सिनेमा ने नौजवानों को नैतिक नहीं बने रहने के लिए कई तरह से मजबूर किया। इस देश में लाखों नौजवान होंगे जिन्होंने फिल्म देखने के लिए झूठ बोला। अपने बड़े भाई से, पिता से, प्रिंसिपल से और पड़ोसी से। देख के आए फिल्म और बताने लगे कि लाइब्रेरी में प्रेमचंद पढ़ रहे थे। नब्बे के दशक तक शहरों की बड़ी आबादी स्थायी होती थी। अभी की तरह नहीं कि दस साल पटना में, बीस साल दिल्ली में और बाकी के साल मुंबई में। स्थायी आबादी होने के कारण मोहल्ले की पहचान मज़बूत हुई। रिश्तेदारों की नज़र मज़बूत होती थी। नतीजा...अरे आज पप्पू को देखे अप्सरा सिनेमा में। पढ़ता लिखता नहीं है का। बस जैसे ही चाय पीकर जासूस रिश्तेदार विदा हुए अंदर फिल्मी अंदाज़ में लात घूंसे चलने लगते।
सिनेमा हॉल की तरफ कदम बढ़ाने में पांव थरथराते थे। कहीं कोई देख न ले।चाचा या पड़ोस की आंटी। कहीं बड़े भाई भी दोस्तों के साथ न पहुंच गए हों सिनेमा देखने। याद कीजिएगा तो ऐसे ढेरो प्रसंग मिलेंगे इस तरह के टकराव के। सिर्फ पकड़े ही नहीं जाते थे बल्कि पहली बार घर वालों को पता चलता था कि इनके कौन कौन दोस्त हैं।आवारा लोफर यही सब इनाम मिलता था सिनेमा देखकर लौटने पर। अब तो घर के ही लोग कहते हैं फिल्म देख आओ। शुरू में ऐसा नहीं था।
हमारे परिवार के उसी सदस्य ने,जो सिनेमची थी,एक सत्य कथा बताई थी। पटना के मिलर स्कूल से भाग जाते थे फिल्म देखने। ज़्यादा फिल्में पर्ल और राजधानी का गौरव अशोक सिनेमा हॉल में ही देखी क्योंकि ये दोनों सिनेमा घर मिलर स्कूल के नज़दीक थे। जब प्रिंसिपल को शक हुआ तो कहा कि पिता को बुला कर लाओ। अब उनमें इतनी हिम्मत तो नहीं थी कि पिता को बुलाते। लिहाजा एक चाय वाले को चाचा बना कर ले गए। इसके आगे की बात याद नहीं लेकिन इन्ही की सुनाई एक और कहानी है। इनके कुछ दोस्त सिनेमा देख रहे थे। सिगरेट पीने के लिए(तब शायद लोग हॉल में भी पीते होंगे)पीछे बैठे दर्शक से दियासलाई मांग बैठे। पीछे वाले अपनी बीड़ी जलाई और जलती तीली आगे बढ़ाई तो हल्की रौशनी में अपने ही सपूत का चेहरा दिख गया। बस लगे वहीं लात जूते से उन्हें मारने। भगदड़ मच गई।
लड़कियों के लिए फिल्म देखना बहुत मुश्किल होता था। हमारे मोहल्ले में गीता दीदी थीं। उन्हें फिल्म देखने का बहुत शौक था। गीता दीदी साधारण सी महिला। इस बात की आशंका में डूबी रहने वाली लड़की कि कहीं कोई छेड़ न दे। बगल से तेज़ स्कूटर गुज़र जाए तो बिना देखे कि कौन चला रहा है वो चिल्लाने लगती थीं। दस बारह साल की उम्र में मैं गीता दीदी के साथ मर्द बन कर फिल्म देखने जाता था। उन्हें लगता था कि ये रहेगा तो कोई छेड़ेगा नहीं और मुझे लगता था कि मुफ्त में फिल्म देख रहा हूं। मोहल्ले की तमाम लड़कियों के लिए सिनेमा देखना तभी साकार होता था जब कोई बब्लू,पप्पू या मुन्ना उनके साथ फिल्म देखने को तैयार होता। तभी मांओं को भरोसा हो जाता था कि कोई लड़का साथ में है तो कुछ नहीं होगा।
क्योंकि यह वो समय था जब लड़कियां घरों से बाहर सिनेमा हाल में ही दिखती थीं। लड़कों और लड़कियों के बीच एक अजीब किस्म का अभद्र सार्वजनिक टकराव होता था। सिटियां बजती थीं। फब्तियां चलती थीं। तो बेताब फिल्म भी इसी तरह देखी मैंने। आठ दस लड़कियों के साथ। चार पांच रिक्शे पर लादी गईं और मैं उनका पहरेदार मर्द उन्हीं में से एक किसी दीदी की गोद में बैठ कर बेताब देखने गया था। आखिरी ऐसी फिल्म मैने प्यार किया देखी।
नब्बे का पहला साल था और मैं दिल्ली आ गया। इस बीच लालू प्रसाद के राज में पिछड़ों और अगड़ों के बीच तनाव के कारण सत्ता पाए पिछड़े उदंड हो गए तो अगड़े लड़के दिल्ली के लिए रवाना हो गए। अगड़ा समाज स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था कि दूध वाले ग्वाला लोग अब सरकार चला रहे हैं। ऐसा ही झगड़ा मैंने दो परिवारों के बीच देखा था। यादव जी थे और दूसरे ठाकुर साहब। ठाकुर परिवार के अंकल आंटी अक्सर उन पर फब्तियां कस देते कि अहिर लोग के राज में बौरा गए हैं। इस तरह की सार्वजनिक हिकारत ने भी लालू के समर्थकों को उदंड किया और लालू को लापरवाह नेता बनाया।
ख़ैर इसका नतीजा कानून व्यवस्था पर पड़ा। मेरे दिल्ली आने के बाद मोहल्ले की लड़कियों का इस तरह रिक्शे पर लदा कर जाना बद हो गया। मेरा पटना लौटना कम हो गया और उनकी समस्या का सामाजिक समाधान निकाला जाने लगा। शादी हो गई सब की। तब से उनमें से शायद किसी से नहीं मिला हूं। क्योंकि उन लड़कियों को सिनेमा दिखाने वाला जीवन साथी मिल चुका था। बब्लू,पप्पू और मुन्ना बेकार हो चुके थे बल्कि ये भी अब खराब हो चुके ज़माने में भरोसे के लायक नहीं रहे थे।
पटना में सिनेमा हॉल की हालत खस्ता होने लगी। अशोक अब राजधानी का गौरव नहीं लगता है। राजधानी का गौरव इसलिए था कि इस सिनेमा हॉल में सीटी बजाने पर सख्ती थी। दर्शकों की इसी आदत के कारण कई सिनेमा घरों ने हट्ठे कट्ठे पहलवान पाले थे। जो पहले दरवाज़े पर बेताब दर्शकों को ठेलते,उन्हें नियंत्रित कर एक एक कर भीतर जाने देते और फिर हॉल के अंदर पान की पीक थूकने या सीटी बजाने पर धुनाई करते। देश भर में कई सिनेमा घरों ने इन्ही पहलवानों के दम पर पारिवारिक होने की ख्याति पाई। नौ से बारह का शो काफी बदनाम शो माना जाता था। हॉस्टल के लड़के या रात की बस पकड़ने वाले लोग ही इस तरह से शो ज़्यादा देखा करते। रिक्शा वालों की भीड़ होती। फिल्म के साथ पंखा कूलर का भी मज़ा मिलता था। तभी तो हर हॉल पर शान से लिखा गया...एयरकूल। वातानुकूलित। असंख्य भारतीयों को एयरकंडीशन का सार्वजनिक अनुभव कराने का गौरव सिर्फ और सिर्फ हमारे सिनेमा हॉल को हासिल है।
दूसरी तरफ सिनेमा देखने में मास्टर लोग भी पैदा हुए। जो टिकट लेने में माहिर होते, लाइन के बाहर से आकर अपना हाथ खिड़की की छेद में घुसेड़ देते और कॉलर ऊंचा कर चल देते। एक खास किस्म का आत्मविश्वासी युवा दर्शक पैदा हुआ जो टिकट लेकर सीढ़ियों पर दनदनाते हुए चढ़ता और दरवाजे पर धमक जाता। इनसबके कारण भी कई शरीफ लोगों के लिए सिनेमा देखना किसी युद्ध से लौटने जैसा होता था। कुछ शरीफ सिनेमा देखने के क्रम में ही शराफत से मुक्ति पाते थे। ऐसी ही किसी दुपहरी मैं और मेरा दोस्त पर्ल में श्री ४२० देखने चले गए। पहली बार बिना बताए और मोहल्ले की लड़कियों के बगैर। तीन से छह का शो था। अचानक बाहर बारिश होने लगी और अंदर भी। राजकूपर तो नर्गिस के साथ छतरी में हो लिए लेकिन मैं और अभय डर गए। अगर बारिश होती रही तो घर कैसे पहुंचेंगे। भींग कर जायेंगे तो पकड़े जायेंगे। बस बीच सिनेमा से ही भाग लिये। यह भी तो देखना था कि छह बजे के बाद पहुंचने पर कोई न पकड़ ले कि सिनेमा देख कर आया है। उसके बाद से कभी झूठ बोल कर सिनेमा देखने नहीं गया। लेकिन मालूम चला कि जो लोग झूठ बोलकर सिनेमा देखते थे वो आखिरी सीन पर एक्ज़िट पर पहुंच जाते ताकि फिल्म खत्म होने पर बत्ती के जलने से वहां मौजूद कोई रिश्तेदार न देख ले। इसलिए वो सबसे पहले निकलते और जल्दी घर पहुंचने की कोशिश करते। बाकी यादें बाद में।
दर्शक की यादों में सिनेमा
(दोस्तों, जब मैं यह लेख लिख रहा था तो झपकी आ रही थी। तभी फोन की एक घंटी बजी कि अहमदाबाद में धमाका हुआ है। जल्दी में पोस्ट किया और अगले मिनट एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गया। इसीलिए कई त्रुटियां और बातें रह गईं थी जिन्हें अब जोड़ा जा चुका है। तीसरी मंज़िल की जगह तीसरी कसम आ गई है और बहुत सारे नये प्रसंग भी। एक बार फिर से पढ़ सकते
जो ठीक ठीक याद है उसके मुताबिक पहली बार सिनेमा बाबूजी के साथ ही देखा था। स्कूटर पर आगे खड़ा होकर गया था। पीछे मां बैठी थी। फिल्म का नाम था दंगल। उसके बाद दो कलियां देखी। पटना के पर्ल सिनेमा से लौटते वक्त भारी बारिश हो रही थी। हम सब रिक्शे से लौट रहे थे। तब बारिश में भींगने से कोई घबराता नहीं था। हम सब भींगते जा रहे थे। मां को लगता था कि बारिश में भींगने से घमौरियां ठीक हो जाती हैं। तो वो खुश थीं। हम सब खुश थे। बीस रुपये से भी कम में चार लोग सिनेमा देख कर लौट रहे थे। ये वो दौर था जब सिनेमा हाल में आने वाली फिल्मों के ट्रेलर के लिए तस्वीरों का इस्तमाल होता था। चार पांच किस्म की तस्वीरों को देख देख कर दर्शक कहानी का अंदाज़ा लगाता था। इतना ही अगली शो के लिए इंतज़ार करने वाले कई दर्शक दरवाज़े पर कान लगाकर हॉल से बाहर धमकती आवाज़ सुना करते थे। अपने भीतर सिनेमा का पूरा माहौल बन जाता था।
इन सब के बीच सिनेमा देखने का अनुभव बिहार कॉपरेटिव सोसायटी में दिखाई जाने वाली फिल्मों से भी हुआ। प्रोजेक्टर पर राजेंद्र कुमार की फिल्म गंवार पच्चीसों बार देखी। प्राण का लेग पीस खाने के अंदाज़ से ही प्रभावित हो कर चिकन खाते वक्त लेग पीस का मुरीद हो गया। खाते वक्त अजीब सी ताकत का एहसास होता था। लगता था कि मुर्गे के इसी हिस्से में सब कुछ है। उल्टी टांग को चबाते जाओ और उल्टा टांग कर सामने वाले की मरम्मत करते जाओ। हिंदी सिनेमा के कई हिस्सों ने खाने के अंदाज़ को काफी प्रभावित किया है। फिल्में न होती तो मां के हाथ का बना खाना इतना बड़ा सार्वजनिक प्रसंग न बनता। उसका रोमांटिकरण नहीं होता। आइसक्रीम खाने का रोमांटिकरण भी फिल्मों से समाज में आया है। नहीं तो किसी विष्णुपुराण में कहां लिखा है कि इंडिया गेट पर आइसक्रीम खाने जाना है। हमारी उम्र इतनी ही थी कि फर्क करना मुश्किल होता था कि कौन सुपरस्टार है और कौन नहीं। धीरे धीरे पता चलता गया कि दूरदर्शन पर दिखाई गई अजनबी फिल्म के राजेश खन्ना नहीं बल्कि अमिताभ बच्चन स्टार हैं। नाई भी मेरे बाल कुछ बच्चन मार्का काट दिया करता था। कान पर जब भी कुछ बाल छोड़ता ताकि कान बच्चन की तरह ढंके रहे, एक बार वसीम मियां से झगड़ा हो ही जाता था। वसीम स्मार्ट हेयर कट नाम था उनकी दुकान का। दिन भर अपने दोनों बेटों को गरियाते रहते थे कि काम नहीं करता, फिल्में देखता रहता है लेकिन मेरे कान पर बाल इसलिए छोड़ देते थे कि बच्चन के भी कान ढंके होते थे।
हमारे परिवार के एक सदस्य सिनेमची थे। वो एक कॉपी में देखी गई फिल्मों को क्रमवार लिखते थे। उनके हाथ में आया एक एक पैसा बॉलीवु़ड के कई स्टारों की आर्थिक समृद्धि के लिए समर्पित हो गया। इतना ही नहीं वे कॉपी के दूसरे हिस्से में आने वाली फिल्मों के नाम भी लिखा करते थे। इसके लिए वे सार्वजनिक प्रताड़ित भी किये जाते थे कि फिल्म ही देखते हैं, पढ़ते लिखते नहीं। मेरे मोहल्ले में शिवा नाम का एक लड़का था। वो जब भी सिनेमा देख कर आता तो बकायदा अभिनय कर कहानी सुनाता। हम सब नहीं देखने वाले दर्शक पूरे रोमांच के साथ शिवा से फिल्म की कहानी सुना करते थे। शिवा कहता..जानते हो..हेमा को प्राण हेलिकॉप्टर से बांध देता है। म्यूज़िक चलता है..ढैन ढैन...ढन....ढन। तभी धर्मेंद आ जाता है...शिवा की आंखे घूमने लगतीं, मुंह बिदक चुके होते और दांत खिसक चुके होते थे। पूरी कोशिश होती कि पर्दे की कहानी को साक्षात अपने चेहरे पर उतार कर वंचित दर्शकों के सीने में उतार दें। शिवा के भीतर एक प्रोजेक्टर चलने लगता था। फिल्मों के बारे में जानने का एक जरिया मायापुरी नाम की प्रतीका भी था। मायापुरी के स्ट्रीप हों या बेकार से लेख, इसके बावजूद इस पत्रिका ने बॉलीवुड को घर घऱ में पहुंचाया। मायापुरी ही तो थी जो सफर में बॉलीवुड को लेकर चलती थी। ट्रेन में बैठे हों और मायापुरी पढ़ रहे हों। राजेश खन्ना और डिम्पल की प्रेम कहानी और हेमा का जलना। अमिताभ और रेखा के बीच धधकते शोले और जया का जलना। ट्रेन गाती हुई चली जाती थी। हिंदी फिल्मों के गाने।
लेकिन शिवा हमारे लिए असली ट्रेलर का काम करता। जानी दुश्मन की कहानी उसने इस अंदाज़ में बताई कि डर से देखने भी नहीं गया। यह वो दौर था जब इंदिरा गांधी की हत्या होनी थी और अमिताभ बच्चन का जादू अभी और चलना था। कूली की शूंटिग में घायल होने के बाद अमिताभ वापस आ चुके थे। दर्शकों की प्रार्थना स्वीकार हो चुकी थी। निर्देशक ने भी पुनीत इस्सर के उस घूंसे को पर्दे पर फ्रीज़ कर दिया जिसके कारण अमिताभ को चोट लगी थी। आंखें फाड़ कर देखता रह गया। एक घूंसा और मेरा सुपर स्टार। उफ।
मगर इससे पहले एक शौक पूरा करना था। मुकद्दर का सिंकदर का प्रचार करना था। ऑटो में बैठकर बोलने का शौक। भाइयों और बहनों..अररर...अर...आ गया आ गया..मुकद्दर का सिंकदर। पटना में पहली बार...राजधानी का गौरव...अशोक सिनेमा...पूरे परिवार के साथ देखना न भूलें...रोजाना चार शो। बहुत मजा आया था इस शौक को पूरा कर। किसी को पता भी नहीं चला और काम भी हो गया। किसी दोपहर को जब फिल्मों की प्रचार गाड़ी दनदनाती गुज़रती तो लाउडस्पीकर की आवाज़ बहुत देर तक गूंजती रहती। क्रांति जब मोना सिनेमा में लगी थी तब खबर आई थी हॉल में धमाका हो गया है। दो रंगदार टिकट न मिलने पर मारा पीटी कर बैठे थे।
पीवीआर से पहले के दौर में बालीबुड ने सिनेमा के दर्शकों में एक विशिष्ठ वर्ग पैदा किया था। प्रथम दिन पहला शो देखने वाले दर्शकों का वर्ग। लाठी खाकर रातों को जागर टिकट ले लेना। कई लोग इसलिए भी करते थे ताकि पहला शो देखने का रिकार्ड बना रहे और न देख पायें तो सिनेमा ही नहीं देखते थे। इगो में। चार बजे सुबह उठ कर चला गया था अग्निपथ का टिकट लेने। लाइन में लगे रहे। अचानक लाठी चल गई। एक लाठी लगी भी। चप्पल कहीं छूट गया। कमीज़ का बटन टूट गया। लेकिन जिस अमीर दोस्त को पकड़ लाया था टिकट के पैसे देने वो लाठी खाने के बाद भी डटा रहा। पहले दिन पहला शो का टिकट लेने के लिए। टिकट मिला भी। मज़ा आया था। अग्निपथ अग्निपथ..।
एशियाड के बाद से सिनेमा की सार्वजनिक दुनिया में बंटवारा होने लगा। रंगीन टीवी ने बहुत कुछ बदला। रविवार को सड़कों पर सन्नाटा पसर जाता था। सारे पड़ोसी घर में जमा हो जाते थे। उस दौर में देवानद की बनारसी बाबू, राजेश खन्ना की अजनबी दिखाई जाती थी। आरजू तो टीवी पर काफी देखी गई थी। बेदर्दी बालमा तुझको मेरा मन याद करता है। नवरंग फिल्म डीडी पर आ रही थी। मोहल्ले की पच्चीस तीस लड़के-लड़कियां टीवी देख रही थीं। सब के सब रो रही थीं। अब रोती हैं या नहीं मालूम नहीं लेकिन सिनेमा एक मौका देता ही है आपके भीतर की कहानी को पर्दे की कहानी से जोड़कर बाहर लाने का। हम सब फिल्मों से जुड़ रहे थे। बालीवुड का देशव्यापी प्रसार अभियान सफल हो रहा था। नरसिंहा राव के आने से पहले और बाबरी मस्जिद के गिरने से पहले तक सिनेमा एक रोमांचकारी अनुभव हुआ करता था। कयामत से कयामत तक हो या अजनबी कौन हो तुम या फिर नदिया के पार जैसी फिल्मों का दौर अभी बाकी था। लव स्टोरी,रॉकी और बेताब आकर चली गई थी। स्टार पुत्रों की कहानी उस दौर में भी लिखी गई। आज के पत्रकार भी लिखते हैं। स्टार पोतों की कहानी।
उसी दौर में एक छठ पूजा में कर्ज का वो गाना रात भर गूंजता रहा। आज भी याद है मेरे मोहल्ले का लाउडस्पीकर बंद होता तो कहीं दूर से आवाज़ आने लगती थी..ओम शांति ओम। हे तुमने कभी किसी को दिल दिया है...। इसी वक्त एक डिस्को शर्ट का चलन भी आ गया था। डिस्को शर्ट काफी चमकता था। पीले रंग का काफी पोपुलर हुआ था। हीरो में जैकी श्राफ के पीले शर्ट के पोपुलर होने से पहले। हीरो के बाद से तो न जाने कितने लोगों ने काली पैंट और पीली शर्ट बनवाई थी। दर्ज़ियों के होर्डिंग बदल गए थे। जैकी की तस्वीर आ गई थी।
यह तमाम बातें अस्सी के शुरूआती साल से लेकर १९९० तक की हैं। शायद समय का क्रम ठीक नहीं है। लेकिन बेतरतीब ही सही सिनेमा को याद करने पर बहुत कुछ निकलने लगता है। जब भी बंदिनी का वो गाना दूरदर्शन पर देखता..ओरे मांझी..गाने में हाजीपुर का पहलेजा घाट दिख जाता। हम भी मोतिहारी से हाजीपुर आते फिर हाजीपुर के पहलेजा घाट में पानी के जहाज पर सवार होकर पटना आते थे। स्टीमर पटना के दूजरा में उतरता था। कोई बच्चा बाबू थे जिनका स्टीमर चलता था। पहली बार इसी स्टीमर पर देखा था कि अगले हिस्से में कारें हैं और पीछले हिस्से में लोग। बाबूजी के साथ ऑमलेट और उस पर गोलमिर्च छिड़क कर खाने का अनुभव यहीं हुआ था। बहरहाल मैं सिनेमा को याद कर रहा हूं।
एक फिल्म और आई थी। जिसे मैं नहीं देख सका। गर्भ ज्ञान। पटना में जब यह फिल्म लगी तो काफी चर्चा हुई थी। तब पता नहीं चल पाया था कि यह वयस्कों के लिए है या ज्ञान के प्रसार के लिए। केवल वयस्कों के लिए का लेबल तो आज भी होता होगा। तीसरी कसम ने तो एक अलग पहचान बना दी थी। रेणु की कहानी थी और बिहार। तब नहीं पता था कि बिहार एक अतिपिछड़ा राज्य है। राज्य से बाहर लोग बिहारी के रूप में पहचाने जाते हैं। दूसरे राज्यों से भगाये जाते हैं। यह सब नहीं मालूम था। शायद राजकपूर ने बहुत ध्यान से देखा होगा बंबई में काम के लिए आने वाले बिहारी मज़दूरों को। उनकी सादगी राजकपूर को तीसरी कसम में ईश कहने के लिए मजबूर करती होगी...ईश..लगता था कि वाह इस हिंदुस्तान के हम भी हिस्सा हैं। बिहार की पृष्ठभूमि पर भले ही कम फिल्में बनी हों लेकिन एक तरह की मासूमियत हुआ करती थी। शूल और गंगा जल ने बिहार को वो चेहरा दिखाया जो बाद में राजनीतिक परिवर्तन का हिस्सा बना। तब तक बिहार भी तो बहुत बदल गया था। बाकी की यादें बाद में।
जो ठीक ठीक याद है उसके मुताबिक पहली बार सिनेमा बाबूजी के साथ ही देखा था। स्कूटर पर आगे खड़ा होकर गया था। पीछे मां बैठी थी। फिल्म का नाम था दंगल। उसके बाद दो कलियां देखी। पटना के पर्ल सिनेमा से लौटते वक्त भारी बारिश हो रही थी। हम सब रिक्शे से लौट रहे थे। तब बारिश में भींगने से कोई घबराता नहीं था। हम सब भींगते जा रहे थे। मां को लगता था कि बारिश में भींगने से घमौरियां ठीक हो जाती हैं। तो वो खुश थीं। हम सब खुश थे। बीस रुपये से भी कम में चार लोग सिनेमा देख कर लौट रहे थे। ये वो दौर था जब सिनेमा हाल में आने वाली फिल्मों के ट्रेलर के लिए तस्वीरों का इस्तमाल होता था। चार पांच किस्म की तस्वीरों को देख देख कर दर्शक कहानी का अंदाज़ा लगाता था। इतना ही अगली शो के लिए इंतज़ार करने वाले कई दर्शक दरवाज़े पर कान लगाकर हॉल से बाहर धमकती आवाज़ सुना करते थे। अपने भीतर सिनेमा का पूरा माहौल बन जाता था।
इन सब के बीच सिनेमा देखने का अनुभव बिहार कॉपरेटिव सोसायटी में दिखाई जाने वाली फिल्मों से भी हुआ। प्रोजेक्टर पर राजेंद्र कुमार की फिल्म गंवार पच्चीसों बार देखी। प्राण का लेग पीस खाने के अंदाज़ से ही प्रभावित हो कर चिकन खाते वक्त लेग पीस का मुरीद हो गया। खाते वक्त अजीब सी ताकत का एहसास होता था। लगता था कि मुर्गे के इसी हिस्से में सब कुछ है। उल्टी टांग को चबाते जाओ और उल्टा टांग कर सामने वाले की मरम्मत करते जाओ। हिंदी सिनेमा के कई हिस्सों ने खाने के अंदाज़ को काफी प्रभावित किया है। फिल्में न होती तो मां के हाथ का बना खाना इतना बड़ा सार्वजनिक प्रसंग न बनता। उसका रोमांटिकरण नहीं होता। आइसक्रीम खाने का रोमांटिकरण भी फिल्मों से समाज में आया है। नहीं तो किसी विष्णुपुराण में कहां लिखा है कि इंडिया गेट पर आइसक्रीम खाने जाना है। हमारी उम्र इतनी ही थी कि फर्क करना मुश्किल होता था कि कौन सुपरस्टार है और कौन नहीं। धीरे धीरे पता चलता गया कि दूरदर्शन पर दिखाई गई अजनबी फिल्म के राजेश खन्ना नहीं बल्कि अमिताभ बच्चन स्टार हैं। नाई भी मेरे बाल कुछ बच्चन मार्का काट दिया करता था। कान पर जब भी कुछ बाल छोड़ता ताकि कान बच्चन की तरह ढंके रहे, एक बार वसीम मियां से झगड़ा हो ही जाता था। वसीम स्मार्ट हेयर कट नाम था उनकी दुकान का। दिन भर अपने दोनों बेटों को गरियाते रहते थे कि काम नहीं करता, फिल्में देखता रहता है लेकिन मेरे कान पर बाल इसलिए छोड़ देते थे कि बच्चन के भी कान ढंके होते थे।
हमारे परिवार के एक सदस्य सिनेमची थे। वो एक कॉपी में देखी गई फिल्मों को क्रमवार लिखते थे। उनके हाथ में आया एक एक पैसा बॉलीवु़ड के कई स्टारों की आर्थिक समृद्धि के लिए समर्पित हो गया। इतना ही नहीं वे कॉपी के दूसरे हिस्से में आने वाली फिल्मों के नाम भी लिखा करते थे। इसके लिए वे सार्वजनिक प्रताड़ित भी किये जाते थे कि फिल्म ही देखते हैं, पढ़ते लिखते नहीं। मेरे मोहल्ले में शिवा नाम का एक लड़का था। वो जब भी सिनेमा देख कर आता तो बकायदा अभिनय कर कहानी सुनाता। हम सब नहीं देखने वाले दर्शक पूरे रोमांच के साथ शिवा से फिल्म की कहानी सुना करते थे। शिवा कहता..जानते हो..हेमा को प्राण हेलिकॉप्टर से बांध देता है। म्यूज़िक चलता है..ढैन ढैन...ढन....ढन। तभी धर्मेंद आ जाता है...शिवा की आंखे घूमने लगतीं, मुंह बिदक चुके होते और दांत खिसक चुके होते थे। पूरी कोशिश होती कि पर्दे की कहानी को साक्षात अपने चेहरे पर उतार कर वंचित दर्शकों के सीने में उतार दें। शिवा के भीतर एक प्रोजेक्टर चलने लगता था। फिल्मों के बारे में जानने का एक जरिया मायापुरी नाम की प्रतीका भी था। मायापुरी के स्ट्रीप हों या बेकार से लेख, इसके बावजूद इस पत्रिका ने बॉलीवुड को घर घऱ में पहुंचाया। मायापुरी ही तो थी जो सफर में बॉलीवुड को लेकर चलती थी। ट्रेन में बैठे हों और मायापुरी पढ़ रहे हों। राजेश खन्ना और डिम्पल की प्रेम कहानी और हेमा का जलना। अमिताभ और रेखा के बीच धधकते शोले और जया का जलना। ट्रेन गाती हुई चली जाती थी। हिंदी फिल्मों के गाने।
लेकिन शिवा हमारे लिए असली ट्रेलर का काम करता। जानी दुश्मन की कहानी उसने इस अंदाज़ में बताई कि डर से देखने भी नहीं गया। यह वो दौर था जब इंदिरा गांधी की हत्या होनी थी और अमिताभ बच्चन का जादू अभी और चलना था। कूली की शूंटिग में घायल होने के बाद अमिताभ वापस आ चुके थे। दर्शकों की प्रार्थना स्वीकार हो चुकी थी। निर्देशक ने भी पुनीत इस्सर के उस घूंसे को पर्दे पर फ्रीज़ कर दिया जिसके कारण अमिताभ को चोट लगी थी। आंखें फाड़ कर देखता रह गया। एक घूंसा और मेरा सुपर स्टार। उफ।
मगर इससे पहले एक शौक पूरा करना था। मुकद्दर का सिंकदर का प्रचार करना था। ऑटो में बैठकर बोलने का शौक। भाइयों और बहनों..अररर...अर...आ गया आ गया..मुकद्दर का सिंकदर। पटना में पहली बार...राजधानी का गौरव...अशोक सिनेमा...पूरे परिवार के साथ देखना न भूलें...रोजाना चार शो। बहुत मजा आया था इस शौक को पूरा कर। किसी को पता भी नहीं चला और काम भी हो गया। किसी दोपहर को जब फिल्मों की प्रचार गाड़ी दनदनाती गुज़रती तो लाउडस्पीकर की आवाज़ बहुत देर तक गूंजती रहती। क्रांति जब मोना सिनेमा में लगी थी तब खबर आई थी हॉल में धमाका हो गया है। दो रंगदार टिकट न मिलने पर मारा पीटी कर बैठे थे।
पीवीआर से पहले के दौर में बालीबुड ने सिनेमा के दर्शकों में एक विशिष्ठ वर्ग पैदा किया था। प्रथम दिन पहला शो देखने वाले दर्शकों का वर्ग। लाठी खाकर रातों को जागर टिकट ले लेना। कई लोग इसलिए भी करते थे ताकि पहला शो देखने का रिकार्ड बना रहे और न देख पायें तो सिनेमा ही नहीं देखते थे। इगो में। चार बजे सुबह उठ कर चला गया था अग्निपथ का टिकट लेने। लाइन में लगे रहे। अचानक लाठी चल गई। एक लाठी लगी भी। चप्पल कहीं छूट गया। कमीज़ का बटन टूट गया। लेकिन जिस अमीर दोस्त को पकड़ लाया था टिकट के पैसे देने वो लाठी खाने के बाद भी डटा रहा। पहले दिन पहला शो का टिकट लेने के लिए। टिकट मिला भी। मज़ा आया था। अग्निपथ अग्निपथ..।
एशियाड के बाद से सिनेमा की सार्वजनिक दुनिया में बंटवारा होने लगा। रंगीन टीवी ने बहुत कुछ बदला। रविवार को सड़कों पर सन्नाटा पसर जाता था। सारे पड़ोसी घर में जमा हो जाते थे। उस दौर में देवानद की बनारसी बाबू, राजेश खन्ना की अजनबी दिखाई जाती थी। आरजू तो टीवी पर काफी देखी गई थी। बेदर्दी बालमा तुझको मेरा मन याद करता है। नवरंग फिल्म डीडी पर आ रही थी। मोहल्ले की पच्चीस तीस लड़के-लड़कियां टीवी देख रही थीं। सब के सब रो रही थीं। अब रोती हैं या नहीं मालूम नहीं लेकिन सिनेमा एक मौका देता ही है आपके भीतर की कहानी को पर्दे की कहानी से जोड़कर बाहर लाने का। हम सब फिल्मों से जुड़ रहे थे। बालीवुड का देशव्यापी प्रसार अभियान सफल हो रहा था। नरसिंहा राव के आने से पहले और बाबरी मस्जिद के गिरने से पहले तक सिनेमा एक रोमांचकारी अनुभव हुआ करता था। कयामत से कयामत तक हो या अजनबी कौन हो तुम या फिर नदिया के पार जैसी फिल्मों का दौर अभी बाकी था। लव स्टोरी,रॉकी और बेताब आकर चली गई थी। स्टार पुत्रों की कहानी उस दौर में भी लिखी गई। आज के पत्रकार भी लिखते हैं। स्टार पोतों की कहानी।
उसी दौर में एक छठ पूजा में कर्ज का वो गाना रात भर गूंजता रहा। आज भी याद है मेरे मोहल्ले का लाउडस्पीकर बंद होता तो कहीं दूर से आवाज़ आने लगती थी..ओम शांति ओम। हे तुमने कभी किसी को दिल दिया है...। इसी वक्त एक डिस्को शर्ट का चलन भी आ गया था। डिस्को शर्ट काफी चमकता था। पीले रंग का काफी पोपुलर हुआ था। हीरो में जैकी श्राफ के पीले शर्ट के पोपुलर होने से पहले। हीरो के बाद से तो न जाने कितने लोगों ने काली पैंट और पीली शर्ट बनवाई थी। दर्ज़ियों के होर्डिंग बदल गए थे। जैकी की तस्वीर आ गई थी।
यह तमाम बातें अस्सी के शुरूआती साल से लेकर १९९० तक की हैं। शायद समय का क्रम ठीक नहीं है। लेकिन बेतरतीब ही सही सिनेमा को याद करने पर बहुत कुछ निकलने लगता है। जब भी बंदिनी का वो गाना दूरदर्शन पर देखता..ओरे मांझी..गाने में हाजीपुर का पहलेजा घाट दिख जाता। हम भी मोतिहारी से हाजीपुर आते फिर हाजीपुर के पहलेजा घाट में पानी के जहाज पर सवार होकर पटना आते थे। स्टीमर पटना के दूजरा में उतरता था। कोई बच्चा बाबू थे जिनका स्टीमर चलता था। पहली बार इसी स्टीमर पर देखा था कि अगले हिस्से में कारें हैं और पीछले हिस्से में लोग। बाबूजी के साथ ऑमलेट और उस पर गोलमिर्च छिड़क कर खाने का अनुभव यहीं हुआ था। बहरहाल मैं सिनेमा को याद कर रहा हूं।
एक फिल्म और आई थी। जिसे मैं नहीं देख सका। गर्भ ज्ञान। पटना में जब यह फिल्म लगी तो काफी चर्चा हुई थी। तब पता नहीं चल पाया था कि यह वयस्कों के लिए है या ज्ञान के प्रसार के लिए। केवल वयस्कों के लिए का लेबल तो आज भी होता होगा। तीसरी कसम ने तो एक अलग पहचान बना दी थी। रेणु की कहानी थी और बिहार। तब नहीं पता था कि बिहार एक अतिपिछड़ा राज्य है। राज्य से बाहर लोग बिहारी के रूप में पहचाने जाते हैं। दूसरे राज्यों से भगाये जाते हैं। यह सब नहीं मालूम था। शायद राजकपूर ने बहुत ध्यान से देखा होगा बंबई में काम के लिए आने वाले बिहारी मज़दूरों को। उनकी सादगी राजकपूर को तीसरी कसम में ईश कहने के लिए मजबूर करती होगी...ईश..लगता था कि वाह इस हिंदुस्तान के हम भी हिस्सा हैं। बिहार की पृष्ठभूमि पर भले ही कम फिल्में बनी हों लेकिन एक तरह की मासूमियत हुआ करती थी। शूल और गंगा जल ने बिहार को वो चेहरा दिखाया जो बाद में राजनीतिक परिवर्तन का हिस्सा बना। तब तक बिहार भी तो बहुत बदल गया था। बाकी की यादें बाद में।
कंक्रीट की नागरिकता
हम सब सिर्फ भारत के नागरिक नहीं हैं। नागरिकता राष्ट्रीय नहीं रही। प्रोपर्टी बाज़ारोन्मुखी हो गई है। नागरिकता अपार्टमेंटोन्मुखी हो गई है। सुपरटेक नागरिकता के इस दौर में मोहल्ले और कस्बे की नागरिकता डेवलपर्स की दुकान में डस्टबीन के काम आ रही है। नागरिकता के नए युग में स्वागत है। विज्ञापन में एक डॉक्टर साहब खुद को सुपरटेक नागरिक होने पर गर्व जता रहे हैं। वैसे भी हाउसिंग सोसायटी किसी उप-मुल्क की तरह ही काम करते हैं। मोहल्ले वाली बात नहीं कि एक छोर से स्कूटर घुसाया और सीटी बजाते दूसरे छोर से निकल गए। बकायदा गेट की सीमा रेखा पर चेकिंग होती और फोन से घर में पूछा जाता है कि अमुक आदमी को अंदर आने की इजाज़त है। ज़्यादातर हाउसिंग सोसायटी में गाड़ी से जाने की इजाज़त नहीं होती। पैदल आना होता है। जैसे हम वाघा सीमा पर पैदल पार करते हैं। इधर से उधर।
जेएनयू में विष्णु अंकल
यह कहानी विष्णु सक्सेना की है। ६६ साल की उम्र में जेएनयू में टॉप करने वाले विष्णु सक्सेना की है। एम ए की प्रवेश परीक्षा में विष्णु सक्सेना ने छात्रों के वर्ग में टॉप किया है। अब कहानी लौटती है चालीस साल पीछे।
१९६३ में उज्जैन के विष्णु सक्सेना भारतीय सिविल सेवा में चुने जाने से पहले किसी प्रयोगशाला में लैब असिस्टेंट की नौकरी करते थे। पंद्रह साल की उम्र में विष्णु सक्सेना के पिता का देहांत हो गया तो अपनी और परिवार की ज़िंदगी का बोझ उनके कंधे आ गया। पंद्रह साल की उम्र में लैब असिस्टेंट की नौकरी करने लगे। इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई के बाद पढ़ने का काम बंद हो गया था। ये १९५० के दशक के आखिरी सालों की बात होगी। उस वक्त प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पसंदीदा नौकरशाह एस के दे ने एक योजना चलाई थी,सामुदायिक विकास की। इसके तहत देश के कई इलाकों में ग्रामीण विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी।( इसी तरह का कुछ था)विष्णु सक्सेना को आगे की पढ़ाई का रास्ता दिख गया।मगर इस विश्वविद्यालयनुमा संस्थान में वादा किया गया कि प्रोविजनल स्नातक की डिग्री मिलेगी जिसे बाद में पूरी मान्यता मिल जाएगी। मान्यता नहीं मिली। एस के दे के निधन के साथ ही यह योजना बंद हो गई। लेकिन किसी तरह विष्णु सक्सेना उस ज़माने में जब सिविल सेवा में अंग्रेजी का वर्चस्व था, भारतीय पोस्ट एंड टेलीग्राफ सेवा में चुन लिये गए। १९९९ में ५८ साल की उम्र में रिटायर कर गए। अपने विभाग के ऊंचे पदों में से एक से रिटायर हुए सक्सेना कविता लिखने लगे और कई तरह के काम करने लगे। जवानी से ज़्यादा सक्रिय हो गए।
इस बीच भारत सरकार का ग्रामीण संस्थान कार्यक्रम अपनी बुनियाद ईंट गारे समेत जहां था वहां से नदारद हो गया। जेएनयू में एडमिशन के लिए उनसे माइग्रेशन मांगा गया। जब उन्होंने अपने इस आखिरी संस्थान का पता किया तो फाइलों में भी नहीं मिला। अब शायद उन्हें दाखिला मिल रहा है। इस उम्र में वो नौजवान विद्यार्थियों की क्लास में इस लिए गए क्योंकि उन्हें लिमका बुक में नाम दर्ज नहीं कराना था। बल्कि इतिहास का गहन अध्ययन करना था। प्राचीन भारत के इतिहास का। खास कर जैन और बौद्ध धर्म का। विष्णु अंकल अब छात्र हैं। इतिहास में लौटने की ललक उनकी किस मानसिक परेशानी की देन है वही जानते होंगे लेकिन उनका खुद का इतिहास काफी दिलचस्प रहा होगा। मैं बहुत नहीं जानता। सुन कर यह कहानी लिख रहा हूं। उनसे बिना पूछे मैं उनका नंबर दे रहा हूं। 09871382030। क्या पता कहानी इससे भी आगे बढ़
१९६३ में उज्जैन के विष्णु सक्सेना भारतीय सिविल सेवा में चुने जाने से पहले किसी प्रयोगशाला में लैब असिस्टेंट की नौकरी करते थे। पंद्रह साल की उम्र में विष्णु सक्सेना के पिता का देहांत हो गया तो अपनी और परिवार की ज़िंदगी का बोझ उनके कंधे आ गया। पंद्रह साल की उम्र में लैब असिस्टेंट की नौकरी करने लगे। इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई के बाद पढ़ने का काम बंद हो गया था। ये १९५० के दशक के आखिरी सालों की बात होगी। उस वक्त प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पसंदीदा नौकरशाह एस के दे ने एक योजना चलाई थी,सामुदायिक विकास की। इसके तहत देश के कई इलाकों में ग्रामीण विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी।( इसी तरह का कुछ था)विष्णु सक्सेना को आगे की पढ़ाई का रास्ता दिख गया।मगर इस विश्वविद्यालयनुमा संस्थान में वादा किया गया कि प्रोविजनल स्नातक की डिग्री मिलेगी जिसे बाद में पूरी मान्यता मिल जाएगी। मान्यता नहीं मिली। एस के दे के निधन के साथ ही यह योजना बंद हो गई। लेकिन किसी तरह विष्णु सक्सेना उस ज़माने में जब सिविल सेवा में अंग्रेजी का वर्चस्व था, भारतीय पोस्ट एंड टेलीग्राफ सेवा में चुन लिये गए। १९९९ में ५८ साल की उम्र में रिटायर कर गए। अपने विभाग के ऊंचे पदों में से एक से रिटायर हुए सक्सेना कविता लिखने लगे और कई तरह के काम करने लगे। जवानी से ज़्यादा सक्रिय हो गए।
इस बीच भारत सरकार का ग्रामीण संस्थान कार्यक्रम अपनी बुनियाद ईंट गारे समेत जहां था वहां से नदारद हो गया। जेएनयू में एडमिशन के लिए उनसे माइग्रेशन मांगा गया। जब उन्होंने अपने इस आखिरी संस्थान का पता किया तो फाइलों में भी नहीं मिला। अब शायद उन्हें दाखिला मिल रहा है। इस उम्र में वो नौजवान विद्यार्थियों की क्लास में इस लिए गए क्योंकि उन्हें लिमका बुक में नाम दर्ज नहीं कराना था। बल्कि इतिहास का गहन अध्ययन करना था। प्राचीन भारत के इतिहास का। खास कर जैन और बौद्ध धर्म का। विष्णु अंकल अब छात्र हैं। इतिहास में लौटने की ललक उनकी किस मानसिक परेशानी की देन है वही जानते होंगे लेकिन उनका खुद का इतिहास काफी दिलचस्प रहा होगा। मैं बहुत नहीं जानता। सुन कर यह कहानी लिख रहा हूं। उनसे बिना पूछे मैं उनका नंबर दे रहा हूं। 09871382030। क्या पता कहानी इससे भी आगे बढ़
मां और मीडिया
यह किसी फिल्म का नाम नहीं है।एक हकीकत है।अनिता रावत और अनुराधा भट्टाचार्या। अनिता का बेटा अनिरुद्ध और
अनुराधा की बेटी सीमा कपूर। २५ फरवरी २००८ की एक रात महंगी स्कोडा कार से लौट रहे थे। दोनों पीछे की सीट पर बैठे गाड़ी चला रहे अपने दोस्त सत्यजीत से कह रहे थे कि धीरे चलाओ। मस्ती में सत्यजीत १८० किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चला रहा था। बगल की सीट पर इंटीरियर डिज़ायनर गौरव बैठा था। सबकी उम्र इक्कीस से बाईस साल थी। स्कोडा पलट गई और पीछे की सीट पर बैठे अनिरुद्ध और सीमा की मौत हो गई। सामने की सीट पर बैठे दोनो शख्स बच गए। घटना दिल्ली की है।
घटना के तुरंत बाद सभी चैनलों ( सभी भाषा के चैनल) और अगली सुबह प्रिट मीडिया ने ख़बर दी कि ये अमीर बाप के आवारा बच्चे थे। किसी पार्टी से शराब के नशे में लौट रहे थे और मारे गए। डीसीपी आनंद मोहन का बयान था कि ये बच्चे शराब के नशे में थे। चार महीने बाद ऑटोप्सी की रिपोर्ट आई और पता चला कि अनिरुद्ध और सीमा ने शराब नहीं पी थी। लेकिन तब तक दुनिया भर में यह बात फैल गई थी कि ये आवारा शराबी बच्चे अपनी गलती के कारण मारे गए हैं।
मीडिया को नहीं मालूम था। मीडिया के पास मालूम करने का तरीका पुराना पड़ता जा रहा है। दोनों मां को मालूम था कि उनके बच्चे शराब नहीं पीते थे। उन्हें लगता है कि मौत के बाद उनके बच्चों की छवि बिगाड़ी गई। मीडिया ने घटना के तुरंत बाद खबरे ऐसे दिखाईं जैसे उन्हें इस बात से कोई सहानुभूति ही न हो कि किसी की मौत हुई है। वो शराबी और रफ्तार पर इतना ज़ोर दे रहे थे मानो यह कहना चाह रहे हों कि ठीक हुआ है। अनिता और अनुराधा टूट गई हैं। दोनों प्रेस वाले को देख कर रोने लगती हैं। कहती है वो अपने बच्चे की छवि बहाल करने के लिए लड़ना चाहती है। अदालत के दरवाज़े से लेकर संपादक के कैबिन तक। अनुराधा कहती हैं कि मेरी बेटी कभी बिगड़ैल नहीं थी। न ही पार्टीबाज़ और शराबी। वो एक सामान्य लड़की की तरह थी। लेकिन मीडिया ने मरने के बाद उसकी छवि खराब कर दी और समाज में बच गए हम अभागे मां बाप की भी।
दोनों मां को इंसाफ चाहिए। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या करें? कैसे इस बात को ठीक किया जाए कि मेरे बच्चे शरीफ थे। बहुत प्यारे थे। पढ़ने लिखने वाले थे। क्या ये स्टोरी फिर से चल सकती है। क्या खंडन छपने से काम चल सकता है? क्या धरना देने से ठीक हो सकता है? दोनों मां बोलते बोलते रोने लगती हैं। खंडन या माफी उस ज़ोर से नहीं चलती कि सीमा और अनिरुद्ध को सम्मान मिल सके। मीडिया कह सकता है कि अपवाद है। मां को कौन समझाए। वो तो इस अपवाद को नियम की तरह भोग रही है। कैसे एक मां अपवाद स्वरुप मान ले कि उसकी बेटी शराबी थी। उसका बेटा अमीर आवारा था।
मैं सामना नहीं कर सका। उनके सवालो को अधूरा छोड़ रात भर जागता रहा। मनमोहन सिंह की सरकार और मायावती के प्रधानमंत्री बनने की कवायद के बीच दोनों मां के आंसू मुझे जगाने लगते थे। मीडिया के लोगों ने जाने ऐसी कितनी मांओं को तड़पने के लिए छोड़ दिया होगा। शुक्र है अनिता और अनुराधा के पास हिम्मत है। घेर कर पूछने की। बताओ इंसाफ कैसे मिलेगा। कहती हैं हम हार नहीं मानेंगे। मीडिया अब उनका मकसद है। आप चाहें तो अनिता रावत से 09811616459 और अनुराधा भट्टाचार्य से 09310392999 पर बात कर सकते हैं।
अनुराधा की बेटी सीमा कपूर। २५ फरवरी २००८ की एक रात महंगी स्कोडा कार से लौट रहे थे। दोनों पीछे की सीट पर बैठे गाड़ी चला रहे अपने दोस्त सत्यजीत से कह रहे थे कि धीरे चलाओ। मस्ती में सत्यजीत १८० किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चला रहा था। बगल की सीट पर इंटीरियर डिज़ायनर गौरव बैठा था। सबकी उम्र इक्कीस से बाईस साल थी। स्कोडा पलट गई और पीछे की सीट पर बैठे अनिरुद्ध और सीमा की मौत हो गई। सामने की सीट पर बैठे दोनो शख्स बच गए। घटना दिल्ली की है।
घटना के तुरंत बाद सभी चैनलों ( सभी भाषा के चैनल) और अगली सुबह प्रिट मीडिया ने ख़बर दी कि ये अमीर बाप के आवारा बच्चे थे। किसी पार्टी से शराब के नशे में लौट रहे थे और मारे गए। डीसीपी आनंद मोहन का बयान था कि ये बच्चे शराब के नशे में थे। चार महीने बाद ऑटोप्सी की रिपोर्ट आई और पता चला कि अनिरुद्ध और सीमा ने शराब नहीं पी थी। लेकिन तब तक दुनिया भर में यह बात फैल गई थी कि ये आवारा शराबी बच्चे अपनी गलती के कारण मारे गए हैं।
मीडिया को नहीं मालूम था। मीडिया के पास मालूम करने का तरीका पुराना पड़ता जा रहा है। दोनों मां को मालूम था कि उनके बच्चे शराब नहीं पीते थे। उन्हें लगता है कि मौत के बाद उनके बच्चों की छवि बिगाड़ी गई। मीडिया ने घटना के तुरंत बाद खबरे ऐसे दिखाईं जैसे उन्हें इस बात से कोई सहानुभूति ही न हो कि किसी की मौत हुई है। वो शराबी और रफ्तार पर इतना ज़ोर दे रहे थे मानो यह कहना चाह रहे हों कि ठीक हुआ है। अनिता और अनुराधा टूट गई हैं। दोनों प्रेस वाले को देख कर रोने लगती हैं। कहती है वो अपने बच्चे की छवि बहाल करने के लिए लड़ना चाहती है। अदालत के दरवाज़े से लेकर संपादक के कैबिन तक। अनुराधा कहती हैं कि मेरी बेटी कभी बिगड़ैल नहीं थी। न ही पार्टीबाज़ और शराबी। वो एक सामान्य लड़की की तरह थी। लेकिन मीडिया ने मरने के बाद उसकी छवि खराब कर दी और समाज में बच गए हम अभागे मां बाप की भी।
दोनों मां को इंसाफ चाहिए। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या करें? कैसे इस बात को ठीक किया जाए कि मेरे बच्चे शरीफ थे। बहुत प्यारे थे। पढ़ने लिखने वाले थे। क्या ये स्टोरी फिर से चल सकती है। क्या खंडन छपने से काम चल सकता है? क्या धरना देने से ठीक हो सकता है? दोनों मां बोलते बोलते रोने लगती हैं। खंडन या माफी उस ज़ोर से नहीं चलती कि सीमा और अनिरुद्ध को सम्मान मिल सके। मीडिया कह सकता है कि अपवाद है। मां को कौन समझाए। वो तो इस अपवाद को नियम की तरह भोग रही है। कैसे एक मां अपवाद स्वरुप मान ले कि उसकी बेटी शराबी थी। उसका बेटा अमीर आवारा था।
मैं सामना नहीं कर सका। उनके सवालो को अधूरा छोड़ रात भर जागता रहा। मनमोहन सिंह की सरकार और मायावती के प्रधानमंत्री बनने की कवायद के बीच दोनों मां के आंसू मुझे जगाने लगते थे। मीडिया के लोगों ने जाने ऐसी कितनी मांओं को तड़पने के लिए छोड़ दिया होगा। शुक्र है अनिता और अनुराधा के पास हिम्मत है। घेर कर पूछने की। बताओ इंसाफ कैसे मिलेगा। कहती हैं हम हार नहीं मानेंगे। मीडिया अब उनका मकसद है। आप चाहें तो अनिता रावत से 09811616459 और अनुराधा भट्टाचार्य से 09310392999 पर बात कर सकते हैं।
जाने तू जाने ना
दिल चाहता है की याद आती रही इस फिल्म में। कभी कयामत से कयामत तक की झलक भी दिखी। पटना के मोना सिनेमा हॉल में पहले दिन से लेकर सत्रह दिनों तक लगातार कयामत से कयामत तक देखता रहा। रोज़ दोस्तों से शर्त लगाता कि यह फिल्म सुपर हिट होगी। पहले हफ्ते में फ्लाप होने के बाद कयामत से कयामत तक हिट हो गई थी। आमिर स्टार बन चुके थे। दिल चाहता है में आमिर जवान होकर चंद दोस्तों के साथ नौजवानों की दुनिया में लौटते हैं।सब के सब परिपक्व हैं। मस्तीखोर हैं। लेकिन जाने तू की फिल्म पता नहीं क्यों आज के समाज में ले चलती है। कयामत से कयामत तक की तरह किसी ठाकुर की शान आड़े नहीं आ रही थी। दिल चाहता है कि तरह कोई पैसे के दम पर ज़िंदगी में ऐश नहीं कर रहा था। लेकिन यहां जैसा था, जो भी था के आधार पर किरदार कहानी को बड़ा कर रहे थे।
एयरहोस्टेस लड़की की मैचिंग एक ढीले ढाले नॉन स्मार्ट से गुजराती युवक से हो सकती थी। लड़का और उसके दोस्तों का आत्मविश्वास एक ऐसी कहानी को बुनता है कि हैरान होते होते वो लड़की यकीन करने लगती है। यकीन करते करते गुजराती युवक से प्यार करने लगती है। जाने तू की पृष्टभूमि में भी मां बाप हैं, पुलिस हैं, दोस्तों की हैसियत में फर्क नहीं है। राजस्थानी राजपूती शान मौजूद है लेकिन बचे खुचे अवशेष के रुप में जो अब मज़ाक के पात्र है। आमिर साब का भांजा उसी तरह तरोताज़ा लगता है जैसा कभी मामू लगा करते थे। अब तो आमिर के सर से विषुवत रेखा गुजर रही है या कर्क रेखा कोई भूगोल का मास्टर ही जानता होगा। हां तो कह रहा था कि इस कहानी में पृष्ठभूमि हावी नहीं है। बस चार दोस्तों के बीच भावनात्मक उतार चढ़ाव का खेल चलता रहता है। रिश्तों का बनना और टूटना बहुत सामान्य तरीके से घट रहा है। जैसा कि अब होने लगा है। ब्रेक अप अब एक स्वीकार्य परंपरा है। इसके लिए मारपीट या अदालत का चक्कर नहीं लगता बल्कि भाजेजान की नई महबूबा आराम से उन्हें विदा कर देती है ताकि वे अपनी पुरानी दोस्त के महबूब बन सकें। एक विधवा मां कुर्सी पर टांग पसारे सौंदर्य शास्त्र पर लिखी किताब पढ़ रही है। विधवा मां की ज़िंदगी रूदन की नहीं है। बल्कि वो भी नियति के फैसले को सामान्य रुप से स्वीकार कर ज़िंदगी को जी रही है। भांजेजान अपनी ग़रीबी या सामान्य परिवार की कुंठाओं से नहीं दबे हैं। वो अपनी अमीर दोस्त के घर आराम से आता जाता है। शराब पीता है और उसकी गाड़ी से अपने घर आ जाता है। यह कहानी उस तबके की है जहां आर्थिक अंतर कम हुआ है। मध्यम वर्ग और कुलीन वर्ग का फासला कम हुआ है।
जाने तू की कहानी अपनी जवानी की लगती है। चंद दोस्तों के बीच रिश्तों को पहचानने की कहानी है। बिल्कुल सामान्य तरीके से। मिलने के लिए कोई मां बाप से झूठ नहीं बोलता, पार्टी के खिलाफ कोई मां बाप फऱमान जारी नहीं करता। भांजेजान की मां रत्ना शाह पाठक इंतज़ार करती हैं कि कब उनका बेटा स्वीकार करेगा कि वो अपनी दोस्त को चाहता है। प्यार करता है। मां का रोल भी बदल गया है। बहुत कुछ कहती है यह फिल्म बदलते समाज के बारे में। फर्क सिर्फ इतना है कि जाने तूं या ना जाने ना।
एयरहोस्टेस लड़की की मैचिंग एक ढीले ढाले नॉन स्मार्ट से गुजराती युवक से हो सकती थी। लड़का और उसके दोस्तों का आत्मविश्वास एक ऐसी कहानी को बुनता है कि हैरान होते होते वो लड़की यकीन करने लगती है। यकीन करते करते गुजराती युवक से प्यार करने लगती है। जाने तू की पृष्टभूमि में भी मां बाप हैं, पुलिस हैं, दोस्तों की हैसियत में फर्क नहीं है। राजस्थानी राजपूती शान मौजूद है लेकिन बचे खुचे अवशेष के रुप में जो अब मज़ाक के पात्र है। आमिर साब का भांजा उसी तरह तरोताज़ा लगता है जैसा कभी मामू लगा करते थे। अब तो आमिर के सर से विषुवत रेखा गुजर रही है या कर्क रेखा कोई भूगोल का मास्टर ही जानता होगा। हां तो कह रहा था कि इस कहानी में पृष्ठभूमि हावी नहीं है। बस चार दोस्तों के बीच भावनात्मक उतार चढ़ाव का खेल चलता रहता है। रिश्तों का बनना और टूटना बहुत सामान्य तरीके से घट रहा है। जैसा कि अब होने लगा है। ब्रेक अप अब एक स्वीकार्य परंपरा है। इसके लिए मारपीट या अदालत का चक्कर नहीं लगता बल्कि भाजेजान की नई महबूबा आराम से उन्हें विदा कर देती है ताकि वे अपनी पुरानी दोस्त के महबूब बन सकें। एक विधवा मां कुर्सी पर टांग पसारे सौंदर्य शास्त्र पर लिखी किताब पढ़ रही है। विधवा मां की ज़िंदगी रूदन की नहीं है। बल्कि वो भी नियति के फैसले को सामान्य रुप से स्वीकार कर ज़िंदगी को जी रही है। भांजेजान अपनी ग़रीबी या सामान्य परिवार की कुंठाओं से नहीं दबे हैं। वो अपनी अमीर दोस्त के घर आराम से आता जाता है। शराब पीता है और उसकी गाड़ी से अपने घर आ जाता है। यह कहानी उस तबके की है जहां आर्थिक अंतर कम हुआ है। मध्यम वर्ग और कुलीन वर्ग का फासला कम हुआ है।
जाने तू की कहानी अपनी जवानी की लगती है। चंद दोस्तों के बीच रिश्तों को पहचानने की कहानी है। बिल्कुल सामान्य तरीके से। मिलने के लिए कोई मां बाप से झूठ नहीं बोलता, पार्टी के खिलाफ कोई मां बाप फऱमान जारी नहीं करता। भांजेजान की मां रत्ना शाह पाठक इंतज़ार करती हैं कि कब उनका बेटा स्वीकार करेगा कि वो अपनी दोस्त को चाहता है। प्यार करता है। मां का रोल भी बदल गया है। बहुत कुछ कहती है यह फिल्म बदलते समाज के बारे में। फर्क सिर्फ इतना है कि जाने तूं या ना जाने ना।
दलितबस्ती में भगवान
इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर से पता चला है कि तिरुपति भगवान अब घूमने भी लगे हैं। लगता है मंदिरों में पाषाण प्रवर्तित बालाजी भक्तों की भीड़ से उकता गए हैं और भ्रमण पर निकल पड़े हैं। अख़बार बताता है कि बालाजी इन दिनों दलित बस्ती में पधार रहे हैं। इसके लिए एक वैन तैयार किया गया है जिसके साथ मंदिर के मुख्य पंडित होते हैं। बालाजी दुनिया के सबसे अमीर भगवान हैं। अब तो लोगों ने तीनलोक के खजाने के स्वामी कुबेर को भी भुला दिया है। अंबानी नहीं तो बालाजी ही अमीर माने जा रहे हैं।
तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम ट्रस्ट के मुताबिक वैन में बैठे भगवान इसलिए निकले हैं ताकि दलितों को उनकी झलक मिल जाए और उन्हें अपने घर के सामने बालाजी की पूजा का अधिकार भी। क्योंकि हिंदू धर्म में तिरस्कृत दलित दूसरे धर्मों की तरफ मुड़ रहे हैं। इसी को रोकने के लिए बालाजी उदार मन से भ्रमण करते हुए दलित बस्तियों में पहुंच रहे हैं। बता रहे हैं कि देखो दलित तुम मेरी पूजा कर सकते हो। इसके लिए किसी दूसरे धर्म में जाकर असलम या अब्राहम होने की ज़रूरत नहीं है। तुम अमरकांत ही बने रहो। अब तो मेरे पास वैन भी आ गया है। मैं आता रहूंगा। मंदिर से निकलता रहूंगा। निकलना ही होगा। कब तक हमारे भगवान मंदिरों में बैठे रहेंगे। उन्हें भक्तों के द्वार जाना ही होगा।
इस कार्यक्रम का नाम है दलित गोविंदम। इसके तहत दलितों के गांव के बीच में वैन पार्क की जाती है। मुख्य पंडित सहित भगवान उसी वैन में पूरी रात दलित बस्ती में गुजारते हैं। क्योंकि देवस्थानम का मानना है कि दलित ग़रीब होते हैं इसलिए वे बालाजी के मंदिर तक नहीं जा सकते और चूंकि बालाजी सबसे अमीर हुए हैं वो तो कभी भी कहीं भी जा सकते हैं। कहीं पुराने सवर्ण भक्त ईर्ष्या से जलने न लगे कि हमने इतने पैसे खर्च किये लेकिन हमारे यहां तो भगवान वैन से नहीं आए। उन्हें समझाना होगा कि भगवान का यही तो काम है। जो वंचित है,उपेक्षित है उसकी रक्षा करना न कि जो समृद्ध है,आदरणीय है उसकी ड्यूटी बजाना। इसीलिए वैन में बालाजी की प्रतिमा रखी गई है। एक ही मंच पर मुख्य पंडित और नवभक्त दलित एक साथ प्रसादम ग्रहण करते हैं। यह काफी है जातिगत पूर्वाग्रहों को खत्म करने के संदेश के लिए। इतना ही इन दलितों को सिर्फ वीवीआईपी को मिलने वाला वैदिक आर्शीवाद भी दिया जा रहा है। दलित वीवीआईपी हो गए हैं। दलित भी प्रसन्न हैं। कहते हैं कभी कल्पना नहीं की थी कि इस तरह से भगवान हमारे घर आ जाएंगे।
पता नहीं यह फैसला ट्रस्ट का है या भगवान का। मंदिरस्थ भगवान मोबाइल हो जाएं तो क्या बात। एक दिन घर ही आ जाएं। कोई घंटी बजा दे और कहे कि उठो रवीश, देखो दरवाज़े पर स्वंय प्रभु आए हैं। तुम उनका मंत्रोच्चारण से स्वागत कर अतिथि धर्म का पालन करो और नवभक्त बनो। लेकिन बहुत सारे देवी देवता किसी भक्त के गले में लटक कर, पर्स में छुप कर, कार के डैशबोर्ड में बैठकर,कैलेंडर में झूल कर एक जगह से दूसरी जगह तक यात्रा करते रहते हैं। ओरीजीनल भगवान तो मंदिर में रहते हैं और फोटोकॉपी भक्त के साथ भ्रमण पर। यहां अलग है। यहां खुद ओरीजीनल बालाजी दलितों को कृतार्थ करने निकले हैं। जिस तरह से मंदिर की भीड़ में किसी भक्त को पता नहीं चलता कि बगल वाला भक्त किस जाति है उसी तरह से किसी सवर्ण भक्त को क्या फर्क पड़ता है कि उसके भगवान कहां कहां घूमते रहते हैं। वो तो अदना सा भक्त है। कभी हिम्मत करेगा कहने की कि भगवन तुम दलितद्वारे न जाओ। भगवन को भी पता चल गया होगा कि उसके द्वारे विनम्र और सर्वस्व लुटा देने वाला यह भक्त घर लौटकर जातिवादी हो जाता है। इंसानों के बीच जाति के आधार पर फर्क करता है। लिहाज़ा क्यों न भगवान खुद यह संदेश दें कि सब भक्त बराबर हैं। जहां तक और जब तक मेरी पूजा का सवाल है तुम दोनों मेरे प्रिय हो। उसके बाद तुम चाहे जो करो। मुझे तुम्हारी निजी ज़िंदगी से क्या मतलब।
हे दलित बालाजी को स्वीकार कर लेना वरना उन्हें कितना दुख होगा कि तुम चंद सवर्णों की हिंसक नज़रों के कारण अन्य धर्मों के ईष्ट की शरण में जा रहे हो। अब तो निकलोगे भी तो रास्ता छेंक कर स्वयं बालाजी खडे होंगे। अच्छा है आने दो भगवानों को। उनका आदर करो। पूजा भी करो। पूछो भी। बालाजी हम मानते हैं जब जागे तब सवेरा। लेकिन भेदभाव तो हमने नहीं की न। जो करते हैं पहले उनके यहां क्यों नहीं जाते हैं। जब भ्रमण पर निकले ही हैं तो वहां जाइये जहां आपकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। वो बदल जायेंगे तो हम भी आपके यहां आ जायेंगे। कुछ न कुछ कर लेंगे।
तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम ट्रस्ट के मुताबिक वैन में बैठे भगवान इसलिए निकले हैं ताकि दलितों को उनकी झलक मिल जाए और उन्हें अपने घर के सामने बालाजी की पूजा का अधिकार भी। क्योंकि हिंदू धर्म में तिरस्कृत दलित दूसरे धर्मों की तरफ मुड़ रहे हैं। इसी को रोकने के लिए बालाजी उदार मन से भ्रमण करते हुए दलित बस्तियों में पहुंच रहे हैं। बता रहे हैं कि देखो दलित तुम मेरी पूजा कर सकते हो। इसके लिए किसी दूसरे धर्म में जाकर असलम या अब्राहम होने की ज़रूरत नहीं है। तुम अमरकांत ही बने रहो। अब तो मेरे पास वैन भी आ गया है। मैं आता रहूंगा। मंदिर से निकलता रहूंगा। निकलना ही होगा। कब तक हमारे भगवान मंदिरों में बैठे रहेंगे। उन्हें भक्तों के द्वार जाना ही होगा।
इस कार्यक्रम का नाम है दलित गोविंदम। इसके तहत दलितों के गांव के बीच में वैन पार्क की जाती है। मुख्य पंडित सहित भगवान उसी वैन में पूरी रात दलित बस्ती में गुजारते हैं। क्योंकि देवस्थानम का मानना है कि दलित ग़रीब होते हैं इसलिए वे बालाजी के मंदिर तक नहीं जा सकते और चूंकि बालाजी सबसे अमीर हुए हैं वो तो कभी भी कहीं भी जा सकते हैं। कहीं पुराने सवर्ण भक्त ईर्ष्या से जलने न लगे कि हमने इतने पैसे खर्च किये लेकिन हमारे यहां तो भगवान वैन से नहीं आए। उन्हें समझाना होगा कि भगवान का यही तो काम है। जो वंचित है,उपेक्षित है उसकी रक्षा करना न कि जो समृद्ध है,आदरणीय है उसकी ड्यूटी बजाना। इसीलिए वैन में बालाजी की प्रतिमा रखी गई है। एक ही मंच पर मुख्य पंडित और नवभक्त दलित एक साथ प्रसादम ग्रहण करते हैं। यह काफी है जातिगत पूर्वाग्रहों को खत्म करने के संदेश के लिए। इतना ही इन दलितों को सिर्फ वीवीआईपी को मिलने वाला वैदिक आर्शीवाद भी दिया जा रहा है। दलित वीवीआईपी हो गए हैं। दलित भी प्रसन्न हैं। कहते हैं कभी कल्पना नहीं की थी कि इस तरह से भगवान हमारे घर आ जाएंगे।
पता नहीं यह फैसला ट्रस्ट का है या भगवान का। मंदिरस्थ भगवान मोबाइल हो जाएं तो क्या बात। एक दिन घर ही आ जाएं। कोई घंटी बजा दे और कहे कि उठो रवीश, देखो दरवाज़े पर स्वंय प्रभु आए हैं। तुम उनका मंत्रोच्चारण से स्वागत कर अतिथि धर्म का पालन करो और नवभक्त बनो। लेकिन बहुत सारे देवी देवता किसी भक्त के गले में लटक कर, पर्स में छुप कर, कार के डैशबोर्ड में बैठकर,कैलेंडर में झूल कर एक जगह से दूसरी जगह तक यात्रा करते रहते हैं। ओरीजीनल भगवान तो मंदिर में रहते हैं और फोटोकॉपी भक्त के साथ भ्रमण पर। यहां अलग है। यहां खुद ओरीजीनल बालाजी दलितों को कृतार्थ करने निकले हैं। जिस तरह से मंदिर की भीड़ में किसी भक्त को पता नहीं चलता कि बगल वाला भक्त किस जाति है उसी तरह से किसी सवर्ण भक्त को क्या फर्क पड़ता है कि उसके भगवान कहां कहां घूमते रहते हैं। वो तो अदना सा भक्त है। कभी हिम्मत करेगा कहने की कि भगवन तुम दलितद्वारे न जाओ। भगवन को भी पता चल गया होगा कि उसके द्वारे विनम्र और सर्वस्व लुटा देने वाला यह भक्त घर लौटकर जातिवादी हो जाता है। इंसानों के बीच जाति के आधार पर फर्क करता है। लिहाज़ा क्यों न भगवान खुद यह संदेश दें कि सब भक्त बराबर हैं। जहां तक और जब तक मेरी पूजा का सवाल है तुम दोनों मेरे प्रिय हो। उसके बाद तुम चाहे जो करो। मुझे तुम्हारी निजी ज़िंदगी से क्या मतलब।
हे दलित बालाजी को स्वीकार कर लेना वरना उन्हें कितना दुख होगा कि तुम चंद सवर्णों की हिंसक नज़रों के कारण अन्य धर्मों के ईष्ट की शरण में जा रहे हो। अब तो निकलोगे भी तो रास्ता छेंक कर स्वयं बालाजी खडे होंगे। अच्छा है आने दो भगवानों को। उनका आदर करो। पूजा भी करो। पूछो भी। बालाजी हम मानते हैं जब जागे तब सवेरा। लेकिन भेदभाव तो हमने नहीं की न। जो करते हैं पहले उनके यहां क्यों नहीं जाते हैं। जब भ्रमण पर निकले ही हैं तो वहां जाइये जहां आपकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। वो बदल जायेंगे तो हम भी आपके यहां आ जायेंगे। कुछ न कुछ कर लेंगे।
टीवी बनाम अख़बार
प्रिंट मीडिया में इन दिनों टीवी पर खूब बहस होती है। अच्छा लगता है। होनी भी चाहिए। हर अख़बार में सारे चैनलों की धुनाई हो रही है।लेकिन प्रिंट मीडिया में जो हो रहा है उसे सर्वमान्य मान लिया जा रहा है। अति करने में प्रिंट का भी जवाब नहीं। दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की दौड़ शुरू हुई तो सारे लेंसमैन लड़कियों की ही तस्वीरें उतारते रहें। कोई उनके कपड़े के बहाने तस्वीरों को सेक्सी बना रहा था तो कोई चश्मे के क्लोज़ अप से सेक्सी बना रहा था। मानो इतने बड़े विश्वविद्यालय में कोई लड़का दाखिले के लिए आया ही न हो। हर तस्वीर सावधानी से सेक्स एंड सेलेबल आइटम के तौर पर उतारी गई। हंसते हुई भी लड़कियां,रोते हुए भी लड़कियां,लड़कियों के फैशन पर भी एक तस्वीर आदि आदि। इतना ही नहीं ये सारी सेक्सी लड़कियां एक खास रंग की ही थीं। ताकि तस्वीर खूबसूरत और रंगीन दिखे।
कुछ दिन पहले मैंने लिखा था कि क्या बारिश में सिर्फ लड़कियां ही भींगती हैं। बल्कि लड़कियों की जगह हिंदी में युवतियों को इस्तमाल होता है। इस पर किसी समीक्षक की नज़र नहीं पड़ती। समीक्षक स्वागत योग्य हैं लेकिन कहीं इस उद्देश्य से तो अवतरित नहीं हुए हैं कि मीडिया स्कूल की हेडमास्टरी प्रिंट के पास है। तो फिर प्रिंट के ये साप्ताहिक समीक्षक दूसरे अखबारों में छपने वाली नामुराद चीज़ों पर क्यों नहीं भड़कते। ठीक है कि उनसे टीवी पर ही लिखने के लिए कहा गया है। आज कल एक ही अखबार में गर्भवती महिला से लेकर कामकाज़ी महिलाओं के लिए अलग अलग राशिफल आता है। बल्कि पूरा पेज ही आता है। अब तो विद्यार्थियों के लिए अलग से कैरियर बताने वाला राशिफल आता है जो एजुकेशन के सप्लिमेंट में छपता है। टैरो कार्ड और फेंगशुई जैसे आयातित अंधविश्वास अंग्रेजी के ही प्रिंट अख़बारों के ज़रिये देश में पहुंचे हैं। रविवार के अंग्रेज़ी के अखबार देख लें कितने तरह साधु ज्योतिष भविष्यवाणी करते हैं। राशिफल को आकर्षक बनाया जा चुका है। आज कोई अख़बार राशिफल न छापने की हिम्मत नहीं कर सकता लेकिन टीवी को धमकाता रहता है कि अबे तू क्यों कर रहा है। बहस टीवी बनाम अखबार का नहीं है बल्कि बहस यह होनी चाहिए कि ये सब किसी के लिए ठीक नहीं हैं। इसका मतलब यह भी नहीं कि मैं टीवी पर दिखाये जाने वाले ज्योतिष कार्यक्रमों का समर्थन करता हूं। मैं तो सिर्फ मंचों को लेकर होने वाले भेदभाव की तरफ इशारा कर रहा हूं।
टीवी पर जैसे ही ज्योतिष शो आता है, उनका न्यूज़ धर्म याद दिलाया जाने लगता है। टीवी अंधविश्वास फैलाता है लेकिन अखबार नहीं। अख़बार के ज्योतिष तो भविष्यवाणी करते हैं। टीवी पर जिस तरह से इन दिनों तीज त्योहारों की ग्राफिक्स विधि बताई जा रही है उसी तरह अखबारों में भी बताई जाती है। बल्कि नवरात्री पर तो बकायदा एक अखबार ने दुर्गा के मंत्रोच्चारण की किताब ही बंटवा दिया। मैं यह नहीं कहना चाहता कि टीवी में होने वाला गलत इसलिए गलत नहीं है क्योंकि अख़बार में भी यही गलत हो रहा है। आखिर जिस मंच पर टीवी को लेकर बहस हो रही है उसे यह तो देख ही लेना चाहिए कि यही मुद्दे उसके पन्नों से भी उठ सकते हैं।
टीवी को भूत प्रेत औघड़ ओझाओं का पता अख़बारों के भीतर छपने वाली काले रंग के विज्ञापनों से ही मिला। कमाई के लिए अखबार जब बंगाली बाबाओं के विज्ञापन छाप सकते हैं तो कमाई के लिए टीवी क्यों नहीं दिखा सकते हैं। कहने का मतलब है कि इस पूरी बहस में हम सिर्फ टीवी को टागरेट कर रहे हैं। हम इस बात को लेकर नहीं भिड़ रहे कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पैमाना क्या होना चाहिए। अगर तांत्रिकों को दिखाना टीवी के लिए ग़लत है तो इनका पता छापना अख़बार के लिए ग़लत नहीं है क्या।
इन दिनों अखबारों में जिस तरह सेक्स सर्वे की भरमार है। वो क्या पाठकों की जिज्ञासा के अनुसार नहीं है। वो क्या ख़बर छापने की ब्रीफ से अलग नहीं है। क्या प्रिंट प्रतियोगिता के दबाव में पाठकों की जिज्ञासा को भांपने का सतत अभ्यास नहीं करता। वर्ना दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए आए किसी परेशान छोकड़े की भी तस्वीर छपती। उस बेचारे की तस्वीर तब भी नहीं छपती जब छेड़छाड़ की चर्चा होती है। इसमें भी छेड़ी जाने वाली लड़कियों की ही तस्वीर होती है ताकि आइटम सेक्सी लगे। खूबसूरत तस्वीर के साथ।
बहस मुद्दे को लेकर भी होनी चाहिए। सिर्फ माध्यम तक सीमित नहीं रहनी चाहिए।
कुछ दिन पहले मैंने लिखा था कि क्या बारिश में सिर्फ लड़कियां ही भींगती हैं। बल्कि लड़कियों की जगह हिंदी में युवतियों को इस्तमाल होता है। इस पर किसी समीक्षक की नज़र नहीं पड़ती। समीक्षक स्वागत योग्य हैं लेकिन कहीं इस उद्देश्य से तो अवतरित नहीं हुए हैं कि मीडिया स्कूल की हेडमास्टरी प्रिंट के पास है। तो फिर प्रिंट के ये साप्ताहिक समीक्षक दूसरे अखबारों में छपने वाली नामुराद चीज़ों पर क्यों नहीं भड़कते। ठीक है कि उनसे टीवी पर ही लिखने के लिए कहा गया है। आज कल एक ही अखबार में गर्भवती महिला से लेकर कामकाज़ी महिलाओं के लिए अलग अलग राशिफल आता है। बल्कि पूरा पेज ही आता है। अब तो विद्यार्थियों के लिए अलग से कैरियर बताने वाला राशिफल आता है जो एजुकेशन के सप्लिमेंट में छपता है। टैरो कार्ड और फेंगशुई जैसे आयातित अंधविश्वास अंग्रेजी के ही प्रिंट अख़बारों के ज़रिये देश में पहुंचे हैं। रविवार के अंग्रेज़ी के अखबार देख लें कितने तरह साधु ज्योतिष भविष्यवाणी करते हैं। राशिफल को आकर्षक बनाया जा चुका है। आज कोई अख़बार राशिफल न छापने की हिम्मत नहीं कर सकता लेकिन टीवी को धमकाता रहता है कि अबे तू क्यों कर रहा है। बहस टीवी बनाम अखबार का नहीं है बल्कि बहस यह होनी चाहिए कि ये सब किसी के लिए ठीक नहीं हैं। इसका मतलब यह भी नहीं कि मैं टीवी पर दिखाये जाने वाले ज्योतिष कार्यक्रमों का समर्थन करता हूं। मैं तो सिर्फ मंचों को लेकर होने वाले भेदभाव की तरफ इशारा कर रहा हूं।
टीवी पर जैसे ही ज्योतिष शो आता है, उनका न्यूज़ धर्म याद दिलाया जाने लगता है। टीवी अंधविश्वास फैलाता है लेकिन अखबार नहीं। अख़बार के ज्योतिष तो भविष्यवाणी करते हैं। टीवी पर जिस तरह से इन दिनों तीज त्योहारों की ग्राफिक्स विधि बताई जा रही है उसी तरह अखबारों में भी बताई जाती है। बल्कि नवरात्री पर तो बकायदा एक अखबार ने दुर्गा के मंत्रोच्चारण की किताब ही बंटवा दिया। मैं यह नहीं कहना चाहता कि टीवी में होने वाला गलत इसलिए गलत नहीं है क्योंकि अख़बार में भी यही गलत हो रहा है। आखिर जिस मंच पर टीवी को लेकर बहस हो रही है उसे यह तो देख ही लेना चाहिए कि यही मुद्दे उसके पन्नों से भी उठ सकते हैं।
टीवी को भूत प्रेत औघड़ ओझाओं का पता अख़बारों के भीतर छपने वाली काले रंग के विज्ञापनों से ही मिला। कमाई के लिए अखबार जब बंगाली बाबाओं के विज्ञापन छाप सकते हैं तो कमाई के लिए टीवी क्यों नहीं दिखा सकते हैं। कहने का मतलब है कि इस पूरी बहस में हम सिर्फ टीवी को टागरेट कर रहे हैं। हम इस बात को लेकर नहीं भिड़ रहे कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पैमाना क्या होना चाहिए। अगर तांत्रिकों को दिखाना टीवी के लिए ग़लत है तो इनका पता छापना अख़बार के लिए ग़लत नहीं है क्या।
इन दिनों अखबारों में जिस तरह सेक्स सर्वे की भरमार है। वो क्या पाठकों की जिज्ञासा के अनुसार नहीं है। वो क्या ख़बर छापने की ब्रीफ से अलग नहीं है। क्या प्रिंट प्रतियोगिता के दबाव में पाठकों की जिज्ञासा को भांपने का सतत अभ्यास नहीं करता। वर्ना दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए आए किसी परेशान छोकड़े की भी तस्वीर छपती। उस बेचारे की तस्वीर तब भी नहीं छपती जब छेड़छाड़ की चर्चा होती है। इसमें भी छेड़ी जाने वाली लड़कियों की ही तस्वीर होती है ताकि आइटम सेक्सी लगे। खूबसूरत तस्वीर के साथ।
बहस मुद्दे को लेकर भी होनी चाहिए। सिर्फ माध्यम तक सीमित नहीं रहनी चाहिए।
जनसत्ता- मोहब्बत एक अख़बार से
जब भी जनसत्ता को देखता हूं अख़बार की तरह हो जाता हूं। चुपचाप हर दिन आता हुआ एक अख़बार। बिना शोर किये पच्चीस साल से यह अख़बार मुझे हर दिन सादा कर देता है। तमाम तरह के आडंबरों से सादा। ख़बरें किसी सपाट सतह पर सुस्ताती आपको बताती रहती हैं कि जानने के अधिकार का यह मतलब नहीं कि खबर पढते ही उछलने लगे। इसीलिए मैं अखबार की तरह कई तहों में बंटने लगता हूं। अंगड़ाई लेते लेते दुनिया मेरे आगे की तस्वीरों में खो जाता हूं। सब कुछ बदल जाने के इस तुरंता दौर में जनसत्ता स्थायीत्व का बोध कराता है। प्रभाष जोशी के दो हज़ार शब्दों से कारे होते कागद और उनके बगल में पड़ी दो किताबों की समीक्षा। सोचता हूं क्या किसी अख़बार को लेकर रोमांटिक हुआ जा सकता है। रोमांटिक होता हूं तो जनसत्ता ही याद आता है।
इसके पच्चीस साल में मेरा भी पच्चीस साल है। पटना के सिन्हा लाइब्रेरी के सामने एक पान की गुमटी में दमकिपा के एक कार्यकर्ता के हाथ में दिखा था यह अख़बार। अख़बार पढ़ने की उम्र हो चुकी थी। बासी था जनसत्ता। एक दिन बाद दिल्ली से आया था। उसके सफेद चकचक पन्ने और नेता जी के कुर्ते। लगता था इसे ही पढूंगा। दलित मज़दूर किसान पार्टी दमकिपा बनी थी। बाद में लोकदल और राष्ट्रीय लोकदल। इतना बदलाव हो गया लेकिन जनसत्ता नहीं बदला। पिता जी की सफेद धोती की तरह माड़ से कड़कड़ सा फहराता लगता है। जैसा कि मैने कहा कि जनसत्ता के पूरे पच्चीस साल में मेरे भी पच्चीस साल हैं। वरना जब दमकिपा के नेता जी वोट क्लब की रैली में भाग लेने के लिए दिल्ली चले जाते तो मुझे सायकिल से रेलवे स्टेशन जाना पड़ता था। जनसत्ता के लिए।
दिल्ली आया तो मंगलेश डबराल जी ने जनसत्ता में ही लिखने के लिए कह दिया। आईटीओ चौराहे से प्रगति मैदान की तरफ चलने पर एक पार्क आता है। शायद शिवाजी की प्रतिमा लगी है। चंद कागज के दुकड़े पकड़ा दिये और कहा कि लिख लाना। उत्साह इतना चढ़ गया कि भूल गया कि तेज गर्मी है। उसी पार्क के बेंच पर बैठ कर लिख दिया। मैं जनसत्ता होने जा रहा था। उसमें छपने जा रहा था जिसके लिए सायकिल से रेलवे स्टेशन जाना पड़ता था। पंद्रह साल पहले की बात है। मेरे भीतर जनसत्ता और गहरा हो गया। इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग में घुसते ही अख़बार की स्याही की खुश्बू । आज भी याद है। रिपोर्टरों से घिरे सुशील कुमार सिंह के अदाज़। कुमार संजोया सिंह की ख़बरों की कतरनें। आज भी मेरे बक्से में कहीं पड़े हैं। शम्स ताहिर खां की रिपोर्टिंग और वो कमरा जिसमें से झांकते ही प्रभाष जोशी दिख जाते थे। उसी सफेद कुर्ते और धोती में। मेरे पिता जी जैसी सफेद धोती और धोती जैसा जनसत्ता। किताबों से भरा मंगलेश जी का कमरा। आयोवा से लौटे थे या जाने वाले थे। ठीक ठीक याद नहीं लेकिन नए पत्रकारों से बात करने की तमीज़ खत्म होने से बहुत पहले की बात है। कम बोलने वाले और शांति से बोलने वाले मंगलेश जी ने लिखना सिखा दिया।
जनसत्ता आज भी आता है। क्यों आता है पता नहीं। क्यों बचा हुआ है पता नहीं। अलका सरावगी या सुधीर चंद्र के लेखों को हर रविवार लाने के लिए या फिर याद दिलाने के लिए कि अगर जनसत्ता ही नहीं बचा तो बचेगा क्या। एक अख़बार ही तो है जो हर दिन आता है। बिना हंगामें के, बिना अपनी रणनीति से बाज़ार में दूसरे अख़बारों को मार कर। जनसत्ता किसी अख़बार को धक्का देकर मेरे घर नहीं आता। जनसत्ता अहिंसक अख़बार है। इसलिए जनसत्ता देखते ही अख़बार की तरह होने लगता हूं। बहुत सारी ख़बरें मगर बहुत सारी विनम्रता भी। जनसत्ता होना मुश्किल है। बहुत मुश्किल। लेकिन उन तमाम आशिकों में से मैं भी एक हूं जो जनसत्ता के मारे हैं। यही दुआ करता हूं कि मेरे पचास साल के होने पर भी आएगा यह अखबार। तब मुझे रुला जाएगा, याद दिलाते हुए कि पत्रकार ही बनने आए थे तो बने क्यों नहीं। देखों मैं जनसत्ता, तब भी बना हुआ था, आज भी बना हुआ हूं।
इसके पच्चीस साल में मेरा भी पच्चीस साल है। पटना के सिन्हा लाइब्रेरी के सामने एक पान की गुमटी में दमकिपा के एक कार्यकर्ता के हाथ में दिखा था यह अख़बार। अख़बार पढ़ने की उम्र हो चुकी थी। बासी था जनसत्ता। एक दिन बाद दिल्ली से आया था। उसके सफेद चकचक पन्ने और नेता जी के कुर्ते। लगता था इसे ही पढूंगा। दलित मज़दूर किसान पार्टी दमकिपा बनी थी। बाद में लोकदल और राष्ट्रीय लोकदल। इतना बदलाव हो गया लेकिन जनसत्ता नहीं बदला। पिता जी की सफेद धोती की तरह माड़ से कड़कड़ सा फहराता लगता है। जैसा कि मैने कहा कि जनसत्ता के पूरे पच्चीस साल में मेरे भी पच्चीस साल हैं। वरना जब दमकिपा के नेता जी वोट क्लब की रैली में भाग लेने के लिए दिल्ली चले जाते तो मुझे सायकिल से रेलवे स्टेशन जाना पड़ता था। जनसत्ता के लिए।
दिल्ली आया तो मंगलेश डबराल जी ने जनसत्ता में ही लिखने के लिए कह दिया। आईटीओ चौराहे से प्रगति मैदान की तरफ चलने पर एक पार्क आता है। शायद शिवाजी की प्रतिमा लगी है। चंद कागज के दुकड़े पकड़ा दिये और कहा कि लिख लाना। उत्साह इतना चढ़ गया कि भूल गया कि तेज गर्मी है। उसी पार्क के बेंच पर बैठ कर लिख दिया। मैं जनसत्ता होने जा रहा था। उसमें छपने जा रहा था जिसके लिए सायकिल से रेलवे स्टेशन जाना पड़ता था। पंद्रह साल पहले की बात है। मेरे भीतर जनसत्ता और गहरा हो गया। इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग में घुसते ही अख़बार की स्याही की खुश्बू । आज भी याद है। रिपोर्टरों से घिरे सुशील कुमार सिंह के अदाज़। कुमार संजोया सिंह की ख़बरों की कतरनें। आज भी मेरे बक्से में कहीं पड़े हैं। शम्स ताहिर खां की रिपोर्टिंग और वो कमरा जिसमें से झांकते ही प्रभाष जोशी दिख जाते थे। उसी सफेद कुर्ते और धोती में। मेरे पिता जी जैसी सफेद धोती और धोती जैसा जनसत्ता। किताबों से भरा मंगलेश जी का कमरा। आयोवा से लौटे थे या जाने वाले थे। ठीक ठीक याद नहीं लेकिन नए पत्रकारों से बात करने की तमीज़ खत्म होने से बहुत पहले की बात है। कम बोलने वाले और शांति से बोलने वाले मंगलेश जी ने लिखना सिखा दिया।
जनसत्ता आज भी आता है। क्यों आता है पता नहीं। क्यों बचा हुआ है पता नहीं। अलका सरावगी या सुधीर चंद्र के लेखों को हर रविवार लाने के लिए या फिर याद दिलाने के लिए कि अगर जनसत्ता ही नहीं बचा तो बचेगा क्या। एक अख़बार ही तो है जो हर दिन आता है। बिना हंगामें के, बिना अपनी रणनीति से बाज़ार में दूसरे अख़बारों को मार कर। जनसत्ता किसी अख़बार को धक्का देकर मेरे घर नहीं आता। जनसत्ता अहिंसक अख़बार है। इसलिए जनसत्ता देखते ही अख़बार की तरह होने लगता हूं। बहुत सारी ख़बरें मगर बहुत सारी विनम्रता भी। जनसत्ता होना मुश्किल है। बहुत मुश्किल। लेकिन उन तमाम आशिकों में से मैं भी एक हूं जो जनसत्ता के मारे हैं। यही दुआ करता हूं कि मेरे पचास साल के होने पर भी आएगा यह अखबार। तब मुझे रुला जाएगा, याद दिलाते हुए कि पत्रकार ही बनने आए थे तो बने क्यों नहीं। देखों मैं जनसत्ता, तब भी बना हुआ था, आज भी बना हुआ हूं।
खुदरा मूल्य गठबंधन सूचकांक
एक दल है। राजनीतिक दल। राष्ट्रीय पार्टी है। लेकिन कई क्षेत्रों से ग़ायब। पड़ोसी पप्पू का भी एक दल है। क्षेत्रीय दल। देश के अन्य हिस्सों से ग़ायब। दोनों हाथ मिला लें तो सत्ता तय। मुश्किल यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर दो राष्ट्रीय दुकान हैं। एक कांग्रेस की और एक बीजेपी की। क्षेत्रीय स्तर पर कई प्रादेशिक दुकान है। न जाने किस किस की। सब मिलते हैं, सब बिछड़ते हैं। दो प्रकार के क्षेत्रीय दल हैं। एक प्रकार का दल विपक्ष में रहते हुए विपक्षी राष्ट्रीय पार्टी के साथ रहता है। दूसरे प्रकार का दल सत्ताधारी राष्ट्रीय पार्टी के साथ रहता है। इसमें भी दो प्रकार के दल हैं। एक प्रकार का सत्ता के आखिरी दिनों तक चिपका रहता है। दूसरे प्रकार का सत्ता के आखिरी दिनों से पहले निकल लेता है। नतीज़ा गठबंधन में तमाम संभावनाएं बची रहती हैं।
ऐसा नहीं है कि इसका कोई बुनियादी सिद्धांत नहीं होता। एक सिद्धांत है कि धर्मनिरपेक्ष दल एक तरफ होंगे। इसके अनुसार सभी धर्मनिरपेक्ष सांप्रदायिक दलों को शत्रु मानेंगे। यानी राजनीति में कौन शत्रु है कौन नहीं इसकी साफ साफ पहचान। दूसरा सिद्धांत यह है कि राजनीति में कोई स्थायी शत्रु नहीं होता है। यह प्रावधान इसलिए रखा गया है ताकि कभी धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक दलों की लड़ाई ख़त्म हो जाए तब गठबंधन का कोई आधार बचा रहना चाहिए। कुछ महीने पहले तक समाजवादी पार्टी वाम दलों के घर घूमा करती थी अब वामदल वाले समाजवादी पार्टीवालों के घर घूम रहे हैं। तब अमर सिंह कहते थे कि आप यानी प्रकाश करात कांग्रेस का साथ छोड़ दीजिए हम कोई और तीसरा मोर्चा बना लेंगे। अब मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि कांग्रेस के साथ विकल्प खुला है और इन्हें कांग्रेस के साथ जाने से रोक रहे हैं प्रकाश करात। पता नहीं इन लोगों के बीच क्या बात हो गई है।
कांग्रेस गठबंधन सीख रही थी। सीखने में चूक तो होगी ही। पीडीपी और लेफ्ट निकल गए तो क्या हुआ सब तो नहीं निकलें न। गठबंधन बीजेपी ने भी सीखा था। कहा कि कई दलों को लेकर सरकार हमीं चला सकते हैं। वैसे इनकी भी हालत कम खराब थी। अब कांग्रेस का सबक देखिये। कई दलों को लेकर सरकार इन्होंने भी चला ली। आखिरी वक्त पर गिर गई तो दूसरी दुकान से एक दल ले आए। गठबंधन में कौन फेल हुआ इसका फैसला इतिहास करता है।
यह भी एक महत्वपूर्ण राजनीतिक सवाल है कि गठबंधन बनाने में राष्ट्रीय दल ही फेल होते हैं। क्योंकि उन्हीं के नेतृत्व में मोर्चा बनता है। इनसे निकलने वाले क्षेत्रीय दलों की नाकामी का आंकलन नहीं किया जाता है। यह नहीं कहा जाता है मुलायम या ममता गठबंधन में रहने लायक नहीं हैं। ये बड़ी कीमत वसूलते हैं। इनकी बदमाशियों की वजह से अच्छे खासे प्रधानमंत्री के नेतृत्व पर सवाल खड़ा हो जाता है। प्रकाश करात के नेतृत्व पर कोई सवाल खड़े नहीं करता। गठबंधन से अभी तक कौन से बड़े राजनीतिक लक्ष्य हासिल किये जा सकें हैं इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। सिर्फ राष्ट्रीय दल के नेता पर सवाल क्यों। क्षेत्रीय दल के नेता पर क्यों नहीं।
गठबंधन की दुकान अब मॉल में बदल गई है। जहां आराम और सुविधा को तरजीह दी जाती है। माल की गुणवत्ता की नहीं। खरीदार नहीं मिलते तो सेल का सीज़न साल भर चलता है। राजनीति में कोई शत्रु नहीं होता तो बई दो दल आपस में ल़ड़ते क्यों हैं। क्यों नहीं बीजेपी और कांग्रेस हाथ मिला लें और इन क्षेत्रीय दलों को चलता कर दें। आखिर जब शत्रु होते नहीं तो धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक भी नहीं होते होंगे। वैसे भी कई लोग तो यह कहते ही हैं कि दोनों में फर्क नहीं होता।
क्यों न गठबंधन का एक सूचकांक बना दिया जाए। कांग्रेस वाले गठबंधन को सेंसेक्स और बीजेपी वाले गठबंधन को निफ्टी से जो़ड़ दें। वैसे भी गठबंधन की राजनीति का बाज़ार भाव से बहुत गहरा संबंध है। पता चले कि किस गठबंधन सूचकांक में किस दल के कितने भाव चल रहे हैं। अमर सिंह ने अपनी नई सालाना रिपोर्ट में एक टीवी चैनल से कहा कि हम कांग्रेस के विरोधी नहीं थे। क्योंकि हम लेफ्ट के करीब थे और लेफ्ट कांग्रेस के करीब यानी यूपीए को समर्थन दे रहा था। इसी तरह से चंद्रबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी हमारे साथ थी तो वो कैसे हमें कांग्रेस के करीब होने से रोक सकती है। क्या लॉजिक मारा बीडू। गठबंधन के भेजे में खोपड़ी दाल दी अपुन ने फिर भी अइसा आइडिया नहीं निकला। मान गए बीडू छाप गुरु।
ऐसा नहीं है कि इसका कोई बुनियादी सिद्धांत नहीं होता। एक सिद्धांत है कि धर्मनिरपेक्ष दल एक तरफ होंगे। इसके अनुसार सभी धर्मनिरपेक्ष सांप्रदायिक दलों को शत्रु मानेंगे। यानी राजनीति में कौन शत्रु है कौन नहीं इसकी साफ साफ पहचान। दूसरा सिद्धांत यह है कि राजनीति में कोई स्थायी शत्रु नहीं होता है। यह प्रावधान इसलिए रखा गया है ताकि कभी धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक दलों की लड़ाई ख़त्म हो जाए तब गठबंधन का कोई आधार बचा रहना चाहिए। कुछ महीने पहले तक समाजवादी पार्टी वाम दलों के घर घूमा करती थी अब वामदल वाले समाजवादी पार्टीवालों के घर घूम रहे हैं। तब अमर सिंह कहते थे कि आप यानी प्रकाश करात कांग्रेस का साथ छोड़ दीजिए हम कोई और तीसरा मोर्चा बना लेंगे। अब मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि कांग्रेस के साथ विकल्प खुला है और इन्हें कांग्रेस के साथ जाने से रोक रहे हैं प्रकाश करात। पता नहीं इन लोगों के बीच क्या बात हो गई है।
कांग्रेस गठबंधन सीख रही थी। सीखने में चूक तो होगी ही। पीडीपी और लेफ्ट निकल गए तो क्या हुआ सब तो नहीं निकलें न। गठबंधन बीजेपी ने भी सीखा था। कहा कि कई दलों को लेकर सरकार हमीं चला सकते हैं। वैसे इनकी भी हालत कम खराब थी। अब कांग्रेस का सबक देखिये। कई दलों को लेकर सरकार इन्होंने भी चला ली। आखिरी वक्त पर गिर गई तो दूसरी दुकान से एक दल ले आए। गठबंधन में कौन फेल हुआ इसका फैसला इतिहास करता है।
यह भी एक महत्वपूर्ण राजनीतिक सवाल है कि गठबंधन बनाने में राष्ट्रीय दल ही फेल होते हैं। क्योंकि उन्हीं के नेतृत्व में मोर्चा बनता है। इनसे निकलने वाले क्षेत्रीय दलों की नाकामी का आंकलन नहीं किया जाता है। यह नहीं कहा जाता है मुलायम या ममता गठबंधन में रहने लायक नहीं हैं। ये बड़ी कीमत वसूलते हैं। इनकी बदमाशियों की वजह से अच्छे खासे प्रधानमंत्री के नेतृत्व पर सवाल खड़ा हो जाता है। प्रकाश करात के नेतृत्व पर कोई सवाल खड़े नहीं करता। गठबंधन से अभी तक कौन से बड़े राजनीतिक लक्ष्य हासिल किये जा सकें हैं इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। सिर्फ राष्ट्रीय दल के नेता पर सवाल क्यों। क्षेत्रीय दल के नेता पर क्यों नहीं।
गठबंधन की दुकान अब मॉल में बदल गई है। जहां आराम और सुविधा को तरजीह दी जाती है। माल की गुणवत्ता की नहीं। खरीदार नहीं मिलते तो सेल का सीज़न साल भर चलता है। राजनीति में कोई शत्रु नहीं होता तो बई दो दल आपस में ल़ड़ते क्यों हैं। क्यों नहीं बीजेपी और कांग्रेस हाथ मिला लें और इन क्षेत्रीय दलों को चलता कर दें। आखिर जब शत्रु होते नहीं तो धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक भी नहीं होते होंगे। वैसे भी कई लोग तो यह कहते ही हैं कि दोनों में फर्क नहीं होता।
क्यों न गठबंधन का एक सूचकांक बना दिया जाए। कांग्रेस वाले गठबंधन को सेंसेक्स और बीजेपी वाले गठबंधन को निफ्टी से जो़ड़ दें। वैसे भी गठबंधन की राजनीति का बाज़ार भाव से बहुत गहरा संबंध है। पता चले कि किस गठबंधन सूचकांक में किस दल के कितने भाव चल रहे हैं। अमर सिंह ने अपनी नई सालाना रिपोर्ट में एक टीवी चैनल से कहा कि हम कांग्रेस के विरोधी नहीं थे। क्योंकि हम लेफ्ट के करीब थे और लेफ्ट कांग्रेस के करीब यानी यूपीए को समर्थन दे रहा था। इसी तरह से चंद्रबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी हमारे साथ थी तो वो कैसे हमें कांग्रेस के करीब होने से रोक सकती है। क्या लॉजिक मारा बीडू। गठबंधन के भेजे में खोपड़ी दाल दी अपुन ने फिर भी अइसा आइडिया नहीं निकला। मान गए बीडू छाप गुरु।