वो किताबें आज भी वहीं रखी होंगी
एक के ऊपर एक
किसी कोने में दबीं होंगी
जिनके पन्नों को पलट दिया था तुमने
शब्दों में गड़े इतिहास को ज़िंदा करने के लिए
उन पर पड़ती उंगलियां तुम्हारी
और उनसे टकराती उंगलियां मेरी
धड़कने लगा था इतिहास सारा
हम दोनों के उस एकांत में
मुग़लिया सल्तनत का विस्तार होने लगा था
और मेरे इतिहास बोध का
वो तुम्हारी बिंदी, जहां दिल था मेरी सल्तनत का
पीली तारों से बुनी तुम्हारी काली चादर
महफ़ूज़ कर रही थी मेरी क़ायनात को
छू जाता था जब तुम्हारे कंधे से मेरा कंधा
हलचल मच जाती थी पूरी सल्तनत में
सामंतवाद था या नहीं भारत में
राष्ट्रवाद की समझ कैसे पैदा होती है
उसके दो नागरिकों में
लाइब्रेरी के कोने में बैठे
किताबों के पन्नों से
गरम होतीं सांसों से पिघलता था
मजबूरियों का लोहा
मिलने की कसमें कितनी आज़ाद लगती थीं
जब तुम पलट देती थी फिर कोई नया पन्ना
मुर्दा किरदारों ने भी समझा तब
इतिहास दो ज़िंदा लोगों का होता है।
रोमांस...जाति विमर्श..इतिहास...लाइब्रेरी...और इस सबके बीच नपे तुले शब्दों में बहती कविता
ReplyDeleteसुन्दर कविता..थोडा शिल्प कसा हुआ होता..और अच्छी बन पड़ती.
ReplyDeleteकितना लिखते हैं आप कि कमेंट करते-करते थक जाता हूं। जिस ठेकुए’ ने इतनी ऊर्जा भर दी है आपमें, हमें भी बताईए कि कहां मिलता है। बहर हाल कविता की वे पंक्तियां जिनकी वतह से लिखना पड़ा:-
ReplyDelete"धड़कने लगा था इतिहास सारा
हम दोनों के उस एकांत में
मुग़लिया सल्तनत का विस्तार होने लगा था
और मेरे इतिहास बोध का"
"मुर्दा किरदारों ने भी समझा तब
इतिहास दो ज़िंदा लोगों का होता है।"
लाईब्रेरी, रोमांस और कुछ इतिहास। बहुत कुछ कह दिया खास। आजकल किताबों से प्रेम चल रहा है
ReplyDeleteऔर जिन्दा हो रहे हैं कुछ पुराने अहसास।
वो होना चाहती हैं टॉपलेस
सादर वन्दे!
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति!
रत्नेश त्रिपाठी
वाह वाह रविश जी आजकल तो कलम ने वो रफ़्तार पकडी हुई है कि क्या लाईब्रेरी और क्या म्यूजियम सब नपते जा रहे हैं ..इश्वर आपकी रफ़्तार बनाए रखे और कस्बा यूं बसा रहे बना रहे बढता रहे
ReplyDeletesir.....lagta hai aapne bhi pyar kia hai......
ReplyDeleteplz kabhi apni luv story bhi likh dijiye...
waise mujhe lagta hai college life me bahut ladkia aappe fida hongi
zabardast likhte hia sir
agar ye likhoo ki bahut accha likhte hai aap to bahut hi kam hoga par aapke shabd padhkar khud ko rokna namumkin hai aur bas itna hi kah sakoogi sahi me bahut accha likhte hai aap
ReplyDeletearey wah dost! dil khush kar diya! yeh hai hamare woh ravish bhai jinke intezaar mein hum rehte hain hamesha!
ReplyDeleteye ek kavita main hazaar aar padh sakti hoon :)
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