भोर होने में कुछ घंटे बाक़ी रहे होंगे। दरवाज़े के सांकल को चुपचाप लगाकर निकल गया था। गांधी मैदान की तरफ पैदल ही। फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने का जुनून टीवी और मल्टीप्लेक्स के आने के पहले सिनेमा संस्कृति का हिस्सा रहा है। टिकट खिड़की पर कतार में खड़ी भीड़ के कंधे के ऊपर से चलते हुए काउंटर तक पहुंच जाने वाले भले ही लफंगे कहे जाएं मगर उनका यह करतब मुझे सचिन तेंदुलकर के छक्के जैसे अचंभित कर देता था। पर्दे तक पहुंचने के पहले ऐसे हीरो से मुलाकात न हो तो सिनेमा देखने का मज़ा नहीं मिलता। तय हुआ कि पहले दिन और पहले ही शो में देखेंगे वर्ना अग्निपथ नहीं देखेंगे। पैसा दोस्तों का था और पसीना मेरा बहने वाला था। जल्दी पहुंचने से काउंटर के करीब तो आ गया मगर काउंटर के उस्तादों के आते ही मुझे धकेल कर कोई अस्सी नब्बे लोगों के बाद पहुंचा दिया गया। लाइन लहरों की तरह डोल रही थी। टूट रही थी। बन रही थी। लाइन बहुत दूर आ गई थी। लोग धक्का देते और कुछ लोग निकल जाते। नए लोग जुड़ जाते। यह क्रम चल रहा था। तभी पुलिस की पार्टी आई और लाठी भांजने लगी। तीन चार लाठी तबीयत से जब पैरों और चूतड़ पर तर हुई तो दिमाग गनगना गया। तब तो गोलियां खाते हुए अग्निपथ अग्निपथ बोलते हुए प्रोमो भी नसीब नहीं था वर्ना वही याद कर बच्चन मुद्रा में खुद के इस त्याग को महिमामंडित करते हुए लाइन में बने रहते।
खैर चप्पल पांव का साथ छोड़ गए। हम नीचे से नंगे हो चुके थे। टिकट लेने के बाद होश ठीक से उड़ा कि इस हालत में घर गया तो वहां भी लाठी तय थी। किसी ने चप्पल का इंतज़ाम किया और पहले शो की तैयारी से हम फिर सिनेमा हाल के करीब पहुंच गए। मोना या रिजेन्ट में लगी थी अग्निपथ। यह वही साल था जब मुझे दिल्ली शहर के बारे में भारत की राजधानी से ज्यादा कुछ पता नहीं था। अग्निपथ देख चुके थे और अब बंद हो चुकी इलेवन अप से, जिसे दिल्ली एक्सप्रेस कहा जाता था, दिल्ली के लिए रवाना हो चुके थे। इन दोनों के बीच कुछ हफ्तों या महीनों का अंतराल ज़रूर रहा होगा। स्मृतियां लिखते वक्त ऐसा घालमेल हो जाता है। मगर विजय दीनानाथ चौहान। बाप का नाम मास्टर दीना नाथ चौहान। ऐसे संवाद दून स्कूल से पास होकर स्टीफंस पहुंचने वाले नौजवानों को लुभाते होंगे मगर वो इसे जी नहीं पाते होंगे। इस बात का सुकून तो था ही कि अग्निपथ देख चुके थे। उस टेलर की तलाश आज तक करता हूं जिसने कांचा के इतने अच्छे कपड़े सिले थे। अपने बाप के हत्यारे कांचा को मारने का जुनून लिए विजय दीनानाथ चौहान भी तो हत्यारे के दर्ज़ी को ढूंढ रहा था। ख़ैर ।
इसीलिए कहता हूं कि अग्निपथ एक ऐसी फिल्म है जिसमें मैं भी हूं। मुकुल एस आनंद की अग्निपथ में भी मैं था और करण जौहर द्वारा निर्मित और करण मल्होत्रा द्वारा निर्देशित अग्निपथ में भी मेरा रोल बचा रहा। दो फिल्मों के बीच का यह दर्शक दो दशकों की ज़िंदगी जी चुका है। गाज़ियाबाद के स्टार एक्स सिनेमा हाल में पहुंचने से पहले बदनाम हिन्दी चैनलों की बारात का वो बाराती बन चुका था जिसे कुछ लोग शरीफ समझते हैं। नाचना भले न आए मगर नगीनिया डांस की तड़प हमेशा रही है। अमर उजाला के एक पत्रकार से बाहर मुलाकात हुई। मैंने उनको यह कह कर रवाना कर दिया कि मैं अकेले रहना पसंद करता हूं। वो निराश हो कर चले गए कि सर कहने पर झड़प देने वाला यह मशहूर पत्रकार बदतमीज़ भी है। उन्हें नहीं मालूम था कि यह पत्रकार खुद अपनी प्रेरणाओं को नहीं समझ पाया इसलिए दूसरे जब इसे प्रेरणा बनाते हैं तो चिढ़ जाता है। तो बीस रुपये का पान बनवाया। तीन सौ रुपये के दस ग्राम वाले किमाम का एक छोटा सा हिस्सा पान के पत्ते पर घिसवा कर दबाया और स्टार एक्स सिनेमा के भीतर। कुछ लोग पहचान रहे थे । कुछ हैरान कि भर मुंह पान दबाए ये फटीचर है या एंकर है। हॉल में पहुंचा तो दो बजे के शो के लिए लेकिन हाथ में टिकट था एक बजे के शो का। सिनेमा हाल का मैनेजर दिलफेंक सिनेमची समझता है इसलिए उसने एक मेहरबानी की। सलाम किया और उसी नंबर के टिकट पर दो बजे के हाल में सीट दिला गया। अब शुरू होने वाला था अग्निपथ। इस बार प्रोमो तो बने थे पर टीवी नहीं देखने के कारण एक भी नहीं देख पाया। लाठी नहीं चली और दोस्त नहीं थे। तब दर्जन भर थे अब अकेला। लेकिन फेसबुक और ट्वीटर के अपने मानस मित्रों की फौज को बताने की बेताबी ज़रूर थी। ढैन ढैन ढैन....अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
एक सुपुरुष घोती कुर्ताधारी मास्टरनुमा हंसमुख कवि। देखते ही पिता की याद आ गई। धोती कुर्ता में वो भी काफी जंचते थे। आंखें थोड़ी देर के लिए नम तो हुईं मगर मास्टर दीनानाथ चौहान के चेहरे पर अभिनय की कशिश उतरते देखी तो लगा कि मामला जंचेगा। कैमरा कमाल तरीके से काम कर रहा था। मांडवा । बच्चन की ज़ुबान पर जब मांडवा उच्चरित होता था तो लगता था कि भारत छोड़ो मांडवा में ही बसो। अपने गांव के बाद मांडवा का ही नाम लेने में मज़ा आता था, लगता था काश मांडवा में पैदा हुए होते। करण मल्होत्रा ने मांडवा को तो रखा मगर उसे पहचान की पटरी से उतार दिया। वो सिर्फ मुंबई के नक्शे के बाहर का गांव है जहां पुलिस मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के डर से नहीं पहुच पाती। खुद भी नहीं जाती और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी जाने के लिए नहीं कहती कि जाकर देखो मांडवा में क्या हो रहा है। खैर। हिन्दी सिनेमा को सिनेमा की तरह नहीं देखना चाहते तो दुनिया में बहुत अच्छे विश्वविद्यालय हैं जहां आप जाकर गंभीर पढ़ाई कर सकते हैं।
जल्दी समझ में आने लगा कि संजय दत्त ने फिल्म को लूट लिया है। फिर लगा कि कुछ माल ऋषि कपूर भी लूट रहे हैं। खलनायक में जोकर लगने वाले संजय दत्त इस अग्निपथ में वाकई खलनायक लगे हैं। बीस सालों में हमारे पर्दे का खलनायक हीरो की तरह कमनीय हो चला था। अमरीश पुरी के भयावह खलनायकी के बाद संजय दत्त ने उस क्रूरता को उभारा है। वांडेट का खलनायक नहीं भूलियेगा। खैर। मास्टर के मारने का दृश्य कमाल का है। समंदर के किनारे की हत्यारी शामें शायद ऐसी ही होती होंगी। बारिश और नीली काली लाइटिंग के बीच मशाल की पीली रौशनी उस क्रूरता को खूबसूरती से रचती है जिसे लेकर फिल्म आगे चलने वाली थी। मांडवा से मुंबई आते ही रऊफ लाला का किरदार। मक्कारी से लबरेज़ ऋषि कपूर ने मकबूल के पंकज कपूर के अभियन के करीब खुद को ला खड़ा कर दिया। आज के ज़माने में जब कसाई भी सूट पैंट वाले हो गए हैं और विधायकी का चुनाव लड़कर पसमांदा मुस्लिम के हकों की लड़ाई में शामिल हैं, गनीमत है कि मुस्लिम पात्र का यह चित्रण सांप्रदायिक दौर की मुंबई की पैदाइश नहीं लगता। कहानी कमज़ोर होती हुई अपने किरदारों से मज़बूत होने लगती है। विजय दीनानाथ चौहान बड़ा हो जाता है। पंद्रह साल गुज़रने का एलान होता है। माधवी बनी नर्स की जगह प्रियंका चोपड़ा ब्यूटी पार्लर वाली काली के रूप में जगह ले चुकी होती है।
पहली अग्निपथ में अमिताभ बच्चन का नायकत्व छाया रहता है। वो अपने परिचय वाले संवाद को दोहराते दोहराते थकाते भी रहे और पकाते भी रहे। करण मल्होत्रा की अग्निपथ में विजय दीनानाथ आधी से ज़्यादा फिल्म में बीजू बन कर ही रहता है। वो मौत के साथ अपीटमेंट जैसी कामचलाऊ इंग्लिश की कोशिश नहीं करता। औरतों से भरे मोहल्ले में रहता है। औरतें उसकी ढाल हैं। मुकुल आनंद की फिल्म में कृष्णन अय्यर बाडीगार्ड था। करण मल्होत्रा की फिल्म में सीढ़ियों, बालकनियों और बरामदे में नज़र आने वाली असंख्य औरते बीजू की बाडीगार्ड हैं। रोहिणी हट्टंगड़ी और विजय के बीच गहरा रिश्ता बना रहता है। यहां ज़रीना वहाब पूरी फिल्म में टेंपोरेरी यानी अस्थाई मां लगती है। इन्हीं सब बिंदुओं पर फिल्म टूटती है। मगर शानदार बने रहने का रास्ता नहीं छो़ड़ती।
नई अग्निपथ में ह्रतिक रौशन मांडवा पहुंचने से पहले तक मोहल्ले का बागी से ज़्यादा नहीं लगता। उसके गुस्से की थरथराहट कंपकंपाहट पैदा करती है। लेकिन जब वो कमिश्नर के घर पहुंच कर जान बचाने की बात करता है तो डान की जगह मुखबिर नज़र आने लगता है। मुकुल आनंद की फिल्म में कमीश्नर और विजय दीनानाथ के बीच का रिश्ता ग़ज़ब का था। इस फिल्म में पड़ोसी का लगता है। इसीलिए ह्रतिक नायकत्व की उस ऊंचाई को नहीं छू पाते जिसे बच्चन ने छुआ। पहली अग्निपथ में बच्चन नायक थे मगर इस अग्निपथ में फिल्म नायक है। उस फिल्म में वृतांत बच्चन तय करते हैं, इस फिल्म में वृतांत यानी नैरेटिव निर्देशक अपने पात्रों के ज़रिये तय करता है। पहली फिल्म में विजय दीनानाथ बनने से पहले अमिताभ एंग्री यंग मैन की छवि को कई दशक जी चुके होते हैं। इस फिल्म में विजय बनने से पहले तक ह्रतिक चौकलेटी हीरो की छवि की तलाश में मुख्य से लेकर सहयोगी किरदार में भटकते रहे हैं। मगर आखिरी सीन में मांडवा पहुंचने के बाद ह्रतिक का अभिनय उन्हें एक नई ऊंचाई पर ले जाता है। मैं काग़ज़ के फूल का रिव्यू नहीं लिख रहा उस फिल्म का लिख रहा हूं जो चलती भी हैं और बनती भी हैं।
इस फिल्म में गाने यादगार नहीं हैं। चिकनी चमेली टपकी हुई लगती है। दोस्त होते नहीं सब हाथ मिलाने वाले। इस कव्वाली के सेट पर जब कांचा और विजय दीनानाथ मिलते हैं तो ग़ज़ब का समां बंधता है। डैनी का ज़ोरदार अभिनय और बच्चन का स्टारडम एक किस्म की बराबरी का टक्कर पैदा करता है। वो हेलिकाप्टर से मांडवा में लैंड करता है। यहां नाव से ह्रतिक बाबू जाते हैं। शाट्स काफी अच्छे हैं। क्लोज़ अप शानदार हैं। कांचा भयावह है। गीता का पुनर्पाठ कर रहा है। उम्मीद है कि कोई गीता के इस पुनर्पाठ को लेकर रूस की अदालत नहीं जाएगा। ख़ैर। कांचा जब मांडवा में बैठ कर न्यूज़ चैनलों के ज़रिये लाइव रिपोर्ट देख सकता है तो फिल्म में सिक्के डालने वाले पब्लिक फोन रखने का क्या मतलब था समझा नहीं।
लेकिन गानों, हांडी फोड़ने के दृश्य विहंगम तरीके से रचे गए हैं। कव्वाली को बेजो़ड़ फिल्माया गया है। रऊफ लाला के बेटे को मारने का प्लाट शानदार है। और बीजू की बहन की नीलामी का दृश्य छाती तोड़ देने वाला। यह वही सीन है जब ह्रतिक पूरी तरीके से हीरो की तरह उभऱ कर फिल्म पर कब्ज़ा करते हैं। ठीक इसके बाद चौपाटी पर सूर्या को मारने का सीन शानदार है। यही वो सीन है जहां बीजू पहली बार अपना और अपने बाप के नाम वाला पूरा संवाद बोलता है। विजय दीनानाथ चौहान। बाप का नाम मास्टर दीनानाथ चौहान। करण मल्होत्रा ने पुरानी फिल्म से यह सबक सीख लिया था। इसीलिए इस संवाद के लिए वो दर्शकों को इंतज़ार करवाते हैं। कुछ संवाद तो बेहतरीन लिखे गए हैं। प्रबुद्ध खिलाड़ी। हा हा। मज़ा आ गया। कांचा का कहना कि अब भी माया मोह बाकी है। यह संवाद मांडवा की लड़ाई को फिल्मी कुरुक्षेत्र में बदल देती है। बिना माया मोह को त्यागे कोई ख़लनायक नहीं बन सकता। कोई नायक भी नहीं बन सकता। जब इसी झमेले से ह्रतिक निकलते हैं तो आखिरी सीन में उनका स्टंट छाप अभिनय बेजोड़ हो जाता है। संजय दत्त मोटे थुलथुल बचे खुचे खलनायक की तरह पेड़ पर लटका दिये जाते हैं। शायद यह निर्देशक की योजना होगी कि नायक को शुरू से नायक बनाकर नहीं रखना है। उसे बाद में स्थापित करना है।
इस फिल्म की रौशनी,संगीत,कविता के पाठ और पुनर्पाठ के दृश्य बेहतरीन हैं। मांडवा को उड़ाने का दृश्य हो या गणपति के विसर्जन या फिर हांडी फोड़ने का । रंगों को लेकर निर्देशक का फन नजर आता है। गाना ही इसकी कमज़ोरी है। किसको था खबर किसको था पता वी आर मेड फार इच अदर। दोस्त होते नहीं सब हाथ मिलाने वाले। चिकनी चमेली दारू के ठेके पर आबाद तो हो जाएगी मगर अग्निपथ की आत्मा नहीं कहलाएगी। फिल्म की समीक्षा नहीं की है मैंने। मुझे यह फिल्म शानदार लगी। एक ऐसे वक्त में जब सिनेमा हाल खाली हों और बोरियत भरी सर्दी अपना रजाई समेट रही हो, यह फिल्म कमा ले जाएगी। बस एक कमी को पूरी कर देती तो कमाल हो जाता। जज़्बातों को झकझोरने वाले संवादों और दृश्यों की कमी रह गई। भावुकता से भरपूर सिनेमा न भी हो तो चलेगा मगर भावुकता ही न हो यह नहीं हो सकता। हम हिन्दी सिनेमा देख रहे हैं। कुरासोवा की फिल्म नहीं,जिनकी एक भी फिल्म मैंने नहीं देखी है। प्रियंका चोपड़ा ने काफी अच्छा अभिनय किया है मगर उसकी कोई कहानी नहीं है। कंबल फेंक कर गोली मारने के दृश्य में मारी जाती है। ऐसे दृश्य कई फिल्मों में आ चुके हैं। आप देखियेगा कि कैसे यह फिल्म अपनी ही पुरानी कथा का शानदार पुनर्पाठ करती है। बहुत चीज़ें बदल देती हैं। बहुत चीज़ें जोड़ देती है और एक अवसर बना जाती है कि एक तीसरी अग्निपथ ज़रूर बनेगी। उम्मीद है मेरे बिना नहीं बनेगी। अग्निपथ... अग्निपथ...अग्निपथ।
(कृपया रिव्यू पढ़ने के बाद फिल्म देखने न जाएं, रिव्यू एक व्यक्ति का नज़रिया है)
चलिये, देख कर आ जाते हैं।
ReplyDeleteआपके इस उत्कृष्ठ लेखन के लिए आभार ।
ReplyDeleteLove it....dear :-) would love to watch any movie along with u :-) Remember ..I am not journo and u r not my ideal / idol....Would like to watch it like...Loyala se faraar...aur Patliputra se farar ....ha ha ha .....
ReplyDeletepta nahin ye film bhi dekh paate hain ya nahin...
ReplyDeletejindagi bhi to
AGNI PATH - AGNI PATH - AGNI PATH
ऐसा लगता है आपने जहाँ फिल्म देखी वहाँ एक ही गाना दिखाया गया. हाँ आपकी ये बात्साही है कि फिल्म शानदार है.ये फिल्म पूरी रीमेक नहीं है और ये अच्छी बात है. अगर पूरी कहानी वैसी कि वैसी ही उतार दी जाती तो हम अमिताभ,डैनी,टीनू आनंद को ही ढूंढते रह जाते और हर दृश्य से पहले ये समझ जाते कि अब तो ऐसा होगा.ऋषि कपूर ने दिल लूट लिया है साहब. जब तक फिल्म में रहे छाये रहे.अगर हम कहानी को अभी से दस साल पहले कि मान लें तो लाइव टीवी भी हो सकता है और कौएन बॉक्स भी.
ReplyDelete(कृपया रिव्यू पढ़ने के बाद फिल्म देखने न जाएं, रिव्यू एक व्यक्ति का नज़रिया है)
ReplyDeleteBAHUT ACHHA .......
bahut achha likha hai aapne
ReplyDeleteरवीश जी ,.सादर अभिवादन ,.सर नहीं कहूँगा और ना ही पत्रकार हूँ ,..आपकी एंकरिंग के साथ लेखन का भी फैन हो गया हूँ
ReplyDeleteइस वीकेंड का प्लान है इस मूवी को देखने का , देख के आते हैं :)
ReplyDeleteआप बस टीवी पर ही नहीं झेले जाते हमसे, यह लेखन अच्छा लगा !!
ReplyDeleteफिल्म के साथ ही आपका लेखन भी सराहनीय है| धन्यवाद|
ReplyDeletemona cinema ka ek gatekeeper hame ticket deta tha black me , aram se dekhte se cinema 20 rs me wo bhi black!!
ReplyDeleteek bakwas film hai ye ,
ReplyDeleteRavishji aap kamal ka review dete hai.. me sirf isi film ki nhi us review ki baat kr rha hun jo apk blog me dete ho bhaiy.... Dil ko chhu jata hai...aur aapka ankaring ka wo start up back kr krke dekhna.......
ReplyDeleteप्लान तो हमने भी बनाया था पर टिकट बुक नही करा पाए, अब तो एक हफ़्ते बाद ही शायद देख पाएं, फिर कुछ कहेंगे
ReplyDelete''भावुकता से भरपूर सिनेमा न भी हो तो चलेगा मगर भावुकता ही न हो यह नहीं हो सकता। हम हिन्दी सिनेमा देख रहे हैं। कुरासोवा की फिल्म नहीं,जिनकी एक भी फिल्म मैंने नहीं देखी है। ''
ReplyDelete''हिन्दी सिनेमा को सिनेमा की तरह नहीं देखना चाहते तो दुनिया में बहुत अच्छे विश्वविद्यालय हैं जहां आप जाकर गंभीर पढ़ाई कर सकते हैं।''
आप जो कहें, सब सही...
यार रवीश जी, आपकी घणी पहचान है सिनेमा में, एक बजे के टिकट का दो बजे मजा लिया। रिजेक्ट पर सिलेक्ट हो गए और बासी टिकट भुना लिया। उस पर तुर्रा ये कि उस सिनेमा में जहां लिखा हो कि च्यूएबल आर नॉट एलाउड आप पान नोश फ़रमा रहे थे और हरामख़ोर मैनेजर आपकी अगवानी करता ऑडिटोरियम तक गया। भई वाह। आपसे जलन हो रही है। वैसे आपने किवाम की तीखी पीक कहां डिपोजिट की थी ये भी बता देते तो बेहतर रहता।
ReplyDeleteपहली बार ब्लॉग पर आन हुआ आपके
ReplyDeleteआपका लेखन भी सराहनीय है सर
madhukar
ReplyDeleteye tameez hai mujhame. peek gatak jata hun...baahar kaise thook sakta. isliye befirkra rahe. ha ha..na aisa karta hun aur na karunga. khud khaya aur khud nigla aur khud pachaya.
madhukar
ReplyDeleteye tameez hai mujhame. peek gatak jata hun...baahar kaise thook sakta. isliye befirkra rahe. ha ha..na aisa karta hun aur na karunga. khud khaya aur khud nigla aur khud pachaya.
अग्निपथ के बहाने आपके उत्कृष्ट लेखन में समा जाने का एक और अवसर प्राप्त हुआ!
ReplyDeletebeautiful narration through blog .i like it. thanks .
ReplyDeletebeautiful narration through blog .i like it. thanks .
ReplyDeleteफिल्म अची लगी लेकिन, लिकिन आ गया |
ReplyDeleteSIR AGAR ENG MAI TRANSLATE KIYA TO GANDHI MAIDAN KI AR CHAL PADA KO KUCH U TRANSLATE KIYA "GANDHI WENT TO THE GROUND"
ReplyDeleteक्या याद दिलाया ...... जूता पहने हुए मैं भी उसी कतार मैं था और मैंने भी अपना पैर अंगद की तरह जमा दिया था पर लाइन मैं मौज़ूद रावनों ने मेरे कदम उसी जूता समेत उखाड़ दिया जिसके समेत मारा वजन चालीस किलोग्राम रहा होगा, लाइन से निकाले जाने के बाद महसूस हुआ के अग्निपथ देखने के लिय मुझे और संघर्ष कर के आजाद होने की ज़रुरत है, लिहाजा अपमान और हार का बोध लिए मोना से मुह मोड़ कर रीजेन्ट का रुख किया जिसमे " मैं आजाद हूँ " लगी थी , देख कर नयी उर्जा का संचार हुआ तो दुसरे शो में मोना भी फतह हो गयी, वह अग्निपथ अमिताभ की प्रयोगिक आवाज़ वाली थी , आज जब लैपटॉप पर १९७२ में फोर्ड कोप्पल द्वारा बने मारिओ पोज्जो की उपन्यास पर आधारित मर्लिन ब्रांडो की गोडफादर देखता हूँ तो उसी आवाज़ के अमिताभ याद आ जातें हैं .क्या प्रयोग और क्या आवाज़...... आज फिर अग्निपथ दखने जा रहा हूँ......इस बार घर पर कुरता पायजामा पहने हुए इन्टरनेट से टिकेट ले लिय तो है पर कमर कस कर टिकट नहीं लिए जाने की कसक रह गयी... अब न वो मौसम न वो तबिएत न वो ज़माना.......
ReplyDeleteबस अमिताभ का आवरण लोगों को सिनेमा हॉल तक खींच के ले गया. दिक्कत ये है की डायरेक्टर प्रोडूसर बच्चन की लार्जर देन लाइफ इमेज को कैसे पार करें. बच्चन जैसा टैलेंट किसी में है नहीं. चाहे निर्देशक हो या स्क्रिप्ट लेखक, किसी में दम नहीं दिखा. वो जानते थे, फिल्म बिना अमिताभ की आभा के नहीं चल पायेगी. निश्चित तौर पे बच्चन ये फिल्म देखकर बहुत खुश हुए होंगे. पूरी फिल्म पर ९० का अमिताभ भरी पडा है. यही बच्चन की खासियत है पहले डान २ में शाहरुख़ फेल हुए अब अग्निपथ में हृतिक. अब अगला कौन... क्यों रवीश भाई.
ReplyDeleteपहली बार आपके ब्लॉग पर आया. हिंदी से बहुत प्यार है लेकिन टाइप करना नहीं आता. किसी तरह गूगल से जुगाड़ बनाया . रविश की रिपोर्ट का फैन हु / था .
ReplyDeleteनिश्चित ही अग्निपथ एक पैसा बसूल पिक्चर थी . इस शानदार अवलोकन / संस्मरानिय टिप्पड़ी के लिए बधाइयाँ......
देख आया .......ऐसा लगा मानो आजतक कोई अच्छी " काफी " का स्वाद जुबान पे था और अचानक किसी ने स्टेशन वाली चाय पिला दिया हो.
ReplyDeleteदेख आया .......ऐसा लगा मानो आजतक कोई अच्छी " काफी " का स्वाद जुबान पे था और अचानक किसी ने स्टेशन वाली चाय पिला दिया हो.
ReplyDeleteकुरासोवा की फिल्म नहीं,जिनकी एक भी फिल्म मैंने नहीं देखी है।
ReplyDeleteSuperb!
कुरासोवा की फिल्म नहीं,जिनकी एक भी फिल्म मैंने नहीं देखी है।
ReplyDeleteSupeb!
sir jee....11up abhi bhi chalti hai...lalquila exp k naam se.
ReplyDeletewaise, jisne Mona ya Regent me laathi khakar film naa dekhi ho uska pataniyaa hone par shaq hota hai..;)