सुनेत्रा चौधरी NDTV 24x7 इंग्लिश न्यूज़ चैनल की जुझारू रिपोर्टर हैं। सुनेत्रा का पदनाम कुछ और होगा लेकिन मेरी नज़र में उनकी पहचान एक रिपोर्टर की ही है। वे ख़ूबसूरत भी हैं। जानबूझ कर खूबसूरत कहा। हिन्दी पत्रकारिता की गलियों से सुनेत्रा के बारे में भी आवाज़ आती रहती है। मर्द प्रधान हिन्दी पत्रकारिता में किसी का सुनेत्रा चौधरी होना सहज रूप से समझा जा सकता है। ये और बात है कि गिनाने के लिए हिन्दी टीवी पत्रकारिता में भी महिलाओं ने कामयाबी के परचम लहराये हैं जैसे वैदिक काल में महिलाओं की महानता बताने के लिए गार्गी और मैत्रेयी का नाम लिया जाता है। NDTV 24X7 में न जाने कितनी गार्गियां और मैत्रेइयां भरी पड़ी हैं।
सुनेत्रा उन्हीं में से एक सामान्य शख्सियत हैं और बेहतरीन रिपोर्टर। कभी कभी इंग्लिश की गलियों में भी उन्हें ग्लैम कह दिया जाता है। सुनेत्रा जब भी दफ्तर आती हैं मुस्कुराती हुई आती हैं। कितनी भी मुश्किल रिपोर्टिंग से लौट रही हों अपने साथ मुस्कान लाना नहीं भूलतीं। मुस्कान इस बात का प्रमाण है कि सुनेत्रा को अपना काम बहुत अच्छा लगता है। मेरा उनसे हाय-हलो से ज़्यादा का रिश्ता नहीं है लेकिन काम के प्रति उनकी ईमानदारी अच्छी लगती है। वर्ना कोई सातवें आठवें महीने की गर्भ से होने के बाद भी हाथ में माइक लेकर वो दिल्ली की सड़कों पर भाग नहीं रही होतीं। मैंने अपने हिन्दी चैनल में ऐसा दृश्य नहीं देखा है। पूरे दिन रिपोर्टिंग करने के बाद जब सुनेत्रा शाम को मेकअप लगाकर एंकरिंग की तैयारी कर रही होती हैं तो कई बार यकीन करना ही पड़ता है कि इस लड़की की जान पत्रकारिता में बसती है।
इतनी भूमिका इसलिए बांधी कि सुनेत्रा की अंग्रेजी में किताब आ रही है। पहली किताब है। ब्रेकिंग न्यूज़। नाम से आपको लगा होगा कि हिन्दी पत्रकारिता के फटीचर काल जैसी कोई बहस होगी। नहीं ऐसा नहीं है। ये किताब है एक लड़की के रिपोर्टर बनने के ख्वाब और उसे साकार करने के जद्दोज़हद की। एक झलक आप भी देख सकते हैं-
In ten minutes, the Editor called: ‘What is it, Sunetra? What is it? Are you homesick?’
I must have been crazy because I actually thought that he felt sorry for me and sympathetic towards my condition. I sniffed a teary, ‘Yes.’
‘Then you fucking come back to Delhi and fucking stay in the air-conditioned office! Homesick, Homesick!’ he thundered, going ballistic, shouting me out of my self-pity.
I’d ended up staying for a fortnight longer and no, the floods never came, and no, I never cried again.
आसान प्रवाह में लिखने वाली सुनेत्रा ने अपने अनुभवों को बेहतरीन किस्से में बदला है। सारी घटनाएं सच्ची हैं और सारे किरदार असली। प्रणय रॉय,बरखा दत्त,सोनिया वर्मा सिंह,राजदीप सरदेसाई। बतौर रिपोर्टर सुनेत्रा को जब पिछले लोकसभा चुनाव में दो महीने की निरंतर बस यात्रा के लिए कहा गया तो भारत के चुनावी कवरेज के इतिहास में दर्ज करने लायक कई बातें थीं। इस बस यात्रा के लिए किसी पुरुष रिपोर्टर को नहीं चुना गया। सुनेत्रा चौधरी और नग़मा सहर। बस इसी घटना को सुनेत्रा ने एक रिपोर्टर के इस मुश्किल सफर से गुज़रने की दास्तान में बदल दिया।
आप देख सकेंगे कि कैसे सुनेत्रा ने बिना अपने पति से पूछे दो महीने की चुनावी यात्रा के लिए हामी भर दी। लिखती हैं कि रिपोर्टर के पास ना कहने का विकल्प नहीं होता। इस प्रसंग को कई एंगल से पढ़ा जा सकता है। इसके इर्द गिर्द रची जाने वाली आपसी प्रतिस्पर्धायें, पारिवारिक तनाव, कुछ करने की इच्छा सब है। सुनेत्रा का एक प्रसंग लाजवाब है। नाइट शिफ्ट करने के बाद घर लौट रही थीं तभी फोन आया कि ऊना जाना है। वहां दो दिन गुज़ारने के बाद किसी और ठिकाने की तरफ जाने का आदेश आता है। सुनेत्रा कहती हैं कि उनके पास दो दिन के ही कपड़े थे और जिस लहज़े में संपादक की डांट उनके कानों में उतरती है, वो इस पेशे की चुनौतियों के कई रंगों को ज़ाहिर कर देता है। उस डांट को पेशेवर सहजता से स्वीकार करती हुई सुनेत्रा चौधरी ने तभी तय कर लिया कि कभी ना नहीं कहना है। बीच एंकरिंग में अपने पति सुदीप को संदेश भेजती हैं कि मैंने हां हां और हां कहा है। सुदीप के पास भी हां कहने का चारा नहीं बचता है। उसके बाद शुरू होता है बस यात्रा की चुनौतियों का वृतांत।
पूरी किताब किसी फिल्म की कहानी की तरह आंखों में उतरती है। आप कई चीज़ों को पढ़ सकते हैं। कैसे इतना बड़ा फैसला होता है और इस फैसले में तीन औरतें होती हैं। हिन्दी पत्रकारिता में आपने ऐसा मंज़र कब देखा है। सुनेत्रा काफी साहसिक शब्दों का इस्तमाल करती हैं। आप हैरान हो जाएंगे। हिन्दी पत्रकारिता में बहस चल पड़ेगी कि कोई अपने संपादक के बारे में ऐसे कैसे लिख सकता है। शायद नौकरी भी चली जाए। लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि जब सुनेत्रा की किताब आएगी तो बरखा और सोनिया भी होंगी। आप पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि जब महिला संपादक होती हैं तो मर्द रिपोर्टरों पर क्या गुज़रती है। सामंती और वर्गीय सोच कैसे दरकती है। बॉल ब्रेकर्स। सुनेत्रा कहती हैं कि मर्द रिपोर्टर महिला संपादकों से जब खौफ खाते हैं तो इन लफ्ज़ों में अपने भय को बयां करते हैं।
एनडीटीवी के इंग्लिश चैनल का इसी खूबी के कारण मैं मुरीद रहा हूं। कुछ लोग इसे मेरी किसी अनजान और अनाम कुंठा से जोड़ देते हैं ताकि वो खुद को साबित कर सके कि वे इस दुनिया में कुंठा फ्री और महान पैदा हुए हैं। लेकिन जब भी मैं इंग्लिश चैनल में तमाम पदों पर लड़कियों को फैसले लेते देखता हूं, सहजता और सख्ती से तो लगता है कि हिन्दी में भी मुमकिन होना चाहिए। इंग्लिश चैनल की इन लड़कियों ने किसी डायवर्सिटी प्लान के तहत अपना मुकान नहीं तय किया है बल्कि छीन कर लिया है। पिछले पंद्रह साल से इस कंपनी में हूं। एक दीवार की तरह यह हिन्दी वाला तमाम सरगोशियों का साक्षी रहा है। इतनी बड़ी मात्रा में महिला संपादक किसी भी अखबार या चैनल में नहीं हैं। आप चाहें तो इन्हें ग्लैम, बेब्स, सेक्सी, स्वीटी कह लीजिए लेकिन इन्हीं लड़कियों ने मिलकर और सिर्फ अपनी सलाहियत के दम पर एक स्तरीय चैनल बनाया है। लेकिन एक के पास भी ये हुनर नहीं है कि वे टीआरपी लाने का दंभ भर दें। पत्रकारिता के गलीज़ होने के समय में इन लड़कियों ने एक चैनल को तो बचाया ही है। अपने सौंदर्य रस से नहीं,बल्कि सिर्फ मेहनत से। मैं मर्दों के योगदान को कम नहीं कर रहा लेकिन इन लड़कियों के योगदान से तो कम ही है।
पहले दो चैप्टर पढ़ने के बाद ही लगा कि यह किताब पढ़ने लायक है। सुनेत्रा के वृतांतों के ज़रिये आप एक न्यूज़ चैनल के भीतर की सामाजिकता को ठीक तरीके से देख सकेंगे। सभी देख सकते हैं और अपने अनुभवों को जोड़ कर भी देख सकते हैं। खासकर उन लडकियों के लिए जो हिन्दी के सामंती परिवेश में भयंकर किस्म के सामंती जातिवादी टाइटलों से लैस संपादकों के नीचे पनपने का ख़्वाब देखती हों। ऐसी बात नहीं है कि हिन्दी के परिवेश में लड़कियां नहीं हैं लेकिन किस चैनल की कोई प्रमुख लड़की है ज़रा बता दीजिएगा। सुनेत्रा की किताब का नाम है ब्राकिंग न्यूज़। ब्रेकिंग न्यूज़ का अपभ्रंश किया गया है। कैसी है ये फैसला आपका होगा तो अच्छा रहेगा। अगले महीने आने वाली है। हैचेट प्रकाशन से।
......फ़ोटू फ़ोटू फ़ोटू ?
ReplyDeleteओहो..भूल गया। डाल दूंगा।
ReplyDeleteसर , हमारी बहनें और बेटियां जिस तरह से आगे बढ़ रही है - वो कबीले तारीफ हैं ! इसका श्रेय उन माँ- बाप को भी जाना चाहिए जिन्होंने अपनी बेटिओं को हौसले के साथ उड़ने की ताकत दी !
ReplyDeleteसुनेत्रा चौधरी के लिय शुभकामनायें .'' ब्रेकिंग न्यूज '' का निश्चित रूप से स्वागत होगा . अच्छा लगा की कोई तो है जो लड़कियों क कार्यों की नोटिस ले रहा है .
ReplyDeleteब्रेकिंग न्यूज जरूर पढ़ना चाहूँगा।
ReplyDeletesunetra ko unki book ke liye dher saari shubhkamnayen...aur unki jindadili se ru-b-ru karane ke liye aapka shukriya sir :)aur vaise bhi aap jo bhi likhte hai,asar karta hai aur mujhe yahan aana accha lagta hai. :)
ReplyDeletenice to know. Enough words to encourage me for reading this book.
ReplyDeleteआपके सलाह से "कब कटेगी चौरासी" पढ़ी, और लगा की मैं एक दिन में ही थोडा ज्यादा परिपक्व हो गया हूँ, आशा है आप इसी तरह हमारी भूख मिटाते रहेंगे
धन्यवाद
शंकर
हम्म.
ReplyDeleteThat is why NDTV is the best. NDTV has Potential, conviction and honesty. Sunetra is undoubtedly an excellent reporter. Convey my congratulations to Sunetra. Kudos to her husband and parents.
ReplyDeleteBut sir, u r na...2 gud.
आपने बताकर अच्छा किया। वैसे किताब जब रिलीज हो अगले महीने और हम जैसे लोगों के जाने का भी प्रावधान हो तो आप बताएं तो अच्छा रहेगा। किताब पर जो चर्चाएं होगी,उसी सुन-समझ सकूंगा और खरीद भी सकूंगा।
ReplyDeleteअच्छा लग रहा है कि टेलीविजन के लोग इस तरह की बेहतर किताबें लिख रहे हैं। मैंने इसी तरह से नलिन मेहता की किताब खरीदी और पढ़ी है। बहुत ही सीरियस काम है। पहले हार्पर कॉलिन से आयी तो सस्ती थी लेकिन अब राउटलेट में आकर करीब 17 पौंड की हो गयी है।..
धन्यवाद रवीशजी,
ReplyDeleteवाकई पुरूष पत्रकार होने के नाते महिला पत्रकारों के साहस का बखान भी अपने आप में एक साहस है। वो भी इतनि प्रतिस्पर्धा के होते हुए!
मैं भी पुस्तक ज़रूर पढ़ना चाहूँगा। पुस्तक के परिचय के लिए धन्यवाद।
और सुनेत्रा जी को बधाई!!!
Hii,
ReplyDeleteGot here through sunetra's twitter link.Call Ignorant ,Naive !But I didn't know your blog exist.Great blog, And more glad to read as you know the topics an "Hindi" reporter can touch which others can't.Am not much comfortable in reading in Hindi so here is a small suggestion.."please change the background".Something like white.Will be good for slow readers.Hope you don't mind..:)!
Itni baten sunne ke bad mai "Breaking News"ko zarur padna chahunga.
ReplyDeleteरवीश जी,
ReplyDeleteसुनेत्रा वाकई बधाई की पात्रा हैं और साथ में आप भी | आप का योगदान भी कम नहीं की एक मनुष्य से आप ने परिचय कराया | चैनलों और अखबारों के अन्दर का सच पर कुछ दो एक साल पहले हंस के दो विशेष अंक आये थे | जो की बहुत से अनछुए पहलुओं पर प्रकाश दाल गए थे | देखना है की सुनेत्रा की किताब क्या नया लाती है | वैसे हिंदी पत्रकारिता भी समाज के अन्य जगहों पर होने वाले लिंग भेद से कोई अलग तो नहीं है ? वहां पर जो लोग आते होंगे वो चाँद से नहीं वरन इसी धरती से आते होंगे | एन.डी.टी.वी भीड़ से हटकर चैनल है | क्योंकि इसने जो किया है वि शायद कोई कर सके | टी.आर.पी. की आंधी में बड़े - बड़ों को भूत - प्रेत और बाबाओं का सहारा लेना पद रहा है या फिर ये बताने में ज्याद रूचि रखतें हैं की 2012 में पृथ्वी पर महाविनाश हो जाएगा |
इनसे हट के एन.डी.टी.वी है | पत्रकार दूसरों का सच तो दिखाते हैं पर अपने सच को स्वीकार करना भी आना चाहिए | मैं समझता हूँ ये कला एन.डी.टी.वी ने ठीक से विकसित कर ली है | इसलिए पुस्तक के लांच पर बरखा दत्त और सोनिया वर्मा को रहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए | ऐसे मैंने लखनऊ में बरखा दत्त के ' वी द पीपल' में एक बार एक दर्शक के रूप में शिरकत की है | उस समय राजदीप एन.डी.टी.वी. में ही थे | उस दिन किसी तकनीकी कारण से कार्यक्रम समय पर लाईव अप नहीं हुआ था | शायद दिल्ली से 'लिंक फैल्यर' बताया गया था | पर बरखा बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर सकीं और मोबाइल फ़ोन पर "How can you do this to me?" के अलावा किसी को चुनिन्दा अलंकरणों से नवाजा जो की आम तौर पर पुरुषों की जागीर माने जातें हैं | सो मैं समझ सकता हूँ की एन.डी.टी.वी. में पेशेवर मामलों में कोई हीला हवाली नहीं चलती होगी | और इस वातावरण में काम के प्रेशर, परिवार की जिम्मेदारी और गर्भावस्था के साथ किताब पूरा करना अपने आप में एक अचीवमेंट है | पुन: बधाई | क्या सुनेत्रा एन.डी.टी.वी. के शोशल ब्लॉग पर भी हैं ?
रवीश जी,
ReplyDeleteसुनेत्रा वाकई बधाई की पात्रा हैं और साथ में आप भी | आप का योगदान भी कम नहीं की एक मनुष्य से आप ने परिचय कराया | चैनलों और अखबारों के अन्दर का सच पर कुछ दो एक साल पहले हंस के दो विशेष अंक आये थे | जो की बहुत से अनछुए पहलुओं पर प्रकाश दाल गए थे | देखना है की सुनेत्रा की किताब क्या नया लाती है | वैसे हिंदी पत्रकारिता भी समाज के अन्य जगहों पर होने वाले लिंग भेद से कोई अलग तो नहीं है ? वहां पर जो लोग आते होंगे वो चाँद से नहीं वरन इसी धरती से आते होंगे | एन.डी.टी.वी भीड़ से हटकर चैनल है | क्योंकि इसने जो किया है वि शायद कोई कर सके | टी.आर.पी. की आंधी में बड़े - बड़ों को भूत - प्रेत और बाबाओं का सहारा लेना पद रहा है या फिर ये बताने में ज्याद रूचि रखतें हैं की 2012 में पृथ्वी पर महाविनाश हो जाएगा |
इनसे हट के एन.डी.टी.वी है | पत्रकार दूसरों का सच तो दिखाते हैं पर अपने सच को स्वीकार करना भी आना चाहिए | मैं समझता हूँ ये कला एन.डी.टी.वी ने ठीक से विकसित कर ली है | इसलिए पुस्तक के लांच पर बरखा दत्त और सोनिया वर्मा को रहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए | ऐसे मैंने लखनऊ में बरखा दत्त के ' वी द पीपल' में एक बार एक दर्शक के रूप में शिरकत की है | उस समय राजदीप एन.डी.टी.वी. में ही थे | उस दिन किसी तकनीकी कारण से कार्यक्रम समय पर लाईव अप नहीं हुआ था | शायद दिल्ली से 'लिंक फैल्यर' बताया गया था | पर बरखा बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर सकीं और मोबाइल फ़ोन पर "How can you do this to me?" के अलावा किसी को चुनिन्दा अलंकरणों से नवाजा जो की आम तौर पर पुरुषों की जागीर माने जातें हैं | सो मैं समझ सकता हूँ की एन.डी.टी.वी. में पेशेवर मामलों में कोई हीला हवाली नहीं चलती होगी | और इस वातावरण में काम के प्रेशर, परिवार की जिम्मेदारी और गर्भावस्था के साथ किताब पूरा करना अपने आप में एक अचीवमेंट है | पुन: बधाई | क्या सुनेत्रा एन.डी.टी.वी. के शोशल ब्लॉग पर भी हैं ?
पढ़ना चाहूंगा।
ReplyDeleteवैसे अरविंद मिश्रा जी से एक सवाल, क्या किसी के मात्र लेखन से ही उसकी पहचान नहीं हो सकती जो एक अदद फोटो की दरकार हो?
सुनेत्रा को भूला नहीं जा सकता। साफदिल पत्रकार। कुछ करने का हौसला और दिल की बात ज़बान पर लाने का माद्दा। मै उसकी हमेशा तारीफ़ करता हूं।
ReplyDeleteसुनेत्रा के साथ नाईट ड्यूटी में बहुत बहुत बार रहा हूं। स्टार न्यूज मे रहते हुए साथ-साथ सिगरेट के कश लगाए हैं। कई कई बार उसने सिगरेट मांगी और कहा कि इसका कोई हिसाब नहीं होगा:) अंग्रेजी माध्यम में रहते हुए भी हिन्दी के मूलभूत संस्कारों को जानने की दिलचस्पी उसमें थी। हालांकि उससे पार नहीं पा सकी थी। पर अपने दादा-नाना का जिक्र ज़रूर करती थी।
सुनेत्रा को बहुत शुभकामनाएं। उसका अनुभव लेखन के रूप में इतनी जल्दी सामने आएगा, इस बात ने मुझे चौंकाया तो है, पर खुश भी किया है। मेरी ये प्रतिक्रिया उसे पढ़ा दीजिएगा।
भले ही एक निजी ब्लॉग में हो, एक 'पुरुष' को एक 'लड़की'/ 'स्त्री' की तारीफ करते सुन बहुत ख़ुशी हुई - दोनों बधाई के पात्र हैं!
ReplyDeleteसन '५९ में सुबह सवेरे एक बूढ़े हलवाई को - 'मां काली' के कोलकाता में - दूध लेने आई एक छोटी सी कन्या को "मां" कहते सुन हम सभी वहाँ सौभाग्यवश/ संयोगवश उपस्थित ४-५ 'उत्तर भारतीय' विद्यार्थियों को आश्चर्य हुआ था और हंसी भी आई थी...और आज तीन 'पढ़ी-लिखी' बेटियों के 'बाप' और एक 'अनपढ़, किन्तु ज्ञानी' माँ के बेटे की हैसियत से में शायद दिल-ओ- दिमाग से कह सकता हूँ, "जय माता की" - अब जगराता में जाऊं या न जाऊं :)
सुनेत्रा को बधाई, उनकी किताब का इंतजार है।
ReplyDeleteAcchha laga. Accha laga ki ek "saamanti" parivesh se aanewaale patrakar ne ek mahila lekhak aur mahila team ke baare mein aise shabd likhe hain. Magar, aaj Hindi patrakaarita mein bache-khuche stambhon ke ek pramukh parichaayak ne jab aisa likha hai to vishwasniya lagta hai. Sunetra ko kaafi pehle ek akhbaar ke liye reporting karte dekha hai aur tabse aaj tak kaafi aagey aayi hain woh. So, unki kitaab mein zaroor kaafi rochak aur gaurtalab baatein hongi. Intezaar rahega unki kitaab ka. Padhne ke baad shaayad phir kuchh likhunga. Shukriya :)
ReplyDeletepaperback edition aayega tab padhenge.
ReplyDeleteपुस्तक की प्रतीक्षा रहेगी।जानकारी के लिए आभार।
ReplyDeleteपढूंगा... बहुत अच्छी पोस्ट... वक़्त-बेवक्त 'क़स्बा' से बहुत अच्छी जानकारियां मिलती हैं... अभी पिछले पुस्तक मेले से इसी नान की किताब "पुण्य प्रसून वाजपेयी" की लिखी ली थी... Shukriya.
ReplyDeleteआपने जानकारी दी, हम पढ़ेंगे जरूर..
ReplyDeletesunetra ki kitab ki publicity kafi achhi tarike se ki hain apney. sunetra ko kafi badhava milega issey . apney recomend kiya hain toh book achi honi chahiye . baki toh padh ke pata chalega. sunetra kafi himmati lagati hain jo unhone odd times me kam bhi kiya aur likh bhi kuch bold rahi hain. wakai hamare desh ki mahilaon me confidence kafi aa gaya hain par iska generalisation hona jaroori hain. aap dono ko kuchh alag likhne ke liye badhai
ReplyDeleteI wish all the best to Sunetra for her first book. Looking forward to read it. And Ravish ji thanks for acknowledging the work of a lady reporter. Of course they are second to none.
ReplyDeleteRegards
Arpita
रवीश जी सुनेत्रा के बारे में इतना सब जानकार ख़ुशी हुई.....आपके कसबे के माध्यम से हमें यह जानकारी मिली किताब आ रही है....आपने उत्सुकता को बड़ा दिया है....सुनेत्रा के इस जज्बे को सभी का सलाम ....पत्रकारिता का काम ऐसा है जहाँ पर कोई समय सीमा नहीं तय है.... इन सबके बाद भी सुनेत्रा को देखकर ऐसा लगता है जैसे उसमे एक जूनून है....
ReplyDeleteरवीश जी आपसे जाना चाहता हूँ ... प्रायः कहा जाता है इलेक्ट्रोनिक मीडिया में महिलाओं को पुरुषो के मुकाबले जल्दी प्रमोशन मिल जाता है....आप कहा तक सहमत है?
जय माता दी,
ReplyDeleteहमलोगों ने "पीड़ित मानव की सेवा "को अपना लक्ष्य मानकर माँ वैष्णो की कृपा से एक मंच माँ वैष्णो देवी सेवा समिति ,पटना (व्यावासिओं का एक ग्रुप) की शुरुआत की है .समिति ने ये निर्णय लिया है की हमलोग 16/03/2010 को माता का एक जागरण अनुराधा पौडवाल और लक्खा जी के द्वारा पटना के गाँधी मैदान में में करवा कर अपने सारे लक्ष्यों को पाने की कोशिश की शुरुआत करेंगे '।
हमलोगों ने १६/०३/२०१० के जागरण में ११ लोगों को सम्मानित करने का निर्णय लिया है.श्री किशोर कुनाल,श्री आनंद जी के साथ हमलोग आपको भी सम्मानित करना चाहते है.
MUKESH KUMAR HISSARIYA
MAA VAISHNO DEVI SEVA SAMITI
First Floor, Vindhyawasini Complex,
R.K. Bhattacharya Road,
Patna- 800001 (Bihar)
Email: info@maavaishnoseva.com
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Hand Phone : +91 9835093446
website- WWW.MAAVAISHNOSEVA.COM
सुनेत्रा जी को सलाम....
ReplyDeleteअच्छा है पीछे की दुनिया की खिड़की भी खुलनी चाहिए.....
ReplyDeleteRead your blog and nice to hear about Sunetra's book. Would like to have a copy of this when it is out. From your writings, i could guess what you are pointing at - there is a difference between a male and a female boss.. be it media or any other faculty, the issue is no different. When a female becomes the boss, she has to work doubly to prove that she exists and in this process she tries to ape the macho male who shouts, is critical to whatever you do or just mean. In the process of aping the male personality, women bosses add much more from their side (due to the guilt of proving that they are the boss!) which leads to women acquiring qualities which they are not in most of their personal life. This 'put on' becomes fundamental for their survival and is counter productive. This is a reproduction of patriarchical culture that doesnt give much options for women when they become boss and have to take work out of their team. Feminists have been discussing this phenomenon for a long time and i being associated with women's movement, can understand their point of view. The issue is that many qualities that man has could just be discarded by women who rise to the top to show the alternative. They dont have to be cruel, mean or negative as men bosses just to prove a point that they can be the BOSS. Can compassion, empathy etc be the qualities of women when they become the boss. How many women bosses have changed the work environment in their organisations and made it more women friendly? Did they ever influenced the policies that bars the entry of women journalists in the profession? Can sunetra promise that when she becomes the boss tomorrow, she would be more compationate towards her subordinates? If not, patriarchy will be at it best and media houses are no different than any other organisations that makes life difficult for women at work!
ReplyDeleteThanks, Anjal
Read your blog and nice to hear about Sunetra's book. Would like to have a copy of this when it is out. From your writings, i could guess what you are pointing at - there is a difference between a male and a female boss.. be it media or any other faculty, the issue is no different. When a female becomes the boss, she has to work doubly to prove that she exists and in this process she tries to ape the macho male who shouts, is critical to whatever you do or just mean. In the process of aping the male personality, women bosses add much more from their side (due to the guilt of proving that they are the boss!) which leads to women acquiring qualities which they are not in most of their personal life. This 'put on' becomes fundamental for their survival and is counter productive. This is a reproduction of patriarchical culture that doesnt give much options for women when they become boss and have to take work out of their team. Feminists have been discussing this phenomenon for a long time and i being associated with women's movement, can understand their point of view. The issue is that many qualities that man has could just be discarded by women who rise to the top to show the alternative. They dont have to be cruel, mean or negative as men bosses just to prove a point that they can be the BOSS. Can compassion, empathy etc be the qualities of women when they become the boss. How many women bosses have changed the work environment in their organisations and made it more women friendly? Did they ever influenced the policies that bars the entry of women journalists in the profession? Can sunetra promise that when she becomes the boss tomorrow, she would be more compationate towards her subordinates? If not, patriarchy will be at it best and media houses are no different than any other organisations that makes life difficult for women at work!
ReplyDeleteThanks, Anjal
बेटियों के लिए उसके परिवार को और खास कर पिता को जगह बनानी ही चाहिए, समाज तो रास्ता दे ही देगा । इसी विषय पर मैने, बहुत पहले एक कविता लिखी थी जो मैं यहां देने से रोक नहीं पा रहा हूं :
ReplyDeleteहे बेटियों के पिता
बेटियों की किल्कारियों से है आंगन हरा भरा,
इनकी नन्ही शरारतों पर सबका मन रीझ रहा,
इनके इरादों के आगे हर अवरोध हारेगा,
मुश्किलें छोड़ कर राह करेंगी किनारा।
इनके हाथों मे जब जब किताबें होगीं,
ये आगे बढ कर कल्पना चावला बनेगीं,
इनके हाथों मे जब होगा टेनिस रैकेट,
बनेगीं सानिया मिर्ज़ा पार कर हर संकट।
इन्हे एक मौका देने मे ही है बस देर हुई,
कोई नहीं रोक सकता बनने से इन्दिरा नूई,
जिन्हे वोट देने का कभी अधिकार भी न था,
उन्होने आज लहरा दिया है हर क्षेत्र में झंडा।
वो दर्जी की बेटी देखो पुलिस अफ़सर हो गयी,
दूधवाले की बेटी कर रही है पी एच डी,
ठाकुर की बेटी भी तो करने जा रही एम बी ए,
इनके पांव को न बांध सक रही घर की दहलीज।
हे पिता इनको सहेजना जब पड़े मुश्किल घड़ी,
न डिगना कर्तव्य से याद कर उनकी कोई गलती,
कुछ भूल हो जाये तो भी मत छोडना इनका हाथ,
ये पत्थर नही इनमे भी है मज्जा और रक्त की धार।
बेड़ियां जो इज्ज़त के नाम से है इनके पांव में पड़ी,
पिता हो काट सकते हो यदि तुम करो हिम्मत थोड़ी,
बहुत बांध कर रख लिया इन्हे रिवाजों के बन्धन में,
दो मुक्ति अब ये भी उड़ें पंख पसार कर गगन में।