पीपली लाइव के आखिर के उस शाट्स पर आंखें जम गई...जब कैमरे ने कलाई में बंधे ब्रैसलेट को देखा था। जला हुआ। यहां भी मीडिया ग़लत ख़बर दे गया। नत्था तो नहीं मरा लेकिन एक संवेदनशील और मासूम पत्रकार मारा गया। फिल्म की कहानी आखिर के इसी शॉट के लिए बचा कर रखी गई थी। किसी ने राकेश को ठीक से नहीं ढूंढा, सब नत्था के मारे जाने की कहानी को खत्म समझ कर लौट गए। ओबी वैन और मंच के उजड़ने के साथ जब कॉफी के स्टॉल उखाड़ कर जा रहे थे तो लगा कि कैसे बाज़ार राकेश को मार कर चुपचाप और खुलेआम अपना ठिकाना बदल रहा है। नत्था तो अपनी किस्मत के साथ कलमाडी के सपनों के नीचे इमारती मज़दूर बनकर दबा मिल जाता है लेकिन राकेश की ख़बर किसी को नहीं मिलती। हम इस आपाधापी में अपना ही क़त्ल कर रहे हैं। इसीलिए मरेगा राकेश ही। जो सवाल करेगा वही मारा जाएगा।
इस फिल्म को सबने हिस्सों में देखा है। किसी को मल का विश्लेषण करता हुआ पत्रकार नज़र आता है तो किसी समझ नहीं आता कि सास पुतोहू के बीच की कहानी व्यापक वृतांत का हिस्सा कैसे बनती है। धनिया और उसकी सास अपने प्रसंगों में ही फंसे रहते हैं। उन पर मीडिया न मंत्री का असर पड़ता है। दो औरतों के बीच की वो दुनिया जो रोज़ की किचकिच से शुरू होती है और उसी पर ख़त्म हो जाती है। यही मज़ा है पीपली लाइव का। कई कहानियों की एक कहानी। मोटा भसका हुआ बीडीओ और उसका गंदा सा स्वेटर। जीप की खड़खड़ आवाज़। कृषि सचिव सेनगुप्ता की दार्जिलिंग टी और सलीम किदवई का जैकेट और पतलून में इंग्लिश स्टुडियो जाना और हिन्दी स्टुडियो में जाते वक्त कुर्ता पायजामा और अचकन पहनना। नत्था का अपने बड़े भाई के सामने बेबस हो जाना। उसकी मां का बेटे के लिए दहाड़ मार कर नहीं रोना। पत्नी धनिया किसी साइलेंट मूवी की हिरोईन की तरह चुप रहती है और जब फटती है तो लाउडस्पीकर चरचरा जाता है। मीडिया के अपने द्वंद से गुज़रती हुई इसकी कहानी एक परिवार,एक गांव,एक ज़िला,एक राज्य,एक देश और एक विश्व की तमाम विसंगतियों के बीच बिना किसी भावनात्मक लगाव के गुज़रती चलती है। राकेश की तुकबंदी में इराक भी है और किसानों की बातचीत में अमरीकी बीज कंपनी भी।
फोकस में ज़रूर मीडिया है लेकिन जब कैमरा शिफ्ट फोकस करता है तो लेंस की हद में कई चीज़े आ जाती हैं।सियासत की नंगई भी खुल जाती है। दिल्ली में बैठा इंग्लिश बोलने वाला सलीम किदवई भी चालबाज़ियां करता हुआ एक्सपोज़ हो जाता है। राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना का नया प्रतीक लाल बहादुर। गांव गांव में नलकूप योजनाओं का यही गत है मेरे भाई। मुखिया से लेकर मुख्यमंत्री तक सब एक ही कतार में। पीपली लाइव नाम बहुत सही रखा है। सब कुछ लाइव ही था। इंग्लिश की पत्रकार हिन्दी के पत्रकार को छू देती है। वो सारी प्रतिस्पर्धा भूल जाता है। हिन्दी और इंग्लिश के पत्रकार के लाइव चैट में भी अंतर है। हिन्दी की लड़की अपने लाइव भाषण में देश,समाज और राजनीति का ज़िक्र करती है। इंग्लिश की पत्रकार एक व्यक्ति की कहानी से आगे नहीं बढ़ती। इंग्लिश की पत्रकार के लिए नत्था एक इंडिविजुअल स्टोरी है और हिन्दी के पत्रकारों के लिए नौटंकी के साथ-साथ एक सिस्टम की स्टोरी। हिन्दी और इंग्लिश मीडिया के पत्रकारों के रिश्तों में झांकती इस फिल्म पर अलग से लिखा जा सकता है।
फिल्म के फ्रेम बहुत तेज़ी से बदलते हैं। कहानी किसी घटना का इंतज़ार नहीं करती। बस आगे बढ़ जाती है। पूरी फिल्म में प्रधानमंत्री का कोई किरदार नहीं है। मनमोहन सिंह ने इस पद को वाकई अपनी चुप्पी से मिट्टी में मिला दिया है। एक फ्रेम में धनिया और सास की लड़ाई है तो अगले फ्रेम में मुख्यमंत्री की सेटिंग। वैसे में राकेश का यह सवाल कि मर तो होरी महतो भी गया है। होरी महतो का बीच फ्रेम में आकर गड्ढा खोदते रहना। राकेश का बगल से गुज़रना। एक दिन उसकी मौत। स्टोरी और हकीकत के बीच मामूली सा द्वंद। स्ट्रींगर राकेश का सपना। नेशनल चैनल में नौकरी का। उसकी स्टोरी पर बड़े पत्रकारों का बड़ा दांव। संपादक की लंपटई। कैमरा बड़ा ही बेरुख़ेपन से सबको खींचता चलता है। अनुषा के निर्देशन की यही खूबी है।
पत्रकारिता के फटीचर काल का सही चित्रण है पीपली लाइव। गोबर हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया है। अनुषा और महमूद के कैमरे ने तो गोबर से गू तक के सफर को बखूबी दिखाया है। इंग्लिश और हिन्दी दोनों ही माध्यमों में काम करने वाला पत्रकार एक-एक फ्रेम को देखकर कह सकता है सही है। इसका मतलब यह नहीं कि टीवी के पत्रकारों ने कभी अच्छा काम नहीं किया है। वही तो याद दिलाने के लिए यह फिल्म बनी है। हम क्या से क्या हो गए हैं। किरदारों के किसी असली नाम से मिलाने का कोई मतलब नहीं है। हर किरदार में हर पत्रकार शामिल है। मीडिया मंडी में बिक गया तो पगड़ी तो उछलेगी ही। कई फिल्मों और लेखों में मीडिया के इस फटीचर काल की आलोचना होती रही है। लेकिन पीपली लाइव ने आलोचना नहीं की है। सरेस काग़ज़ लेकर आलोचना से खुरदरी हुई परतों को और उधेड़ दिया है। टीवी और टीआरपी की लड़ाई को मल्टीप्लेक्स से लेकर सिंगल स्क्रिन के दर्शकों के बीच लाकर पटक दिया है जिनके नाम पर करीना के कमर की मोटाई न्यूज़ चैनलों में नापी जा रही है। यह फिल्म मीडिया से नहीं दर्शकों से टकराती है।
आप इस फिल्म को कई बार देख सकते हैं। अनुषा और महमूद को बधाई लेकिन विशेष बधाई शालिनी वत्स को। धनिया बनने के लिए। कौन बनता है आज के ज़माने में पर्दे पर नत्था और धनिया और कौन बनाता है ऐसी फिल्में। उम्मीद है साउथ दिल्ली की लड़कियां अपना पेट या कैट नाम धनिया भी रखेंगी। अनुषा का रिसर्च बेज़ोड़ है। निर्देशन भी बढ़िया है। वैसे याद रहे। बदलेगा कुछ नहीं। मीडिया ने महंगाई डायन को छोड़ अब मुन्नी बदनाम हो गई का दामन थाम लिया है।
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ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा,बदलेगा कुछ भी नहीं। मीडिया मंहगाई डायन छोड़कर मुन्नी बदनाम हुई,सिनेमा हॉल हुई,अमिया से आम हुई,झंडु बाम हुई को थाम लेगा और उस थामने में अपने साथ एक बड़ा बाजार घसीट लाएगा। मोहनदास का स्ट्रिंगर दिल्ली जाकर चकाचक पत्रकार बन जाता है लेकिन पीपली का राकेश...। ये जर्नलिज्म के खत्म होने की फिल्म है,मीडिया के चंडूखाने में तब्दील होने की फिल्म हैं। कमेंट क्या पूरी पोस्ट ही लिख मारी है-http://taanabaana.blogspot.com/2010/08/blog-post_15.html
ReplyDeleteजब इंसान को थोड़ी सी सुविधाएं हासिल हो जाती हैं तो वो जाने-अनजाने आसमान में उड़ने लगता है। फिल्म पीपली लाइव जमीन से जुड़ी हुई कहानी है। समस्याओं की तरफ इशारा करती फिल्म है। फिल्म किस मैसेज के साथ शुरू होती है और किस मैसेज के साथ खत्म होती है, इस पचड़े में हम नहीं फंसना चाहते। मीडिया को लेकर फिल्म में जो फोकस किया गया है वो हर पत्रकार के लिए मायने रखना चाहिए। टीआरपी का खेल या फिल्म प्राइम टाइम की मारामारी, सवाल ये है कि इन सबके बीच में मीडिया किस ओर दौड़ रहा है। पत्रकार किस ट्रैक पर दौड़ लगा रहे हैं। खबर चाहे धनिया की हो या फिर नत्था की, किचकिच की हो या फिर प्यार-मोहब्बत की। पत्रकार तो खबर के लिए दौड़ लगाएगा ही।
ReplyDeletekash ki aisi movie banane se ya media ya kisi aur topic pe blog likhne se kuch change hota tab kitna acha hota.aisa kya ho jisse kuch change ho ravish ji ?kuch to hoga http://facebook.com/anoopdreams
ReplyDeleteनमस्कार,
ReplyDeleteहिन्दी ब्लॉगिंग के पास आज सब कुछ है, केवल एक कमी है, Erotica (काम साहित्य) का कोई ब्लॉग नहीं है, अपनी सीमित योग्यता से इस कमी को दूर करने का क्षुद्र प्रयास किया है मैंने, अपने ब्लॉग बस काम ही काम... Erotica in Hindi. के माध्यम से।
समय मिले और मूड करे तो अवश्य देखियेगा:-
टिल्लू की मम्मी
टिल्लू की मम्मी -२
समीक्षा में दम है। कैमरे बारिकियां और कैमरे के पीछे के खेल को बखूबी बताया सर आपने।
ReplyDeleteफिलम तो देखी नहीं पर जल्द ही देखी जायेगी, लेकिन आपका ये कथन बहुत पसंद आया -
ReplyDelete"मनमोहन सिंह ने इस पद को वाकई अपनी चुप्पी से मिट्टी में मिला दिया है।"
मिडिया को पता नहीं क्या हो गया ,मिडिया अब रिसर्च का विंषय हो गया है नवजवान पिढियो को मृगमरिचिका बुला रही है ,
ReplyDeleteएंकर हंट हो रहे लोग दौड़ रहे है मानो एंकर की पूरा पत्रकार है, कभी कापी एडिटर हंट, एडिटर हंट pp हंट
भी करवा लो ,
बाकी पिपली लाइव की समीक्षा के लिए धन्यवाद
वरना आजकल तो समीक्षा और आलोचना में अंतर की नहीं बचा
मिडिया को पता नहीं क्या हो गया ,मिडिया अब रिसर्च का विंषय हो गया है नवजवान पिढियो को मृगमरिचिका बुला रही है ,
ReplyDeleteएंकर हंट हो रहे लोग दौड़ रहे है मानो एंकर की पूरा पत्रकार है, कभी कापी एडिटर हंट, एडिटर हंट pp हंट
भी करवा लो ,
बाकी पिपली लाइव की समीक्षा के लिए धन्यवाद
वरना आजकल तो समीक्षा और आलोचना में अंतर की नहीं बचा
I like it
ReplyDeleteभाई फिल्म की समीक्षा पढ़ कर देखने का मन हो गया है. संगीत तो बहुत सुन चुके है - धरती से जुड़ा है - कानों को प्यारा लगता ही. पर क्या करें आजकल फिल्म देखना एक लक्सरी शौंक हो गया है. कम से कम २०० रुपे चाहिए. चलो देखते हैं. पीपली लाइव - रवीश जी ने जो सुझाया है. नातेदारियां तो निभानी पड़ेंगी.
ReplyDeletepipli live ek gauw ki kahani ya hakikat nahi hai balki poore bharat desh ki kamo bes yahi kahani hai. is film ko dekh patrakar mitra aur rajnetao donon ko sudharne ka apil kiya hai
ReplyDeletewhy to blame only media/reporters ?
ReplyDeletewhy not look ourselve as society/viewers ? media shows according to trp/public demand ! reporters have to do duties as their employer ask them to do ?
media also has good/bad faces like any other field.
in so many cases it has helped society n country !
reading review of peepli i am more eager to see this live film !
बड़ी गहराई से और बेहद सुन्दर विश्लेषण किया है आप ने रविश जी ! आप का नजरिया पढ़ कर अच्छा लगा जो दोटूक हकीकत है " मीडिया मंडी में बिक गया तो पगड़ी तो उछलेगी ही। "वैसे याद रहे। बदलेगा कुछ नहीं।
ReplyDeleteरवीश जी, लगभग एक हफ्ते बाद यह समीक्षा, थोड़ा और जल्दी की आशा थी । वैसे समीक्षा है बिल्कुल सटीक और सत्य को स्वीकारते हुए बिना किसी दिवास्वप्न वाली आशावादिता के , खास कर अन्त वाली लाइन" बदलेगा कुछ नही "।
ReplyDeletesir agar do- teen swand jinki ki jarurat nahi thi agar nahi hote to jyada acha tha..............
ReplyDeleteसोच रहा हूं, कि, आप ही क्यूं नहीं एक फिल्म बनाते । मजा आएगा न,
ReplyDeleteफिल्म देखकर निकला तो असमंजस में था। इतने द्वंद्व, इतने किरदार, सड़ा हुआ तंत्र, तमाशेबाज़ मज़मेवाले जैसा मीडिया, गरीबी के लबादे में लिपटा गांव और उस गांव के एक घर की चिक चिक। दिमाग लगातार सोच रहा था। सिनेमा से निकली बाहर जुटी भीड़ के शब्दों ने कानों में पिघलता शीशा घोल दिया। "सब पत्रकार ऐसे ही हैं बहनचोद"। बस इतना सुनने के बाद घर तक यही सोचता चला गया क्या हम वाकई ऐसे हैं? क्या हमेशा ऐसे ही चलता रहेगा। क्या इस दौर का सेचुरेशन कभी नहीं आएगा? अब सोचता हूं ना मीडिया बदलेगा ना करोड़ों सवाल और गालियां।
ReplyDeleteपीपली लाइव तो मैंने नहीं देखा है.. लेकिन समीक्षा जहां भी पढ़ने को मिला..वहां पढ़ा.. सबों में करीब-करीब एक समान ही विश्लेषण देखने को मिला... हर कोई मीडिया पर जमकर लिखा.. लेकिन आपका समापन वाकई दिल को छूने वाला है...कि मीडिया ने महंगाई डायन का साथ छोड़कर मुन्नी का हाथ थाम लिया है.. आपका ये पंच लाइन पढ़कर दिल को तस्सली हुई..
ReplyDeleteपीपली लाइव तो मैंने नहीं देखा है.. लेकिन समीक्षा जहां भी पढ़ने को मिला..वहां पढ़ा.. सबों में करीब-करीब एक समान ही विश्लेषण देखने को मिला... हर कोई मीडिया पर जमकर लिखा.. लेकिन आपका समापन वाकई दिल को छूने वाला है कि.. मीडिया ने महंगाई डायन का साथ छोड़कर मुन्नी बदनाम हुई का दामन थाम लिया है!
ReplyDeleteपीपली लाइव तो मैंने नहीं देखा है.. लेकिन समीक्षा जहां भी पढ़ने को मिला..वहां पढ़ा.. सबों में करीब-करीब एक समान ही विश्लेषण देखने को मिला... हर कोई मीडिया पर जमकर लिखा.. लेकिन आपका समापन वाकई दिल को छूने वाला है कि.. मीडिया ने महंगाई डायन का साथ छोड़कर मुन्नी बदनाम का दामन थाम लिया है !
ReplyDeleteएक अच्छी समीक्षा के लिए बधाई स्वीकारें... काश ऐसी फ़िल्में और देखने को मिलें !!
ReplyDeleteये फिल्म दिल्ली के न्यूज़ रूम में बैठी 'वातानुकूलित पत्रकरिता' के ऊपर ज़ोरदार तमाचा है, जनाब मैंने पहला दिन -पहला शो मारा था इस फिल्म का, जैसा लाज़मी था की ज्ञानबाज़ी तो होनी ही थी चौतरफा, लेकिन एक बाद बड़ी दुखद है की रविश जी को छोड़कर किसी भी बड़ी शक्सियत ने 'राकेश' नामक स्ट्रिंगर के योगदान की चर्चा नहीं की, मेरे हिसाब से इस फिल्म का असली नायक और सूत्रधार तो 'राकेश' ही था.. जो अपनी आँखों में दिल्ली जाने का सपना लिए पूरे ड्रामे में सार्थक पत्रकारिता का झंडा बुलंद किये रहता है..और अंत में उसका हश्र भी स्वाभाविक दिखाया गया.. अनुषा ने यह भी बिलकुल सटीक रूप से दिखाया कि, दिल्ली में बैठे 'पावर ब्रोकर' जोकि अपने आपको पत्रकार कहते हैं, किस तरह से अपने मतलब के लिए होनहार एवं ईमानदार 'स्ट्रिंगरों' का इस्तेमाल करके उन्हें फेंक देते हैं ..
ReplyDeleteप्रशांत जी आपकी बात से पूरी सहमति है
ReplyDeleteरविश जी आपकी फिल्म समीक्षा पढ़कर लग रहा है NDTV से दूसरा पत्रकार निर्देशक बनने वाला है, क्या ख्याल है इसबारे में जरूर लिखियेगा
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ReplyDeleteThe film is enormous. Your samiksha is superb. I dont understand the comments of vineet kumar, "media ke chandukhane mein tabdeel hone kee film hai".
ReplyDeletehttp://IndiaChatBox.blogspot.com
फिल्म के लगभग सभी महत्वपूर्ण पहलुओं को सम्यक रेखांकित किया गया है, लेकिन पात्रों के चयन और खासकर ड्यूटीफुल, निष्काम कर्मयोगी बीडीओ का फिर से उल्लेख करना चाहूंगा. फिल्म में मीडिया लाउड हो गया है या किया गया है और मूल मुद्दा पिछड़ता सा लगता है. एक अलग नजरिए से 'पीपली में छत्तीसगढ़' akaltara.blogspot.com पर है.
ReplyDeleteआज ही फिल्म देखी
ReplyDeleteबिल्कुल सही है
बस थोडा इलेक्टानिक मीडिया का टटटी विश्लेषण कुछ ज्यादा ही हो गया
अभी कोई चैनल इस हद तक नहीं गया कि उससे किसी की मनोदशा बयान की जा सके।
बाकी फिल्म अच्छी है। पीपली लाइव ने साबित कर दिया कि सब्जेक्ट कोई भी अगर मेहनत से काम किया जाए तो एक हिट और बेहतरीन फिल्म बन सकती है।
sahi hai sir chalo kisi film nai to media ka sahi roop dikhaya kahaniyan to samaj maoin kae hoti hain magar hum unhi stories ke piche bhagte hain jahan rajnetik rup sai garmi laya ja sake bahi mahto jaise kai kisan marte rahenge aur media natha ke piche bhagega,,rakesh ki reporter banne ki icha yun hin kahin kho jayegi aur delhi sai aaya patrakar uski story par waah waahi batorkar ek call lagakar delhi laut jayega,.aur usee pyar wali ek swarthi daant milegi ki story par dhyan do biodata par nahi,,natha yun hii majdur karta rahega aur netaji ka contract pass ho jayega mukhyamantri apni jugaad laga lega aur krishi mantri apni setting kar lega.......great sir
ReplyDelete'उम्मीद है साउथ दिल्ली की लड़कियां अपना पेट या कैट नाम धनिया भी रखेंगी। '
ReplyDeleteजब कुमार राकेश दिल्ली के स्टूडियो में बैठने लगता है तो ब्लॉगिंग पर इतना भर लिखकर ही संतोष करना पड़ता है....मैं भी ये फिल्म देर से देखने गया, तब तक बैठक पर दो पीपली लेख लगा चुका था..इसीलिए अब लिखने का मन नहीं है.....जो आपने लिखा है, वही सब लिखना था....
आम आदमी सरकार से डरता है, मीडिया से डरने लगा है....डर के मरने का कोई मुआवज़ा सरकार देती नहीं....
सचमुच ज़िंदगी बेलबॉटम होकर रह गई है रवीश जी...आईए सारे ब्लॉगर आत्महत्याएं कर लें...
निखिल आनंद गिरि
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ReplyDeleteरविश जी पोस्ट को पढ़ा तो आपके राजनितिक दृष्टिकोण की याद बर्बस्क आ गयी ..
ReplyDeleteसमाज, मीडिया ,राजनीती,नफ्फे -नुक्सान की मंडी की गुलाम प्रवृत्ति और उनके आचरण और अधोलोक के नामुरादों की इन सभी के साथ निर्दयी,अमानवीय, निर्भरता पर करारा कटाक्ष किया है आपने सर .. .
..फिल्म देखी तो नहीं लेकिन कटाक्ष बेहतरीन है.सत्य...उत्तम ..!
अमनदीप सिंह..
रविश जी आपने कहा तो सही कि बदलेगा कुछ नही...लेकिन हम पत्रकारों के ज़ेहन में ये सवाल तो उठता ही है..कि आखिर कब तक...कब तक हम कठपुतली बने रहेंगे...कठपुतली शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं की आप भी बखूबी जानते होंगे की पत्रकार कठपुतली ही हो गए हैं...उन पर दबाव बनाया जाता है ये सब करने को...अगर ना किया तो दूसरी नौकरी ढूंढिए...और इस फिल्ड में नौकरी कम शोषण करने वाले ज्यादा हैं....आप जैसे पत्रकार से ही मार्गदर्शन की उम्मीद है...क्योंकि आप युवा पीढ़ी के आदर्श बन चुके हैं...
ReplyDeleteरविश जी आपने कहा तो सही कि बदलेगा कुछ नही...लेकिन हम पत्रकारों के ज़ेहन में ये सवाल तो उठता ही है..कि आखिर कब तक...कब तक हम कठपुतली बने रहेंगे...कठपुतली शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रहा हूं की आप भी बखूबी जानते होंगे की पत्रकार कठपुतली ही हो गए हैं...उन पर दबाव बनाया जाता है ये सब करने को...अगर ना किया तो दूसरी नौकरी ढूंढिए...और इस फिल्ड में नौकरी कम शोषण करने वाले ज्यादा हैं....आप जैसे पत्रकार से ही मार्गदर्शन की उम्मीद है...क्योंकि आप युवा पीढ़ी के आदर्श बन चुके हैं...
ReplyDeletesir bas maza aa gaya...film dekh ke aur aapki tippadiyaan padhke
ReplyDeleteRakesh 3 maheene lapata rahe aur kisi ko pata bhi na chale.........
ReplyDeletehazam nhi hota hai.........
This would have been a much better product (film) if handled by someone like Madhur Bhandarkar. There is much lack of research. There are language lapses - like its swings from the language of Awadh, Purvanchal and Off Course Madhya Pradesh.
ReplyDeleteरवीश जी फिल्म की समीक्षा अच्छी है, लेकिन मीडिया पर आपके नजरिये से सहमत नहीं हूं। फर्क सिर्फ नजरिये का है। कुछ लोग नत्था के मल विश्लेषण को देखकर मीडिया की उतारने में लगे हुए हैं। आप वरिष्ठ पत्रकार हैं। मैं आपसे जानना चाहता हूं कि अगर कोई किसान अपनी आत्महत्या का एलान करता है और पिपली से लेकर दिल्ली तक छोटे-बड़े नेताओं की नींद हराम हो जाती है, क्या ये मीडिया की ताकत नहीं है? उस किसान को बचाने के लिए B.D.O, DM से लेकर मुख्यमंत्री तक जी जान लगा देते हैं, क्या ये मीडिया की अनुपस्थिति में संभव था? सिर्फ इस बात पर मीडिया की खिंचाई करना कि मीडिया TRP के लिए कुछ भी करने को तैयार है,सच को झुठलाना है. बाज़ारवाद के इस दौर में हम किसी संस्था से ये अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि अपने मुनाफे की परवाह किये बगैर काम करे। TRP के लिए लड़ना मीडिया की जरुरत औऱ मज़बूरी है। लेकिन हां इसी TRP की जंग में जब किसी प्रिंस को गड्ढे से सही सलामत बाहर निकाल लिया जाता है, तो उस मां-बाप से जाकर पुछिए, उन्हें मीडिया चंडूखाना नहीं, किसी मंदिर या मस्जिद से कम नहीं लगता। सवाल सिर्फ नज़िरये का है,ग्लास आधा भरा है या आधा खाली।
ReplyDeleteजो सच कहेगा... वो मरेगा....। ये वाक्य सबकुछ कहता है रवीश जी...। कोशिश ये होनी चाहिए कि हम सब मिलकर सच कहने का माद्दा रखें...। सच... वोभी कोरा सच....
ReplyDeleteजो सच कहेगा... वो मरेगा....। ये वाक्य सबकुछ कहता है रवीश जी...। कोशिश ये होनी चाहिए कि हम सब मिलकर सच कहने का माद्दा रखें...। सच... वो भी कोरा सच....
ReplyDeleteजो सच कहेगा... वो मरेगा....। ये वाक्य सबकुछ कहता है रवीश जी...। कोशिश ये होनी चाहिए कि हम सब मिलकर सच कहने का माद्दा रखें...। सच... वो भी कोरा सच....
ReplyDeleteजो सच कहेगा... वो मरेगा....। ये वाक्य सबकुछ कहता है रवीश जी...। कोशिश ये होनी चाहिए कि हम सब मिलकर सच कहने का माद्दा रखें...। सच... वो भी कोरा सच....
ReplyDeletemain kya bolu Sir, ap ne jo likha hai uski main to kya smiksha krun han such main jab bhi apki report ya ab blog padta hun to anad ke sath-sath sikhne ko bhut kuch milta h.
ReplyDeleteDear Sir main bhi ek acha PATRKAR banna chahta hun. Or ap se milna chahta hun........