ग़र तुम आदमी न होते...सबसे कम दाम का बोझ न उठाते
ग़ाज़ियाबाद के जिस हिस्से में मैं रहता हूं,वहां आज से एक मॉल शुरू हो गया है। सारे अख़बारों में छूट और धमाका ऑफर की एक किताब बंटी है। मैं भी महागुन मॉल देखने चला गया जिसमें खुला इज़ीडे डिपार्टमेंटल स्टोर दावा करता है कि उसके यहां सबसे कम दाम हैं। ग़ाज़ियाबाद में सबसे कम। रास्ते में इंज़ीडे के कई होर्डिंग दिखे। बैनर लहरा रहे थे। फिर नज़र पड़ी इन चार टांगों पर,जिनकी पीठ पर इज़ीडे का यह बड़ा सा डिब्बा लड़खड़ा रहा था। झांक कर देखा तो दो पंद्रह सोलह साल के किशोर अपनी पीठ झुकाये जमीन ताक रहे थे। आप दूसरी तस्वीर देख सकते हैं। मानव बिलबोर्ड की तीसरी तस्वीर उस वक्त की है जब दोनों थक गए और पटक कर आराम करने लगे। आप चौथी तस्वीर में इन्हें ज़मीन पर बैठे देख सकते हैं। दुनिया महंगाई के बोझ से दबी है ये सबसे सस्ता के बोर्ड के बोझ से।
पूछने पर पता चला कि इन्हें पांच घंटे के दो सौ रुपये मिलेंगे। प्रति व्यक्ति के हिसाब से। ये बीस मिनट तक लगातार अपनी पीठ पर इज़ीडे का बक्सा लाद कर खड़े रहते हैं। जब थकते हैं तो पांच दस मिनट सुस्ता लेते हैं। लेकिन बीस मिनट तक झुकी पीठ पर भार उठाये रहना,ज़्यादा कहने की ज़रूरत नहीं। मगर परेशानी न हो तो ख़ुद पर शक होने लगता है। सर झुका कर बिलबोर्ड उठाये रहना कहां की जी हुज़ूरी साहब। ये तरीका नया नहीं है। कई कंपनियां ऐसा करती हैं। इसके लिए आपको निगम को किराया नहीं देना पड़ता है। ये अस्थायी ढांचे हैं। कोई टूथपेस्ट का बलून पहनकर घूमता मिल जाएगा तो कोई हाथ में बैनर उठाये रास्ते के किनारे दिख जाएगा। मानव बिलबोर्ड हमारे समय की देन है। इन लड़कों को जो पतलून मिली है वो रेक्सिन की लगी। कई तरफ से सिलाई खुल गई है। गनीमत है कि लड़कों ने पतलून के ऊपर कंपनी की पतलून पहनी है। वर्ना उनकी ग़रीबी बिना कपड़ों के बाहर आ जाती।
यह मेरी आज की रिपोर्ट है। अब टीवी पर भरोसा कम होता जा रहा है। पहले टीवी सर्वशक्तिमान लगता था। अब कई माध्यमों में से एक लगता है। रिपोर्टिंग करना किसी झंझट से कम नहीं। कई कारणों से(जिसमें हम पत्रकारों का जायज़ आसमानी वेतन भी शामिल है)टीवी एक महंगा माध्यम है। दफ्तर जाओ,कैमरे की बुकिंग करो,शूट करो,फिर एडिट मशीन की बुकिंग करो,इन सबसे पहले मीटिंग में संपादक से स्टोरी पास कराओ। कई बार ये बोझ लगने लगता है। अब सिस्टम भी क्या करे। हर किसी के नीयत के हिसाब से तो नहीं चल सकता। सिस्टम सबको फ्री करे तो आधे लोग घर बैठ जायेंगे।
इसलिए ब्लैकबेरी लाजवाब है। बिना किसी से पूछे सस्ते में क्लिक करता हूं और ब्लॉग पर रिपोर्ट हाज़िर कर देता हूं। वैसे भी जो मैं कर रहा हूं,उसके लिए टीवी में जगह नहीं है। इन सब चीज़ों का न्यूज़ पेग नहीं होता। मगर शहर आंखों के सामने बदल रहा है तो कैसे छोड़ दूं। नतीजा यह है कि गाड़ी चलाना मुश्किल हो गया है। एक कदम चलता हूं,कार रोकता हूं और उतर कर क्लिक करने लगता हूं। मज़ा आता है। टीवी से दूर रहने का कोई अफसोस नहीं है। देखना और दिखाना मेरा जुनून है।
नीचे लगी इस तस्वीर को भी देखियेगा। रैली की शक्ल में इज़ीडे के प्रीपेड कार्यकर्ता जा रहे हैं। बजट के दूसरे दिन जब जनता प्रणब मुखर्जी के बजट की मार से कराह रही थी ये लोग जाने किस बजट के सहारे दाम करने का एलान कर रहे थे। ऐसा ही है तो साल भर रखो न सस्ता भाई। क्यों लूट रहे हो। पचास रुपये लूटते हैं। एक दिन दिल आता है तो कहते हैं आ जाओ आज पचीस ही लूटेंगे। पचीस डिस्काउंट देते हैं। गाज़ियाबाद के वैशाली से कस्बा के लिए रवीश कुमार। ये मेरा साइन ऑफ है।
"एक कदम चलता हूं,कार रोकता हूं और उतर कर क्लिक करने लगता हूं। मज़ा आता है। टीवी से दूर रहने का कोई अफसोस नहीं है। देखना और दिखाना मेरा जुनून है।"
ReplyDeletejindagi ko apni sharton par jine wale bahut kam hai sir..aur bahut chahkar bhi ye hosla nahi rakh pate.aap aisa kar rahe hai to vakai aapko maja aata hoga kyonki jab aap is sabko hum tak laaten hai to humko bhi maja aata hai.
accha lagta hai. jari rakhiye sir..
kyonki aapka junoon kabhi kabhi humko bhi kuch kehne..likhne ka jajba deta hai.. :))))))))
सही बात कही है
ReplyDeleteआदर्श
ReplyDeleteये गिटार कब बजेगा भाई। टंगा ही रहता है क्या।
आपकी बात से मैं सहमत हूँ खास कर रिपोर्टिंग के लिए माध्यम के चयन के आपके विचार से .आपका काम जगाना है अब देखता हूँ मैं किस दिन वास्तव में जाग जाता हूँ .अभी जीना मुश्किल हो गया है अपने से ही भाग रहा हूँ .बचपन से लेकर आजतक जो भी ज्ञान दिलाया गया वो जीने नहीं दे रहा ...कुछ करना होगा वो भी ऐसा की झकझोर दे .हर तरफ जो भी देखता हूँ वो मुझे झकझोरती है.. अँधा बन नहीं सकता.आँखे मूँद कर ..... बहरा हूँ नहीं ..अंतर्मन
ReplyDeleteआवाज़ लगाता रहता है ......अकेला ही फिर से चलो...अभी और गिरावट आएगा .हर स्तर पर ..जब तक एक भी जून की रोटी मिलती रहेगी ..गुलामी ख़तम नहीं होगी भय ख़त्म नहीं होगा और कोई बदलाव संभव नहीं है ....उम्मीद छोड़ नहीं सकते ...ये दुनिया पहले भी कई बार बदली है इतिहास गवाह है कई क्रांतियों का ... आपसे कह रहा हूँ ..महसूस होता है कि आप काफी करीब हैं सच्चाई के . Satya Prakash Mishra
टीवी कई माध्यमों में से एक ज़रूर है गुरुदेव पर हाल फिलहाल इसी माध्यम की पहुँच सबसे ज्यादा है ।जिस तबके तक आप अपनी बात पहुँचाना चाहते हैं वो टीवी ही देखता है ।झंझटों की बेशक यहाँ कोई कमी नहीं पर अगर लोगों को प्रेरित करना है तो इसी के माध्यम से लोगों तक बात पहुंचानी पड़ेगी ।उन्हें अपने गरेबान में झाँकने के लिए मजबूर करना पड़ेगा ।अगर आप ही टीवी से ऐसे दूर चले जाएँगे तो हम जैसों को होंसला कहाँ से मिलेगा जो आपको देख कर ही इस माध्यम में आये ।आपकी बातें सुन के ही हिन्दुस्तान की हालत बदलने की प्रेरणा मिली ।तो कृपया करके टीवी के इन झंझटो को थोडा और झेल लीजिये ।क्या पता हम सबकी मेहनत किस दिन रंग ले आए।
ReplyDeletemaja aa gaya ek baar fir aapka blog padhke. Abhi abhi ek borking si movie dekhkar aaya tha, dimag ka kaam me man nahi lag raha tha.
ReplyDeletelekin aapka blog padhte hi sixth sense active ho jata hai, aur mera dimag aur hath dono kaam karna suru kar dete hain.
bahut bahut dhanyawaad sir, lekin ek shikayat hai (pata nahi ye jayaz bhi hai ya nahi). lekin aapke blog se pata chala ki aap Bhopal aaye the. aapse milne ka ek naayab mauka gawan diya maine.
वाकई आप गिद्ध की नज़र रखते हैं . लोग पता नहीं क्या-क्या देखते हैं पर सबकुछ सामान्य रहता है . आपकी संवेदनशीलता की दाद देनी पड़ेगी . आस-पास से कुछ ना कुछ खोज हीं लाते हैं . " सबसे कम दाम " इन कंपनियों , माल वालों का भी जबाव नहीं , मतलब औरों से थोड़ा सस्ता पर इनका सस्ता उत्पाद भी आम लोगों की जेब से ज्यादा महंगा है . लेकिन फ़िर भी लोग बिग बाजार ,विशाल मेगा मार्ट आदि जगहों पर जाकर खरीद रहे हैं सबसे कम दाम पर !
ReplyDelete--
आपकी पारखी नज़र को सलाम ...बड़ा व्यापारी जब सस्ते कि सोचता है तो तो उसे सबसे सस्ता 'इंसान 'ही नज़र आता है...बाज़ार वाद के युग कि यही सचाई है।
ReplyDeleteरवीश जी वाकई में जो जुनून आपके भीतर है खबरो को लेकर वैसा आज किसी के अंदर नजर नहीं आता
ReplyDeleteachchhi post..interesting!
ReplyDeleteye INDIA hai shrimaan tabhi to choot de rahe hain BHARAT ko.
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ReplyDeleteरवीश जी इस पर राजेश जोशी जी की पढ़ी हुई कुछ पंक्तियां याद आती है-
ReplyDeleteबच्चे काम पर जा रहे हैं
कोहरे से ढंकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं
सुबह-सुबह
बच्चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
'काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे'
बस आगे कुछ और नहीं...
और लोग कह रहे है कि मंहगाई है, दे तो रहा है सबसे कम में सबकुछ
ReplyDeleteनया अंदाज और बलवती हो।
ReplyDeleteनई सड़क और नया कस्बा...रिपोर्टिंग का ये अंदाज...बहुत अच्छा लग रहा है। रवीश रिपोर्टिंग नाम दें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए।
ye log jis paise se prachaar kartein hain usko apne ghar se thode hi laatein hain.
ReplyDeletesasta ka raag ratate hain aur din ke ujjale me loot le jatein hai.
vakai kaphi majedaar post tha......
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ReplyDeleteरविश का स्मार्ट writing ................
ReplyDeleteमाल में भी जाता हु
फ्लैट भी है गाजियाबाद में
(कार रोकता हु ) वाह कर भी है उनके पास
blace berry भी है उनके पास
smart writng about proverty and buget
enjoy
सर नौकरी मत छोड़ दिजिएगा... नहीं तो और गंध फैल जाएगी... ब्लॉग ठीक है... लेकिन टीवी पर कभी कभी ही सही आपको देखना अच्छा लगता है...
ReplyDeleteफोटो झकास है एक दम ....ब्लेक बेरी में हिंदी लिखने के लिए कौन सा सोफ्ट वेयर डाउनलोड किया है ?
ReplyDeleteरवीश कुमार क़स्बा पर रिपोर्ट करे या फिर एनडीटीवी इंडिया पर रिपोर्ट पढ़ने देखने में हर बार नयापन और नज़र का पैनापन झलकता है। लगे रहो आशु इतिहास विश्लेष्क!
ReplyDeleteye sab punjiwad ki den hai.
ReplyDeleteइस कहानी में कुछ ऐसे ही भविष्य की बात है.
ReplyDeleteवर्ना उनकी ग़रीबी बिना कपड़ों के बाहर आ जाती।
ReplyDeleteइस गरीबी पर भी कभी आपकी निगाह जाती ही होगी । इंतेज़ार रहेगा ऐसी ही किसी पोस्ट का । चिंता न करे मैने पिछले कई सालो से टीवी नही देखा है ..मेरे घर में टीवी है ही नहीं । हम लोग किताबे पढते है और ब्लॉग पढते है ।
आपकी यह रिपोर्टिंग टीवी की कई रिपोर्टिंगों पर भारी पड़ती है्। इसे जारी रखिएगा...
ReplyDelete- आनंद
ये रिपोर्टिंग पसंद आई कुछ ऐसी ही रिपोर्टिंग टीवी पर देखने की इच्छा है।
ReplyDeletetheres a similartiy btn u and raju srivastav ,,,,,u look 4 something or anything which is unique.........raju looks 4 laughter material.
ReplyDeleteThere's no end to unhumane things.. paisa insan se kya kya nahi karwata,,, aur sabse nirah hone wali baat ye hai ki.. koi bhi isse pare nahi hai.. na tum na main! Sad
ReplyDeleteअब राह चलते बचकर निकलो...
ReplyDeleteकहीं रवीश भाई कार से उतरें और फोटो क्लिक कर हमको नईसड़क कस्बे पर न चिस्पा दें।
बहुत अच्छा है..टीवी से दूर रहकर भी एक रिपोर्टर हैं।
इसलिए ब्लैकबेरी लाजवाब है। बिना किसी से पूछे सस्ते में क्लिक करता हूं और ब्लॉग पर रिपोर्ट हाज़िर कर देता हूं। वैसे भी जो मैं कर रहा हूं,उसके लिए टीवी में जगह नहीं है। इन सब चीज़ों का न्यूज़ पेग नहीं होता। मगर शहर आंखों के सामने बदल रहा है तो कैसे छोड़ दूं। नतीजा यह है कि गाड़ी चलाना मुश्किल हो गया है। एक कदम चलता हूं,कार रोकता हूं और उतर कर क्लिक करने लगता हूं। मज़ा आता है। टीवी से दूर रहने का कोई अफसोस नहीं है। देखना और दिखाना मेरा जुनून है।