गौरव की मुद्रा में शांत भाव से बाजूबंद किये सामने देखते हुए विवेकानंद की मूर्तियां और तस्वीरों को किसने नहीं देखा होगा। इन मूर्तियों में ढाले गए विवेकानंद दुर्लभ साहस के प्रतीक बना दिये गए हैं। मूर्तियों की ऊंचाई ने विवेकानंद से हमारी दूरी और बढ़ाई है। वो श्रद्दा के ह्रदय स्थल में तो बने रहे लेकिन उनकी प्रासंगिकता सिर्फ याद कर लेने भर में नहीं हैं। जब से एक राजनीतिक विचारधारा ने उनको अपना प्रतीक बना लिया,उनके गेरूआ का रूतबा सियासी समझा जाने लगा। आज भले ही यह दुनिया विवेकानंद के विचारों से बहुत आगे निकल गई है लेकिन उनके विचार इसी दुनिया में विचरन कर रहे हैं। लेकिन जब तक हम विवेकानंद को उनकी विशालकाय मूर्तियों से निकाल कर एक सामान्य स्तर पर नहीं लायेंगे उनके विचार हमेशा असंभव या अप्रासंगिक जान पड़ेंगे। युवा जीवन में उच्चतम आदर्श की परिकल्पना में उनकी मूर्ति या तस्वीर भले ही पहले नंबर पर हो लेकिन यह भी तो सच है कि कितने लोग हैं जो विवेकानंद के आदर्शों पर चल निकलते हैं। गांधी की तस्वीर थाने में टांग देने से थाने अहिंसक नहीं हो जाया करते।
विवेकानंद होना क्या है? उनकी जीवन यात्रा पर नज़र डालें तो आप पायेंगे कि निरन्तर अपने चरित्र को परखते रहना ही विवेकानंद होना है। उन्होंने सन्यास को अपनाया मगर संसार को नहीं त्यागा। एक सन्यासी तमाम लोकों में भटकता रहा मगर अपने ख्यालों में मां की चिन्ता से कभी मुक्त नहीं हो पाया। अपने पिता की मृत्यु के बाद विरासत में मिले संयुक्त परिवार के मुकदमों से उबरने की चिन्ता बराबर बनी रही। कभी समझौतों के ज़रिये तो कभी दूसरी कोशिशों के ज़रिये नरेंद्रनाथ इन झंझटों से भिड़ते रहे। बस अपनी मां के लिए। वो अपनी मां के लिए सन्यास से संसार में बार-बार लौटते रहे बल्कि संसार में ही रहकर सन्यास धर्म को पूरा किया। वो पलायनवादी सन्यासी नहीं थे। शंकर की लिखी और पेंगुइन से हिन्दी में प्रकाशित किताब विवेकानंद जीवन के अनजाने सच के पन्ने एक सामान्य संयासी की अद्भुत यात्रा से परिचय कराती है। ईश्वरचंद विद्यासागर ने नरेंद्रनाथ को एक स्कूल में हेडमास्टर बनाया। लेकिन विद्यासागर के दामाद ने नौवीं और दसवीं क्लास के छात्रों के साथ मिलकर साज़िश रची। छात्रों ने आवेदन किया कि नरेंद्रनाथ यानी विवेकानंद को पढ़ाने नहीं आता। विद्यासागर ने उस आवेदन को देखते ही विवेकानंद को स्कूल से निकाल दिया तब जब उन्हें नौकरी की सख्त ज़रूरत थी।
विवेकानंद का कष्ट एक आज भी एक आदमी का कष्ट है। अपनी मां भुवनेश्वरी देवी का यह पुत्र दुनिया और भारत भ्रमण के तमाम शहरों में भी याद करता रहा। मां को कष्ट न हो इसलिए पैसे भेजता रहा। पैसों को बचाता रहा। इस सवाल से जूझते हुए कि सन्यासी तो सांसारिक मोहमाया का त्याग कर चुका होता है तो क्या मां का मोह करना संसार करना नहीं है। इस क्रम में विवेकानंद के मददगार दुनियाभर में फैले रहे। राजस्थान के खेतड़ी के महाराज अजित सिंह ने भी काफी मदद की। उनकी पूरी जीवन यात्रा में राजस्थान की मिट्टी और खेतड़ी के महाराज का बड़ा योगदान रहा है। अगर ये लोग विवेकानंद के आसपास न होते तो कभी वे अपनी मां के दुखों से चिन्ता मुक्त नहीं हो पाते। हुए भी नहीं। तभी सिस्टर निवेदिता ने कहा है कि वे आज के ज़माने के विवेकशील संयासी थे। कामिनी कंचन अति सहज ही त्याग दिया लेकिन वे प्यार और कर्तव्य कर्म के विसर्जन के लिए हरगिज़ राज़ी नहीं हुए। शंकर की शोधपरक किताब बता रही है कि विवेकानंद का जीवन सिर्फ शिकागों में दिया गया अतुलनीय भाषण नहीं है बल्कि वो यात्रा है जिसे पढ़ते हुए हम अपनी जीवन यात्रा से गुज़रने लगते हैं।
शंकर की किताब में एक और रोचक प्रसंग है। खेतड़ी के महाराज ने जिस जहाज़ में फर्स्ट क्लास की टिकट खरीदी थी उसी जहाज़ में जमशेदजी टाटा भी सफर कर रहे थे। टाटा माचिस के आयात के सिलसिले में जापान जा रहे थे। विवेकानंद ने उन्हें अपने देश में उद्योग स्थापित करनी प्रेरणा दी और विज्ञान और तकनीक शिक्षा की ज़रूरत पर ज़ोर दिया था। बाद में जमशेदजी ने टाटा स्टील और इंडियन इस्टीट्यूट आफ साइंस की स्थापना की। यह रोचक प्रसंग बताता है कि सन्यासी विवेकानंद माया को समझने के लिए विश्व विचरन नहीं कर रहे थे। वो तमाम मुल्कों के खान पान पर भी गहरी नज़र रखते रहे। सेहत पर काफी ज़ोर दिया। एक सभा में जब उनसे किसी भक्त ने पूछा कि आपने ईश्वर को देखा है तो जवाब दिया कि मुझे जैसे मोटे इंसान को देखकर ऐसा लगता है क्या। इन प्रसंगों को जाने बिना हम विवेकानंद से प्यार नहीं कर सकते। वो हमारे देश की किसी राजनीतिक दल के प्रतीक नहीं हैं। वो हमारे देश के जन जन का जीवन हैं। जब तक हम उनके जीवन के पहलुओं के करीब नहीं जायेंगे उनके संघर्ष को समझना मुश्किल है।
आज जिसे देखिये भारत का गौरव गान करता हुआ उन्हीं पंक्तियों को दोहराता जा रहा है जो पहले कही जा चुकी हैं। मगर ज़रा एक पल को यह समझने की कोशिश कीजिए कि आज से एक सौ अठारह साल पहले कोई सन्यासी अपने भारत और वहां की परंपरा का पहली बार इतना बेजोड़ व्याख्यान दे रहा होगा तो उसे सुन कर और बाद में पढ़कर लोग किस कदर सिहर उठे होंगे। विवेकानंद ने कहा था कि अगर कोई यह सोचता है कि उसका ही धर्म सिर्फ बचा रहे और बाकी समाप्त हो जाए तो मुझे उस पर दुख होता है। पवित्रता या महानता किसी एक धर्म की देन नहीं है। सभी धर्मों और व्यवस्थाओं में महान चरित्रों ने जन्म लिया है। आप जल्दी ही सभी धर्मों के बैनर पर लिखा देखेंगे कि संघर्ष नहीं मदद, विनाश नहीं चाहिए, साथ चाहिए। दुनिया को विवेकानंद के इस भाषण से सीखना चाहिए था। उनके भाषणों के ठीक सौ साल बाद जब दुनिया में मज़हबी नफरत के बीज फलने लगे थे तो सोचा जाना चाहिए था कि एक सन्यासी बहुत पहले इसकी दवा बता गया है। शिकागों में दिया गया उनका भाषण हिन्दू धर्म का गौरवगान नहीं है। बल्कि उस भारत का गौरवगान है जहां तमाम धर्म एक हरे पौधे की तरह बागीचे को सुशोभित करते रहते हैं।विवेकानंद के विचार और जीनव से बिना गुज़रे हुए न तो उनके विचार को समझा जा सकता है और न ही उनके जीवन को। वो भारत के सन्यासी हैं। एक ऐसा सन्यासी जिसके जगत में भारत का स्वाभिमान है मगर दूसरों का आदर भी। विवेकानंद पूरब के वो सूरज हैं जो भारत में डूबता है तो उसी वक्त पश्चिम में निकल रहा होता है।
(published in rajasthan patrika)
गहन विचारपूर्ण आलेख...
ReplyDeleteहालाकी मैं विवेकानंद जी के बारे में ज्यादा नहीं जानता ...
ReplyDeleteलेकिन वो एक सन्यासी थे...और शायद धर्म और अधर्म की बातों से बहुत उपर उठ चुके थे. वैसे भी वो सन्यास ही क्या जो कुछ काएदे कानून की नीव पर बना हो
वो प्रकाश में प्रवेश कर चुके थे
Very informative...thanks you.
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ReplyDeleteकतिपय नए पक्षों,घटनाओं पर विचारशील नजर।उन्हें 'भारतीय राष्ट्रिय आन्दोलन का आध्यात्मिक पिता'की संज्ञा दी गयी थी।ऐसे विराट युग पुरुष को एकांगी सोच में समेटना सही नहीं है।
ReplyDeleteमहापुरूषों का इस तरह राजनीतिक पार्टीयों द्वारा चुनकर उन्हें अपने आइ़डियोलॉजी से जोड़कर दिखाना अच्छा नहीं लगता। पार्टियों की वैसे भी कोई स्पष्ट उच्च नैतिकता वाली हरकतें नहीं होती ऐसे में महापुरूषों को अपने पार्टी के ब्रैंड अंबेसेडर के तौर पर प्रोजेक्ट करना महापुरूषों के साथ भी अपमानजनक है। उन्हें एक सीमित तबके का प्रतिनिधित्व देकर उनका कद और छोटा ही कर रही हैं ऐसी पार्टियां।
ReplyDeleteवैसे मुझे लग तो रहा था कि हर राजनीतिक पार्टी अपना अपना महापुरूष चुन चुकी है और उनके नाम पर खोखली राजनीति करती रही है लेकिन विवेकानंद जी को अभी तक किसी ने नहीं चुना।
गहनता से लिखा गया जानकारी देने वाला लेख। कुछ बातों से मैं भी अनजान था, पोस्ट से जानकारी में वृद्धि हुई।
विवेकानंद के विचार और जीनव से बिना गुज़रे हुए न तो उनके विचार को समझा जा सकता है और न ही उनके जीवन को। वो भारत के सन्यासी हैं। एक ऐसा सन्यासी जिसके जगत में भारत का स्वाभिमान है मगर दूसरों का आदर भी। विवेकानंद पूरब के वो सूरज हैं जो भारत में डूबता है तो उसी वक्त पश्चिम में निकल रहा होता है।
ReplyDeleteमहान लोगों में ये खूबियां होती है .. इसलिए तो सार्वदेशिक और सार्वकालिक महत्व होता है इनका !!
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ReplyDeleteमनन योग्य..
ReplyDeleteरवीश जी..अभी हाल ही में कन्याकुमारी विवेकानंद केंद्र गया था. ऐसा मान बैठने की गलती कर बैठा था कि कम से कम यहाँ काम करने वाले लोग विवेकानंद को थोडा बहुत जरूर जानते होंगे.लेकिन निराशा हाथ लगी.एक बुजुर्ग से सज्जन तो कुमारी अम्मान की मूर्ति से बाहर निकालने के लिए राजी ही नहीं थे.यहाँ तक बोल दिया कि अगर तुम कन्याकुमारी देवी के दर्शन नहीं किये तो तुम्हारा हिंदुत्व कैसा और विवेकानंद को क्या समझोगे.बड़ा अफ़सोस हुआ.खैर कुछ कहा नहीं.विवेकानंद साहित्य से काफी लगाव रहा है मुझे.इसलिए कभी कभी पढ़ा भी है.जिस हिंदुत्व की पुरजोर वकालत स्वामी जी ने की है उसमे सारे संत आ जाते हैं.उन्होंने लिखा कि मैं बुद्ध के नास्तिकता में विश्वास नहीं रखता किन्तु बुद्धत्व में रखता हूँ.ऐसे सन्यासी को मूर्तियों बांधकर देखना निश्चित ही हमारी सड़ी गली और पुरोहितवाद से प्रेरित मानसिकता है.
ReplyDeleteरवीश जी..अभी हाल ही में कन्याकुमारी विवेकानंद केंद्र गया था. ऐसा मान बैठने की गलती कर बैठा था कि कम से कम यहाँ काम करने वाले लोग विवेकानंद को थोडा बहुत जरूर जानते होंगे.लेकिन निराशा हाथ लगी.एक बुजुर्ग से सज्जन तो कुमारी अम्मान की मूर्ति से बाहर निकालने के लिए राजी ही नहीं थे.यहाँ तक बोल दिया कि अगर तुम कन्याकुमारी देवी के दर्शन नहीं किये तो तुम्हारा हिंदुत्व कैसा और विवेकानंद को क्या समझोगे.बड़ा अफ़सोस हुआ.खैर कुछ कहा नहीं.विवेकानंद साहित्य से काफी लगाव रहा है मुझे.इसलिए कभी कभी पढ़ा भी है.जिस हिंदुत्व की पुरजोर वकालत स्वामी जी ने की है उसमे सारे संत आ जाते हैं.उन्होंने लिखा कि मैं बुद्ध के नास्तिकता में विश्वास नहीं रखता किन्तु बुद्धत्व में रखता हूँ.ऐसे सन्यासी को मूर्तियों बांधकर देखना निश्चित ही हमारी सड़ी गली और पुरोहितवाद से प्रेरित मानसिकता है.
ReplyDeleteVery nicely penned down ...keep writing ...keep sharing Ravish Sir
ReplyDeleteRavish ji,Vivenkanand ne mujhe hamesha prerna di hai. Mera babuji ko bhi woh bahoot priya the.Kolkata ke Ramkrishna ashram aur Kaniyakumari main ghoom aaya hoon.Unke vyaktitva aur chitra main ek ajib sa sneh hai. Jo apko khinchta hai.Unke vichar jivan main utarne ke liye hai na ki murti ke roop main chouraho per lagane ke liye hai vaise hi jaise ke apne likha Gandhi ji tasveer tangne thane ahinsak nahi ho jate.
ReplyDeleteआपने विवेकानंद जी के बारे में बहुत ही वैचारिक आलेख लिखा है ! उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं!
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ReplyDeleteरवीस जी, मैं आपसे सहमत हूँ, परंतु अगर आप विवेकानन्द की सोच को परखेंगे तो यह पाएंगे तो उन्होने तत्कालीन समय में भारतीय सभ्यता संस्कृति, समाज के सभी आयामों को सत्य की कसौटी पर परखा और उसमें से जो सत्य पाया उसी की प्रचार किया. यह प्रचारित करते समय उन्होने वैश्विक समाज मे आई आधुनिकिता का भी ध्यान रखा. अतः मेरे विचार में उनके द्वारा निष्पादित विचारों को आप वैचारिक संगम की संज्ञा दे सकते हैं.
ReplyDeleteरवीस जी, मैं आपसे सहमत हूँ, परंतु अगर आप विवेकानन्द की सोच को परखेंगे तो यह पाएंगे तो उन्होने तत्कालीन समय में भारतीय सभ्यता संस्कृति, समाज के सभी आयामों को सत्य की कसौटी पर परखा और उसमें से जो सत्य पाया उसी की प्रचार किया. यह प्रचारित करते समय उन्होने वैश्विक समाज मे आई आधुनिकिता का भी ध्यान रखा. अतः मेरे विचार में उनके द्वारा निष्पादित विचारों को आप वैचारिक संगम की संज्ञा दे सकते हैं.
ReplyDeleteapka blog acha hai, ghatiya rajniti me mahan vyaktiyo ko log apna trade mark banane par tule hai, meri vinati hai apse ki vivekanand ji par to apne likha hi hai, lekin Dr. Amedkar, Shri Ram, adi bhi iske peedit hain, plesae kuch unke liye bhi likhkar hamari jankari badhaiye.
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