पुराने बरगद से दरकते मुस्लिम नेता

क्या उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति मुस्लिम मतदाता के प्रति अब तक के बने बनाए सभी नज़रिये को बदलने जा रही है? क्या यह पहला चुनाव होगा जो बाबरी ध्वंस,गुजरात दंगे के साये से निकलकर मुसलमान नए सिरे से मतदान करेगा? क्या सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्रा की रिपोर्ट मुस्लिम राजनीति के मैदान में नई प्रस्थान बिंदु के रूप में स्थापित हो चुकी है? क्या यह पहला चुनाव होगा जब मुसलमान बीएसपी की सरकार की इस दावेदारी को कम प्राथमिकता देगा कि पांच साल में दंगे नहीं हुए और अयोध्या विवाद के वक्त राज्य में शांति बनी रही? क्या मुस्लिम मतदाना इस चुनाव को अपनी नई आकांक्षाओं को ज़ाहिर करने के मौके के रूप में देख रहा है? क्या मुसलमान अब आरक्षण और हक के सवाल को ज़्यादा प्राथमिकता देने जा रहा है या भाजपा के ख़िलाफ किसी भी पार्टी के मज़बूत उम्मीदवार को वोट देने की रणनीतिक समझदारी को छोड़ किसी एक राष्ट्रीय पार्टी के पाले में जाकर अपनी भूमिका बदलना चाह रहा है? ऐसे बहुत से सवाल हैं जो इस बार उत्तर प्रदेश के चुनावों के संदर्भ में उठ रहे हैं।


ज़ाहिर है इन सब सवालों के जवाब के संदर्भ में मुस्लिम नेतृत्व को भी इस बहस के दायरे में लाना होगा। नब्बे के दशक से उत्तर प्रदेश और पूरे देश में मुस्लिम समाज की राजनीतिक आकांक्षाएं बदलने लगी हैं। लेकिन यह बदलाव काफी धीमा रहा है। इससे पहले सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आए बदलाव ने नई ज़मीन तैयार की है। इसी ज़मीन पर पहली बार आम मुसलमान ने सच्चर की रिपोर्ट से हां में हां मिलाते हुए माना कि सचमुच मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर है। सच्चर की रिपोर्ट ने मुस्लिम मध्यमवर्ग को अपनी बादशाही अतीत को झटक कर मौजूदा हकीकत के आंगन में आकर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। वो राजनीतिक असुरक्षा के साये से निकलकर अपने हकों और परवरिश में बदलाव का रास्ता खोजने लगा है। ये और बात है कि इस ज़मीन पर मुस्लिम नेतृत्व के पुराने बरगद ही लहलहाते नज़र आ रहे हैं। कोई नया नेता नज़र नहीं आ रहा है जो मुसलमानों की नई आकांक्षा कों राजनैतिक नेतृत्व दे सके।

इसका सबसे बड़ा कारण है कि पार्टियों ने अपने भीतर किसी भी मुस्लिम नेता को स्थायी रूप से पनपने नहीं दिया है। उत्तर प्रदेश के मैदान में उतारे गए और बुलाकर लाए गए जितने भी प्रमुख मुस्लिम नेता हैं उन सबका राजनीतिक बायोडेटा इस बात की तस्दीक करता है। जब यह सवाल समाजवादी पार्टी छोड़ कर सीधे कांग्रेस कार्यसमिति में बिठाये गए रशीद मसूद से पूछ रहा था तो उन्होंने सख्त एतराज़ किया। कहने लगे कि उन्होंने कोई पार्टी नहीं बदली। पार्टियां बदल गई इसलिए उन्होंने नया ठिकाना ढूंढ लिया। रशीद मसूद कई दलों में रह चुके हैं। अब वो कह रहे हैं कि कांग्रेस में आने के बाद वो मुस्लिम दलितों को आरक्षण दिलायेंगे और केंद्रीय नौकरियों में अल्पसंख्यकों के लिए साढ़े चार प्रतिशत के कोटे को भी बढ़ायेंगे। वो यह अच्छी तरह जानते हैं कि दलित मुस्लिमों के आरक्षण के सवाल पर कांग्रेस ने ऐसा कुछ भी खुलकर नहीं कहा है। शायद वो अपने ठिकाने को उचित ठहराने के क्रम में दलील दे रहे थे। तब ऐसा लग रहा था कि आज भी मुस्लिम नेतृत्व उसी पुराने खांचे में फंसा हुआ है। वो पहले खुद की सोचता है बाद में कौम की। ये और बात है कि रशीद मसूद बार बार कहना चाहते हैं कि उन्होंने कभी मुस्लिम राजनीति नहीं की। वो हमेशा से सेकुलर राजनीति करते रहे हैं। मगर हम सब जानते हैं कि कांग्रेस में उनका आदर सत्कार किस वजह से हुआ और चुनाव के वक्त ही क्यों हुआ? रशीद मसूद को अगर खुद को मुसलमान नेता बनाए जाने से इतनी आपत्ति ही थी कि उन्होंने खुद के इस रूप में देखे जाने और बुलाये जाने पर मना कर देना चाहिए था। वो चुनाव के बाद भी कांग्रेस में जा सकते थे।


यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि ताकि मुस्लिम नेतृत्व में आ रहे तथाकथित बदलाव को आप समझ सकें। बाबरी ध्वंस के समय तक मुस्लिम रहनुमाई या वोटों की तथाकथित ठेकेदारी उन धार्मिक प्रमुखों के हाथ में रही जो तमाम दलों से अपने संबंधों या हैसियत हासिल करने के बदले हुंकार भरते थे कि किसे वोट देना है या नहीं देना। मगर मुस्लिम मतदाताओं ने चुपके से इन धार्मिक नेताओं को कहां गर्त में पहुंचा दिया आज पता ही नहीं चलता। मुस्लिम मतदाताओं ने सबसे पहले अपने मज़हबी नेताओं को सियासत के दायरे से निकालकर मज़हब के दायरे में समेट दिया। लेकिन इसके बाद भी कांग्रेस समाजवादी पार्टी और बसपा ने नया मुस्लिम नेतृत्व खड़ा करने की कोशिश नहीं की। शायद यही वजह है कि चुनाव आते ही कई दलों के मुस्लिम नेताओं को बुलाया जाने लगा।

बीएसपी से राष्ट्रीय लोकदल में गए शाहीद सिद्दीकी समाजवादी पार्टी में आ गए हैं। शाहीद सिद्दीकी कांग्रेस सहित चार दलों में रह चुके हैं। समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य आज़म ख़ा सपा में कल्याण सिंह के आने पर चले गए थे अब वे फिर से आ गए हैं। आज़म ख़ां ने उत्तर प्रदेश में सक्रिय मुस्लिम पार्टियों में अपना वजूद नहीं खोजा। वो जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में चार राजनीतिक दल एक सिस्टम के रूप में स्थापित हो चुके हैं। इसलिए कल्याण सिंह के बाहर जाने पर वो सपा में आ गए। लेकिन नेताओं की इतनी कमी है कि जिस हाजी याकूब खां को मायावती ने निकाल दिया उसे राष्ट्रीय लोकदल ने शामिल कर लिया क्योंकि शाहिद सिद्दीकी के जाने के बाद अजीत सिंह को कोई मुस्लिम नेता चाहिए था। इसी कमी को पूरी करने के लिए उन्होंने बीएसपी से निकाले गए एक और विधायक शाहनवाज़ राणा को अपनी पार्टी में ले लिया। रामपुर के नवाब काज़िम अली मुस्लिम हितों के लिए लड़ते लड़ते कांग्रेस से सपा और वहां से बीएसपी और फिर कांग्रेस में आ चुके हैं। गौर से देखें तो ये चंद नेता मुस्लिम राजनीति के प्रतीक कम पेशेवर ज़्यादा लगने लगे हैं। जो वक्त और पद के हिसाब से पार्टियों को बदलते हुए मुस्लिम नेता बने रहते हैं। यह भी समझिए कि पार्टियों को भी ऐसे ही पेशेवर मुस्लिम नेतृत्व की ज़रूरत है ताकि इनके चले जाने पर इतना ही समझा जाए कि एक व्यक्ति गया मगर मुस्लिम मतदाताओं का विश्वास पार्टी के प्रति बना हुआ है। यह बात तब समझ में आई जब यही सवाल राष्ट्रीय लोकदल के राज्य सभा सांसद मौलाना मसूद मदनी से कर दिया। उनका सख्त जवाब था कि आप मुस्लिम नेतृत्व की साख ख़राब कर रहे हैं। ज़ाहिर है कि वो मुस्लिम नेतृत्व को एक ऐसे क्लास या वर्ग के रूप में प्रतिस्थापित कर रहे थे जो पार्टियों से अलग है और पेशेवर है।

इन पुराने बरगदों के साये में मुस्लिम राजनीति की नई कोंपले पनप रही हैं। ये वो हैं जो जो बिना कोई बड़ा नाम बने हुए तमाम दलों के टिकट से जीत रहे हैं। तभी पिछली विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या 56 हो गई थी जो 1991 में 17 थी। चूंकि पार्टियों की पुरानी आदत जाती नहीं इसलिए वो अभी इन नेताओं को फेस वैल्यू के तौर पर खिदमत कर रहे हैं लेकिन जरा सा पर्दा हटा कर देखिये तो नज़र आएगा कि मुस्लिम मतदाता का मानस कैसे बदल रहा है। कैसे उसके बीच नए और पुराने मतदाता के हिसाब से विभाजन हो रहा है। कैसे उसके बीच मांग उठ रही है कि सच्चर की रिपोर्ट के बाद की योजनाओं से कब लाभ मिलेगा। वो यह हिसाब करने लगा है और वो यह काम मुस्लिम नेतृत्व के दायरे से अलग जाकर भी कर रहा है। बैकवर्ड कोटे में साढ़े चार फीसदी कोटे की राजनीति उसी आकांक्षा का प्रतीक है न कि किसी मुस्लिम नेतृत्व का जो हर चुनाव में पार्टी बदल लेते हैं।
(published in dainik bhaskar)

13 comments:

  1. Ravis Sir,

    There is lot going on debate over TV, but do you know that in UP there is no Drug Analyser appointed in the last 4 yaers, ayurvedic drug manufacturer are making ayurvedic medicine but they are not checking the final composition of their product, and they contain Heavy metal Like Mercury, if the reaction of mercury is not completed than it is poisonous and companies are not doing any analysis of final product, they are using contract worker for production, they are not monitoring the temperature also,if temp is not maintained reaction will not be complete and all the govt employees knows this thing, I raised an RTI but though they told me that they don't have drug analyser they didn't gave the same in writing, drug analyser is very important, as per law drug inspector shoul atleast do two inspection of a plant in a years, I hope you raise these issuses also compellin the parties to makee these things election debate and not just cast medicine is for everyone not a single cast.

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  2. ravish ji, mughe jyada jankari to nahi par kya muslim community ko ab in so called "muslim neta" se aage nahi sochna chahiye jo apne fayde(position) ke liye har roz dal badal lete h.
    dusri baat agar muslim votes wakai kisi bhi party ke liye itne important hai(kyonki kaha jata h ki wo ek hi taraf bulk voting karte h) to muslim voters ko iska fayda uthana chahiye.

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  3. These topics are not covered in media, media is looking for easy news just doing the quote unquote, sometime we feel shame the way anna case was handle though initially supported the movement but later all media except for IBN 7 we can easy feeel that news channel become spokeperson for Congress.

    We all have to pay for these, we all have to take drugs, we all have to trave on roads, we all have to pay crores for 2 BHK in small place in Delhi, plz wake up media play your role.

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  4. These topics are not covered in media, media is looking for easy news just doing the quote unquote, sometime we feel shame the way anna case was handle though initially supported the movement but later all media except for IBN 7 we can easy feeel that news channel become spokeperson for Congress.

    We all have to pay for these, we all have to take drugs, we all have to trave on roads, we all have to pay crores for 2 BHK in small place in Delhi, plz wake up media play your role.

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  5. YE BADE AFSOS KI BAAT HAI KI DESH KI ITANE BADE POPULATION KA KOI MASS LEADER NAHI HAI...JO MUSLIM NETA HAME DIKHATE HAI..WO NETA NAHI MUSLIM CHEHRA HAI ...EK BHI MUSALMAN KA NETA NAHI JISKA PRABHAV AKHIL BHARATIYA HO..
    KUCH HINDU FAIZ TOPI PAHANKAR AUR IFTAR PARTY DEKAR APANE KO UNKA RAHNUMA DIKHANE KA DHONG TO KARTE HAI....LEKIN UNME MODERN DEVELOPMENT KI BAAT KOI NAHI KARTA..

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  6. ......EK SABSE KHOOBSURAT BAAT GAUR KARNE LAYAK HAI KI BHRASHTACHAR KE IS MAHAUL ME SHAYD EK BHI COMMUNIST NETAO KI TARAH MUSLIM NETA/CHEHRA CORRUPTION KE KISI BADE AAROP SE GHIRE NAHI HAI...

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  7. एक से बढकर एक रचनओं के लिए साधुवाद !

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  8. अक्तूबर २००७ में कादम्बिनी में आपके ब्लॉग से अवगत हुआ ,तब से बस चिपका हुआ हूँ .............!

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  9. एक बात जानना चाहता हूँ मुस्लिम अपने बच्चो को मदरसे में ही क्यों भेजना चाहते है सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं ? मुस्लिम नेताओं ओर बुद्धिजीवियों की चिंतायो में शिक्षा क्यों नहीं है ....इस देश को मस्जिदों की नहीं स्कूलों में ज्यादा मुस्लिम बच्चो की जरुरत है .दूसरी सबसे जरूरी बात किसी भी धर्म के व्यक्ति की अगर एक निश्चित आय से कम आय है तो उसे दो बच्चो से ज्यादा बच्चे पैदा करने का अधिकार नहीं होना चाहिए

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  10. वाह सर अगर हमारा ये क़स्बा ना होता तो शायद यह मेहत्पूर्ण जानकारी हासिल करना मुस्किल था !
    अपने बाबरी विद्वणस से लेके अभी के विधान सभा चुनाव को पर्दे के आगे और पीछे दोनो तरफ से दिखा दिया ..

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  11. वाह सर अगर हमारा ये क़स्बा ना होता तो शायद यह मेहत्पूर्ण जानकारी हासिल करना मुस्किल था !
    अपने बाबरी विद्वणस से लेके अभी के विधान सभा चुनाव को पर्दे के आगे और पीछे दोनो तरफ से दिखा दिया ..

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  12. Har parti ko aisa ek neta chahiye. Congress main pahle Mohsina Kidwai hoti thi. Salman kurshid main woh baat nahi hai. Woh ek business man advocate hai. Vote jyada hain chehre kam. Kahi na kahi se intizam to karna padega. Aap TV walon kon bhi to Prime Time main bahas ke liye muslim intelectual chahiye.Demand supply ka santulan bigad jayega.Itihaas bhi gawah raha hai ke muslim samaj ne aur hamne Maulana Azad ke bajai Jinnah ko tarjeeh de jo sharab peete the aur shayad hee kabhi Namaz padhne jato hon.

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  13. sounds different.......

    rosesandgifts.com

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