दलितों,क्षत्रियों ने पूजा परशुराम को, लेकिन दावेदारी ब्राह्मणों की?
ब्राह्मणवाद सिर्फ ब्राह्मणों की देन नहीं है। सही है कि ब्राह्मणों ने इसे प्रचारित किया लेकिन ब्राह्मणवाद को गढ़ने में सत्ताधारी(क्षत्रिय) वर्ग ने भी सक्रिय भूमिका निभाई। ब्राह्मणवाद सिर्फ वर्ण आधारित विचारधारा नहीं है बल्कि वर्ग आधारित भी है। इतिहासकार डॉ प्रदीप कान्त चौधरी अपने इस निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कोई चार सौ पन्नों की अपनी किताब RAMA WITH AN AXE,myth and cult of parsurama avtara में परशुराम कथा की मिथकीय यात्रा का काफी बारीकी से वर्णन करते हैं। एक इतिहासकार के रूप में प्रदीपकान्त की कोशिश है कि मिथक की संरचना की तमाम प्रक्रियाओं को समझा जाए और देखा जाए कि किस तरह कई जाति संप्रदायों के प्रतीक बनने के साथ साथ परशुराम उत्तर भारत के गंगा के मैदानी इलाकों में कम, दक्षिण के कोंकणी इलाके,जिसकी सीमा गोवा से लेकर केरल तक जाती है,में ज्यादा पूजे जाते हैं।
आजकल आप हरियाणा और उत्तर प्रदेश में परशुराम जयंती के आस-पास परशुराम के पोस्टर देखते होंगे। ब्राह्मण महासभा जैसे संगठन अपने सैन्य चरित्र के उभार के लिए परशुराम को अपना प्रतीक बनाते हैं। समझना ही होगा कि क्यों आज के दौर में विद्वता और विनम्रता से जुड़े तमाम प्रतीकों को छोड़ कर क्षत्रियों से लोहा लेने वाले मिथकीय किरदार परशुराम को अपना प्रतीक बनाते हैं? राजनीति के हाशिये पर पहुंचा दिये गए ब्राह्मण अपनी ताकत की दावेदारी के लिए परशुराम को प्रतीक बना रहे हैं।
लेकिन प्रदीप कान्त चौधरी राजनीति के झंझटों से निकल कर खुद को इतिहास लेखन और शोध तक ही सीमित रखते हैं। बताते हैं कि परशुराम कई जातियों के सामाजिक धार्मिक प्रतीक रहे हैं। सिर्फ ब्राह्मणों के नहीं हैं। इक्कीस बार क्षत्रिय कुल के विनाश की मिथकीय यात्रा और दाशरथी राम के हाथों पराजित होने की कथा के बीच परशुराम की एक समानंतर कथा भारत के दक्षिणी तटीय इलाकों में भी मौजूद है। किस तरह से परशुराम ने सागर को धकेल कर कोंकण को ज़मीनी इलाका तोहफे में दिया। तभी आप गोवा जायेंगे तो वहां के सरकारी म्यूज़ियम में परशुराम को गोवा का संस्थापक बताया गया है। लेकिन जब आप उत्तर भारत में परशुराम को खोजते हैं तो इस तरह की व्यापक मौजूदगी नहीं मिलती है। बिहार के अरेराज के महादेव मंदिर में इतिहासकार प्रदीप कान्त चौधरी परशुराम की प्रतिमा को ढूंढ निकालते हैं लेकिन पाते हैं कि वहीं के महंत को इस बारे में कुछ खास जानकारी नहीं है। इस प्रतिमा को राम सीता और लक्ष्मण की प्रतिमा से ढंक दिया गया है और परशुराम की पूजा तक नहीं होती। यह बताता है कि कालक्रम में परशुराम की ब्राह्मणों के बीच क्या स्थिति थी।
ऐतिहासिक साक्ष्यों में भी परशुराम की पूजा अर्चना की खास जानकारी नहीं मिलती है। प्रदीप कान्त चौधरी तर्क करते हैं कि दाशरथी राम के हाथों परशुराम की हार की मिथकीय कथा से मालूम चलता है कि परशुराम का किरदार बहुत लोकप्रिय नहीं था। तुलसी के रामायण में परशुराम का नकारात्मक किरदार है। वाल्मीकि रामायण में कहीं ज़्यादा सकारात्मक है। सबसे दिलचस्प है चार प्रमुख जाति वर्गों द्वारा परशुराम को अपने प्रतीक के तौर पर पूजे जाने की जानकारी। कोंकणस्थ ब्राह्मण की परंपरा के अनुसार परशुराम बिहार के तिरहुत से दस परिवारों को लेकर आए और उन्हें आधुनिक गोवा के नाम से मशहूर गोकर्ण में बसाया। इसका बहुत ही विस्तार से वर्णन किया गया है। पुस्तक को जानबूझ कर राजनीतिक विवाद से बचाने की कोशिश की गई है। इससे लोग बिना पुस्तक पढ़े संपादकीय तो लिख देंगे लेकिन परशुराम पर काफी मेहनत से किये गए शोध का ऐतिहासिक समझ बनाने में लाभ नहीं उठा सकेंगे।
कई राजपरिवारों ने भी परशुराम को प्रतीक के रूप में इस्तमाल किया है। केरल के इडापिल्ली के नम्बूदरी ब्राह्मण राजा का दावा है कि उनका वंश तब से मौजूद है जब से परशुराम ने समुद्र को धकेल कर इस जगह को बनाया था। यानी अपनी पौराणिकता का दावा परशुराम से किया जा रहा है। वहीं मिथिला के इलाके में परशुराम की कोई कथा नहीं मिलती है। लेकिन आज कल आप परशुराम की सबसे ज़्यादा तस्वीर हरियाणा और यूपी में देखेंगे। बल्कि दोनों राज्यों में परशुराम जयंती पर राजकीय अवकाश भी मिलता है। हाल ही में समाजवादी पार्टी ने ब्राह्मणों को लुभाने के लिए परशुराम जयंती को चुना था। लेकिन इतिहासकार प्रदीप कान्त की यह जानकारी भी कम दिलचस्प नहीं है कि परशुराम का इस्तमाल उच्चवर्गीय ब्राह्मणों ने भौतिक संपदा को बढ़ाने के लिए परशुराम के ज़मीन पैदा करने के मिथक का इस्तमाल किया तो अतिशूद्रो ने अपनी सामाजिक हैसियत बढ़ाने के लिए किया। नंबूदरी ने यह दावा करने के लिए कि ये ज़मीन परशुराम देकर गए हैं उसे कोई नहीं ले सकता है। अतिशूद्रो ने परशुराम की मां रेणुका को अपनी देवी के रूप में भी पूजा है। परशुराम ने पिता के कहने पर अपने मां की हत्या कर दी थी।
मैंने इस पुस्तक की समीक्षा आज के संदर्भ में करने की कोशिश की है। अगर आप यह जानना चाहते हैं कि किस तरह से वेदों की परंपरा से निकल कर कोई कथा पुराणों में दूसरा रुप धरती है और पहुंच जाती है लोक कथाओं में और फिर वहां से जब पुराणों में लौटती है तो उसका रूप कुछ और हो चुका होता है,तो इस किताब को पढ़िये। कैसे एक दौर में परशुराम की कथा को उठाया जाता है और कैसे दूसरे दौर में गिरा दिया जाता है। अक्षय तृतिया के दिन परशुराम जयंती पर अवकाश घोषित कराने वाले ब्राह्मण संगठन भूल जाते हैं कि परशुराम आधे ब्राह्मण थे। उनकी मां,दादी और परदादी क्षत्रिय थीं।
परशुराम की कथा को समझने के लिए यह एक उपयोगी पुस्तक है। डॉ प्रदीप कान्त चौधरी मेरे टीचर भी हैं। बहुत दिनों से मुझे इनकी इस पुस्तक का इंतज़ार था। अंग्रेज़ी में आई है और आगे हिन्दी में भी लाने की कोशिश है। यह किताब सिर्फ परशुराम की मिथकीय यात्रा को समझने के लिए नहीं पढ़ा जाना चाहिए बल्कि यह जानने के लिए भी कि किस तरह से कालक्रम् में कोई मिथक अपना रूप बदलता रहता है। इसे छापा है आकार बुक्स ने। प्रकाशक का टेलिफोन नंबर है-011- 22795505। flipkart.com पर भी यह किताब उपलब्ध है। आपके कुछ भी सवाल हों तो आप इतिहासकार से सीधा संपर्क कर सकते हैं। उनका ईमेल है- pkcdu@yahoo.com। समीक्षा में सारी जानकारियां नहीं हैं। आपके कई सवाल होंगे इसलिए या तो इतिहासकार से बात कर लें या फिर किताब लेकर पढ़ सकते हैं। एक और बात है कि इस समीक्षा का मतलब किसी भी जाति विशेष को विशेष रूप से ठेस पहुंचाना नहीं है। बल्कि एक मिथकीय ऐतिहासिक किरदार के आस-पास बुनी जाती रहीं कथाओं को सामने लाना है। वैसे मैं जाति का विरोधी रहा हूं। ठेस पहुंचने की बजाय जाति खतम हो जाए तो राहत मिले। वैसे यह सपना मेरी जीवन में तो नहीं पूरा होने वाला।
ek rochak tathy .
ReplyDeletenaye sandarbhon se roobroo karaane ke liye saadhuvaad ! holi ka rangin gola bhej raha hoon,sambhalnaa......
ReplyDeleteNayee jankaree milee accha laga..swarth kuch bhee kar aur kara sakta hai . Happy holi.
ReplyDeleteवर्ग विभेद पैदा करना तो बुद्धिजीवियों का मनपसंद शगल रहा है विशेषत: पंडित जी के अनुनायी ब्राह्मणों का. खैर, वह एक अलग मुद्दा है. राम को ले गये क्षत्रिय, कृष्ण को अपने अहीर भाई, शूद्रों के पल्ले भी ऐसे ही एक-आधे पड़ गये तो ब्राह्मण कैसे चूकते?
ReplyDeleteसच है परशुराम -इदं शस्त्रं इदं शास्त्रं के प्रतीक /प्रणेता चरित्र होते हुए भी पुराणेतिहास के बियाबान में खो गए से लगते हैं -मिथकों में परशुराम के राम से परास्त होने के उल्लेख हैं,दशरथ से नहीं .
ReplyDeleteपुस्तक का मूल्य ,पृष्ठ संख्या आदि भी देनी चाहिए थी -मुलाक़ात हो तो डॉ प्रदीप जी से कहें एक प्रति मुझे वी पी पी से भेज दें -पढ़ना चाहता हूँ !
ravish ji aap ke is blog se bahut kuch janne ko mila....sath hi mere ye dharna bhi mazboot hui ki har jati bina itihas ko jane dusri biradari ko nicha dikhane wale partiko ko use karte hain...ya dusari biradari ko nicha dikhane wale muhaware gard lete hain....Lohiya ne kahatha ki har jati ko dusari jati ke logon ki tarf karni chahiye....par hota ulta hai....aur asa karne ya karwane wale bugghi jiwi hi hote hain....
ReplyDeleteAksar socha karta tha ki Vishnu ke 10 avataron mein se Ram aur Krishna ko hi itna kyun pooja jaata hai.
ReplyDeleteAur yeh bhi ki school mein Parashuram ek 'negetive role' ke sath kyun aaye.
Aapne dono ka ek 'realistic-sa' jawaab diya hai.
Shukriya.
Ab NDTV ko alvidaa keh diya kya? Aapki kami bahut khalti hai. Dua sahab toh 'dandi' tak nahi lagaate! Aur Dua sahab bhi kayi dafa saptah mein ek-do hi darshan dete hain. Waapas aa ja yaar; humne NDTV India dekhna kareeb-kareeb band hi kar diya hai, ab Times Now par khabron ka prasaaran dekh rahe hain. Bas Dua sahab hi hain jinke kaaranvash thoda NDTV bhi dekh hi leta hoon.
कमाल है साहब आप ऐसी पुस्तक का प्रचार कर रहे हैं जिसे शायद अपने पढ़ा भी न होगा . परशुराम भगवान विष्णु के ६ ठवें अवतार हैं. यदि आप पुराणों पर नज़र डालेंगे तो यह पाएँगे की उन्होने हैहेय वंशी और दुराचारी राजाओं को परास्त किया.
ReplyDeleteभगवान परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं है , उनकी माँ रेणुका राजा प्रसेनजीत की पुत्री थीं , परशुराम जी की दादी माँ सत्य्वति विश्वामित्र की बहन थी , यह दुनिया जानती है की महर्षि विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय हैं , इस लिहाज़ से उनकी बहन भी क्षत्रिय हुईं. परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि भी क्षत्रिय स्त्री की कोख से जन्मे.
आपकी यह बात ग़लत है कि भगवान परशुराम की माता रेणुका देवी की पूजा केवल दलित और पिछड़े करते हैं , महाराष्ट्र के नाँदेड ज़िले में रेणुकामाता का विशाल और प्राचीन मंदिर है. रेणुका जी महाराष्ट्र आंध्र और कर्नाटक के ब्राह्मण परिवारों की कुलदेवी हैं . रेणुका माता वह क्षत्रिय देवी हैं जो ब्राह्मण , दलित और पिछड़ी जाती द्वारा पूजी जातीं हैं और अपने उपासक को इच्छित वार प्रदान करतीं हैं.
आपकी जानकारी के लिए बता दूं जिन कोकणस्थ ब्राह्मणों के पूर्वजों को आप बिहारी बता रहे हैं कम से कम वह जानकारी तो मैं यहीं ग़लत साबित कर सकता हूँ
चौदह विदेशीयों (श्वेत म्लेच्छ) के शव भारत के पश्चिमी समुद्रि तट (आज का कोकण) पर परशुराम जी को पड़े मिले , अपने जीवन में २१ बार पृथ्वी को नि: क्षत्रिय करने के कारण उनका प्रायश्चित्त कर्म कोई ब्राह्मण करवाने को तैयार न हुआ. इसलिए परशुराम जी ने इन शवों के लिए चिता रच कर अग्नि में इन्हे पवित्र किया और उनको पुनर्जीवित किया. परशुराम जी ने उनको वेदो, शास्त्रों की दीक्षा दी और कालांतर में इन्ही ब्राह्मणों के ज़रिए प्रायश्चित्त कराया . इस लिहाज़ से चितपावनों का मूल बिहार में न हो कर सुदूर पश्चिम में कहीं माना जाता है , और यह बात महाराष्ट्र , कर्नाटक के लोग भली भाँति जानते और समझते हैं. कोकणस्थ ब्राह्मण समाज में कई स्वतंत्रता सेनानी पैदा हुए हैं जैसे की गोखले , तिलक , सावरकर , चाफ़ेकर और फड़के . पेशवा का वंश भी कोकणस्थ ब्राह्मण वंश था. ठाकरे परिवार इसको भली भाँति जानता है और यह कोकण स्थ ब्राह्मण भी शिवसेना के प्रबल समर्थक हैं. अब इस 'बड़े' खुलासे के बाद ज़मीन पर लोटने की बारी आपकी है .
वैसे किताब के बारे में बताने के लिए शुक्रिया , इसको ज़रूर पढ़ूंगा.
रविश जी आपके इस लेख का एक ही अर्थ निकाल पाया हूं कि किसी भी जाति या धर्म के लिये अपनी दृढ़ता दिखाने के लिये, ताकत का प्रदर्शन करने के लिये इसका प्रयोग करना पड़ता है। इससे पता चलता ह कि आजकल बुद्धि का महत्व कम हो गया है ताकत का ज्यादा बोलबाला है।
ReplyDeleteबुद्धि का प्रयोग मूढों के सर जाने लगा है
जाति विशेष को निशाना बनाकर लिखे गए इस आलेख के मैं सख्त खिलाफ हूँ इसलिए इसका घोर विरोध करता हूँ.
ReplyDeleteअरविंद जी
ReplyDeleteवो गलती मुझसे हुई है और सुधार कर दी गई है। दाशरथी राम हैं जिन्होंने परशुराम को परास्त किया था।
पुष्प जी
यह समीक्षा किसी जाति विशेष के खिलाफ नहीं है। प्लीज़ इस तरह से आप किसी ऐतिहासिक विषय को न देखें। आपको खिलाफ होने की कोई ज़रूरत नहीं है। जिस प्रतीक पर सबका हक हो, यह बताने से कोई बात किसी जाति के खिलाफ कैसे हो सकती है। ब्राह्मणों के खिलाफ कहना होता है तो मैं कहता हूं। मुझे कोई घबराहट नहीं होती लेकिन यहां बात मैं सिर्फ एक शोध के संदर्भ में जो नई जानकारी आई है, उसे पेश कर रहा हूं।
Bhai Ravishji mujhe to itna pata hai ki bihar ke bhumihar brahmin bhi Parshuramji ke hi vanshaj hain...!!! Aap chahenge to iss paksh per hum bhi thodi roshni daal sakte hain...chunki hum jat-varge se aate hein...halanki mein inn baton ke prati kattr nahin...per thodi jannkari hai.
ReplyDeleteBhai Ravishji mujhe to itna pata hai ki bihar ke bhumihar brahmin bhi Parshuramji ke hi vanshaj hain...!!! Aap chahenge to iss paksh per hum bhi thodi roshni daal sakte hain...chunki hum isssi jati-varge se aate hein...halanki mein inn baton ke prati kattr nahin...per thodi jannkari hai.
ReplyDeleteतैलंग साहब
ReplyDeleteआप ठीक कह रहे हैं। वो सब बातें विस्तार के किताब में हैं। मैंने सिर्फ अपनी तरफ से परशुराम जयंती और ब्राह्मण महासभाओं के द्वारा परशुराम को अपना प्रतीक बनाने क संदर्भ में देखा है।
यह मैं कैसे मान सकता हूं कि जानकारी नहीं है। परशुराम के बारे में सबको कुछ न कुछ जानकारी है। यह किताब काफी स्त्रोत और दस्तावेज़ों के अध्ययन के बाद लिखी गई है। आप पढ़ेंगे तो पता चलेगा, वैसे आप अपनी जानकारी लिखते तो अच्छा रहता है।
लेकिन एक सलाह चाहता हूं कि क्या किया जाए कि इस समीक्षा को ब्राह्मण या भूमिहार के खिलाफ कोई न देखे। यह मेरा इरादा नहीं है।
परशुराम को ब्राह्मणों ने सिर्फ आक्रामकता के लिए ही अपना प्रतीक बनाया है। वरना उन की घोषित वंशावलियाँ तो सप्तर्षियों से जा कर मिलती हैं। मेरी खुद की खाँप स्वयं को महर्षि अंगिरा से जोड़ते हैं। जो देवगुरू बृहस्पति के पूर्वज थे। परशुराम जिस वंश से आते हैं उसी वंश में दैत्यगुरु शुक्राचार्य भी हैं।
ReplyDeleteवास्तविकता तो यह है कि वर्तमान ब्राह्मण कुलों में अधिकांश के पूर्वज आर्य न हो कर द्रविड़ अथवा आदिवासी थे। कालांतर में जब गण समाप्त हुए तो सभी गणों ने आर्यों का चातुर्वर्ण्य व्यवस्था ओढ़ने का प्रयत्न किया और नकली वंशावलियों के माध्यम से अपने को आर्य घोषित किया। गणों के पुरोहित और ओझा ब्राह्मण हो गए। इसी तरह गणों में विभिन्न काम करने वालों ने चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को ओढ़ा। यही कारण है कि हमें एक एक वर्ण में अनेक प्रकार की खाँपें मिलती हैं।
हम में जो सब से बड़ा विकार है वह यही कि हम खुद श्रेष्ठ बनने के स्थान पर अतीत से खुद को जोड़ कर श्रेष्ठता का अहंकार पालते हैं। इस प्रवृत्ति ने देश को सर्वाधिक हानि पहुँचाई है।
अरे द्विवेदी जी, अपना इतिहास-ज्ञान अद्यतन करिये। आप आज भी 'आर्यों का भारत पर आक्रमण' वाला मैकाले-मार्क्सवादी इतिहास उद्धृत कर रहे हैं। जीन टेक्नॉलॉजी के आधार पर इसे आधारहीन घोषित किया जा चुका है।
ReplyDelete"रवीश जी होली की शुभकामनाएँ अच्छा लेख लगा। मानव स्वभाव होता ही है सुविधाभोगी, अपने हिसाब से हम इतिहास के तथ्यों का इस्तेमाल करते हैं जबकि इतिहास केवल अन्दाज़ों का एक चिट्ठा होता है भूतकाल का उपयोग वर्तमान की अक्षमताओं को ढँकने के लिये किया जाता है, वैसे भी मनष्य कर्मों से जाना जाता है न कि जाति से........."
ReplyDeleteप्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com
जिस जीन टेक्नोलोजी को बुद्धिजीवी नया ज्ञान बता रहे हैं उसके अनुसार पूरी पृथ्वी के सारे मनुष्य एक ही माता की संतान ठहरते हैं ...
ReplyDeleteदूसरा तर्क जो भाषा शास्त्री और anthropologists देते हैं उसमे भी उतनी ही उलझने हैं ..और वह भी वैसुधैव कुटुंबकम्' की अवधारणा की पुष्टि करता है ...
पर इससे यह कहाँ साबित होता है की आर्यों और द्रविड़ों में संघर्ष नही हुआ ..?
द्रविड़ों की लोककथाओं और मिथकों में युद्धों को कम महत्व दिया गया है..जबकि आर्यों में ऐसा नही है ..अब योग्य मित्र कहेंगे की मैं वर्ग विभेद पैदा करने की वकालत कर रही हूँ. पर कोई स्थापना देते हुए तथ्यों को ध्यान में रखा ही जाना चाहिए. मेरा कहना सिर्फ़ इतना है.
वैसे द्विवेदी जी ने कब आक्रमण का नाम लिया जो अनुनाद जी सीधे मार्क्सवाद बीच में ले आये ? :-)
ReplyDeleteभाई जी ,परशुराम पर इतिहास लेखन में जौनपुर का उल्लेख करना समीचीन होगा,यह उनकी जन्मस्थली रहा है.
ReplyDeleteयहाँ उनसे सम्बंधित उनकी माँ का ऐतिहासिक मंदिर भी है.जौनपुर के विद्वान और इतिहास कार इसका पूर्ववर्ती नाम यमदाग्निपुरम(परशुराम के पिता जी का नाम ) भी बताते हैं .
प्राचीन इतिहास के एक विद्वान और सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के पूर्व आचार्य प्रो.आशुतोष उपाध्याय जी जो की स्वयं जौनपुर के निवासी हैं,इस विषय पर अपनी कृति "परशुराम "में विस्तृत प्रकाश डाल चुके हैं.
रवीश जी,
ReplyDeleteआपका लेख पढा. अच्छा लगा. इतिहास को अपने तरीके से देखने की दृष्टी विकसित होनी चाहिए नहीं तो उसके मिथक बनने के चान्स जादा होते है. मै भी कुछ सजेस्ट करना चाहूँगा...
जानेमाने इतिहासकार वि. का. राजवाडे साहब ने चारों वेद, वर्ण तथा जातीव्यवस्थाकी अच्छी समिक्षा की है... उनकी भारतीय विवाहसंस्थेचा इतिहास ( भारतीय विवाहसंस्था का इतिहास ) नामकी किताब देश के सही इतिहास को समझने में मिल का पत्थर साबीत होगी... मुझे विश्वास है की आपको इस किताब का हिंदी या अंग्रेजी अनुवाद जरूर मिलेगा... कॉम्रेड श्रीपाद डांगे ने इसकी प्रस्तावना लिखी है... वेदविद्या या भारतीय संस्कृती के अभ्यासक या आस्था रखने वाले आँखे खुली कर इस किताब को पढेंगे तो मुझे लगता है उन्हे नया नजरिया मिलेगा जरूर....
गिरीश अवघडे
रिपोर्टर, पुढारी
नई दिल्ली
09582035348
रवीशजी आपका नाम और आपका 'रोशनी डालने' का काम आपको सूर्य से सही जोड़ता है, जिसके पीछे किसी ज्योतिषी, यानि 'ब्रह्मण' का हाथ अवश्य रहा होगा :)...
ReplyDeleteकिन्तु मानव समान ही सूर्य की भी एक मजबूरी है: पृथ्वी के गोलाकार होने के कारण, वो हर क्षण सूर्य के द्वारा सदैव आधी ही प्रकाशित हो पाती है, और मजबूरी है कि उसका आधा हिस्सा अँधेरे में ही रहता है यद्यपि, अपनी कक्षा में घूमने के कारण, बारी- बारी से हर क्षेत्र को उजाला मिलता रहता है,,,और, आदमी के 'टेढ़े माथे' (eccentric) समान पृथ्वी के सूर्य के चारों ओर उसकी तुलना में टेढ़े घूमने के कारण ध्रुवीय क्षेत्र ही ऐसा होता है जहाँ ६ माह की रात और ६ माह का ही दिन भी होता है जबकि मध्य क्षेत्र में लगभग औसतन १२ घंटे की रात और १२ घंटे का ही दिन भी होता है...
यह तो सभी को मालूम होगा कि 'हिन्दू' एक समय, भूत में, बहुत ऊँचाई तक पहुंचे हुए, 'सिद्ध पुरुष' थे,,,और यह कि पश्चिम के वैज्ञानिक भी मानते हैं कि वो पहुंचे हुए खगोलशास्त्री तो थे ही...
प्राचीन ज्ञानियों ने यद्यपि (विष्णु) भगवान् को निराकार, नादबिन्दू, यानि 'शक्तिशाली शून्य' जाना, उन्होंने उसके 'योगमाया' द्वारा जनित जीवों में सर्वश्रेष्ठ सशरीर मानव (अमृत शिव के प्रतिरूप) की कार्यप्रणाली को समझने के लिए उसको सूर्य के परिवार, 'अष्ट- चक्र और नौग्रहों', में संचित शक्ति के सार से जोड़ा (जिसकी झलक विष्णु के अवतारों में भी दिखाई जाती है),,,और 'मानव इतिहास' को निराकार के शून्य से - चुटकी बजाते जैसे शून्य काल में - अनंत तक पहुँचने की कहानी की झलक जाना: 'एक्शन रीप्ले' समान, जिससे मीडिया वाले अच्छी तरह परिचित हैं :)
होली में डाले प्यार के ऐसे रंग
ReplyDeleteदेख के सारी दुनिया हो जाए दंग
रहे हम सभी भाई-चारे के संग
करें न कभी किसी बात पर जंग
आओ मिलकर खाएं प्यार की भंग
और खेले सबसे साथ प्यार के रंग
maine bhi kisi qitaab meN padhaa tha ki PUJA KHATARNAK HAI, CHAAHE KOI BHI KISI KO PUJE. PUJA PUJIT VYAKTI KE VICHAROn (basharte ki hoN)KO NASHT KAR DENE KA SABSE PURAANAA AUR AASAAN UPAAYE HAI.
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ReplyDeleteगिरीश
ReplyDeleteमेरे पास भारतीय विवाह संस्था का इतिहास है। शानदार किताब है लेकिन आधी ही पढ़ पाया हूं। जल्दी खत्म कर लूंगा।
जेसी
मेरा नाम फारसी के रविश से लिया गया है। हिन्दू मास्टर ने अपनी भलमनसाहत से रवि जोड़ ईश के हिसाब लगाया और सूर्य का देवता बनाकर रवीश कर दिया। चलता रहता है। पर आपकी बात सही है कि हम सिर्फ किसी सत्य के एक पहलु को ही देख पाते हैं। प्रतिक्रियाएं अलग अलग रास्ता बताती रहती हैं। उन पर चलते रहना चाहिए।
इस बार रंग लगाना तो.. ऐसा रंग लगाना.. के ताउम्र ना छूटे..
ReplyDeleteना हिन्दू पहिचाना जाये ना मुसलमाँ.. ऐसा रंग लगाना..
लहू का रंग तो अन्दर ही रह जाता है.. जब तक पहचाना जाये सड़कों पे बह जाता है..
कोई बाहर का पक्का रंग लगाना..
के बस इंसां पहचाना जाये.. ना हिन्दू पहचाना जाये..
ना मुसलमाँ पहचाना जाये.. बस इंसां पहचाना जाये..
इस बार.. ऐसा रंग लगाना...
होली की उतनी शुभ कामनाएं जितनी मैंने और आपने मिलके भी ना बांटी हों...
रवीश जी ~ "गुरु ब्रह्मा, आदि..." कहा गया...मास्टरजी को बुद्धि देने वाला भी उनके भीतर स्तिथ 'ब्राह्मण' या 'ब्रह्म' को ही माना गया,,,और हर आदमी में एक छटी इन्द्री, या ESP, को, अधिकतर सुप्तावस्था, में जाना गया है...
ReplyDeleteफारसी में रविश का अर्थ जाना " A new way of doing things" or similar ", धन्यवाद्!
रवीश (या रविश) जी ~ यह तो मानना ही पड़ेगा कि 'आधुनिक हिन्दू' की तुलना में 'प्राचीन हिन्दू' बहुत गहराई में गए थे (या किसी अदृश्य शाश्वत शक्ति द्वारा ले जाये गए थे),,,
ReplyDeleteउन्होंने भी 'आधुनिक वैज्ञानिकों' के समान पहले जाना होगा कि मानव शरीर में पृथ्वी के समान ही लगभग ७० प्रतिशत जल की मात्रा है और अन्य ३० % पृथ्वी में प्राप्त अन्य तत्त्व, कैल्सियम आदि आदि...इसके पश्चात ही वो गहराई में जा मानव को 'मिटटी का पुतला', पृथ्वी का ही प्रतिरूप जान पाए होंगे, (सौर मंडल के ९ सदस्यों के सार से बने जिससे पृथ्वी भी स्वयं बनी है) जिसे 'जीवन' जल के द्वारा प्रदान किया गया और जिसे स्वयं चन्द्रमा की कृपा समझा (चन्द्रमा का पृथ्वी का ही अंश होना 'शिव-पार्वती के विवाह' की मनोरंजक कहानी से, और 'भगीरथ' की कहानी द्वारा पृथ्वी अथवा 'शिव की जटा-जूट' यानि हिमालय के जंगल, पर जल अथवा 'गंगाजल' का अवतरण आम आदमी तक पहुंचाया गया)...
संक्षिप्त में, सांकेतिक भाषा में, उन्होंने 'ब्रह्मा' के चार मुख बताये: चार दिशायें या कैलाश-मानसरोवर से बहने वाली चार प्रमुख जीवनदायी नदियाँ (गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, और सिन्धु, और उनकी अनंत सहायक नदियाँ), जो अंततोगत्वा खारे जल वाले सागर में निरंतर जा मिलती हैं, और फिर सूर्य की शक्ति से ऊपर उठती हैं...
और जहां तक चार वर्ण का प्रश्न है, हर व्यक्ति किसी न किसी का गुरु, यानि अन्धकार यानि अज्ञान को हरने वाला ज्ञान का स्रोत है ही,,,किन्तु प्रकृति में व्याप्त विविधता के कारण हर कोई अनंत सीढ़ी की विभिन्न पायदान पर खड़ा समझा जा सकता है अपने भीतर अलग अलग मात्रा में चारों वर्ण समाये, और 'अनंत शिव' - जिसका एक अंश हरेक के अन्दर भी उपलब्ध जाना गया है - को ही केवल सबसे उपरी पायदान में सदैव खड़ा जाना गया है - कैलाश पर्वत की छोटी पर जैसे :)
JC ji ki tippaniya kautuhal paida karti hain ye jankari lene ko ke wo kaun hain?
ReplyDeleteSahab ho sake to apne bare men batayen...
Nikhilesh
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ReplyDeleteनिखिलेश जी ~ मैं आप ही के समान एक साधारण 'भारतीय' ही हूँ - किन्तु तब पंजाब में स्थित शिमला (अब 'देवभूमि' हिमाचल स्थित) में 'संयोगवश' एक साधारण 'ब्राह्मण परिवार' में जन्म लेने के कारण 'हिमालय पुत्र' भी :)
ReplyDeleteऔर शायद इस कारण 'संयोगवश' ही 'दिल्ली' (पांडवों की 'इन्द्रप्रस्थ', जिसमें 'प्राचीन हिन्दुओं' द्वारा इन्द्र को देवताओं का राजा माना जाता है,,,और उन्हें वर्षा यानि मीठे पानी के साथ भी जोड़ा जाता है - जिसे 'आधुनिक वैज्ञानिक' यूं सूर्य और उसके द्वारा चालित सौर-मंडल से भी जोड़ सकते हैं :) में सन '४० से रहते हुए भी, और भारत के विभिन्न प्रांत में घूमते हुए भी मुझे उत्तरपूर्वी निचले हिमालयी क्षेत्र में अपने सरकारी सेवाकाल में लगभग १० वर्ष में प्राप्त कुछ विचित्र अनुभवों के, और अपनी 'वैज्ञानिक' पृष्ठभूमि के, कारण जिज्ञासा हुई 'हिमालय पुत्री', शिव की दूसरी पत्नी पार्वती, के बारे में गहराई में जाने की और उनसे अपना पुराना सम्बन्ध जानने के लिए (जिसके लिए 'संयोगवश' मुझे अधिक समय भी मिला है,,,जो शायद कभी 'भविष्य' में काम आये :)...
पुस्तक की जानकारी के लिए धन्यवाद। हमारे शोध-क्षेत्र से संबंधित है सो काम की साबित होगी।
ReplyDeletebahut sundar.......
ReplyDeleteभारत का 'ब्रम्हर्षि समाज' ( भूमिहार , त्यागी , मोहयाल , चितपावन इत्यादी ) खुद को 'परशुराम' का वंशज मानते हैं ! हरियाणा और दिल्ली के आस पास 'परशुराम - जयंती' काफी बढ़िया ढंग से मनाया जाता है ! मै भी हर साल अपने घर पर 'परशुराम जयंती ' मनाता हूँ जिसमे सैकड़ों लोग शामिल होते हैं - कुछ 'विश्वास और आस्था' के कारण ! रवीश जी ने सही कहा है की - राजनितिक तौर पर 'ब्राह्मण' हाशिए पर जा चुके हैं ! आम 'ब्राह्मण' को अब 'परशुराम' की भी जरुरत नहीं रही ! जो रोजगार देगा - वही उसके लिए 'परशुराम ' है !
ReplyDeleteवैसे , ये किताब पढाने लायक होगी :) मैंने इस किताब का प्रचार कर दिया है :)
रवीश जी,
ReplyDeleteएक समय के बाद व्यक्ति वही देखना, पढ़ना गढ़ना पसंद करता है जिसे वो देखना चाहता है। आपने लिखा कि हम सत्य के एक ही पहलू को देख पाते हैं। दरअसल हम वो दूसरा पहलू देखना चाहते भी नहीं है जो हमारे पूर्व निर्धारित नज़रिए से इतर हो। कुछ मामलों में हम एक ही दिशा में लिख, सोच, पढ़ और बोल रहे हैं। ऐसा नहीं लगता है?
Dhanyavaad JC ji, ab aapke vigyan, Dharm aur darshan se bhare comment ko samjhne men aapki prishtbhumi aur adhyayan ko jorkar samjhne men achha lagega.
ReplyDeleteNikhilesh.
निखिलेश जी ~ यदि रवीश जी, नाम के आधार पर, सूर्य से जुड़े हैं तो आप परमब्रह्म से :)
ReplyDelete"जहां न पहुंचे रवि/ वहां पहुंचे कवि", और "सत्यम शिवम् सुंदरम" कह मानव मस्तिष्क एवं उसके शरीर की बनावट को प्राचीन ज्ञानी सौरमंडल के सार द्वारा ब्रह्माण्ड से सम्बन्ध की ओर संकेत कर गए...यह संभवतः दर्शाए कि हमारे सम्पूर्ण ज्ञानी, अर्थात सिद्ध पूर्वज सांकेतिक भाषा में मनोरंजक कहानी लिख गए :)
रवीश जी ने लिखा, "...परशुराम ने सागर को धकेल कर कोंकण को ज़मीनी इलाका तोहफे में दिया। तभी आप गोवा जायेंगे तो वहां के सरकारी म्यूज़ियम में परशुराम को गोवा का संस्थापक बताया गया है।...इत्यादि"
'आधुनिक वैज्ञानिकों' के शोध कार्य से भी यह तो सबको आज पता चल गया है कि भारत में दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून और वार्षिक 'जल-चक्र' की स्थापना में अरब सागर से, विशेषकर उत्तर-पूर्वी हिमालयी क्षेत्र तक, वायु की सहायता से सागरजल के वाष्पीकरण द्वारा, सूर्य की (मानव रूप में परशुराम / 'दशरथी' राम के 'अग्नि-बाण' समान) किरणों का एक महत्वपूर्ण रोल है जिसके कारण भारत को 'सोने की चिड़िया' माना गया है अनादि काल से...
और जैसे 'आज', वर्तमान में, देखने में आ रहा है, किसी भी तटीय क्षेत्र का पानी में डूबना या उभरना पंचभूत पर, विशेषकर 'अग्नि' ('ग्लोबल वार्मिंग') पर निर्भर करता है...
इतिहासकारों को भी अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है और पौराणिक कथाओं को फिर से पढने की - उसमें छिपे 'परम सत्य' को जानने के लिए...
Ravish Ji,
ReplyDeleteIt was worth reading ...... and came to know some new facets of parsuram's lineage and his followers.
A gud research..
Regards
Swati Sharma
ब्राह्मणवाद तो कट्टरपंथी, रूढिवादी व असमानतावादी विचारधारा वाले जनसमूह कि देन है... जो अपने आपको सर्वश्रेष्ठ व सर्वगुण सम्पन्न भूदेव या ने कि ब्राह्मण कहलाते थे...जिस मानवतावादीओ ने इस रुढिवादीओ का विरोध किया तो उन लोगो को नास्तिक, मल्लेच्छ और राक्षस का नाम देकर खतम किया गया... वो चाहे ब्राह्मण हो या बिन ब्राह्मण...आप हि देख लो चार्वाक, कर्णाद, कपि... See moreल, शम्बूक, वर्धमान, बुध्ध, अशोक और विक्रमादित्य आदि कौन थे..? सीधी सी बात है कि सिर्फ जातिवादी मानसिकता वाले ब्राह्मणो ने हि साम, दाम, दंड और भेदनीति से मानवतावदी ब्राह्मण व बिनब्राह्मणो को खतम किया या फिर अपना सागरित बनाया...मुख्य बात परशुराम कि करने से पहेले हमे यह तय करना चाहिए कि, परशुराम वास्तविक पात्र है... या फिर काल्पनिक....!! परशुराम रूढिवादी ब्राह्मणो का आदर्श हो शकता है... किंतु मानवतावादी, समानतावादी और सुधारावादी बिनब्राह्मणो व ब्राह्मणो का कतहि आदर्श नहि हो शकता...मेरे भाइ सोचो जरा दुनिया कहा जा रहि है.... और हम कहा जा रहे है...??!!
ReplyDeleteप्रिय मित्र
ReplyDeleteभगवन परशुराम पर कोई भी सकारात्मक सामग्री लाभप्रद है. परन्तु जिस प्रकार आपने ब्रह्मनवाद का जिक्र किया है वो न्येओचित नहीं है. जिस ब्राहमण वाद शब्द को गड़ने और हिन्दू धर्म की नसल में एक और नफरत और जहर का बीज बोने की कोशिश की है हम उसका विरोध करते है. भगवान् परशुराम भगवान् विष्णु के छेवे अवतार थे बस. और लेखक को इस बात की इजाजत तो बिलकुल भी नहीं की वो विभिन जातीओ में बंटे हिन्दू समाज को एक और ब्रहामन्वाद के नए मिथ से बांटे. इस शब्द को गढ़ना ही एक शर्म का विषय और हिन्दू समाज के प्रति अपराध है.
हाँ यह बड़ा ही रोचक विषय होगा की कालांतर में भगवान् परशुराम से सम्बंधित पूजा अर्चना और मन्त्र कहा गायब हो गए. प्रबुद्ध पाठक वर्ग उन मंत्रो, आरतियो और पदाती को खोजे गा तो हिन्दू समाज को उसका एक बहुत बड़ा युग पुरुष उसे वापस मिल जायेगा और यह हिन्दू समाज पर एक उपकार होगा.
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