कोई तुम्हें हांकता है गधे की तरह

प्रमोशन की आस में तुम्हारी हड्डियां जर्जर होने लगीं हैं
जमीर खंडहर, दिन ख़राब
दिल की धमनियों में मौसम नहीं दफ़्तर धड़कता है
कोई तुम्हें हांकता है गधे की तरह
बनाता है काबिल एक और गदहे की तरह
ताकि तय हो सके तुम्हारे दुखों की मंज़िल
जहां पहुंच कर तुम एक से विजयी दूसरे से ठगा महसूस करोगे
नौकरी में अफ़सर होकर भी नौकर ही रहोगे
उठो ख़ुद को खोजना शुरू करो
आलमारी में दुबकी किसी पुरानी कमीज़ की तरह बाहर निकल आओ
वीकेंड की शराब और फ़िर वही चेहरे
पुकारता है तुम्हे हर सोमवार
दफ़्तर काम करने की जगह है, होड़ की नहीं
वहॉं पड़े और तुम्हारी तरह जर्जर हो चुके तमाम प्राणियों पर तरस खाओ
जैसे तुम खा रहे हो ख़ुद पर
हम सब अपने भीतर के उस खंडहर में रहते हैं
जिसे दफ़्तर कहते हैं
इस दस्त से निकलने का रास्ता एक ही है
पीछे वाले के लिए छोड़ने का रास्ता
होड़ मत करो हड्डियां जर्जर हो जाएंगी और जमीर खंडहर ।
(यह गद्य शैली की कविता है ।)

24 comments:

  1. गधा गधे को हांक रहा है
    आदमी अपन से ज़्यादा दूसरे की ज़िन्दगी में झांक रहा।
    सिर्फ एक मौके को तलाश रहा।
    तरक्की की सीढी़ पर चापलूसी का पोछा लगाने से कोई गुरेज नहीं।
    आँफिस की ज़िन्दगी में अलमारी से निकाली गयी तुम्हारी शर्ट, बाँस की नज़र में महज़ एक पोछा है और कुछ नहीं।
    सेव योर शर्ट इट्स योर्स।इट्स पर्सनल।

    ReplyDelete
  2. Bahut Dard hai KAVITA me ...
    IAS aur Lower Division Clerk me bahut difference nahi hoya hai..except Salary :-P

    ReplyDelete
  3. बिलकुल ठीक कहा है !

    ...और यह गद्य शैली नहीं है,मुक्तक है जो पद्य शैली में है !

    ReplyDelete
  4. उदारीकरण के साथ ही कुकुरमुत्ते की तरह उग आये तरह-तरह के मैनेजमेंट गुरुओं के इस दौर में ऐसा ज्ञान दुर्लभ है. फेसबुक को धन्यवाद कि नौकरी और प्रतिस्पर्धा की असलियत से परिचय हुआ. जय हो बाबा सोशल नेटवर्क की.

    ReplyDelete
  5. switch on- switch off ही है सही तरीक़ा ज़िंदगी जीने का ☺

    ReplyDelete
  6. हा हा हा, पढ़कर इतनी हँसी पहले कभी नहीं आयी।

    ReplyDelete
  7. ऐसी कविता हमारे देश में ही बन सकती है जो नर में नारायण को देखता है ना की उसे एक मजदुर या एक उपभोक्ता समझता है . कॉरपोरेट सेक्टर विशेषकर युवाओं का जिस तरह से शोषण कर रहा है उसे उजागर करने के लिए इस तरह की रचनाएँ(गढ़/पद्ध) जरुरी है. कॉरपोरेट सेक्टर के इस शोषण-प्रथा को प्रसूनजी भी अच्छा उजागर करते है.

    ReplyDelete
  8. WELCOMEjee aapki rachna to Ravishjee se v achhi hai.

    ReplyDelete
  9. It's nice one, keep writing like this

    ReplyDelete
  10. क्या कीजियेगा ... हर ऑफिस की यही रीत है.... ज्यादा टेन्सन नहीं लीजिए .... सिर्फ दीजिए....ऐसा ही चलता है...

    ReplyDelete
  11. क्या कीजियेगा ... हर ऑफिस की यही रीत है.... ज्यादा टेन्सन नहीं लीजिए .... सिर्फ दीजिए....ऐसा ही चलता है...

    ReplyDelete
  12. गजब है !

    ई अर्जुन और रवीश के साथ नौकरी ...काहे ??

    हमको चिंता हो रही है !

    ReplyDelete
  13. वाह !क्या बात है ..

    ReplyDelete
  14. bahut khoob likha hai ravish ji

    ReplyDelete
  15. होड़ मत करो हड्डियां जर्जर हो जाएंगी और जमीर खंडहर.... क्या बात है!

    ReplyDelete
  16. आपने हमारे गिरेबान में झाँक लिया. खुद के खोखलेपन को भरने का सिलसिला आपसे जोड़ लिया है....इसीलिए तो खुद की सोच को खोजना शूरू कर दिया है ...आपके विचारों को शत शत प्रणाम!!!

    ReplyDelete
  17. क्या करें जनाब ? जब कोई up , बिहार का बंदा अपने घर से मीलों दूर अल्पाहारी , गृहत्यागी बनकर नौकरी करता है तो एक ही बात दिमाग में चलती है -- तरक्की ! अच्छी कविता है

    ReplyDelete
  18. KAVITA KI SHAILI JO V HO BHAAV KAAVYA GUN LIYE HUE HAI.....ISMEIN VEER RAS BHI HAI AUR CHAAYA KAAL KI GEHRAAI V....MAZA AA GAYA ,,IZAZAT HO TO FACEBOOK PAR SHARE KARUN.....

    ReplyDelete
  19. रवीश ,
    क्या खूब तस्वीर है ! रोज़गार के अपने दर्द होते हैं - 'दिल की धमनियों में मौसम नहीं दफ्तर धड़कता है' कहीं गहरे छू गया !

    ReplyDelete
  20. Ravish jee bahut hi shaandaar likha hai aapne..mann to bahut karta hai bahar nikalne ka per jindagi ki majbooriyan bahut laachaar bana deti hain..aur bhi apni likhi hue kavitayen share kariyega..

    ReplyDelete
  21. दिल की धमनियों में मौसम नहीं दफ़्तर धड़कता है...
    वाह! क्या बात कही... सुन्दर रचना...
    हार्दिक बधाई...

    ReplyDelete