गिरने जा रहे हैं। आज वो हमारे यहां गिरा हुआ है। चार दिन से यहीं गिरा हुआ है। बहुत दिनों तक माथापच्ची करता रहा कि किस कद्दावर सिंह से पूछूं कि भाई गिरना क्या होता है। जब कोई किसी के यहां जाता है तो वो गिरना कैसे हो जाता है। कल मेरे यहां गिरा था सब। कुछ भटकती आत्माओं की टोली दोस्तों के वन-रूम सेटों की खोज में बेचैन रहती थी। उन्हें अपने कमरे में कम मन लगता था। वो हमेशा किसी न किसी के यहां प़ड़े रहते थे। शायद ज़मीन पर बिस्तर होने के कारण गिरना का चलन शुरू हुआ होगा। किसी आदिम प्रवासी ने पहली बार कहा होगा कि तुम्हारे बिस्तर पर आकर सीधे गिर गए। तभी से गिरना चलन में आया होगा।
गिरने-पड़ने के बाद हर उस नुक्कड़ की पहचान कर ली गई थी,जहां से कोई लड़की गुज़रती थी। कई लड़के लाइब्रेरी में भी इस टेकनीक का इस्तमाल करते थे। सीट इस तरह से ली जाती थी कि सामने या बगल में किसी लड़की के बैठने या बैठे होने की संभावना अधिक हो। बहुत सारे फोटोकॉपी के दम पर ही रोमियो बने रहे। किसी सीनियर का नोट्स फोटोकापी लिया और अपने वन-रूम सेट के किसी गुप्त स्थान में दफन कर दिया। छन-छन कर जानकारियां लीक की जाती थीं ताकि लड़कियों में नोट्स पाने की बेचैनी बने रहे। हालात को देख लड़कियों ने भी नोट्स लेने की टेकनीक निकाल ली थी। कई लड़के सीनियर के नोट्स को अपनी लिखावट में ढाल कर फोटोकॉपी बौद्धिकता के सहारे इम्प्रेसित करने की कोशिश करते थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के नोट्स की कई पंक्तियां समान होती थी। वो ज़माने से चली आ रही थीं।
चैम्पियन गाइड सबको रास्ता बता रहा था। घटिया होने के बाद भी चैम्पियन साक्षर विद्यार्थियों की संख्या ज़्यादा थी। दिल्ली विश्वविद्यालय के हर कॉलेज के कोने में फोटोस्टेट वाला मौजूद होता था। आज भी है। अब तो ईमेल से नोट्स चलने लगे हैं। तब छपाई होती थी। नोट्स देने को लेकर कई तरह की साज़िशों का जन्म हुआ। एक लड़का रोज़ कहीं से नोट्स लेकर आता था। लड़कियां टूट पड़ती थीं। मेरा ही जूनियर था। एम ए के क्लास में। उसने मुझे जीवन का ज्ञान दिया। बोला पानी में मछलियां तैर रही हैं। नोट्स दाना है। डाल दीजिए,फंस जाएंगी। कई लड़के इस तरह के दाने लेकर घूमते रहते थे। नोट्स कल्चर। मिलते ही झट से फोटोकॉपी। नोट्स को लेकर वन-रूम सेट कमरों में कई रिश्ते पुनर्परिभाषित हुए। कुछ टूट गए तो कुछ बने।
नोट्स को लेकर छात्रों का व्यवहार बदल जाता था। किसी के कमरे में अचानक पहुंचा और देखा कि मित्र किसी का फोटोकापी पढ़ रहा है तो पहली प्रतिक्रिया में वो नोट्स को मोड़ देता था। मेरी नज़रों से बचाने के लिए। बिस्तर पर पड़े नोट्स को बातों बातों में पहले पलटता था फिर गोल गोल कर हाथ में ले लेता था। ताकि बिस्तर पर बिखरा जान मैं उठा न लूं। प्रतियोगी होने के लिए अविश्वासी होना अनिवार्य शर्त है। कमरे में नोट्स का होना और अचानक आने की आंशका हमेशा वन-रुम सेट को कमज़ोर बनाती थी। लगता था कि किसी चोर ने बिना ताला तोड़े दरवाजा खोल दिया हो। कई दोस्तों को बक्से में नोट्स दबा कर रखते देखा। मौलिक लिखने की कोशिश में कलम की दाब से बने उंगलियों पर निशान आज भी मौजूद हैं। हिंदी में लिखता रहा। फिर भी दूसरे लोगों के नोट्स भी पढ़े हैं। मुझे आसानी से दे देते थे। क्योंकि अंग्रेजी में लिखने वाले यह मानकर चलते थे कि हिंदीवाला प्रतिस्पर्धी नहीं है। जब अंग्रेज़ी पढ़ना और समझना सीख गया तो ऐसे लोगों से नोट्स लेने में झिझक होने लगी जो मुझे प्रतिस्पर्धी नहीं समझते थे। नोट्स ने लिखने का अभ्यास डाल दिया। आज तक जारी है। फोटोकापी मशीन की दुकान तक पहुंचने के रास्ते में लड़के-लड़कियां किसी प्रतिस्पर्धी के द्वारा देख लिये जाने की आशंका से घिरे रहते थे। लिखावट से लेखक पहचान लिये जाने की आदत भी विकसित होने लगी। यह ज़रूरी था। अचानक छुपा लिये जाने की कोशिशों में लिखावट की एक झलक मौलिक नोट्स लेखक का अहसास करा देती थी। कहां तो उबलनी चाहिए थी इन जवानियों को, लेकिन वो ठंडी हो रही थीं,शाहरूख की मचलती अदाओं की राख पर। प्रवासी छात्रों ने रोमांस का व्यापक अनुभव तो किया लेकिन वो अपने मां बाप और समाज के आज्ञाकारी हो गए। उनकी बेवफाई को झेलती कई लड़कियों की आहें आज भी दिल्ली विश्वविद्यालय की दीवारों से टकराती हैं।
आईएएस बनने की कल्पना में इन वन-रूम सेटों में किसी रात दहेज के सामानों की सूची भी बनती थी। कितना मिलेगा और क्या क्या मिलेगा। फलाने सीनीयर जी को पचास लाख मिला है। शादी में इतने लोग आए थे। दहेज में सिनेमा हाल मिल गया है। प्रवासी छात्र आजादी की हवा तो ले रहे थे लेकिन उनके हर सपने परिवर्तनगामी विरोधी थे। पास से गुज़रती किसी लड़की की देह को नज़र भर देख थोड़ी देर जलते रहने की ऊर्जा उनकी जातिगत मानसिकता में प्रवेश करते ही कमज़ोर पड़ जाती थी। कई वन रूम सेट की बालकनियों और बाथरूम की खिड़कियों से उन झरोखों का रास्ता ढूंढ लिया गया था जिनसे वो किसी नहाती औरत और बेडरूम में कपड़े बदलती किसी स्त्री की देहकल्पना का साक्षात दर्शन कर सके। प्रवासी छात्र अपने इस आंतरिक अतीत को कहीं दफन कर गए हैं। मां-बाप की मर्ज़ी से शादी कर खुद को अच्छा सा लड़का कहलाने के लिए उसी भीड़ में चले गए हैं जिससे निकलने के लिए दिल्ली आए थे। पर दिल्ली की लड़कियों ने इन भूखी आंखों को जो खुराक दी,उसके लिए प्रवासी छात्रों को शुक्रिया अदा करना चाहिए। वन-रूम सेट ऐसे किस्सों से भरे होते थे।
लेकिन वन-रूम सेट ने उन्हें जो आजादी दी,उसकी कोई मिसाल नहीं। सेल से खरीदे गए जीन्स के जैकेट को पहनना और बार-बार आईने में देखना। कमरे से निकलने से पहले ये सुनिश्चित कर लेना ताकि किसी के देखे जाने पर कोई अफसोस न रहे। सुंदर होने और दिखने की पहली पुष्टि आईने के सामने होती थी। एक दूसरे की कमीज़ और स्वेटर पहनना आम बात थी। अच्छा दिखने का जुनून सवार हो रहा था। कई लड़कों ने कमला नगर और सरोजिनी नगर का रुख़ करना शुरू कर दिया था। डेढ़ सौ रुपये की कमीज़ और इतने की ही जीन्स। एक जीन्स कंपनी आई थी। लड़कों ने सेल की जानकारी रखनी शुरू कर दी। इन दुकानों में भटकने के बाद सब अपने अपने वन-रूम सेट में लौट आते थे। दराज़ में पड़ी प्लास्टिक के जार में रखे नमकीन और ठेकुआ खाने के लिए।
आप की यह लेखमाला तो इतिहास का हिस्सा बनती जा रही है।
ReplyDeleteकलक्टर नहीं बन पाने का , कोई दर्द ? इतनी शोहरत और पैसा के बाद भी दिल के किसी कोने में " पहली मुहब्बत" की तरह पहली आरज़ू भी बैठी होगी ?
ReplyDeleteइतिहास से निकाल कर ला रहा हूं। कुछ छूट जा रही हैं तो कुछ जानबूझ कर छोड़नी पड़ रही है। मेरी एक मुश्किल है। मैं शामिल नहीं हो पाता है। खुद के लिए भी बाहरी हो जाता हूं। बाकी तो सारी बातें वहीं हैं जो सबके साथ हुई हैं। सामान्य सी बातें।
ReplyDeleteनहीं मुखिया जी। कोई दर्द नहीं है। मैने यूपीएससी का इम्तहान ही नहीं दिया। एक बार फार्म भरा लेकिन सेंटर तक नहीं गया। कलक्टर बनने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। दूसरों की थी। घर वालों की थी। मैंने वही किया जो करना चाह रहा था। अभी तक तो यही लगता है।
ReplyDeletemai bhi jab pahli baar bihar se diili aaya tha tab MUNIRKA me 1 saal raha tha...shuru shuru me to lagta tha kis dunia me aa gaya hu...patli andheri galiya..na chawal dal hi milta tha ..hindi bhi yaha ki bihar se kafi alag thi..koi bhojpuri bolta tha to lagta tha ki koi to mila apna yaha
ReplyDeleteमनोरंजक धारावाहिक बन सकता है इसपर...इतना बढ़िया लिखने के लिए लिए शुक्रिया
ReplyDeleteबढिया लिखे हो रवीशजी, बहुतै बढिया।
ReplyDeleteone room set se baher aane se kahin jyaada sangharsh karna padta hai us mansikta se bahar aane main.purvanchal se hun bahut se aise jaannewale hai jo das das saalon tak civilservices ki tiayari karte hai. aim hota hai badiya dowry milna.is series ka ab her din intzar hota hai.shukriya ravish ji.
ReplyDeleteSACHIN KUMAR
ReplyDeleteनहीं मुखिया जी। कोई दर्द नहीं है। मैने यूपीएससी का इम्तहान ही नहीं दिया। एक बार फार्म भरा लेकिन सेंटर तक नहीं गया। कलक्टर बनने में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
YE KAMAL KA ONE ROOM SET HAI. MAJA AA GAYA, SABKO AAYA HOGA. MAI BHI ONE ROOM SET ME HI RAH RAHA HOON. LEKIN PRIYA PATHKO JARA UNHE BHI SOON LE JINKI ROOM HI NAHI..ONE ROOM BHI NAHI..YE SARKAR NAHI SUNTI..RAVISH SIR HI SAYAD IS PER LIKH SAKTE HAI...UMMID HAI RAVISH JI JAROOR SUNEGE, NIRAS NAHI KARENGE...KYA HUA SARKAR NA SUNE NA SAHI....THNKS.
MAI BHI CHALA THA EK GHAR BANANE,
NIND KHULI TO 2 ROOM KA SAPNA TOOT GAYA,EK ROOM ME GUJARA KAR LETE HAI,,YE SOCH KAR KI KAI AB BHI BEGHAR HAI....
रविश जी , संवाद के लिए धन्यवाद ! आम आदमी बन कर आम आदमी की जिन्दगी को झांकते रहिये - यही "कला" आपको हमेशा सम्मान दिलाती रहेगी ! बड़ी से बड़ी समस्याओं को कलम से सुलझाने की ताकत या हंसते हंसते लिख / कह देने की शैली आसान नहीं होती है !
ReplyDeleteवन रूम सेट में अब और मजा आ रहा है। वन रूम सेट को अब अलग नज़रिये से देखने लगा हूं....
ReplyDeleteरवीश जी आपसे जानना चाहता हूँ पत्रकारिता में जाना है यह आपने पहले से तय कर लिया था.......या यू पी एस सी की तैयारी करते करते पत्रकारिता में यू ही आना हो गया....| वैसे मैंने एक चीज कोमन देखी है सभी बड़े पत्रकार यही कहते है पत्रकारिता में जाना है यह तय नहीं होता है.....आप इस से कहा तक इत्तेफाक रखते है?
ReplyDeleteआपकी यह सीरीज दिल को खुश कर गयी.... मुझको भी दिल्ली के तैयारी वाले दिनों को याद दिला गयी...........
'इतिहास' ने मुझे याद दिला दिया उस समय का जब में इस विषय में, और भूगोल में भी, गोल था, और आठवीं कक्षा के बाद विज्ञानं के विषय चुन एक ठंडी सांस ली थी...किन्तु अब में कह सकता हूँ की इतिहास तो विदेशियों की देंन है, जबकि 'भारत' की देंन तो परम्परा है...
ReplyDeleteजिस पर एक चुटकुला याद आ गया: एक पिता अपने बेटे को उसकी किसी गलती पर पीट रहा था तो लड़के ने पूछा कि क्या आपके पिताजी भी आपको पीटते थे? उत्तर हाँ में था, और फिर यह भी पता चला कि भारत में यह 'गुंडागर्दी' परंपरागत चल रही थी :)
इसी प्रकार गीता पढने वालों को कृष्ण के उपदेश पढने को मिल सकते हैं, और रहस्योद्घाटन हो सकता है कि मनुष्य जीवन केवल अनंत कृष्ण लीला, या माया का ही भाग है...जैसा कृष्ण का जमुना के किनारे ब्रिन्दाबन में गोपियों के साथ रास रचाना, उनके कपडे छुपा पेड़ पर बैठ जाना, आदि , जो मनोरंजन से उपर उठ दर्शाता है कि उनसे कुछ छिपा नहीं है क्यूंकि वे सब के भीतर रहस्यमय तरीके से स्वयं विराजमान हैं :) यानि अलग अलग दिखने वाली बोतलों में शराब एक ही है, किन्तु प्रकृति में दिखाई पड़ने वाली विभिन्नता की ही झलक के अनुरूप नशा या स्वाद अलग अलग है...यद्यपि उन्होंने बोतल के स्थान पर 'घट' यानि घड़े शब्द का उपयोग किया - इस प्रकार 'उनका कंकड़ी मार घड़े को तोडना' वास्तव में दर्शाता है शारीरिक मृत्यु और आत्मा को मुक्ति. इसका चिता पर लिटाये गए शव के चारों ओर जीवनदायी जल का घड़े में छेद से छिडकाव, जो परम्परानुसार हर हिन्दू करता है, भले जानने का कष्ट न करता हो क्यूंकि उसके पास समय की अत्यंत कमी है - पर 'लाइन मारने' के लिए बहुत समय है :) यह समय अथवा काल-चक्र ने अनादि काल से आदमी को बहुत मूर्ख बना कर रखा है...न मालूम महाकाल क्या खोज रहा है...
हर्ष
ReplyDeleteमैं किसी प्रतियोगिता के लायक ही नहीं था। कारण मैं गणित में शून्य से ज़्यादा नंबर नहीं ला सकता था। इसलिए अपनी इस प्रतिभा को ध्यान में रखते हुए मैंने तय कर लिया कि प्रतियोगिता मेरे बस की बात नहीं है। मैंने जीवन में एक ही कंपटीशन दिया है। भारतीय जनसंचार संस्थान का। उसमें गणित के सवाल नहीं थे और हो गया। पत्रकारिता से लगाव था मगर पता नहीं था। मेरे गुरु जी ने कह दिया कि अच्छा और अनगढ़ लिखते हो, पत्रकार बन जाना। बस उनके बताये रास्ते पर चल दिया। जो सोचा था वो ये कि शिक्षक बनूंगा। लेकिन पहले पत्रकारिता में मौका मिल गया। मेरा जो भी विकास हुआ है वो पत्रकारिता में आने के बाद हुआ है। पढ़ना से लेकर समझना तक। उससे पहले मैं हीन्दी ऐसे लिखता था। इतनी ही हिन्दी आती थी।
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ReplyDeleteप्रवासी छात्रों ने रोमांस का व्यापक अनुभव तो किया लेकिन वो अपने मां बाप और समाज के आज्ञाकारी हो गए। उनकी बेवफाई को झेलती कई लड़कियों की आहें आज भी दिल्ली विश्वविद्यालय की दीवारों से टकराती हैं।
ReplyDeleteRavish Ji aap ne kamal ka likha bhut umda.
मैनें तो आपकी चारों पोस्ट अपने पिताजी को print करवा के post कर दी है...और कहा है की हमारी life पढ़िये...इतना मार्मिक शायद ही किसी ने लिखा हो...
ReplyDeleteपास से गुज़रती किसी लड़की की देह को नज़र भर देख थोड़ी देर जलते रहने की ऊर्जा उनकी जातिगत मानसिकता में प्रवेश करते ही कमज़ोर पड़ जाती थी।
ReplyDelete...lekin ye dotarfa sach hai Rvish bhai..
Ravish agey bhi likhiye is par, naukri paney ke fauran baad ki zindigi aur nayi naukri k bossism par!
ReplyDeletenice
ReplyDelete"पास से गुज़रती किसी लड़की की देह को नज़र भर देख थोड़ी देर जलते रहने की ऊर्जा उनकी जातिगत मानसिकता में प्रवेश करते ही कमज़ोर पड़ जाती थी।"
ReplyDelete"कई वन रूम सेट की बालकनियों और बाथरूम की खिड़कियों से उन झरोखों का रास्ता ढूंढ लिया गया था जिनसे वो किसी नहाती औरत और बेडरूम में कपड़े बदलती किसी स्त्री की देहकल्पना का साक्षात दर्शन कर सके। प्रवासी छात्र अपने इस आंतरिक अतीत को कहीं दफन कर गए हैं। मां-बाप की मर्ज़ी से शादी कर खुद को अच्छा सा लड़का कहलाने के लिए उसी भीड़ में चले गए हैं जिससे निकलने के लिए दिल्ली आए थे। पर दिल्ली की लड़कियों ने इन भूखी आंखों को जो खुराक दी,उसके लिए प्रवासी छात्रों को शुक्रिया अदा करना चाहिए। वन-रूम सेट ऐसे किस्सों से भरे होते थे।"
समाज के चरित्र के दिखावे पर करारा प्रहार है........अदभुद लेखन शैली के द्वारा के