वैशाली से इंदिरापुरम जाने के रास्ते पर पंचर की इस दुकान पर डिश टीवी देखकर लगा कि डिजिटल टेक्नॉलजी दाल भात हो रही है। डिश टीवी एक महंगा उपकरण है मगर यह उनकी ज़िंदगी का भी हिस्सा बन रहा है जिनके स्थायी घर न हीं हैं। खानाबदोशों के सामान में टेलीविजन भी शामिल हो गया है। सबको विकल्प चाहिए। गांवों में लोग डिश टीवी लगा रहे हैं। कितना इंतज़ार करते। कितनी पीढ़िया बिना रियालिटी शो देखे खतम हो गईं। पता ही नहीं चला कि कोई राखी कोई राजू धमाल कर रहे हैं। न्यूज़ चैनल क्या दिखा रहा है गांवों के बारे में। यह गांव के लोगों को पता ही नहीं चला। डिश टीवी से पता चलेगा। बैटरी ट्रैक्टर में चार्ज कर रईस लोग अब शाम को एक घंटा टीवी देख लेते हैं।
chaliye kabhi kabar news chennals dekhne se kam se kam inhe desh ki haqikat to pata chlegi. ki hamare bharat me kaise kaise log rah rahe hai. aur wo kaisi zindgi basar kar rahe hai.
ReplyDeleteउन्हे भी तो पता चले क्या क्या परोस रहा है टी वी ।
ReplyDeleteसेलफ़ोन के बाद डिश वाली ख़बर भी अच्छी है
ReplyDeleteयह कमाल तो शायद माया जगत के कारण संभव हुआ - शाहरुख खान के बार-बार 'डिश करो' सुन सुन, शहर वालों को ही नहीं पर 'बाहर गाँव' से पापी पेट के कारण आये नौजवानों को भी, और फिर बीच बीच में, पैसा कमा, गाँव वापिस जा उसका मौखिक विज्ञापन कर...मुफ्त में...कहते हैं कि दिल्ली में ही इस प्रकार ५ - ५ १/२ लाख जवान प्रति वर्ष चले आते हैं...
ReplyDeleteबचपन में पचास के दशक में, दिल्ली में ही, हमारे घर में काम करने वाले - किसी समय पहाड़ के किसी इलाके के प्राचीन राजा की खानदान से सम्बंधित - हमारे नौकर ने बताया था कि कैसे वह स्कूल के लिए मिली फीस साथ लिए मैदानी इलाके में भाग आया शहर क़ी चका-चौंध के बारे में किसी और लड़के से सुन...और किसी ढाबे में बर्तन माँजने के काम से आरंभ कर, तरक्की कर, उस समय हमारे घर पहुंचा था...और इस प्रकार धीरे-धीरे सरकारी नौकरी पा दफ्तरी बन गया था, घर मिल गया था और गृहस्त जीवन व्यतीत कर रहा था जब अचानक मिल गया था एक दिन...
रवीश गलत कह रहे हो, जानते हो पुराने वक्त से ख़ानगी से लकर मजमेशाही करने वाले लोग हैं खानाबदोश। इन्होंने मनोरंजन किया भी है और खुद मनोरंजन के लिए नए नए माध्यमों के पुराने समय से शौकीन भी रहे हैं। रोटी के साथ इनके पास पुराने समय से ही रेडियो का फिर स्टीरियो कैसेट प्लेयर जरूर मिलता था, हां अब ये भी अपडेट हो रहे हैं। डिश किया और विश किया।
ReplyDeleteसही बात है।
ReplyDeleteमैं पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश गया तो कई सुदूर इलाकों में भी घूमना हुआ। लोगों के पुराने और मरम्मत किए हुए घरों की छतों पर डीडी डायरेक्ट की छतरियां लगी हुई थी। मेरे साथ एक मित्र थे जो बलिया के रहने वाले हैं। वो काफी हैरान हुई ये नज़ारा देखकर
बिल्कुल ठीक सर... जब दाल 90 रुपये किलो खरीद सकते हैं... मंहागा किराया देकर बस में सफ़र कर सकते हैं... दाम बढ़ने के बावजूद गिलासफुल दूध पी सकते हैं... तो फिर पैसा खर्च कर मनोरंजन क्यों नहीं कर सकते...
ReplyDeleteरवीस जी, आपका कैमरा भी हम देखते हैं हर जगह पहुंच जाता है। कमाल करते हैं आप भी।
ReplyDeleteडब्बू डॉलर, नई दिल्ली
अच्छा आइडिया
ReplyDeleteYe sab media walo k dain hai .jaruri nahi k us garib pancher wale ko hi photo dkthe.ap log apna camera lekar nikalte hai garib bharat khojne. Nek kam hai garibo k madad karna lekin unke dard par nimak chidak kar nahi.kabhi delhi se nikal kar dekhiye. Up .azamgarh dekhiye kya hal hai. Isse vibhatsam tasveer milegi
ReplyDeletebachchpan mein dekha tha aisa hi jab black&white TV aaya tha.. rais logon ko tracter ki battery pe ek ghanta samchar dekhte...lekin ab dish ke zamane mein bhi ek baat nahi badli...bijili ki haalat...aaj bhi battery hai kal bhi battery thi...
ReplyDeleteभैया ये चीनी समाजवाद-बाज़ारवाद की देन है जो अब गरीब भारतीयों के घरों में सी डी-टी०वी० है और अब उन्हे और उनके बच्चों को कोई अमीर आदमी नही दुत्कार सकता क्योंकि अब उन्हे उनके घरों में टेलीविजन पर आ रहे कार्यक्रमों को झाकना नही पड़ता। ये देन है ग्रे मार्केट की जिसे चीनी सामान ने पाट रखा है। समानता का भाव और हीन भावना से मुक्ति हासिल करने में चीन के शुक्र गुज़ार होना चाहिए, इससे हमारी रेवेन्यू को नुकसान पहुंचता है किन्तु..........यदि दिल्ली मेड सामान भी विकता तो महंगा होता और रेवन्यू भी नही मिलती.....तो बताईए जो हम नही कर पाए उसे स्मगल किए हुए सामान ने कर दिआ
ReplyDeleteभैया ये चीनी समाजवाद-बाज़ारवाद की देन है जो अब गरीब भारतीयों के घरों में सी डी-टी०वी० है और अब उन्हे और उनके बच्चों को कोई अमीर आदमी नही दुत्कार सकता क्योंकि अब उन्हे उनके घरों में टेलीविजन पर आ रहे कार्यक्रमों को झाकना नही पड़ता। ये देन है ग्रे मार्केट की जिसे चीनी सामान ने पाट रखा है। समानता का भाव और हीन भावना से मुक्ति हासिल करने में चीन के शुक्र गुज़ार होना चाहिए, इससे हमारी रेवेन्यू को नुकसान पहुंचता है किन्तु..........यदि दिल्ली मेड सामान भी विकता तो महंगा होता और रेवन्यू भी नही मिलती.....तो बताईए जो हम नही कर पाए उसे स्मगल किए हुए सामान ने कर दिआ
ReplyDelete