न औरो की है। असाधारण बीमारी को साधारण बनाकर यह फिल्म कुछ और हो जाती है। फ़िल्म के छोटे-छोटे किस्से अपनी मूल कहानी से छिटक कर अलग दुनिया रचते हैं। जो ज़्यादा गंभीर और असाधारण है। बहुत ज़्यादा इमोशनल लोड नहीं डालती है यह फ़िल्म। बल्कि गहन भावुक क्षणों में सामान्य होने की सीख देती है। साफ़-सुथरी फ़िल्म है पा। लेकिन सिर्फ पा की नहीं है।
किसी ने नोटिस क्यों नहीं किया। यह फ़िल्म राजनेता के छवि को बेहतर तरीके से गढ़ती है और राजनेता के ज़रिये मीडिया को आईना दिखलवाती है। अच्छा सा नेता। कांग्रेस के युवा ब्रिगेड की तरह खादी का कुर्ता-पायजामा पहनने वाला नेता,जो राजनीति में शतरंजी चाल की परवाह किये बिना काम करना चाहता है। इससे पहले की किस फ़िल्म ने राजनेताओं में इतना भरोसा पैदा करने की कोशिश की है,याद नहीं है। हो सकता है मुझसे छूट गई हो। एक ऐसा नेता जो सरकारी मीडिया पर भरोसा करता है। दूरदर्शन पर। उसका इस्तमाल करता है। दूरदर्शन के पहुंच का इस्तमाल करता है और हम प्राइवेट न्यूज़ चैनल के पत्रकारों के मुंह पर गोबर फेंक देता है। तभी किसी पत्रकार ने फ़िल्म के इस पहलु की चर्चा नहीं की,या फिर मुझी से वैसी समीक्षा छूट गई होगी।
अब वाकई डर लगता है। हमारी साख क्या इतनी खतम हो गई है कि कोई नेता हमारे घर अपने लोगों को भिजवा देगा और हमारे घरों पर धावा बोल दिया जाएगा। शैम्पेन के नशे में धुत पत्रकारों की लाइव तस्वीर दूरदर्शन से लाखों घरों में पहुंचेगी और फिर पत्रकारिता की तमाम बहसों के बीच हम भस्म कर दिये जायेंगे। मैं कांप रहा था। अब तक आदत पड़ जानी चाहिए थी। लेकिन मेरी आंखों के सामने दिवाली पर गिफ्ट लेने वाले और दलाली करने वाले पत्रकारों की शक्लें साबूत खड़ीं हो गईं। बहुत दिनों से इस तरह की छवियां कई फिल्मों में देख रहा था। किसी घटना के संदर्भ में मीडिया के आगमन को हास्यास्पद बनाने की कोशिश की जाने लगी है। हिंदुस्तान टाइम्स के विज्ञापन में 'कैसा लग रहा है' टाइप सवाल पूछती एक पत्रकार के सिर पर अखबार का बंडल फेंक दिया जाता है। पा में बाल्की जी ने तो ग़रीबों का हमला करवा दिया है पत्रकारों पर। एक टीवी चैनल के मालिक के घर में भी लोग धावा बोल देते हैं। दूरदर्शन और प्राइवेट न्यूज चैनलों के रिपोर्टर में बहस होती है। उसका लाइव प्रसारण होता है। दूरदर्शन के स्टुडियो से। जिसकी कमज़ोर साख के बदले प्राइवेट मीडिया का जन्म हुआ,आज प्राइवेट चैनलों की साख की ये हालत हो गई कि दूरदर्शन की साख बेहतर बताई जाने लगी है। जाने कितने पत्रकारों का पसीना पानी हो रहा है। मै भी कभी-कभार कहता रहता था कि एक दिन पब्लिक हमें मारेगी। लेकिन अंदाज़ा नहीं था कि हम इस तरह कहानियों के क्रूर पात्र हो जायेंगे। कुपात्र हो जायेंगे।
युवा नेता अभिषेक बच्चन। एक अच्छा सा नेता। इसके ज़रिये घटिया स्तर से नीचे चल रही मीडिया पर लात-जूते बरसवाती है ये फ़िल्म। बाहर की असली मीडिया में इस पर सन्नाटा। फ़िल्म की कहानी से घोर सहमति क्या बता रही है। हम अपने भीतर बहस कर चुप हो जाते हैं। गले को कस कर नाक से हवा छोड़ते हुए कांय कांय आवाज़ निकालते हैं। हम सब राजनीतिक से लेकर इलाकाई और अन्य तरह के स्वार्थों पर केंद्रित खेमों में बंटे हैं। आलोचना अपने खेमे को बचाकर सामने वाले की की जाती है। इसलिए पत्रकारों की आलोचना भी सवालों के घेरे में है। हम किसी न किसी के हाथ में खेल रहे हैं। उसे सही ठहराने के लिए दलीलों की भरमार हैं। मीडिया का म नहीं जानने वाले आलोचक अख़बारों के कॉलम से उगाहने लगे हैं। इन्हीं सब के बीच कोई बाल्की जैसा काबिल निर्देशक आराम से अपनी फिल्म के पर्दे में दो छवि बनाता है। अच्छे नेता की और दूसरी,लतखोर मीडिया की। फिल्म अभिषेक के बहाने राहुल गांधी को प्रतिष्ठित करती है। उन राजनेताओं को कोई पूछने वाला नहीं जो ईमानदार भी रहे और गंवई भी। मर गए लेकिन किसी ने फिल्म तक नहीं बनाई।
अब डरना चाहिए। इतनी बेबस मीडिया न तो पत्रकारों के लिए ठीक है न समाज के लिए। पत्रकारों के बिकने की खबर आउटलुक जैसी पत्रिका की कवर बनती है। प्रभाष जोशी अखबारों का नाम अपने कॉलम में लिख विदा हो गए। सन्नाटा। चुप्पी। अपने भीतर आंदोलन कैसे हो? चलो इग्नोर कर दो। इसमें कोई बुराई नहीं। बुराई तो इसमें है कि चुप्पी का फ़ायदा उठाकर फिर से वही करने लग जाते हैं। सुधरते नहीं हैं। टीवी की आलोचना अपने माध्यम के लोगों के साथ करना मुश्किल है। सब स्वार्थों से एक दूसरे पर साधने लगते हैं। बोलने का अधिकार सबको होना चाहिए। कैसे रोका जाए। लेकिन जो फिल्म जिसकी नहीं है,उसकी तो मत कहो। एक पुलिस अधीक्षक हाल ही में फोन कर रोने लगे कि स्ट्रिंगर लोग दारोगा की बदली के लिए दबाव डालते हैं। उनसे महीने की दलाली लेते हैं। इनसे कैसे निबटें। बहुत सुनने के बाद उनसे यही कहा कि अगर आप के पास सबूत है और यकीन है तो पकड़ कर टांग तोड़ दीजिए। क्या यही छवि है हमारी पब्लिक में। फिर हम किस पब्लिक के नाम पर दुनिया के खात्मे वाले कार्यक्रमों को संवारेंगे। एक दिन वो भी फेल कर जायेगा।
पा,अमिताभ बच्चन की फ़िल्म नहीं है। एक अच्छे राजनेता की है। जो काम करते करते थका जा रहा है। जिसका कुर्ता सचिन पायलट से मिलता है। जो राहुल गांधी की तरह अंबेडकर बस्ती में जाकर हरिजनों को गंदगी से निजात दिलाने के लिए योजनाएं बनवाता है। सैंकड़ों लोगों के बीच आकर अपनी निजी ज़िंदगी की बात स्वीकार कर लेता है। 'हां उस रात मैंने कंडोम का इस्तमाल नहीं किया।' 'मैंने भी वही किया जो मेरी उम्र का लड़का कर जाता है।''लेकिन अच्छा हुआ कि उस रात कंडोम नहीं था।''वर्ना औरो जैसा बेटा कहां मिलता।'अमोल अर्ते की साफगोई ने सियासी साज़िशों को उलट दिया। वह एक ज़िम्मेदार नेता है। अपनी सुरक्षा को लेकर ज़िम्मेदार है। लोगों को सड़क पर पॉटी करते हुए नाराज़ होता है। कहता है सरकार ने शौचालय बनवा रखे हैं। अब यहां बाल्की को मीडिया की मदद लेनी चाहिए थी। जो दिखाता कि सरकारी शौचालयों की क्या हालत है। हम भी यही कर देते हैं कभी-कभी। इकतरफा हो जाते हैं।
लेकिन बाल्की ने फिल्म मीडिया की छवि बनाने के लिए नहीं बनाई है। बल्कि छवियों को गढ़ने वाली मीडिया को गर्त में फेंक देने के लिए बनाई है। दूरदर्शन की महिमा है। फिल्मकार की आलोचना सही है। लेकिन इकतरफा है। मीडिया की तरफ से वकालत करने का कोई फायदा नहीं है। हमारे इतिहास और वर्तमान में बहुत कुछ अच्छा है। बहुत कुछ अच्छा भी हो रहा है। लेकिन जो बुरा है वो ज़्यादा हो गया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि न्यूज़ चैनलों को प्रोजेरिया हो गया है। इतने कम समय में इतनी तेज़ी से बढ़ गए कि हांफने लगे हैं। दम तोड़ते से लगते हैं। उन्हीं की इस बीमारी की कहानी है पा। कोई शोध करेगा कि इक्कीसवीं सदी की हिन्दी फिल्मों में मीडिया के फटीचर काल का चित्रण।
नोट- पा एक मां और उसकी अनब्याही बेटी की भी कहानी है जो मां बनना चाहती है। दोनों के रिश्तों में आज के समय के हालात की चुनौतियों को परिपक्वता से गढ़ने की कोशिश है। ये वो मां है जो अपनी अनब्याही बेटी के मां बनने पर उसे कलमुंही और कुलबोरनी नहीं कहती है। पूर्वजों को याद कर माथा नहीं पिटती कि इसने आपका सत्यानाश कर दिया है। बल्कि मां अपनी बेटी से सवाल करती है कि ये बच्चा चाहिए या नहीं। उसके बाद पूरी ज़िंदगी अपनी बेटी का साथ देती है। पा दो मांओं की भी कहानी है।
पत्रकार और पत्रकारिता के स्तर को न सिर्फ़ पा में दिखाया गया है बल्कि, ए वेडनेस डे, मुम्बई मेरी जान और दिल्ली 6 जैसी कई फ़िल्मों में इसे दिखाया जा चुका हैं। दरअसल मीडिया का हाल कुछ ऐसा है कि दूसरे के अंदर की गंदगी तो उसे दिखाई देती हैं लेकिन, ख़ुद के अंदर वो कभी नहीं झांकता है। किसी भी मुद्दे पर कोई भी मीडिया संस्थान ख़ुद को किसी भी सामान्य कंपनी से तौलकर देख ले। वो ख़ुद को उतना ही हल्का और ग़लत पाएगा जितना कि वो किसी और को कहता है।
ReplyDeleteअगर मुम्बई मेरी जान आपने नहीं देखी हैं तो ज़रूर देखें। किसी के मरने पर उसके घरवालों के आंसूओं को भुनानेवाली रिपोर्टर को कैसे उसके ही चैनलवाले उसके मंगेतर के मरने पर भुनाते हैं आप देख सकते हैं।
दिप्ति,
ReplyDeleteज़रूर देखूंगा।
bilkul sahi kaha aapne ravish ji.paa amitabh ki film sabse ant main hai.nabbe ke dashak main aise hi koshis sharukh khan ne phi bhi dil hai hindustani ke jarite ki thi,jisme ek tathakathit terrorist ke phasi ka live telecast ka dava chhannel ker rahe hai .shayed yeh film samay se thoda pahle thi.bacche ke gaddhe main girne ka live telecast bahut channels ne kiya.us time bhi mediya ne ise puri tarah nakar diya tha.
ReplyDeleteसटीक आलेख, सटीक विश्लेषण.... पा को सही मैं माँ होना चाहिए था!
ReplyDeleteवैसे जिस प्रकार मीडिया बहुत सारे लेख या रिपोर्ट सत्य से परे प्रस्तुत करता (लिखता या दिखाता) है कमोबेश फिल्मकार लोग भी वही करते हैं अपने चरित्रों के साथ परन्तु बाल्की एक अच्छे दिग्द्दर्शक हैं और "चीनी कम" के बाद उनकी ये दूसरी फिल्म है जो कम से कम कहीं ना कहीं दिल को तो छू ही जाती है!
कहते हैं, सांच को आंच नहीं। लेकिन आजकल सच मिलता ही कहाँ है। फिर चाहे वो
ReplyDeleteमिडिया ही क्यों न हो। अंतर्मन में झाँकने की बहुत ज़रुरत है।
aaj media jis gandagi ko khud me samete hai wahan ab sabhya aur seedha saada pariwar apni betiyo ko bhejne se ghabrane laga hai..ye wahi media jisne apni young lady reporter ki maut ko pachane me zara bhi gurez nahi kiya ...shayad apne ander ka ghinauna chehra samaj ke samne lana media bhi nahi chahta warna aarushi murder case me jis teji se media ne apna dam khum dikhaya uska 1% bhi wo khud apne hi tabke ki reporter ke liye na dikha saka,
ReplyDeleteमैंने भी यह फिल्म अपने ८ वर्षिय धोते(नाती) के कारण देखी - दोनों, माँ-बेटे के साथ...
ReplyDeleteमुझे भी बाप के रोल में पहली नज़र में अभिषेक राहुल गांधी सा दिखा...और विद्या बालन हमेशा एक सी ही दिखी, जवान, जिस पर समय यानि काल ने कुछ असर नहीं किया - यानि मेहरबान रहा इतने तनाव के बाद भी...
प्रोजेरिया का ख्याल शायद 'तारे इस ज़मीन' की सफलता के कारण आया होगा...पर अपने जीवन में मैंने ऐसा नमूना नहीं देखा था, इसलिए दिमाग अधिक नहीं लग पाया...
ऐसा प्रतीत हुआ कि फिल्म सिर्फ अमिताभ की एक्टिंग की चरम सीमा को उजागर करने के लिए बनी थी...
मैंने पाया कि सिनेमा हॉल में बच्चे खूब हंस रहे थे - और मेरे नाती को भी फिल्म खूब पसंद आई...
पा अमिताभ की ही फिल्म है और औरो की भी। हां यह किसी मां को मां की, बाप को बाप की, नानी को नानी की और नेता को नेता की और मीडिया वाले को मीडिया वाले की फिल्म भी लगी। बहुत से पहलू अच्छे थे फिल्म में। जहां तक मेरी राय है अभिषेक और अभिषेक का किरदार इस फिल्म के सबसे कमजोर पक्ष थे।
ReplyDeleteरवीश जी, पा के बारे में पुण्य प्रसून जी ने काफी दुरुस्त लिखा है। आपने पढ़ा होगा। वो भी एक पक्ष है जिसे खारिज नहीं किया जा सकता।
ReplyDeleteits true but this movie is only reply to shashi kapoor for the movie deewar after 30 years when shashi kapoor said that"mere pass maa hai."
ReplyDeletenow mr. bachchan said that "mere pass paa hai."
just kdng
थोड़ी अफसोस की बात है... इतने लंबे कैरियर के बाद भी आपको पा देखने के बाद बातें समझ में आ रही है... या फिर हो सकता है आपने जर्नलिज्म के स्कूल कहे जाने वाले जगह पर काम किया है... इसलिए सड़ांध की महक पहचानने में इतना समय लग गया... लेकिन सबसे ज्यादा जिम्मेदारी आपके चैनल और आप जैसे खाए खेले पत्रकारों की ही बनती है... जो आदर्श गढ़ते भी है... और आर्दश बनाते भी हैं... क्यों नहीं एनडीटीवी इमेजिन के चटकारे को इंडिया पर चला कर इंडिया भर में दिखाते समय नौकरी छोड़ ब्लॉग पर अपनी समझ की जीत और बुराई की बली की घोषणा करते हैं... या फिर ये सब भी शायद वाहवाही लुटने और बौद्धिक उलटी करने की चेतना मात्र है... हालात से रुबरू होना है तो फिल्मों के जरिए नहीं बल्कि छोटे खबरिया गिरमिटिया मजदूरों की नामर्दी को देखिए... आपको आसपास भी होंगे... और बड़े खबरिया चैनलों के लखटकिया कार वाले पत्रकारों को देखिए... कैसे वो चमड़ी और चेहरे के कोण को देखकर नौकरी देते हैं... और फिर बाद में कमर के नीचे से स्क्रिप्ट को गुजरने के लिए मजबूर करते हैं... और जो लोग मीडिया की नौकरी में रहकर बौद्धिकता की शेखी बघारते हैं... वो क्यों नहीं जठारनल को बुझाने के लिए सबसे पहले आजादपुर मंडी से आलू लाकर खरीदने बेचने का धंधा कर लेते हैं.... और तब करें पत्रकारिता... लेकिन मैं तो निरा बेवकुफ ठहरा... ये वो पत्रकार हैं जो गुड़ खाते हैं लेकिन गुलगुल्ला से परहेज करते हैं... इनकी सारी ईमानदारी और बोद्धिकता सिर्फ विचार में होती है... व्यवहार में तो ये किसी के भी बाप निकलेंगे... इसे कृप्या व्यक्तिगत न लें... सर से उपर हो चुके गु के गड्ढे में कमर तक गंदा होने के लिए मैं आपका हमेशा से कायल हूं... कम से कम आप मुंह और नाक तो बचाए हुए हैं...
ReplyDeleteअच्छा लगा कि एक पत्रकार स्वीकार किया तो कि मीडिया को प्रोजेरिया हो गई है। किसी सोशल नेटवर्किंग साइट पर ये तो कबूल किया कि आपसी स्वार्थ के नीचे पत्रकारों की टुच्चई किस कदर है।
ReplyDeleteअपनी जेब में तो फिल्म देखने के पैसे होते नहीं आप ही सबकी समीक्षा पेल दिया करो,लगता है हमने देख ली। तमाम लोगों ने देखी, लेकिन आपका चश्मा अलग है। आपके चश्मे से देखने और सुनने में मज़ा आया। अब कौनसी देखने जा रहे हो?
ReplyDeleteआप तो बडे पत्रकार है और मै एक राजनैतिक परिवार से . कुछ साल पहले तक हम लोग पत्रकारो को आदर देते थे उन्के कार्य के लिये . लेकिन जब से इलेक्शन मे अखबारो के पैकेज लेने पड रहे है तब से हमे समाचार सम्वाददाता विग्यापन सन्कलन कर्ता नज़र आने लगे है .
ReplyDeleteऔर आप भी इस बात को झुठ्ला नही सकते कई पत्रकार विलौचिया की भूमिका निभा रहे है आज से नही बीसो साल से .
सिनेमा की बात तो नाट्कीय है लेकिन लोकतन्त्र के सभी खम्बे एक ही थैली के चट्टे बट्टे है
आज पत्रकारिता मिशन नहीं कमीशन का पर्याय है
ReplyDeleteकस्बा पहले भी पढता रहा हूँ लेकिन दिल्ली मैं सूचना के अधिकार अवार्ड मैं आपसे मुखातिब भी हुआ | पा को लेकर आपका विश्लेषण सटीक लगता है लेकिन यह भी है कि ये बदलाव आज के दौर मैं संभव नहीं जान पड़ता है | आज पत्रकारिता मिशन नहीं कमीशन का पर्याय है | नितांत चिंताजनक प्रसंग बांटता हूँ | मैं अवार्ड लेकर मेरे गाँव आया और मीडिया के साथियों के साथ चर्चा कर रहा था | वार्ता ख़तम होने के बाद मेरे यहाँ के एक पत्रकार साथी का फ़ोन आया कि हम फोटो के साथ बड़ी खबर दे रहे हैं, आपको तो एक लाख मिल गए, हमें क्या ? मैंने कहा कि साहेब आप मत प्रकाशित करिए तो दूसरे दिन मेरी खबर नदारद थी | दरअसल ये कहने का मतलब यह है कि जो बात आप कस्बा पर लिख रहे हैं वो गाँव मैं भी पहुँच गयी है | पा तो आइना दिखता है | बहरहाल मीडिया के भीतर के मुद्दों पर अपनी बेबाक राय के लिए साधुवाद |
प्रशांत दुबे
भोपाल
atmadarpan.blogspot.com
SACHIN KUMAR
ReplyDeleteI AM GOING TO SEE PAA FIRST AND THEN WILL COMMENT ON IS IT BACCHAN JI KI FILM HA YA NAHI AND ABOUT DIPTI JI COMMENT ABOUT MEDIA....
kavi(patrkaar, lekhak) ne apni kalam ko kamini aur kanak ke liye kulshit kiya hai...aaj hum logon ki jaat ye kar rahi hai..ye sach hai...aapne sahi kaha..achcha bahut ho raha hai ..lekin bure se kam ho raha hai....
ReplyDeleteरवीश भाई.....'पा' मैने अभी देखी नहीं.इस कारण आपके समीक्षा पर अभी कुछ नही कहना चाहता.....पर आपको मीडीया की गन्दगी अब नज़र आई ऐसा लगता नही....बार बार आपका लिखा "शायद मुझी से छूट गया" कुछ और ही बयां कर रहा है. आपभी राहुल गांधी की तरह बात कर रहे हैं......"हां है गलती पर मै कुछ नही कर सकता (करुंगा)" कई बार राहुल के मुंह से सुना है भारतीय राजनीति,व्यवस्था और कांग्रेस पार्टी के बारे में.ये हमारी दुर्दशा है कि हम इसी में भारतीय राजनीति की भलाई ढूंढ रहे हैं. "अच्छा सा नेता। कांग्रेस के युवा ब्रिगेड की तरह खादी का कुर्ता-पायजामा पहनने वाला नेता,जो राजनीति में शतरंजी चाल की परवाह किये बिना काम करना चाहता है।" पता नहीं चला आप क्या कहना चाह रहे हैं. अगर ये बातें फिल्म के बारे मे है तो दीगर बात है पर अगर ये "कांग्रेस के युवा ब्रिगेड" के बारे मे है तो ............
ReplyDeleteकमीशन के लिए लोग मिशन पाल रहे हैं दोस्त। मैदान छोड़कर भागने से क्या होगा। मजबूरियां हमेशा रहेंगी। जितनी की ताकत है उस हिसाब से कोशिश तो करेंगे। एक दरख्वास्त है आप सबसे,मुझे बड़ा पत्रकार कह कर संबोधित न करें। एक तो अनुभव काफी कम है और दूसरा बड़ा पत्रकार से उसी टाइप की बू आती है जिस टाइप की बातों की आलोचना की आज़ादी मैं चाहता हूं। मुगालता एक रोग है। नहीं पालना चाहिए। टीवी पर दिखने से कोई बड़ा नहीं हो जाता है। इस तरह के गुण मुझमें नहीं हैं।
ReplyDeleteप्रशांत जी
,
कम से कम हम यह तो कर ही जाएं कि दर्ज करा दें। कवि तलवार नहीं चलाता। अपनी कविताओं से समाज को संवेदनशील करता चलता है। उसकी नाकामी इस रूप में नहीं दर्ज होगी कि तुम्हारी कविता पढ़ने के बाद कितने लोगों ने नौकरी छोड़ कर समाज को बदलने के लिए आहूति दी। जो सोच बनती चलती है,उसकी भी भूमिका उतनी ही होती है जितनी अग्रिम मोर्चे पर लड़ने वालों की।
ये है पत्रकारिता।
मृणाल
ReplyDeleteमैं बिल्कुल लेख में राहुल गांधी की तरीफ नहीं कर रहा हूं। मैंने तो कटाक्ष के लहज़े में लिखा है।
फिल्मे जरिया हैं हमारे समाज को आइना दिखाने का ...एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है ... इसी तरह इस क्षेत्र के कुछ लोगों ने मीडिया को बदनाम कर दिया है ... आपने अपनी बात को जोरदार तरीके से रखा है ...
ReplyDelete'पा' अभी देखि नहीं है पर एक तो इसमें दिखाई अनोखी बीमारी और माँ बेटी के सुलझे हुए रिश्तों को देखने की तमन्ना है ..
रवीश भाई.....शायद मै ही समझ नही पाया था. और मै आपसे पूरी तरह सहमत हूं कि "मैदान छोड़कर भागने से क्या होगा। मजबूरियां हमेशा रहेंगी। जितनी ताकत है उस हिसाब से कोशिश तो करेंगे।" आपसे बहुत उम्मीदें हैं.
ReplyDeleteपत्रकार, पुलिस, नेता या किसी को भी अलग से चांटे मारने की कोई तुक दिखाई नहीं पड़ती। इनमें से कोई भी आसमान से नहीं टपका। ये भी उसी समाज से आए हैं जहां से हम। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम भी किसी से कम नहीं। पश्चिम में भी स्त्री की दशा वहां के पुरुष की तुलना में खराब है लेकिन यहां की स्त्री से बेहतर है। शायद यह इस पर निर्भर करता है कि हम कैसे समाज का हिस्सा हैं। कहीं एक समाज के रुप में हम पाखण्ड, कर्मकाण्ड और इमेज को वास्तविकता पर तरजीह तो नहीं देते ! इतने अवतारों, गुरुओं, ग्रंथों और महापुरुषों के बावजूद हम पश्चिम जैसा आत्मानुशासन और ई्रमानदारी क्यों नहीं पैदा कर सके !? हो सकता है कि हमारे यहां सीवर के ढक्कन चोरी हो जाने की वजह गरीबी और अशिक्षा हो, लेकिन तरह-तरह के टैक्सों की चोरी और पैसे और जाति-लिंग से जुड़ी कुप्रथाओं के बने रहने की वजह गरीबी और अशिक्षा भी नहीं हो सकतीं। इन्हें अमीर और पढ़े-लिखे भी छोड़ने को तैयार नहीं।
ReplyDelete‘पा’ अभी देखी नहीं।
एक प्रश्न और उठने लगा है आजकल मन में। यह ‘साफ-सुथरी’ फ़िल्म क्या होती है !?
संजय जी
ReplyDeleteये साफ सुथरी फिल्म क्या होती है? अच्छा कहा। वही जिसमें हकीकत का क्रूर चेहरा न हो शायद।
आपने इतनी तारीफ करदी, फिर तो सोच रहा हूँ इस संडे देख ही लूँ।
ReplyDelete--------
छोटी सी गल्ती जो बडे़-बडे़ ब्लॉगर करते हैं।
क्या अंतरिक्ष में झण्डे गाड़ेगा इसरो का यह मिशन?
Ravishji,
ReplyDeleteWe have the same respect towards doordarshan and AIR which we used to have when we were kids,they always give neat and clean news and very unusual news from remote corners of country.I feel so good when i listen or watch them,they bring discipline in us as their news has a certain start and ending at set times.At certain point,they were labelled as mouthpieces of government,but most of their programmes are unbiased and respectful,short and concise.
Private channels only create panic and chaos.why they do this is incomprehensible to me?In long term,its harmful for channel.
Regards,
Pragya
आपकी इस लाजवाब समीक्षा के लिए मेरी और से तालियाँ...इस से पहले 'पा' के बारे में ऐसा किसी ने नहीं लिखा और न ही सोचा...एक सच्ची और अच्छी समीक्षा जिसकी जितनी भी प्रशंशा करें कम होगी...
ReplyDeleteनीरज
प्रज्ञा जी ने ठीक कहा, जैसा मैं भी पहले कभी आपके ब्लॉग में कह चुका हूँ, इतने सारे निजी चैनल हो गए हैं जो आपस में ही टी आर पी के चक्कर में न जाने क्या उल जलूल से लगते कार्यक्रम पेश किये जा रहे हैं...जिस कारण आम आदमी के मन में एक उथल पुथल सी मच गयी लगती है, उसी एक बच्चे की तरह जो अनेक खिलोने आज पा तो लेता है पर सुकून उसे अपनी, पुरानी ही सही, टूटी फूटी गुडिया के साथ खेलने से ही मिलता है...और कहावत है कि जहां धुआं है वहाँ आग तो होगी ही...और 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता'...''कोयले कि दलाली में हाथ काले', आदि आदि...सब माया पैसे की ही है...और समय 'घोर कलियुग' की ओर बढ़ रहा है...
ReplyDeleteभूल चूक माफ़ लेनी देनी...(E&OE)
दूरदर्शन का नॉस्टॉल्जिया अब भी अपना असर दिखाता है रवीशजी, याद आते हैं मंजरी जोशी, शम्मी नारंग, रमण, सलमा सुल्तान.....ये समाचार वाचकों के वो पायदान थे जो अपने आप में कवर पेज हैं, बाकी तो आजकल के समाचार चैनल उस किताब के पन्ने बनने की हैसियत भी नहीं रखते.....हां कभी कभी एनडीटीवी पर दूरदराज के इलाके से आई खबरें उस दौर की झलक दिखा जाती हैं, पर फिर भी दूरदर्शन दूरदर्शन है जिसका दर्शन अपने आप में सार्वजनीन है .... आज कल के चलताउ चैनलों की तरह केवल टीआरपी के बेंत से बचने की ललक में आंय बांय बकते रहने की कवायद नहीं करता दूरदर्शन ।
ReplyDeleteऔर हां, फिल्म को इस नजरिये से देखना बढिया लगा।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteSACHIN KUMAR..
ReplyDeleteNAMASKAR ALL. PAA DEKH LI HAI AUR MERE BLOG PER IS BARE ME LIKHA GAYA HAI...DIPTI JEE EK BAR JAROOR PADHIYEGA...O LOG BHI JO MEDIA KO KUCH BHI KAHTE RAHTE HAI,GARIYATE RAHTE HAI...EK NISPAKSH REPORT HAI MEDIA PER BHI AUR PAA PER BHI..ITNA YAKIN DILATA HOON....
namaskaar
ReplyDeleteravish bhaaii badhaaii.
aapake blog kaa yah comment baksaa hindi men nahiin chalataa hai. kuchh upaay kiijiye.
hosakataa hai aapako apane lekhon pr tippadiyan pdgane ka samaya hii nahii milataa ho.
aakhir paa dekhane ke baad apkii satiik samiikshaa achhii lagii. main filme kam dekhataa huun kintu progeria jaanane ke liye yah film dekhii aur yah lagaa ki yah film jo vastav men kahanaa chahatii hai usakii charchaa press ya miidiyaa mei kyon nahiin horahii hai.
aap meediyaa vaale hain meediyaa vaale kyaa kyaa kar rahe hain aap ssaamaanya janataa se
adhik janate hain. yadimain kahuun ki meediyaa ko progeria hogayaa to yah theek nahiin hai. meediyaa kobhii vahii rog ho gayaa hai hai jo vidhaayikaa karyapaalikaa ko ho gayaa hai. nyaay palikaa par no kament.
jab man kii baat duusaraa bhii kahataa hai to achhaa lagataa hai. yadi vah ek ravish ho to aur achhaa lagataa hai.
namskaar.
ek baar fir kahuungaa "Leave your comment' kii jagah hindi me vyavasthaa kariye. tathaa is boks men bhii roman likhanee par hindi men badalane kaa upaay kiijiye.
yadi tppaNii padhate hain to ab kampoo ke jamaane chhotaa sa jabaab hindii ke tathaa aam janataa ke svasthya ke liye theek hoga
fir se namaskaar.
sabhii ko namaskaar.
jaya prakash paathak.
namaskaar
ReplyDeleteravish bhaaii badhaaii.
aapake blog kaa yah comment baksaa hindi men nahiin chalataa hai. kuchh upaay kiijiye.
hosakataa hai aapako apane lekhon pr tippadiyan pdgane ka samaya hii nahii milataa ho.
aakhir paa dekhane ke baad apkii satiik samiikshaa achhii lagii. main filme kam dekhataa huun kintu progeria jaanane ke liye yah film dekhii aur yah lagaa ki yah film jo vastav men kahanaa chahatii hai usakii charchaa press ya miidiyaa mei kyon nahiin horahii hai.
aap meediyaa vaale hain meediyaa vaale kyaa kyaa kar rahe hain aap ssaamaanya janataa se
adhik janate hain. yadimain kahuun ki meediyaa ko progeria hogayaa to yah theek nahiin hai. meediyaa kobhii vahii rog ho gayaa hai hai jo vidhaayikaa karyapaalikaa ko ho gayaa hai. nyaay palikaa par no kament.
jab man kii baat duusaraa bhii kahataa hai to achhaa lagataa hai. yadi vah ek ravish ho to aur achhaa lagataa hai.
namskaar.
ek baar fir kahuungaa "Leave your comment' kii jagah hindi me vyavasthaa kariye. tathaa is boks men bhii roman likhanee par hindi men badalane kaa upaay kiijiye.
yadi tppaNii padhate hain to ab kampoo ke jamaane chhotaa sa jabaab hindii ke tathaa aam janataa ke svasthya ke liye theek hoga
fir se namaskaar.
sabhii ko namaskaar.
jaya prakash paathak.
जयप्रकाश,
ReplyDeleteकई लोग हिंदी में टिप्पणी करते हैं। मैं सभी टिप्पणियों को पढ़ता हूं। लेख के बाद वही पढ़ना रह जाता है। थोड़ी ज़्यादा तारीफ हो जाती है तो घबराहट होने लगती है। पर हम लोग तारीफ और आलोचना में उदार लोग हैं। जम कर करते हैं। आपने लेख को पढ़ा और प्रतिक्रिया दी इसके लिए आप और सभी का शुक्रिया।
bahut dino baad aapka blog khola pa ki kahani per jo aapne sach rakha hai. wo bilkul satik hai. pata nahi kyo sabko lag raha hai ki jo ho raha hai wo galat hai lekin awaz uthane ke liye koi taiyaar hi nahi hai
ReplyDelete