रैगरपुरा एक दिन कोलकाता हो जाएगा-करोलबाग कथाइज़ेशन
रैगरपुरा...रैगरपुरा में रहते हैं...रैगरपुरा के बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे कोई जगह नहीं है। जैसे यहां खाली दलित समाज ही रहता है। आके तो देखो कितना विकास हुआ है। तब तो समझ में आएगा कि इहां बांगाली कैसे रहता है। चंडीचरण दास पूरी भाव भंगिमा के साथ मोहल्ले और अपनी पहचान को तान रहे थे। पंद्रह सालों में चंडीचरण दास मामूली मज़दूर से मालिक बन गया है। कई कारीगर इसके कारखाने में काम करते हैं और चंडीचरण दास ने रैगरपुरा में अपना एक मकान खरीद लिया है।
दिल्ली में दलित बस्ती के रूप में जाना जाता है रैगरपुरा। यहां की आबादी राजस्थान से रैगर समाज के लोगों से बनी थी। सौ साल पहले ल्युटियन दिल्ली को बनाने के लिए ये मज़दूर यहां बसाए गए। जिस बीडन साहब ने प्लाट दिलवाये,उनके नाम पर भी रैगरपुरा में बीडनपुरा है। करोलबाग की रिजर्व सीट के पीछे यहां की दलित आबादी की बहुलता का बड़ा हाथ रहा। लेकिन १९९० में वित्त मंत्री मधु दंडवते के एक फैसले ने रैगरपुरा की आबादी को बदल दिया। जौहरी अपने हिसाब से सोना रख सकते थे और इतनी बड़ी मात्रा में सोने को जवाहरात में बदलने के लिए कारीगरों की ज़रूरत पड़ने लगी। बस मिदनापुर और पुरुलिया से मज़दूर लाये जाने लगे। इन सभी को सोना जड़ने का काम सीखा दिया गया।
इसके दो परिणाम हुए। दिल्ली में सोने के काम में सुनारों का जातिगत वर्चस्व टूट गया। बंगाल से आए ये मज़दूर सभी जाति समुदाय के थे। इनकी भीड़ ने रैगरपुरा को बदल दिया। यह दूसरा बदलाव था। जो दलित चमड़े के काम में लगे थे वो मशीन के आने के बाद जूता बनाने के काम से बेदखल हो गए। करोलबाग के कई लोग याद करते हैं कि बीस साल पहले तक रैगरपुरा में हाथों से बने जूते पहना करते थे। अब रैगरपुरा में रिटेल की जगह होलसेल का कारोबार हो गया।
धीरे-धीरे ये बंगाली मज़दूर रैगरपुरा में प्रोपर्टी खरीदने लगे। दलितों को भी लगा कि अपना मकान बेचकर सस्ते में कहीं और खरीद लेते हैं। सरकारी नौकरियों के कारण बेहतर स्थिति में पहुंचे कुछ मध्यमवर्गीय दलितों ने रैगरपुरा इसलिए छोड़ दी क्योंकि दिल्ली में अब इस मोहल्ले की पहचान उनके लिए कलंक साबित हो रही थी। वो अपने नए बदलाव और रैगरपुरा की दलित पहचान में तालमेल नहीं बिठा पा रहे थे। याद रखना चाहिए की कांशीराम ने बीएसपी का पहला दफ्तर यहीं खोला था। दलित जाने लगे तो प्रवासी बंगाली मज़दूर बसने लगे।
आज रैगरपुरा और आस-पास के इलाके में चार लाख से अधिक बंगाली रहते हैं। ज़्यादातर निम्न मध्यमवर्गीय हैं। सिर्फ बांग्ला आती है। इसलिए आपको रैगपुरा में सैंकड़ों बांग्ला साइनबोर्ड दिखेंगे। लगेगा कि वाकई बंगाल में आ गए हैं। चित्तरंजन पार्क में बंगाली रहते हैं लेकिन बांग्ला के साइन बोर्ड इतनी मात्रा में नहीं हैं। इनके आने से इलाके की पूरी संस्कृति बदल गई है। रैगर समाज के तेज सिंह ने कहा कि यहां तो अब एक ही भाषा सुनाई देती है। लगता है कि पूरा कोलकाता चला आया है। एक बंगाली मज़दूर ने कहा कि यहां पर झाल मूरी और बंगाली खान-पान की नब्बे दुकानें हैं। तीन-तीन दुर्गा पूजा होती है। काफी संख्या में मराठी भी आ गए हैं इसलिए गणेश पूजा समिति भी बन गई है। उड़ीसा के भी कुछ लोग हैं। वर्चस्व की जगह सामंजस्य दिखा।
वैसे करोलबाग में १९४२ में ही दुर्गा पूजा समिति बन गई थी। विभाजन के बाद बांग्लादेश और कोलकाता से नौजवान दिल्ली आए तो इन्हें किराये का मकान मिलने लगा। क्योंकि पंजाबी मालिक सिर्फ मद्रासी और बंगाली को ही किराये पर देते थे। यह समझ कर कि लोकल से मकान खाली कराना मुश्किल होता है। धीरे-धीरे करोलबाग में मध्यमवर्गीय बंगाली बसने लगे। मद्रासी पहचान भी बनी रही। १९५८ में कुछ नौजवानों ने करोलबाग बंगिया संसद का गठन किया। लेकिन जब नब्बे के दशक में करोलबाग का व्यावसायीकरण शुरू हुआ तो पंजाबी मालिकों ने मकान खाली कराने शुरू कर दिये। इनसे किरायेदारों को काफी पैसे मिले,जिसे लेकर महावीर एनक्लेव,पटपड़गंज,कालकाजी,चित्तरंजन पार्क(शरणार्थियों के अलावा)जैसे कई जगहों पर बसने चले गए। अब मद्रासी भी कम हो गए।
मगर करोलबाग की याद इन्हें सताती रही। कभी कोलकाता के बालीगंज को बसाने के लिए बंगिया संसद बनाने वाले भोला बनर्जी अब दक्षिण दिल्ली के कालकाजी में रहते हैं। कहते हैं करोलबाग की बहुत याद आती है। करोलबाग बंगिया संसद का कोलकाता में एक चैप्टर है। रिवर्स माइग्रेशन तो सुना था लेकिन इस तरह का माइग्रेशन नहीं कि बंगाली कोलकाता जाकर करोलबाग की याद को बनाए रखने के लिए संगठित हों। वर्ना चित्तरंजन पार्की की नई पहचान ने बंगाली मानस से करोलबाग को गायब कर दिया होता। करोलबाग की बंगिया संसद ने एक लाइब्रेरी भी बनाई है। बांग्ला की दस हज़ार किताबें हैं। पांच सौ से ज्यादा सदस्य हैं जो इस लाइब्रेरी का इस्तमाल करते हैं।
इसी बीच मज़दूर बंगाली संपन्न होने लगे। उन्होंने उन मोहल्लों में मकान लेने शुरू कर दिये जहां बंगिया संसद से जुड़े बंगाली लोग रहते थे। तपन मुखर्जी ने बताया कि अब दोनों में तनाव कम हो गया है। वे भी हमारे जैसे हो गए। वर्ग का स्थायी चरित्र होता है सिर्फ उसके किरदार बदलते रहते हैं। क्लास में नए-नए लोग शामिल किये जाते रहे हैं। सामाजिक श्रेणियों की यही खासियत है। काफी लचीली होती हैं। करोलबाग आज फिर से चित्तरंजन पार्क से भी ज़्यादा बंगाली हो गया है।
और रैगरपुरा सोना-चांदी के काम के लिए मशहूर। ये रवीश की रिपोर्ट का सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा है। करोलबाग की ऐसी कई कहानियां मौजूद हैं। दिल्ली को फिर से समझने का वक्त है। शहरी रिश्ते बदल रहे हैं। जिन जगहों को पिछले बीस सालों से देखता आ रहा हूं,वो अब फिर से अनजाने लगने लगे हैं। देखियेगा,अपने करोलबाग को,मेरे साथ।
समय-शुक्रवार(१६अप्रैल) रात साढ़े नौ बजे,फिर शनिवार सुबह साढ़े दस बजे,रविवार शाम साढ़े पांच बजे,रविवार रात साढ़े दस बजे।
बढ़िया...खोजपूर्ण आलेख
ReplyDeleteदेखते हैं।
ReplyDeletei often think...how u searched such a differnt stories........?
ReplyDeletei often think...how u searched such a differnt stories........?
ReplyDeleteगली में घूम रहा है पत्रकार,
ReplyDeleteकल का देखना पड़ेगा अखबार,
फिर तो नेट पर ही जाना होगा,
अगर हुआ कसबे का रवीश कुमार।
बढ़िया रपट है।
ReplyDeleteवैसे हर माईग्रेटेड शख़्स जहाँ भी होता है, अपने आस पास कुछ न कुछ अपने जड़ों के लिंक ढूँढता मिल ही जाता है जैसे कि रैगरपुरा में बंगाली जन अपनी बंगालीपन को खोजता, सहेजता रह रहा है। वह बंगाली झाल मूरी नहीं भूलता।
यहाँ मुंबई में मैं भी सत्तू लेने के लिये दूर एक दुकान पर जाता हूँ। मेरे इलाके में सत्तू कहीं और नहीं मिल पाता सिवाय गुप्ता जी की दुकान के। परसों बताशे भी देखे थे उनकी दुकान पर । सो पाव किलो ले आया।
बच्चों को बताशे और सत्तू देख थोड़ी निराशा हुई कि मैं भी क्या वही गांवटी टाईप टेस्ट पसंद करता हूँ। लेकिन मुझे इन बताशों में शादी ब्याह के वक्त दी जाने वाली झाँपी की झलक दिखती है। और फिर गरमी में एक बताशा मुंह में रख पानी पी लेने से बहुत सुकून मिलता है।
बच्चे शायद इन बताशों में वह मज़ा न पायें जो मैं पाता हूँ। और यही बात आगे आने वाली और चीजों के बारे में भी होगी। धीरे धीरे शायद तब गुप्ता जी की दुकान में सत्तू और बताशे न मिलें।
बदलाव की बयार बड़ी तेज़ है, ऐसे में कहां सत्तू, कहां बताशे.... और कहां मैं....
आपकी रपटें तो रोचक होती ही है , बहूत कुछ जानने समझने का एक चटखारा भी दे जाती है।
एेसी रिपोर्ट आपके यहां ही देखने पढ़ने को मिलती है। बहुत खूब!
ReplyDeleteसतीश,
ReplyDeleteझांपी की ख़ूब याद दिला दी आपने।
पश्यन्ती
मैं स्टोरी का रिसर्च नहीं करता। जिस इलाके में जाता हूं,लगातार चलते रहता हूं। लोगों से बतियाते रहता हूं। फिर उनसे जो सुनता हूं उसी को किस्से में बदल देता हूं। वर्ना गूगल से किस्सा निकाल कर स्क्रीन पर चिपकाने से कोई फायदा नहीं।
रैगरपुरा के बारे में रोचक जानकारी... "जब एक बड़ा पेड़ टूटता है तो जमीन हिल जाती है",,, काल के साथ रैगरपुरा के इस बदलाव के पीछे शायद हाथ था पहले बंग-भंग का (जिसने ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ते से दिल्ली पहुंचादी),,, और उसके बाद 'स्वतंत्रता प्राप्ति' पर 'भारत' का विभाजन,,,जिसने हिन्दू-मुस्लिम को फिर से हिला के रख दिया - और भारतीयों का हिलना अभी भी नहीं रुका है :)
ReplyDeleteदिल्ली आते जाते पढ़ा था - २८ , रैगर पुरा, रिश्ते ही रिश्ते लिखे या मिलें . अब जाना कहाँ है रैगर पुरा .
ReplyDeleteRvishj,
ReplyDeleteReport ka Introduction achha hai. Is baar kaafi nayi cheejen Raigarpura aur Karolbagh ke bare men pata lagi.
Beshak achhi report hai. Badhayi aapko.
9.30 baje tak intjar rahega.
Nikhilesh
बहुत अच्छी जानकारी दी आपने .....समय इतनी तेज़ी से भाग रहा है की हम अपना बहुत कुछ पीछे छोड़ रहें हैं ...ऐसे मे आप के प्रयास से कुछ अपनेपन को संजोये रहने की हकीकत जब सामने आती है तो कुछ करने की ललक भी दे जाती है ....
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ReplyDeleteरवीश जी, मेरा घर करोल बाग के निकट ही है और मैं देव नगर, करोल बाग के ख़ालसा कॉलेज में ही पढ़ा। मैंनें इन गलियों में काफी समय बिताया। रैगर पुरा जो कि रैगर समाज(राजस्थान की दलित जाति) के नाम पर बसा था कभी। उसके निकट बीडन पुरा में बंगालियों की अच्छी संख्या है। बिल्कुल दक्षिणी दिल्ली के चितरंजन पार्क की भांति। यही स्थिति इंद्र पुरी जेजे कॉलोनी और श्रीनिवास पुरी में भी मिलेगी वहां पर मद्रासियों(तमिलयंस) आप एक वहां भी होकर आएं। मंदिर से लेकर दुकान होटल सभी मद्रासी मिलेगें। मदनगीर में भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। सुबह-सुबह गली में ही आपकी खाट के निकट डोसा बन रहा होगा, आप रात को तो सोते तो मदनगीर में हैं पर सुबह तमिलनाडू के किसी गांव कस्बे में होती है।
ReplyDeleteदेश की राजधानी है तो देश के हर हिस्से को यहाँ बसना चाहिए
ReplyDeleteरवीश जी,
ReplyDeleteरिपोर्ट में करोल बाग सीरियल के चंक को काफी बड़ा कर दिया गया। इससे बेहतर होता कि हम रैगर पुरा,बीडन पुरा के थोड़ा औऱ आस-पास देख लेते। बैंक स्ट्रीट औऱ जींस की बड़ी मार्किट टैंक रोड़ भी हो आते। आपसे उम्मीद थी कि आप करोल बाग मार्किट और सीरियल से, करोल बाग के घरों में जाकर वहां के बाशिंदों से रू-ब-रू होंगे। करोल बाग अपनें आप में दिल्ली है, सिनेमा घर,कॉलेज, अस्पताल, बाज़ार,खान-पान,महल-मकान,झोंपड़ी,रैगर पुरा में ज़री का काम भी दिखाते। मैं 9 बजे से दोस्तों को एसएमएस कर रहा था रिपोर्ट देखनें के लिए, फिर बत्ती चली गई, शु्क्र है सही समय पर आ गई।
ख़ैर,आप यहां तक भी आए, इसका शुक्रिया!
नवीन
ReplyDeleteआपकी बात से सहमत हूं। मुझे भी लगा कि सीरीयल वाला हिस्सा ज़्यादा हो गया। अब बहुत अफसोस हो रहा है। पोपुलर कल्चर को पकड़ने की कोशिश में गच्चा खा गए।
मुझे इस रिपोर्ट को देखकर बहुत मज़ा नहीं आया।
कल वाली स्टोरी हमें इतनी जमी नही। पर इतना गर्मी (चैनलो की) में कुछ ठड़क का अहसास तो दे ही जाती है।
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ReplyDeleteप्रिय रवीश, याद करो आज से 15-16 साल पहले जब तुम बिहार से दिल्ली के लिये चले होगे। ट्रेन के साथ-साथ जितनी दीवारें चली होंगी उनमें 90 फीसदी स्पेस पर तुमने चूने वाली सफेदी से भीमकाय शब्दों में लिखा देखा होगा, 'रिश्ते ही रिश्ते, मिले तो लें। प्रोफेसर अरोड़ा, रैगरपुरा, करोलबाग, ब्रांचेज़ इन अमेरिका एंड कनाडा।' याद आया। मेरे ख्याल से करोलबाग को ढाई-तीन पीढ़ियों ने उन इश्तिहारों की वजह से ही नहीं, तो कम से कम उनकी वजह से भी जाना। तुमने हमेशा की तरह इतना शानदार प्रोग्राम बनाया, लेकिन उस इश्तिहार को कैसे भूल गये। ज़माने के साथ तुम भी उस आदमी को भूल गये जिसने इस देश में रिश्तों को एक नया रूप दिया और कारोबारियों की बात करूं तो शादी को एक इंडस्ट्री बनाया। कारण कुछ भी रहे हों लेकिन शादी डॉट कॉम, जीवनसाथी डॉटकॉम वगैरह-वगैरह आने से बहुत पहले ही प्रोफेसर अरोड़ा का जादू खत्म हो गया था। लेकिन जब-जब करोलबाग का ज़िक्र आयेगा प्रोफेसर अरोड़ा को नहीं भुलाया जा सकता। तुमने एक अहम जानकारी को मिस कर दिया। लेकिन कोई बात नहीं आधे घंटे में क्या-क्या दिखा देते। लेकिन तुम गागर में सागर भरते रहे हो इसलिये कम से कम तुमसे मेरे जैसे दर्शक उम्मीद कर सकते हैं, संपूर्णता की। ये कोई तुम्हारी कमी नहीं या मीनमेख नहीं है,बस मेरी तरफ से उलाहना है कि आगे जब नई दिल्ली-110001, दिल्ली-6, चांदनी चौक टू बर्फ खाना, पुरानी दिल्ली वाया शहादरा, सारे दुखिया जमनापार, नवेडा-नवेडा-नवेडा, यो गाज़ियाबाद सै वगैरह बनाओ तो थोड़ा और नोस्टैलजिक हो जाना। शुभकामनायें।
ReplyDeleteAAPKI TO HAR REPORT IK NAYI JAANKAARI HOTI HAI...
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