एक अरब औरतों की आवाज़


समय और स्थान के बंटवारे में भी औरतों के साथ नाइंसाफी हुई है। किस वक्त और किस रास्ते से अकेली गुज़रना है या किसी के साथ गुज़रना है ये हर शहर और हर घर के औरतों के लिए लगभग तय होता है। दुनिया को उनके लिए बराबर बांट तो देते हैं मगर देते नहीं। दिन और रात का हर पहर उनका नहीं है। अक्सर पूछा जाता है या टोका जाता है कि वो इतनी रात को उस रास्ते से क्यों जा रही थी। घर में ही बालकनी में क्यों खड़ी है से लेकर क्या पहन कर निकल रही है और घर में रह रही है। यह सब कानून व्यवस्था की खराबी के कारण ही नहीं हुआ है। इस तथाकथित संस्कार के कायदे को रचा गया है पितृसत्तात्मक सोच के आधार पर । औरतों की आज़ादी भी अपने आप कई बंदिशों के बीच की वो जगह है जहां वो थोड़ी देर के लिए आज़ाद लगती है।

इन्हीं सब जगहों पर अपना हक जताने के लिए और हमारे सोच के भरम को तोड़ने के लिए गुरुवार के दिन दुनिया के दो सौ से अधिक देशो में सौ करोड़ औरतें बाहर निकल आईँ। शहर की गलियों से लेकर गांवों तक में औरतों ने रैली निकाली, नाटक किये और डांस किया। ताकि हर एक औरत की आवाज़ पूरी दुनिया के औरतों की आवाज़ बन जाए। इतनी बड़ी संख्या में बाहर आने का मकसद यह भी था कि उनके खिलाफ जो सोच है उसे अल्पमत में दिखाया जा सके। यह संख्या यह बताने के लिए थी कि शहर के हर कोने की जगह औरतों की भी है जहां किसी हिंसा की आशंका में उसे जाने नहीं दिया जाता। जाने दिया भी जाता है तो कई तरह के पहनावों और पहरों की शर्तों के साथ। यह अपने आप में एक अद्भुत दृश्य रचना थी ।

हालांकि टीवी ने इसके शहरी दृश्यों को ही दिखाया जिससे लगा कि यह अभियान चंद महानगरों की हाई क्लास टाइप की औरतों का है। गौर से देखें तो इस हाई क्लास की अवधारणा में भी मर्दवादी सोच होती है जो औरतों को हाई क्लास की आजादी से दूर रखना चाहती है। अफ्रीका हो या टोक्यो या बैतूल या जयपुर। हर जाति धर्म की औरतों का यह चेन बता रहा था कि दुनिया के हर कोने में औरतों के खिलाफ होने वाली हिंसा के किस्से एक जैसे हैं । फिर क्यों न एक जैसी हिंसा की शिकार औरतों को एक साथ आवाज़ उठानी चाहिए ताकि दुनिया देख लें कि ये औरतों कम नहीं हैं। अब ये अपनी हिंसा के खिलाफ बाहर आ सकती हैं। इनमें यह ताकत हैं कि वे अपनी अकेली की लड़ाई को ग्लोबल लड़ाई में बदल सकें।

इसी का असर है कि कमला भसीन जैसी नारीवादी कार्यकर्ता टीवी पर आती हैं और पूरी दुनिया के सामने बोलने का साहस करती हैं कि उनके बचपन में कैसे चार से आठ साल की उम्र के बीच तेरह अलग अलग मर्दों ने गलत से तरीके से छूने की कोशिश की। वो अपने आप से सवाल करती हैं कि तब क्यों नहीं बोल पाई आज तक नहीं जवाब नहीं मिला है। जबकि मेरे घर में मां बाप सब बराबरी से बर्ताव करते थे। फिर तेरह मर्दों ने मेरे बचपन की यादों को ज़ख्म दे दिया। अनुष्का शंकर को पब्लिक में यह कहना पड़ा कि उनके पिता के मित्रों ने किस तरह से उनका यौन शोषण किया। फिल्म निर्देशक पूजा भट्ट को लेख लिखना पड़ता है कि उनके साथ शादी के भीतर हिंसा हो सकती है ये कभी सपने में भी नहीं सोचा था। उनके पति ने शराब के नशे में मारपीट की। सबसे सामने इस तरह की बातें बताने का एक मतलब है। वो यह कि वो न सिर्फ अपनी बल्कि तमाम औरतों की चुप्पी को आवाज़ दे रही थीं। वो यह हौसला दे रही थीं कि अब कम से कम इस हिंसा पर बात की जा सकती है । बिना लोकलाज औऱ इज्जत गंवाने के भय के। यह एक बहुत बड़ा बदलाव है। जब समाज के एक तबके को पता चल जाए कि कोई लड़की आज न सही मगर बीस साल बाद भी यह बोल सकती है तो एक बार सोचेगा। आप जानते हैं कि स्त्रियों के साथ सबसे अधिक यौन हिंसा घर के भीतर होती है और पहचान वाले करते हैं।

ये औरतें संसद में आरक्षण के सवाल पर नहीं निकली थीं । व्यवस्था में जगह देने के बाद भी समाज और सरकार की सोच में औरतों के प्रति जो हिंसा है उसकी लड़ाई कुछ अलग है। कई लोग कहते हैं कि औरतें भी बुरी होती हैं। यह पुराना तर्क है। मर्द भी तो अच्छे होते हैं। सही है कि कई औरतों ने दहेज के झूठे आरोपों में मर्दों को फंसाया है। यह भी ठीक है कि कुछ औरतों ने बलात्कार से लेकर छेड़खानी तक के झूठे आरोप लगाये हैं। यह पूरी तस्वीर नहीं है बल्कि औरतों के साथ होने वाली हिंसा की व्यापक तस्वीर का एक कोना भर ही हैं । क्या यह सही नहीं है कि कोई रिश्तेदार बच्चियों को गलत तरीके से छूता है, कोई पति अपनी पत्नी को मारता है, किसी राह चलती लड़की को अपनी संपत्ति समझ कर हिंसा करता है, प्रेम न करने पर तेजाब फेंक देता है। औरतों के खिलाफ हिंसा को गिनाने की ज़रूरत नहीं है। इसकी लड़ाई कैसे लड़ी जाएगी। जब तक घर की बात सड़क पर नहीं होगी यह लड़ाई न तो लड़ी जा सकती है न जीती जा सकती है। यही लड़ाई लड़ने के लिए हज़ारों की संख्या में लोग दिल्ली के रायसीना हिल्स में पहुंच गए थे।

पूरी दुनिया के नारीवादी आंदोलन को दिल्ली गैंगरेप के बाद हुए ज़ोरदार प्रदर्शनों ने हौसला दिया है। बलात्कार सिर्फ भारत में नहीं होते लेकिन इस तरह के जनदबाव की मिसाल पिछले बीस साल की दुनिया में कम है। मणिपुर की मनोरमा सालों से अनशन पर हैं। उनके साथ भी बलात्कार हुआ मगर उन्हें लेकर कभी जनसैलाब नहीं उमड़ा। पिछले बीस सालों मे जिस तरह लड़कियों ने हर क्षेत्र में खुद को साबित किया है, अपने लिए जगह बनाई है उसका राजनीतिक नतीजा तो निकलना ही था। अभी भी हमारे राजनीतिक दल यह समझ रहे हैं कि हमारी लड़कियां और औरतें भाइयों और पतियों के कहने पर ही वोट कर रही हैं। वो यह देख नहीं पा रहे हैं कि औरतों का सबसे अधिक राजनीतिकरण हुआ है। शायद इसी बात ने नारीवादी संगठनों को उम्मीद से भर दिया है कि वे जिनके लिए वे सालों से काम करते करते हाशिये पर चली गईं थीं वो अब मुख्यधारा में अपनी आवाज़ को गूंजा देने की ताकत रखने लगी हैं। इस काम में फेसबुक और ट्विटर ने औरतों के राजनीतिकरण में बड़ी मुख्य भूमिका निभाई है। हो सकता है कि वे नारीवादी सिद्धांतों के अनुसार बराबरी के मसलों को न समझती हैं मगर वो अपने खिलाफ हिंसा और उसकी सोच को समझने लगी हैं। यह एक क्रांतिकारी बदलाव है और ये भारत में हुआ है जिसे दुनिया भर के नारीवादी संगठनों को एक रौशनी मिली है और उसी का नतीजा है एक अरब औरतों का यह अभियान।
(यह लेख आज के राजस्थान पत्रिका में छप चुका है)


7 comments:

  1. यह मुखरता महिलाओं की समस्याओं को सामने तो ला ही रही है .... इसे सही दिशा मिले तो शायद कुछ बदलाव भी आयें ....

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  2. One billion rising - मुहीम के पीछे छुपी असली भावना को अच्छी तरह से पेश किया है।

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  3. it's more about how much it can be spread positively (one of the ways you showed)

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  4. Bdalaaw dheerey dheerey hi aayega ye baat saty hai........par aap k is 'optimistic point of view' ko padh k asal me achha mhesus ho raha hai.......aapne jo sahishnuta dikhai hai apne iss article me usse padh k ek baar laga k koi purush nahi apitu koi stri hi baat kar rahi ho......aap striyo ka uchit samman kartey hai ye jaan k achha laga....."feel good" baat kahi hai aapne

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  5. Men are born to women.
    Men are brought up by women.
    Men are taught by women.
    Men are pampered by women.
    There must be some gaps in the mentoring of the men by women, that they misbehave with 'other' womenfolk.

    Daughters always share everything with the mother. It is the mother who keeps quiet. The mother-in-law ill-treats the new bride.

    Still everyone is blaming men-at-large to be fully responsible for insecurity among women.

    First of all, ALL Women should decide to respect each other. Then, the problem would be solved completely.

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  7. 16 tarikh ek kafi important din tha, ye woh din tha jab 100 crore mahilaye saidako pe utri thi apne adhikaro ke liye, apne upar ho rahe atyachoro ke virodh me lekin mai isse sirf 1 mahila ki jeet manta hu..... actually hum log; mai aur mere kuch dost hum sab bhi 1 billion rising ke nagpur me ekatrit huye aur waha pe kafi sari ladkiya apne bachpan ke experience just like kamla bhasin nd anushka shankar jaise share kar rahi thi toh maine bhi apni ek female frnd se puch dala ki kya uske saath bhi kabhi aisa kuch hua hai kya?? .... usne jawab diya aur tapak se mujhse cross question kiya ki kya maine kabhi aisa kisi ladki ke ke saath aisa kuch kiya hai kya.... mere pass uss samai toh jawab nahi tha lekin mere hisab se wo uss din patriarchal soch aur system pe war karne wali akeli ladki thi baki sabne bas sawal hi uthaya, halla kiya......... dekhiye mujhe toh ye baat samajh me nahi aa rahi hai ki ladkiyo ke apne bachpan ke experiences share kar lene kya hoga, kya un besharam asabhya logo me sabhyta aa jayegi jinko ye sab karne me sharam nahi aayi....... aisi chijo ke karne se ladki ke kamjor hone ke samajik soch ko hi support milta hai..... ladkiyo ko majbut hona hoga, usse iss purre patriarcal soch ko laat marni hogi, usse apne pita, apne bhai se puchna hoga ki kya unhone kabhi aisa kuch kisi ladki ke saath kiya hai..... har ek parent apni beti ko ghar aane ka samay bata dete hai ab unhe apne beto se puchna padega ki kya uss ne kisi ladki ko cheda toh nahi.......... pitrasatta ke saye me chal rahe iss movement ko apne aap ko phir se dhundna hoga tabhi ye safal hoga..... tab tak ke liye shukriya - Prakhar Pandey

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