। वह गलियों, पगडंडियों, नालों और जंगलों में हो कर गुजर सकती है।

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  11. रवीशजी ~ सत्य को शब्द में बांध पाना कठिन है...फिर भी मजबूरी में शब्द का प्रयोग करना ही पड़ता है...और शाह रुख जैसे महान और प्रसिद्द कलाकार को भी 'आज', 'स्वतंत्र भारत' में, कुछ कहने में डरना पड़ता है - 'आम आदमी' की बात छोडिये :)

    'हिन्दू मान्यता' को ध्यान में रख, भले ही हिन्दू पश्चिम कि तुलना में आज मूर्ख दिखाई पड़े, अर्जुन-पुत्र अभिमन्यु की कहानी सबने पढ़ी होगी कि कैसे वो अपनी माँ के गर्भ से ही चक्रव्यूह के भीतर घुसने का ही सीमित ज्ञान ले कर आया था - क्यूंकि उसकी बेचारी थकी-मांदी माँ सुनते-सुनते सो गयी थी...और सम्पूर्ण ज्ञान की कमी के कारण - यानि 'अज्ञानता वश' - अर्जुन की अनुपस्तिथि में, अभिमन्यु बाल्यकाल में ही मारा गया, 'चक्र-व्यूह' में फँस कर...

    गीता में भी यही लिखा है - अर्जुन के सबसे प्रिय मित्र कृष्ण के अनुसार - कि सारी गलतियाँ अज्ञानतावश होती हैं...और यदि एक बार आत्मा काल-चक्र में प्रवेश कर गयी तो उसका कर्म-चक्र से निकलना प्रायः असंभव है...इसी लिए योगी लोगों ने सत्य की खोज / 'मोक्ष प्राप्ति' के उपाय आदी पाने चाहे...इस जीवन की ऊपर नीचे, दुःख सुख, आदि द्वैतवाद से छुटकारा पाने के लिए, जैसे मनुष्य गाने / भजन आदि में भी अपनी आवाज़ सात सुरों के तीन अष्टक के बीच सीमा बद्ध रह आरोह-अवरोह, यानि ऊपर नीचे, करता रहता है, जिसमें गायक सारी उम्र बिता देते हैं पर तानसेन समान कोई आज दीपक नहीं जला पाता, केवल शब्द का उपयोग कर...और हिन्दू मान्यतानुसार ये पूरी श्रृष्टि नादब्रह्म से उत्पन्न हुई :)...



    बोर्ड के विषय में संक्षिप्त में:
    जैसे हमको निद्रावस्था में जीवन भर स्वप्न अपने मानस पटल पर दिखाई देते हैं, गर्भ में हम शायद मान सकते हैं कि उसी प्रकार ज्ञानोपार्जन होता रहता होगा...पैदा होने के बाद भी लगभग पांच छह वर्ष के बाद, जब आदमी होश सम्हालता है, अधिकतर 'पढ़े-लिखे' लोग कई दशक तक कृष्ण-पट्टी यानि ब्लैक बोर्ड/ तख्ती आदि के आदी हो जाते हैं जिसमें गुरु लोग सफ़ेद चौक से लिखते हैं...या चौकोर सफ़ेद पन्ने/ सिनेमा के रजत पटल / पी से के मोनिटर आदि आदि पर भी लाल, काले, पीले इत्यादि अक्षर / तस्वीर पढने के, सारी उम्र, यदि मोतियाबिंद के शिकार न हो जायें...यानि कोई भौतिक कष्ट के कारण लाचारी न हो जाए...ये चौकोर बोर्ड और उन पर लिखे विभिन्न इन्द्रधनुषी रंग और उन पर लिखे वर्णमाला के अक्षर ही हैं जो हमें सारी उम्र दुकानों में, कार्यालयों, इत्यादि इत्यादि में दिखाई पड़ते हैं और जिनके बिना मार्ग दर्शन हो पान असंभव होता...शायद 'ब्रह्मा के चार मुख' यही बोर्ड दर्शाते है...

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  12. रवीश जी में आपकी बातों से पूर्ण सहमत नहीं हूँ . हमारे समाज बहुत तरह के लोग रहते है और इतना तो मानते है की बिज़नस वर्ग बिशेष होता है इसलिए उनको आकर्षित करने के लिए भी उसी तरह के प्रयोग हो रहे है कुछ लोगो को ndtv भी पसंद आता है तो कुछ लोगो तो इंडिया टीवी. लोगो का मन शांत और सोम्य नहीं है. आज तो लोग एक ही जगह पर अपनी पसंद से चीजे चाहते है चाहे जंहा मिले परन्तु ये सब केबल मेट्रो में ही हो रहा है क्यूंकि गावो और कश्बो में तो ये मल्टी चैनल उपलब्ध नहीं है न . और ये MNC में काम करने बाले लोग तो न्यूज़ काम और मल्टीप्लेक्स जायदा देखते है वो धरती के अंत में बिस्वाश नहीं रखते है जिन्दगी के रोमांच में जायदा बिस्वाश रखते है . वैसे भी इंग्लिश न्यूज़ चैनल पर ही खबर दिखती है अब तो NDTV भी सिनेमा और सीरियल में घुस गयी है .

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  13. आपकी फोटो सीरीज में इस बार की प्रस्तुती भी लाजवाब है। शेष आपने जो कुछ कहा है उस मामले में अपनी भी सोच कुछ वैसी ही बनती जा रही है।

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  14. जहाँ तक आपकी फोटो सीरीज का सवाल है तो वो लाजवाब है. और दूसरी जिस चीज़ का आप मंथन कर रहे हैं उसे मैंने बहुत ऊपरी तौर पर समझने की कोशिश की है. मुझे समझ में आया कि लोग खुद को या अपने प्रोडक्ट को अलग दिखाने के लिए ये प्रयोग जानबूझकर करते हैं. एक हद तक इसे क्रिएटिव कहना भी गलत नहीं होगा. वो हद मत पूछिएगा. गलत स्पेलिंग लिखना भी उसी का प्रमाण है. ये रंग जो चुभते हैं, वो न चाहते हुए भी आकर्षित करते हैं. इसे क्रांति का नाम दे सकते हैं. बाकि रामायण, सुन्दरकाण्ड और सत्संग की जहाँ तक बात है, मैं मानता हूँ कि जिस तरह दिन एक सा नहीं रहता, उतर चढाव होता रहता है. उसी तरह हर चीज़ में वेरिएशन जरूरी है. एक सी जिंदगी, बिना रोमांच के, फीकी फीकी सी भला किसे पसंद आएगी. सोच कर देखिए. फिल्म को ही ले लीजिये. डायलॉग की पिच ऊपर नीचे न हो तो. खैर. बाकि तो नजरिये का खेल है सर, अभी काफी चीज़ें सीख रहा हूँ, समझ रहा हूँ...

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  15. आपका लेख बहुत सुन्दर है!
    यह चर्चा मंच में भी चर्चित है!
    http://charchamanch.blogspot.com/2010/02/blog-post_5547.html

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  16. आजकल सभी फेफड़ा फाड़ चैनल देखना चाहते हैं ऐसा नहीं है... एनडीटीवी की सौम्यता भी पसंद करने वाले लोग हैं... रही बाद मार्केटिंग की.... तो लोगों ने सादगी को तिलांजलि देकर तड़क भड़क को अपना लिया है... क्योंकि सादगी पसंद लोगों को या तो गरीब समझा जाता है( आर्थिक रूप से) या फिर सलफेट... जबकि मुझे लगता है वो चलते फिरते आपकी तरह इनसाइक्लोपीडिया होते हैं... आखिर में... मैंने कहीं पढ़ा था... सादगी सच्चाई, शालीनता और सुंदरता का घालमेल होता है... और इन तीनों की हमारे देश में नितांत कमी है... रोचक अध्यन के लिए शुक्रिया

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  17. गोदियाल साहब

    आपके जवाब में एक जवाब तो है जो मैं भी मानता रहा हूं। खराब कार्यक्रमों की तुलना में बेहतर विकल्प भी नहीं हैं। बेहतर के नाम पर ठीक ठाक हैं। तभी आप टाइम्स नाउ में भी चले जाते हैं और एनडीटीवी ट्वेटीफोरसेवन में भी।

    फेफड़ा फाड़ तो कुछ बेल्ला फाड़ जैसा लगता है। लइकाई में लट्टू का गेम था इ।

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  18. सहमत हूं आपसे!चिखना-चिल्लाना, शोर-शराबा,चटक-मटक और दिखावा शायद समाज मे आम हो गया है मगर इन सबके बावज़ूद चीखते एंकरों से न्यूज़ सुनने से थके लोग आज भी एनडीटीवी पर ही जाना पसंद करते हैं,मै भी थक़ हार कर वंही शांति पाता हूं।लेकिन भेड़चाल का क्या किया जा सकता है?चीखना तो अब शायद धीरे-धीरे सच्चाई का पैमाना बनता नज़र आ रहा है।

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  19. रवीश जी बेहतर है.. बहुत कुछ बुद्धि कोलने वाला। लेकिन तमाम विकल्पों और तर्कों के बीच (जो कि गोदियाल साहब ने भी लिखा है) आपकी ही बात के समर्थन में कहना चाहूंगा। बहुत पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के किसी लेख में पढ़ा था कि-- मक्खियां गुड़ पर नहीं बहते व्रण पर ज्यादा भिनभिनाती हैं।-- डीडी की प्रस्तुति कमजोर है, रिटायर्ड लोगों का पाखंड बहुत हैं यहां। मुमकिन है इसी वजह से। लेकिन क्या अपने हिंदी चैनलों में से किसी में डिस्कवरी के स्तर की डॉक्युमेंट्री चलती है। टीआरपी का बहाना लेकर स्तरीय कार्यक्रम नहीं चलाए जाते । याद कीजिए आप जिस कार्यक्रम से हमारे सिरमौर बने- स्पेशल रिपोर्ट- आपके ही चैनल से उसे कूड़ा बनाकर रख दिया। हम अब भी उस रवीश को मिस करते हैं,जो वाचाल भारतीयों के बीच मोबाईल के बढ़ते चलन पर मंथने वाली रिपोर्ट पेश करता था। या फिर बैलगाड़ी पर बैठकर लैप टॉप ऑपरेट करता दिखता था। आप मिस करते हैं या नहीं उन पलों को?? हम तो करते हैं। तो गोदियाल जी ने भी सच कहा कि हमारे पास विकल्प की कमी है। आप शायद टीवी नहीं देखते, लेकिन डीडी (न्यूज़) पर भी कुछ कार्यक्रम अच्छे आते हैं, लेकिन कैबल ऑपरेटरों ने उसे प्राइम बैंड पर से हटा रखा है। निजी चैनल खुद को प्राइम बैंड पर रखने के लिए केबल वालों की कितनी सेवा करते हैं, आपको पता ही होगा। डीडी की तरफ से कोई यह सेवा कार्य क्यों करेगा? लेकिन इतना तय है और आपसे सौ फीसद सहमत होते हुए मानता हूं कि हमारे यहां चिल्लाहट की बड़ी अहमियत है, सड़क के किनारे रुमाल बेचने वाले रस्ते का माल सस्ते में चिल्ला कर ही तो बेचते हैं। अब बेचने वाला आसाराम बापू हों, या आईबीएन-७ का गलाफाडू एंकर...

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  20. सर जी इतना परेशां क्यों हो ज़माने से . अपना काम ठीक से करो यार
    कोई चिल्ला रहा है तो कौन न्यूज़ देखता भी है
    न्यूज़ चैनल बहुत कम लोग देखते है मेरे जैसे देखते भी थे वो भी सिर्फ दो वकील और कुछ हमेशा आने वाले नेता या तुत्पुन्गिया लोगो को देख कर अब न्यूज़ देह्कना बंद कर दिया है
    मेरा कहना है की अपना standard बढाओ
    आपका रोना उस तरह का है की मेरा standard इस लिए कम है की दुनिया sustandard है ये बकवास फिलोसोफी है

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  21. इसे मैं अपने नजरिये से कहूँ तो कहूंगी कि हम मानसिक बीमारों की श्रेणी में आ गये हैं ,तभी तो ऋषि मुनियों के इस देश में लोग आर्ट आफ लिविंग सिखा कर पैसा कमा रहे हैं

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  22. 'एनंडीटीवी इंडिया' हमारा केबल ओपरेटर नहीं दिखाता, २४x७ और इमेंजिन ही केवल दिखता है. नहीं तो मैं अवश्य देखता और शायद कुछ लाभदायक टिप्पणी दे पाता...

    फिर भी मानव प्रकृति को - निजी अनुभव के आधार पर भी - जानते हुए यह कहना चाहूँगा कि यह सभी को मालूम है कि आदमी समय के साथ, बच्चे समान, बोर हो जाता है: वही कार्यक्रम देखते हुए, वही दोनों समय खाना खाते-खाते आदि आदि - क्यूंकि 'परिवर्तन प्रकृति का नियम है'...

    जो शायद यह भी दर्शाता है कि आदमी प्रकृति का ही एक अभिन्न अंग है, जैसा हमारे जोगियों ने, खगोलशास्त्री, हस्तरेखा विशेषज्ञ इत्यादि ने भी, अनादिकाल से समझा...कोई आज गढ़े में सर डाले शुतुरमुर्ग समान भले ही कहले, या समझलें, कि आदमी जो चाहे वो कर सकता है: वो चाँद को छू कर आगया है, और इस लिए भगवान् वगवान कुछ नहीं है, तो फिर उसका कोई इलाज संभव नहीं! "ग़लतफ़हमी का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था"...

    यदि काल ही नादबिन्दू की ओर बढ़ रहा हो तो शोर बढ़ता ही सुनाई देगा...किसी भी क्षेत्र में...

    यदि आप से कहा जाये की माल बढ़िया ही होना चाहिए भले ही उसको बनाने में कितना भी पैसा लगे, तो आप आरंभ में अड़तूस-फडतूस अनेक विकल्प बनायेंगे, और फिर धीरे धीरे उनमें सबसे बढ़िया कुछ नमूनों को ले अंत में सबसे बढ़िया, अति उत्तम उत्पाद तक पहुँच सकते है...जैसे सन '४७ में सब भारतीयों का केवल एक ही उद्देश्य था, यानि 'राजनैतिक स्वतंत्रता पाना' किन्तु जब लक्ष्य वास्तव में लगा कि मिल रहा है तो फिर हमने अपनी (या द्वैतवाद प्रकृति के कारण) औकात दिखा ही दी...और उसके बाद सभी को पता है कि हम कैसे काल के साथ टूट रहे हैं (कितने निजी चैनल बन गए!) - फिर से छोटे छोटे क्षेत्रों में, शायद अनंत धूलि कणों में जिससे यह धरा बनी है...और सत्य कि अनदेखी कर हम मोदी, ठाकरे, भाषा आदि आदि को दोष देते रह जायेंगे :)

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  23. रवीश जी,
    आपनें कहा कि आप जनता के बीच गए, फ्लेक्स देखे कथा सुनी, सुंदर कांड भी सुना।
    लोगों के नारे भी सुनें गुरुजी के भाषण और उपदेश भी। चिल्ला-चिल्ली के इस दौर में अपनी बात को कहनें के लिए क्या-क्या पैंतरें करनें पड़ते हैं आप वाकिफ़ हो चुके होंगे। एक बात औऱ गौर करते, कि लोग जिस कथा को सुनते हैं उसे कितना मानते हैं। कि उसकी वास्तविक स्थिति में कितनी प्रासंगिकता है,ये भी जाननें कि कोशिश करते। सुंदर कांड कि अंतिम चौपाई पर लोगों की राय लेते।
    "ढोल, गवांर शूद्र,पशु, नारी
    सकल ताड़ना के अधिकारी"
    गलती या वास्तविक परिदृश्य में उस सामग्री की प्रासंगिकता के बारे में ना तो हमारे हिंदी न्यूज़ चैनल सोचते हैं, ना बाबा लोग(कथावाचक), ना टेलीविजन के ख़बरनफीस और ना जनता...। सब लगे हैं अपनी-अपनी भोकाली दिखाने।
    सबको अपना फायदा देखना है माल बेचना है, चाहे ख़बर हो या कथा...तो जनता से क्या आशा रखते है हम? वो बेवकूफ़ है? सबको पता है कि पूरे दिन की चिल्ला-चिल्ली से शाम को घर पर लौटकर किसी एंकर के चिल्लानें पर दर्शक को कितना आनंद प्राप्त होता है। वो जानता है कि जिस काम को मैं अभी करके आ रहा हूं उसी को ये(एंकर) कर रहा है। सब जानते हैं कि बाबा(कथावाचक) लोग जो संडे को ज्ञान देते हैं लोग भी अपनी छुट्टी का आनंद लेनें लिए आऊटिंग कर आते हैं। पता है लोगो को कि बाबा अपना काम कर रहा है औऱ हमें अपना काम करना है। इस चिल्ल पौं से कहां तक बचेगा कोई। अब तो हिमालय पर भी नहीं जा सकते। वहां पर भी टीवी वाले पंहुच गए। ऐसी स्थिति में 1970 में गीतकार शैलेंद्र का एक गीत प्रासंगिक लगता है
    "जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां?

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  24. भाई रविश जी ....आपकी प्रश्नात्मक चिन्ताएं सार्थक है ....लेकिन हमारे आज के समाज में कई प्रश्नों को विलोपित ही माना जाय ...यही विकल्प है ...कई चीजों -बातों के जवाब समय के पास सुरक्षित हैं सब कुछ एक साथ पा लेने की ये मार -काट है ....आपकी इस बात से भी सहमत हूँ ....ऑल इंडिया रेडियो में बोलचाल की शैली सामान्य और शांत है। वाक्य विन्यासों को संतुलित आवाज़ में पेश किया जाता है। लेकिन बाकी प्राइवेट एफएम को देखें तो एक किस्म की चीख है। उत्तेजना है। भाएं-भुईं हैं।लेकिन ध्यान से सुने तो कुछ एक प्रोग्राम में युवाओं को आकर्षित करने के चक्कर में उनका भी मेनेजमेंट बिगड़ सा गया है ....सुबह सैर पर पहले कुछ एक पुराने या पसंदीदा गीत सुन लेते थे अब वो नहीं है ...यहाँ भी प्रायवेट एफ एम् से कॉम्पिटिशन है लेकिन रिमोट आपके पास हो तो बेहतर तात्कालिक विकल्प को आसानी से चुना जा सकता है

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  25. vastav me ndtv registan me thande makhmal ka ahsas karata he .kamal khan aur aap jese log is chennal ki jan hain english chennEL HAMARA CABLE OPERATOR CHALATA NAHI ISLIYE JYADA JANTA NAHI HUN.MUJHE BHI LIKHNE KA SHAUQ HE LOCAL AKHBARON VAGERA ME CHHAPTA HU.NAUKRI BIMA CO.KI HE PAR KHWAB ABHI BHI SAMPADAK BANNE KE PAL RAHA HUN .AAPKE BLOG KA REGULAR CUSTOMER.

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  26. ravish jee,
    mujhe ye jaanne ki utsukta hai ki aap kahan pe pale badhe hain? aapke shabdon ke chunav se main hairat mein hun. Ye shabd mere apne hain jab main gaon mein hota tha.Inme se ek hai 'Bella Fad'.

    agar aap blog pe jabab nahi de sakte to mujhe mail kar dijiye. mera e-mail id hai : ranjujnu@gmail.com

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