कभी पुतला हुआ महान है ?

भीड़ आई है दरवाज़े के बाहर
बता रही है गंभीर मुझे
सरोकार से सने सनकी की तलाश में
दहलीज़ पर हिंदी जगत के
मेरे कहे पर बेताब है चलने को
पूछती हुई पता अपने घर का
कुर्ता फाड़ रही है मिट्टी के महान का
हा हा हा ये हंसी मेरी है बेख़ौफ़
लौट जाओ लौट जाओ
नहीं अभिलाषी प्रशंसा पात्र का
जगत जो हिन्दी नहीं है और
जगत जो हिन्दी भी है
जगत जो जगत ही है
मैं नहीं साहूकार किसी दुकान का
कुर्ता क्यों फाड़ते हो चीख चीख के
मिट्टी के महान का
माधो माधो ओ माधो
ढेला मार भगा सब साधो
एकांत की मुक्ति की मेरी साधना में
ये किसने कर लिया जुटान है
कभी पुतला हुआ महान है ?

26 comments:

  1. वाह! बहुत खूबसूरत जज्बात उकेरे हैं आपने.
    आभार.
    आपको वसंत पंचमी की ढेरों शुभकामनाएं!

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  2. क्या खूब कहा है आपने ! एक अच्छी रचना !

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  3. छुट्टियों का खूब सदुपयोग करते हैं, अति सुन्दर ! माधो भाग्यशाली है, उससे कोई आपत्ति नहीं इस साधना में साथ रहने से.

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  4. सुबह से जो कुछ चल रहा है उसका जवाब... :)

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  5. नभ, महि, शिखी, वायु, और (यमुना) जल = नमः शिवाय (पंचाक्षरी मंत्र... ध्वनि, बीज मन्त्र ॐ का श्रेष्ठतम स्वरुप, 'गंगाधर शिव' / वसुधा)... और 'हम' वसुधा के परिवार के सदस्य, सभी 'मिटटी के माधो', द्वैतवाद/ अनंत्वाद के कारण कस्तूरी मृग समान भटक रहे स्वयं को, शिव-शक्ति रुपी आत्मा को, पहचानने हेतु...:)...
    मतलब तो परमात्मा, परमानंद, सद्चिदानंद, आदि योगेश्वर विष्णु/ शिव को अपने भीतर ही देख पाना है !!!???
    सिद्ध पुरुष कह गए, "अहम् ब्रह्मास्मि"! अथवा, "शिवोहम! तत त्वम् असि"!...
    मिटटी के माधो, द्वापर के पुरुषोत्तम कृष्ण जी भी कह गए कि शरीर ही आत्मा का कुर्ता है, और एक दिन इसे वैसे भी फटना है... और उसके पहले निराकार और साकार ब्रह्म को जानना ही 'हमारा' उद्देश्य है (मानो या न मानो, वरना भटकते ही रह जाओगे काल-चक्र में :)...

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  6. पुतला, पुतली, सुतला, सुतली..

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  7. कहीं आप भी पुतलों से प्रभावित तो नहीं है?
    एक पुतला उनका जो कहलाते फादर ऑफ़ दी नेशन..
    दूसरा उनका जो है जातिवादी राजनीति के क्रिएशन ..
    किसका करें समर्थन ..किसका करे विरोध ...
    रविश बाबु आइये करे इस पे शोध ..
    हर किसी की सोंच देती हैं कुछ ना कुछ सीख ..
    चाहे हो माधो या रविश ..

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  8. पुनश्च - मन रुपी मानसरोवर से ऊपर कैलाश पर्वत के शिखर पर बैठे निराकार भूतनाथ शिव और उन के परिवार के सदस्यों तक उठना मानव का उद्देश्य माना गया है...

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  9. जितने भी शब्दों का उपयोग कर लें 'सत्य' की अनुभूति कर पाना संभव नहीं है फिर भी हर पुतला प्रयास रत दिखता है, और हमारे ज्ञानी पूर्वज 'सत्यम शिवम् सुन्दरम' कह गए ...:)
    और, "...जा की कृपा पंगु गिरी लंघई...", आदि, आदि,,,

    हिमालय के 'गौरीशंकर' शिखर पर तो पहले ही अनेक चढ़ चुके, और आज कृत्रिम टांग लगाए पंगु भी , भले ही वर्तमान में उसको माउंट ऐवेरेस्ट नाम से पुकार लें पढ़े-लिखे, अर्थात ऐल्फान्युमेरिक सांकेतिक भाषा के माध्यम से टीप के, अथवा कलम के माध्यम से वर्णमाला के अक्षरों के योग आदि द्वारा लिख अस्थायी को स्थायी बनाने के प्रयास द्वारा, लक्कड़ दादा से पड़ पोते तक, श्रंखाला बद्ध, तथाकथित काल-चक्र द्वारा, अनादि काल से (उसी प्रकार जैसे पशु जगत में सभी दिन में कुछ काम करते और फिर निद्रा, अर्थात अर्ध-मृत अवस्था में पहुँच, वातावरण से ही मोबाइल समान चार्ज हो, अगले दिन फिर चालू हो जाते हैं - वक् समान बक-बक करने को???!!!)... ...

    तथाकथित 'सिद्ध पुरुष', 'योगी', आदि नवग्रह के सार से बने पुतलों में सर्वश्रेष्ठ, निराकार ईश्वर के ही प्रतिरूप अथवा प्रतिबिम्बों के माध्यम से, 'हम', कलियुग के कारण निम्न श्रेणी में पहुंचे पुतले, जानना चाहे तो, 'परम सत्य' तक पहुँच सकते हैं, यद्यपि अनेक शक्तियां हमें योगमाया के कारण पहुँचने न दें,,, वैसे ही जैसे, विशेषकर, भारतियों को, सांकेतिक भाषा में 'कूप-मंडूक', अथवा ऐसे मेंढक जो ऊपर चढ़ने के प्रयास करने वालों की टांग खींच उसे माया द्वारा आँखों में पड़े पर्दे को हटाने नहीं देते (वर्तमान में पुतलों के पुतलों 'मायावती' और 'हाथियों' को ढंका गया है, हमारी आँखों के सामने ही और 'महाभारत' में द्वापर काल में ध्रितराष्ट्र नामक राजा को अंधा कह और उसकी अर्धांगिनी गांधारी की आँखों में लगी पट्टी द्वारा संकेतों को हम समझ नहीं पाते (और कहानी में दर्शाए विभिन्न पात्रों पर अनेकों पुतलों द्वारा किये गए शोध का हम कलियुगी पुतले भी आनंद उठाते हैं (या दुखी होते हैं), अपने आप को उच्च स्थान, मानसरोवर समान शिखर, पर बैठ :)... ... ...

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  10. खूबसूरत, अति सुन्दर......

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  11. परमज्ञानी निराकार शक्ति से अल्प-ज्ञानी साकार की उत्पत्ति को दर्शाते, सभी अस्थायी, 'अज्ञानी' अथवा अल्प-ज्ञानी पक्षियों को दूर रखने हेतु (वैसे ही जैसे परमेश्वर से दूर रखे पशु जगत के प्राणी); वस्त्र से ढंके दो छड़ियों से बने ढाँचे, और मटके से बने 'स्केयर क्रो'; मोम से बने विश्व विख्यात नर-नारी मैडम तुसाद के संग्रहालय में; मिटटी / पत्थर आदि से बने राघो/ माधो आदि, और विसर्जन के लिए बने गणेश / दुर्गा आदि; काठ की पुतलियों; आदि आदि से हाड-मांस के आम और बुद्धिजीवी पशु जगत और प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति मानव, 'हम लोग' - सभी मिटटी में मिलने-मिलाने को तैयार!...वाह क्या 'मायाजाल' बुना है मकड़ी समान अष्ट-भुजाधारी दुर्गा ने :)

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  12. मेरी टिप्पणी जो यद्यपि प्रकाशित होती प्रतीत हुई किन्तु वास्तव में सेव नहीं हुई - पुनश्च...
    वैसे तो यह वर्तमान में - जब मानव जीवन को अधिकतर 'बुद्धिजीवी' भी केवल टाईमपास मानते दिखाई दे रहे हैं - 'हिन्दुओं' के विचार गहराई में जा कर जानने का प्रयास करना व्यर्थ प्रतीत होता है ... फिर भी, उनके निष्कर्ष के विषय में कुछ न कहना भी हमारे ज्ञानी पूर्वजों का अपमान ही होगा... अर्थात, उन्होंने यद्यपि शक्ति रुपी निराकार ब्रह्म को ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विद्यमान होना जाना, किन्तु 'मिथ्या जगत' कह साकार प्रतीत होती पृथ्वी, अर्थात वसुधा और उस पर आधारित मानव, और अन्य पशु रुपी जीवों को भी मिथ्या अथवा 'माया' दर्शाया! उसी प्रकार जैसे मानव ही नहीं अपितु निम्न श्रेणी के पशुओं को भी 'निद्रावस्था' में स्वप्न दीखते प्रतीत होता आता है अनादी काल से,,, जबकि मानव 'माया जगत' में फिल्म पिछले शतक में ही बना पाने में सक्षम हो पाया है... और उन कहानियों पर आप जिससे पत्रकार अपनी अपनी नज़रों से अपने अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत करते आ रहे हैं...:)...
    मानव को पुतले समान सौर-मंडल के नवग्रह के सार से बना मॉडल जाना गया है, निराकार ब्रह्म के अपने मनोरंजन के लिए, अथवा अपना भूत देख पाने हेतु - शून्य से अनंत तक की यात्रा, अर्थात पृथ्वी के केंद्र से ब्रह्माण्ड के गुब्बारे समान फैलते अनंत शून्य जो अस्थायी साकार गैलेक्सियों, सौर-मंडल, आदि आदि से भरा पडा प्रतीत होता है...
    "हरी अनंत / हरी कहा अनंता... आदि" कह गए हमारे पूर्वज, यानी निराकार ब्रह्म के ही अनंत प्रतिबिम्ब! ...

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  13. रविश जी नमस्कार !! मैं आया था न्यूज़ चैनल के दफ्तर में! न्योता मिला था संगीता से लेफ्ट राईट सेंटर में समिल्लित होने के लिए. हम तो आप से मिलना चाहते थे. आप तो मिले नहीं. कटिहार वाले रिपोर्टर साहब मिल गए. शायद वो खान साहब है. उन्होंने ने बताया की आप सुबंह से दिखे नहीं. मैं बड़ा निराश हो गया. मैंने तो सब से पूछा. अर्नब हैं न औडिएंस रिसर्च विभाग में उस से भी बड़ी विनती की. पर सब व्यर्थ. मैं समझ गया आप बड़े अधिकारी है वहां. अभिज्ञान प्रकाश मिल गए बाहर टहलते हुए. हम ने उनसे चिपकने की कोशिश की पर वोह तो जल्दी ही निकल लिए. लगता है जो काम बाद में करना था उसे उन्होंने कर लेना ज्यादा उचित समझा. लेफ्ट राईट सेंटर में तो हम ने मताधिकार से सम्बंधित प्रशन पूछ लिया. सुब्रमनियन स्वामी तो खुश हो गए पर लगता है की निधि जी नाराज़ हो गई. आप से मिलने की बड़ी इक्षा है. हम भी भोजपुरिया है. गोपालगंज के रहने वाले है..बुलाइए कभी.. एक बात और मुझे समझ में नहीं आई..आपके यहाँ जितने लोगो को देख सबब कहीं ना कही शुन्य में खोये मिले. क्या ये मीडिया के हसते चेहरे निजी जीवन में उलझे हुए और व्यथित है. राष्ट्र को सही और गलत के मायने समझने वाले सिगरेट के धुएं में लुप्त है?

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  14. ravish kumar that why you have deleted your twitter account ???????????????

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  15. why you have deleted your twitter account ???

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  16. @ Kalam & Keyboard

    "... राष्ट्र को सही और गलत के मायने समझने (समझाने?) वाले सिगरेट के धुएं में लुप्त है?..."

    वाह! बढ़िया सारांश मानव जीवन का!!!

    Posted by JC to कस्‍बा qasba at February 2, 2012 6:32 AM

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  17. आज से आपके ब्लॉग को समझने की कोशिश करूँगा !!

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  18. रवीश, अंतर्द्वंद्व की पीड़ा की मुखर अभिव्यक्ति मन को इस तरह छू गयी ---
    करुण हृद होगा पहला कवि, व्यथा से उपजा होगा गान ! अनादृत निश्छलता जब हुयी ,छंद उरदाह बने अनजान !!

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  19. स्वयं निराकार अजन्मे और अनंत 'परमात्मा' ने ध्वनि ऊर्जा (ब्रह्मनाद ॐ) को साकार रूप के लिए अनिवार्य तत्वों, पंचतत्वों/ पञ्चभूत, में परिवर्तित कर सम्पूर्ण अस्थायी साकार ब्रह्माण्ड की रचना कर, अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति, अपने ही प्रतिरूप पृथ्वी-चन्द्र / वसुधा, पर एक विचित्र तंत्र, पशु-जगत बना मानव को उलझा दिया! आरम्भ में द्वैतवाद से और काल के साथ-साथ अनंतवाद के कारण, परमसत्य तक न पहुँचने देने के लिए (आम आदमी को, अधिकतर माटी के पुतलों को उनमें आवाज़ भर, चाभी वाले खिलोनों समान :)...

    Posted by JC to कस्‍बा qasba at February 3, 2012 10:34 AM

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  20. जनाब,

    मैं एकांतप्रिय व्यक्ति हूं। मुझे काम के अलावा मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं रहती है। आपको आहत नहीं करना चाहता। आपने लिखा है व्यंग्य में कि बड़ा अधिकारी हो गया हूं तो उससे अच्छा ख़ासा चिढ़ गया हूं। बताइये कि मैं क्यों न हो जाऊं। बिना जाने इस तरह की बातें कभी कभी पसंद नहीं आती हैं। मैंने बुलाया नहीं था। मुझे इस मुगालते में भी रहना अच्छा नहीं लगता है कि टीवी में चार दिन आकर तुर्रम खान हो गए जिससे कोई मिलना चाहता हो। न तो मैं यह सब सुन कर खुश होता हूं न दुखी। हां असहज ज़रूर हो जाता हूं। ये मेरी नौकरी है कर रहा हूं। आपको लगता होगा कि शोहरत बटोरकर अपने लिये जमा कर रहा हूं। पर ऐसा है नहीं। कोई मिल जाता है तो ज़रूर मिल लेता हूं मगर साबित करने के लिए नहीं कि विनम्र हूं या अक्खड़। जिस मूड में रहूंगा उसी में नज़र आऊंगा। मुझे ऐसे लोग भी पसंद नहीं जो टीवी के चेहरो को ढूंढ ढूंढ कर मिलते रहते हैं। बिना किसी प्रयोजन के आप क्यों मिलने चले गए किसी से। और वो आपसे न मिले या किसी उलझन में दिख जाए तो उलाहना भी। काम का दबाव होता है। खासकर जब निहायत सतही काम का दबाव हो तो आप समझ नहीं सकते कि भीतर से कितना खाली कर देता होगा। रही बात मीडिया और मीडिया के लोगों को कुछ अलग से देखने वालों की तो मैं पूरी विनम्रता से कहना चाहता हूं कि जो यह समझते हैं कि मीडिया का काम राष्ट्र को दिशा देना है वो मेरी नज़र में मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं है। जो मीडिया में काम करता है वो मालिक नहीं होता। नौकर होता है। आप उससे किसी सुपर गॉड की तरह न देखा करें। मैं इस वक्त खुद बेचैनी के मूड में लिख रहा हूं। ऊपर से आपका एक सतही और चेहरा खोजूं लोलुप दर्शक की तरह किसी की तलाश मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। आप खुद भी सामान्य रहें और मेरे जैसे फटीचर लोगों को भी सामान्य रहने दें।

    बहस टू जी पर हो रही थी तो आपने मताधिकार पर क्यों पूछा? स्वामी से पूछ कर क्या होने वाला था? अगर आप बतौर दर्शक जाते हैं तो जिस पर बहस हो रही है उस पर सीधा हस्तक्षेप कीजिए। टीवी में दस सेकेंड ही मिलता है। आप एक चैनल देखने के दस रूपये भी ठीक से नहीं देते होंगे। यह भी ध्यान रखिए। सख्ती और भड़क कर इसलिए बात कर रहा हूं कि ताकि आप अपनी भूमिका भी समझें। मुझसे इतना प्यार करने की ज़रूरत नहीं है। मुझे चाहिए नहीं। आप नाराज़ रहें मुझे अच्छा लगेगा। आप हमसे इतनी उम्मीदें कर के तो चले गए, अपनी झुंझलाहट लिख दी अब हमारी उम्मीदों के टूटने से जो झुंझलाहट पैदा हुई उसे पढ़ कर झेलिये।

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  21. जनाब,

    मैं एकांतप्रिय व्यक्ति हूं। मुझे काम के अलावा मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं रहती है। आपको आहत नहीं करना चाहता। आपने लिखा है व्यंग्य में कि बड़ा अधिकारी हो गया हूं तो उससे अच्छा ख़ासा चिढ़ गया हूं। बताइये कि मैं क्यों न हो जाऊं। बिना जाने इस तरह की बातें कभी कभी पसंद नहीं आती हैं। मैंने बुलाया नहीं था। मुझे इस मुगालते में भी रहना अच्छा नहीं लगता है कि टीवी में चार दिन आकर तुर्रम खान हो गए जिससे कोई मिलना चाहता हो। न तो मैं यह सब सुन कर खुश होता हूं न दुखी। हां असहज ज़रूर हो जाता हूं। ये मेरी नौकरी है कर रहा हूं। आपको लगता होगा कि शोहरत बटोरकर अपने लिये जमा कर रहा हूं। पर ऐसा है नहीं। कोई मिल जाता है तो ज़रूर मिल लेता हूं मगर साबित करने के लिए नहीं कि विनम्र हूं या अक्खड़। जिस मूड में रहूंगा उसी में नज़र आऊंगा। मुझे ऐसे लोग भी पसंद नहीं जो टीवी के चेहरो को ढूंढ ढूंढ कर मिलते रहते हैं। बिना किसी प्रयोजन के आप क्यों मिलने चले गए किसी से। और वो आपसे न मिले या किसी उलझन में दिख जाए तो उलाहना भी। काम का दबाव होता है। खासकर जब निहायत सतही काम का दबाव हो तो आप समझ नहीं सकते कि भीतर से कितना खाली कर देता होगा। रही बात मीडिया और मीडिया के लोगों को कुछ अलग से देखने वालों की तो मैं पूरी विनम्रता से कहना चाहता हूं कि जो यह समझते हैं कि मीडिया का काम राष्ट्र को दिशा देना है वो मेरी नज़र में मूर्ख से ज्यादा कुछ नहीं है। जो मीडिया में काम करता है वो मालिक नहीं होता। नौकर होता है। आप उससे किसी सुपर गॉड की तरह न देखा करें। मैं इस वक्त खुद बेचैनी के मूड में लिख रहा हूं। ऊपर से आपका एक सतही और चेहरा खोजूं लोलुप दर्शक की तरह किसी की तलाश मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। आप खुद भी सामान्य रहें और मेरे जैसे फटीचर लोगों को भी सामान्य रहने दें।

    बहस टू जी पर हो रही थी तो आपने मताधिकार पर क्यों पूछा? स्वामी से पूछ कर क्या होने वाला था? अगर आप बतौर दर्शक जाते हैं तो जिस पर बहस हो रही है उस पर सीधा हस्तक्षेप कीजिए। टीवी में दस सेकेंड ही मिलता है। आप एक चैनल देखने के दस रूपये भी ठीक से नहीं देते होंगे। यह भी ध्यान रखिए। सख्ती और भड़क कर इसलिए बात कर रहा हूं कि ताकि आप अपनी भूमिका भी समझें। मुझसे इतना प्यार करने की ज़रूरत नहीं है। मुझे चाहिए नहीं। आप नाराज़ रहें मुझे अच्छा लगेगा। आप हमसे इतनी उम्मीदें कर के तो चले गए, अपनी झुंझलाहट लिख दी अब हमारी उम्मीदों के टूटने से जो झुंझलाहट पैदा हुई उसे पढ़ कर झेलिये।

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  22. अब क्यूंकि माथा ठंडा हो गया है, ठन्डे दिमाग से सोचें तो - वैसे ही जैसे शिव जी को केवल उनके मस्तक पर सीता माता समान चन्द्रमा ही नहीं अपितु रामजी की गंगा का शीतल और निर्मल जल, तदोपरांत कैलाश पर्वत के शिखर में अपने परिवार समेत बैठा दर्शा गए हमारे ज्ञानी-ध्यानी पूर्वज - प्रश्न मात्र प्रिंट अथवा इलैक्ट्रौनिक मीडिया का ही नहीं, अपितु हम जैसे आभासी दुनिया के पात्रों का भी कर्त्तव्य राष्ट्र को सही मार्ग दर्शन कराने का है, जिसमें हम सभी कलि-काल वश?) असफल होते प्रतीत होते हैं...:(

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  23. sir twitter pe wapis kb aaoge..mis u alot pls reply,apka ye bhakt tensd hai..aap q gae twitter se?

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  24. comment ya to aapko achchha nahi lagay ya fir hum spam alon mein shamil hain

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