करोलबाग कथाइज़ेशन- गफ़्फ़ार टू हनुमान
करोलबाग किस्सों से भरा है। कई किस्सों को जानबूझ कर छोड़ दिया। बीस मिनट की फिल्म में समाना मुश्किल था। अप्रैल १९९४ से हनुमान की यह मूर्ति बननी शुरू हुई। महंत ओम गिरी ने बताया कि नागा बाबा ने कहा कि उनके सपने में हनुमान आए थे और कह गए हैं कि मूर्ति बने। विशालकाल मूर्ति बने। धीरे-धीरे इसकी ऊंचाई बढ़ती गई। पहले इक्यावन फुट की बनी तो फिर सपना आया और इकहत्तर फुट के लिए काम होने लगा। हनुमान जी फिर आए और अब इस बार १०८ फुट की ऊंची मूर्ति के लिए काम होने लगा। १९९४ से २००७ आ गया। मूर्ति बन गई। इनके सीने में आटोमेटिक रूप से पीतल के बने राम,लक्ष्मण और सीता निकलते रहते हैं। हथेली भी मुड़ती रहती है। पंडित जी का दावा है कि हनुमान के आशीर्वाद से ही मेट्रो का आगमन हुआ है। मेट्रो के अधिकारी आशीर्वाद लेने आते थे। आज भी मेट्रो गुज़रती है तो लोग खिड़की पर आकर हनुमान को नमस्कार करते हैं। ये और बात है कि हनुमान के आशीर्वाद से मेट्रो उनकी मूर्ति के बनने के दो साल पहले आ गई।
दूसरी कहानी करोलबाग के गफ़्फ़ार मार्केट की है। १९५२ में गफ़्फ़ार मार्केट बना था। पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के लिए। तब यहां सब्ज़ियां बिका करती थीं। बाद में पटरी पर कपड़े बिकने लगे। शरणार्थी व्यापारियों ने कपड़ों की रंगाई का काम पकड़ लिया। तभी अफगानिस्तान युद्ध हुआ और बड़ी संख्या में अफगान सिख शरणार्थी यहां आ गए। इन लोगों ने गफ़्फ़ार मार्केट की दुकानदारी का तरीका बदल दिया। एक दुकान के भीतर कई अफगान सिख काउंटर लगा कर खड़े हो गए। किसी काउंटर पर घड़ी तो किसी पर चूड़ी बेचने लगे। करोलबाग के भावी चेहरा बनने लगा।
यही वो अफगान सिख थे जिन्होंने करोलबाग के व्यापारियों को एकजुटता सीखाई। बाहर जाने लगे। एक दो दिन की यात्राएं करने लगे। हांगकांग,सिंगापुर वगैरह। वहां से घड़ी और जूते लाकर ग्रे मार्केट में बेचने लगे। विदेशी चीज़ों के लिए गफ्फार मार्केट मशहूर हो गया। विदेशी यहां अपनी घड़ी और बाइनाकूलर बेचने लगे। तब तय सीमा से ज़्यादा डॉलर लेकर नहीं आ सकते थे। पैसे की कमी से बचने के लिए विदेशी सैलानी चार पांच घड़ियां पहन कर आते थे। इस तरह के कई सामान होते थे। सिगरेट,लाइटर,परफ्यूम वगैरह। गफ्फार मार्केट की दुनिया सजने लगी। गफ्फार के कारण करोलबाग मशहूर हो गया।
फिर आया उदारवाद। इम्पोर्टेड आइटम घर घर में पहुंचने लगा। अब इसकी लेन में उन जूतों के शो रूम हैं जिन्हें यहां इम्पोर्टेड आइटम के रूप में बेचा जाता था। गफ्फार अब अपनी साख बनाने में लग गया है। व्यापारी ग्राहकों को बनाए रखने के लिए सामान लौटाते हैं,गारंटी देते हैं। मोबाइल फोन के डाक्टरों के अलावा यहां इलेक्ट्रानिक्स के आज भी एक्सपर्ट हैं।
इन सबके बीच एक कहानी है गफ़्फ़ार मार्केट व्यापार मंडल की। यह एक ऐसा व्यापार मंडल है जिसके अध्यक्ष का चुनाव बैलेट पेपर से होता है। शपथ ग्रहण समारोह होता है। मंडल का अपना कोर्ट है जहां विवादों का निपटारा होता है। नतीजा गफ्फार के झगड़े अदालत तक कम पहुंचते हैं। व्यापार मंडल के अध्यक्ष रामलाल ने बताया कि गफ़्फ़ार की पहचान इतनी तगड़ी है कि आज भी कई दुकानदार अपने पते के सामने गफ़्फ़ार लिखते हैं। लेकिन अब सब बदल गया है। अज़मल ख़ां रोड ने गफ़्फ़ार को संघर्ष में डाल दिया है। करोलबाग में पांच सौ से ज़्यादा ज्युलरी की दुकानें और शो रूम खुल गए हैं। कारों के सामान से लेकर बर्तन और क्राकरी का महाबाज़ार यहीं खुलता है। दस हज़ार से भी ज़्यादा दुकानें हैं यहां। करोलबाग व्यापारिक संघ में तीस से ज़्यादा व्यापारिक संघ हैं।मेट्रो ने करोलबाग में फिर से भीड़ बढ़ा दी है। मेट्रो से सटी दुकानों की चल पड़ी है। मेट्रो ने ग्राहक तो ला कर दे दिये लेकिन पार्किंग की समस्या से निजात नहीं मिली।
लेकिन इन सबकी कीमत चुकानी पड़ी है रिहाइशी इलाके को। यहां के मोहल्ले खतम हो गए। पहले गेस्ट हाउस बने फिर होटल। पहाड़गंज के बाद सबसे अधिक होटल करोलबाग में ही है। कॉमनवेल्थ के कारण हर दूसरा मकान टूट कर होटल में बदल रहा है। पार्किंग की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। यहां के मोहल्लों में घूम कर देखिये तो पता चल जाएगा कि मेट्रो की वजह से कारों की भीड़ कम नहीं हुई है। हर समय दो चार गाड़ियां टो होती रहती हैं। झगड़े बढ़ गए हैं। कोई घर से निकलने से पहले सोचता है कि कार ले कर गया तो वापस उसी जगह पर नहीं लगा सकेंगे। हर गली में यहां पार्क न करें के दस-बीस बोर्ड लगे हैं। यहां के लोग घर में कम दुकानों में ज्यादा रहते हैं।
janab main apko thanks kahna chahunga ki aap hamare aas paas ki duniya se hi hum ko parichit kara rahe hai aur apane is aas pados ko apke zariye se janna achchha lag raha hai.
ReplyDeleteयह सब करोल बाग में मैंने बहुत ही करीब से लगभग पूरा एक साल देखा है ।
ReplyDeleteKAROL BAGH ME PARKING KI BADI SAMASYA HAI.
ReplyDeleteRAWISH JI
ReplyDeleteMAIN AAPKE WICHARON KA KAYAL HUN AUR AAPKI YAH POST BHI ACHCHHI HAI LEKIN MUJHE AAPSE BLOGRON KI IS DUNIYA MAIN DESH AUR SAMAJ KE BEHAD SULAGTE SWALON PAR GAMBHIR AUR WIWECHNATMAK POST,KAM SE KAM EK POST ROJ KI AASHA HAI.
रवीश जी,
ReplyDeleteकरोल बाग में पार्किंग की समस्या मैट्रो के आनें से ज्यादा हो गई है। करोल बाग मार्किट 3 हिस्सों में रहा था। पहला देशबंधु गुप्ता रोड़ से आर्य समाज रोड़ के बीच का बाज़ार 91-92 से पहले यहीं तक करोल बाग माना जाता था, जिसके बांई ओर की अंतिम 3 गलियां(हरध्यान सिंह रोड़ के बाद)गफ़्फा़र मार्किट कहलाई(सारा नकली सामान मिले जहां, गफ़्फ़ार मार्किट के किसी दुकानदार की बात और गधे की लात की कहावत भी मशहूर रही है। आर्य समाज रोड़ पार करनें के बाद, ज़ौहरा एम्पोरियम से पदम सिंह रोड़ तक (जहां मैक्डी है) के बीच निरुलाज् होता था और कुछ दुकानें। धीरे-धीरे छोटी-मोटी दुकानें बढ़ती चली गई और पूसा रोड़ तक पहुंच गई, 95 के बाद से विदेशी कंपनियों के शो रुम खुलनें लगे। आप देखेंगे की सारे विदेशी ब्रांड के शो रुम पदम सिंह रोड़ मैक्डी के बाद ही है, उससे पहले दिल्ली के बाशिंदों की आपनी दुकानें जो कि दिल्ली के अन्य थोक के बाज़ारों से लेकर लाकर माल बेचते थे। 95 के बाद हम लोगों में एक कहावत बन गई थी कि डी.बी.गुप्ता रोड़ से आर्य समाज रोड़ तक लखपतियों की मार्किट है और उसके बाद करोड़पति ग्राहकों की मार्किट। हनुमान मूर्ति के विकास के पीछे मंदिर के पीछे बग्गा लिंक के विकास की कहानी भी है।
behad achchi jaankari... shukriya.
ReplyDeleteआपने बहुत रोचक जानकारी दी।आभार।
ReplyDeleteWOW,
ReplyDeleteKAROLBAGH TO KAYI BAAR GAYE, PAR ITNI JAANKARI TO AAPKI REPORT SE HI MILI HAI
एक बहुत ही अच्छी रिपोर्ट .
ReplyDeletechaliye kuch gyan badha! :)
ReplyDeletekal aapke saath news pe thaa..
ReplyDeleteaabhaar
arsh
भाई रवीश जी,
ReplyDeleteअभी अभी टी वी पर आप का ज़ाकिया जाफ़री व नरेंद्र मोदी को लेकर रिपोर्ट देखी । अच्छी थी । आप को बधाई ।
एक प्रश्न - क्या ज़ाकिया ज़ाफ़री जी अब नयी ज़ाहिरा शेख होगीं । I mean an iconic witness status .
क्या यह जांच को pre-epmt करने की कोशिश नही है, मेरा मतलब है कि विक्टिम की तरफ से उसके साइड की बातें राष्ट्रीय टीवी , रिपोर्ट आने से ठीक पहले | संयोग या सोच समझ कर ( by co-incidence or by design ) ?
हनुमान की इस मूर्ति के पीछे एक "रवीन्द्र रंगशाला" हुआ करती थी, यह एक open air theatre था जिसमें शाम को केवल एक फ़िल्म शो चलता था. फ़िल्मी की टिकट कुछ पैसे की ही होती थी. फ़िल्म ख़त्म होने के बाद DTU (आज की DTC का मूल संस्करण) की कुछ बसें कई दिशाओं में विशेष रूप से चला करती थीं. आज मुझे कुछ पता नहीं कि रवीन्द्र रंगशाला की क्या दशा है.
ReplyDeleteयहां के लोग घर में कम दुकानों में ज्यादा रहते हैं...
ReplyDeleteआपकी ये रिपोर्ताज गज़ब के होते हैं...
नवीन,काजल
ReplyDeleteअरोड़ा वाली बात जानबूझ कर छोड़ दी थी। मुझे लगा जो नया है उसकी बात की जाए। पर आप सबकी बातों से लगता है कि उसकी झलक होनी चाहिए थी। आगे से ध्यान रखूंगा या फिर दोबारा बनाने का मौका मिला तो करूंगा। बग्गा लिंक के उदय की बात भी मालूम थी...लेकिन दिमाग से उतर गया। दोबारा बनाऊंगा तो इन दो व्यक्तियों के ज़रिये करोलबाग की कहानी कहूंगा।
काजल
रवींद्र रंगशाला का वाकई पता नहीं था। बल्कि जिस जगह की बात कर रहे हैं वहीं पर कार पार्क की थी।
एक समय था जब नई दिल्ली निवासी करोल बाग़ जाने में डरते थे क्यूंकि घडी आदि छिन जाने का डर रहता था (वर्तमान के भरे- पूरे हौज़ ख़ास में भी,,, और पूसा बिहार के '३४ के भूचाल के बाद भारतीय कृषि अनुसंधान इंस्टिट्यूट इस इलाके में एक कोने में बसा दिया गया था, और अब देश के विभाजन के बाद उस तरफ कई कोलोनी बस गयीं),,,
ReplyDeleteजहां अब १०८ फुटे हनुमान जी विराजमान है (यह संख्या हिन्दू मान्यता में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, उदाहरण के तौर पर 'सिद्धासन' में व्यक्ति अंगूठे (नंबर एक, १) और तर्जनी ऊँगली (नंबर आठ, ८, की द्योतक, चार ऊँगली और तीन रिक्त स्थान मिला कुल +7) को मिला शून्य बना परमात्मा को दर्शाता है),,, उसके निकट ही एक भैरों मंदिर होता था, भूतनाथ शिव का, और पहाड़ी के नीचे उनका प्रिय स्थान, एक श्मशान घाट भी (दोनों शायद अभी भी वहीं हैं)...किन्तु इतिहास गवाह है कि दिल्ली, पांडवों के' इन्द्रप्रस्थ' के समय से पता नहीं कितनी बार बसी और उजड़ी है,,,और शायद शायर ने इसी को देख कहा "इस दश्त में इक शहर था / वो क्या हुवा आवारगी?"
'हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी' की भीड़ देख दिल्ली निवासी का दिल आज बुझा बुझा सा लगता है शायद...
रोजाना करोल बाग को कभी इतनी शिद्दत से नहीं देखा...जिस तरह से आपने आपने प्रोग्राम में दिखाया। पोस्टर और दुकानों की लगे साईन बोर्ड की लत पहले से ही लगी थी। अब बस्तियों को वहां कि रवायतों को थोड़ा- थोड़ा मैं भी महसूस करने लगा हूं।।।। बस्ती बसते- बसते बसती है...और दिल्ली का लापतागंज पहाड़गंज आपके अभी तक प्रोग्रामों में मुझे सबसे बेहतरीन लगे हैं।
ReplyDeleteटीवी पर आपकी रिपोर्ट ने जिस तरह से बांध कर रखा... उसे यहां ब्लॉग पर पढ़ना भी उतना ही रोचक लगा...
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