बस अब पहन लूंगा
बिन पाकेट कमीज़ और पतलून
फेंक दूंगा मोबाइल और क्रेडिट कार्ड
एक चक्कर लगा आऊंगा
पैदल चल कर
कनाट प्लेस से लेकर साउथ एक्सटेंशन तक
तीस फीसदी डिस्काउंट वाली थैलियों में खुद को
ठूंस दूंगा मैं
खरीदने और बेचने के मोलभाव से मुक्त कर लूंगा
फ्री में ही सारा माल की तरह बिक जाऊंगा मैं
दांतों में दबाए हुए क्रेडिट कार्ड और डेबिट कार्ड
चबाते चबाते खा जाऊंगा सबको
प्लास्टिक का पखाना निकलेगा
उसे समेट कर सेल की थैलियों में
घुमा कर फेंक दूंगा साउथ सिटी मॉल में
हम सब बिकने के लिए अभिशप्त
क्रयशक्ति हमारी सेल पर लगी है
हर दाम के हिसाब से खुद को बेचा
पूरा दाम देकर एक सामान न खरीद सका
हताशा है यह
कमा न पाने की
खुद को बेच कर
वाजिब दाम न पाने की
ऑनलाइन दुकानों में कतारबद्ध हो रहा हूं
बिन पाकेट की कमीज़ और पतलून
पहनने की योजना बना रहा हूं
एक मैनेजर किराये पर दे दो भाई
जो मुझे बेच आए बाज़ार में
बिका हुआ माल वापस न होने की शर्त पर
बस गोदाम खाली कर जाए
मिला हुआ माल दे जाए
मैं घूम सकूं बाकी की ज़िंदगी
पहन कर
बिन पाकेट कमीज़ और पतलून
उन सबकी शोर से बहुत दूर
सेमिनारों में जो करते हैं रात दिन
बाज़ार,बाज़ार और बाज़ार
कोई ऐसी जगह बता दो भाई
जहां बाज़ार न हो और हम बिक भी जायें
बिकने के लिए ही तो निकले हैं सब
बाज़ार को गरियाते रहते हैं
पाकेट वाली पतलून और कमीज़ पहनकर
गोष्ठियों में जाते रहते हैं
मैं नहीं बदलूंगा इस समय को
जिस समय में मैं सड़ा दिया गया
उसे बचाकर रखूंगा
आने वाली पीढ़ियों के सड़ने के लिए
बिकने के लिए
टाइट कमीज़ और टाइट पैंट के लिए
क्रेडिट कार्ड की बिक्री से पलने वाले
एजेंटों के परिवारों के लिए
सब कुछ म्यूचुअल है मेरे भाई
नए फैशन में जीना है
बिन पाकेट पतलून और कमीज़
पहन कर चलना होगा
आंत की मरोड़ों को दबा कर
जीभ की लपलपाहट को शांत करना होगा
मन को मेडिटेशन से बांध कर
तन को योगा से साधना होगा
बकवास करते हो तुम मुझसे
सेल में खरीदने वालों को सांत्वना देते हो
ताकि जब तक घर तक पहुंचे वे सब
रास्ते में ही सेल की थैलियों से पहचान लिये जाए
ये है कमाने वाला
ये है खरीदने वाला
ये है बिकने वाला
पूरा दाम नहीं दे पाता
डिस्काउंट ही इसकी औकात है
छूट चाहिए सबको हर चीज़ में
आदर्शों में भी
मापदंडों में भी
समझौतों में भी
संबंधों में भी
बिन पाकेट पतलून और कमीज़
पहन कर हम सब कम से कम
खाली हाथ तो लौट आयेंगे
तुम लौट सकोगे खाली हाथ
बिना सेल की थैलियों के
ध्यान रखना
न बिका हुआ माल
गोदाम में
सड़ने के लिए रखा होता है
सड़ना चाहोगे तुम
अकड़ना चाहोगे तुम
तो पहन कर घूमो आज से
बिन पाकेट कमीज़ और पतलून
उधार की ज़िन्दगी का यथार्थवादी चित्रण
ReplyDeleteबिन पाकेट की कमीज़ और पतलून.......कॉन्सेप्ट को इस तरह सबके सामने ओपन नहीं करना चाहिये रवीश जी, फैशन डिजाइनरों द्वारा Concept चुरा लिये जाने की संभावना होती है
ReplyDelete:)
अच्छी कविता।
'बिन पाकेट पतलून कमीज़ ' आज के बाजारवाद पर आपकी यह कविता हथौडे की तरह बज रही है ........आम आदमी किस तरह दो वक़्त की रोटी खा रहा है इससे उन्हें क्या ????उन्हें तो बेचना है एक के साथ एक फ्री................बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .
ReplyDeleteबहुत ही आक्रोश में अभिव्यक्त एक तल्ख़ हक़ीकत|
ReplyDeleteबहुत लम्बा सच !......
ReplyDeleteआवेग तो बहुत है कविता मे और विचार भी बहुत तीव्र है लेकिन प्लास्टिक का पखाना वाली पंक्ति अकविता का आभास देती है । यह कहीं परवाना तो नहीं है ?
ReplyDeleteप्रभु मेरे मनोभाव ही चित्रित कर दिए आपने शब्दों में............................
ReplyDeletelong spell of living within a metropolis causes fits of Akavita . it happens with me as well and i escape to UK mane' Uttarakhand !
ReplyDeleteबाजारवाद पर तीखा व्यंग्य है। बधाई!
ReplyDeleteaapko chahiye ki itna dhyan or gyaan aap aapni speciel report or news point ko de, jo ki ab india_tv ke nakshe kadam par chalte ja rahe hai...
ReplyDeleteaachha nahi lagta mere adrasho ko marte dekhna...aur yu nanga ho khada, bazar me khud ko bechne ki duhai dena... dukh lagta hai...
छूट चाहिए सबको हर चीज़ में
ReplyDeleteआदर्शों में भी
मापदंडों में भी
समझौतों में भी
संबंधों में भी ।
आभार...।
बहुत उम्दा चित्रण!
ReplyDeleteआक्रोश बाजारवाद पर बहुत ही अच्छी कविता।
ReplyDeleteउलझन तो मुझे भी होती है पॉकेज में रखकर चीजों को लेकर चलने में। कई बार सबुकछ छोड़कर बाहर निकलता हूं। लेकिन सच कहूं सरजी,पिछले महीने मैंने नाइकी की एक शार्ट खरीदी है,यूनिसेक्स है इसलिए कोई पॉकेट नहीं है इसमें,बड़ी परेशानी होती है,खासकर दौड़ते समय कि अब आयपॉड कहां रखूं। क्या बिना जेबों वाले कपड़े पहनकर जी लेंगे हम,इस पर सोचा जाना चाहिए।
ReplyDeleteजीवन का कटु सत्य।
ReplyDeleteवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
raveesh ji achcha chitran kiya hai aapne is kavita me........
ReplyDeleteRavishji,
ReplyDeleteI can well understand the suffocation caused by materialistic life you are living unfortunately due to your circumstances.I also agree with what Naveen has written,your channel is dipping in quality.I used to watch NDTV INDIA proudly,but have shifted to TIMES NOW.If you can convey this to your superior bosses.I think they are wasting a great thinker like you or may be you should shift to some other medium of expression.Why not write a book,you write just brilliantly in Hindi.
Regards,
Dr. Pragya
बिन पाकेट पतलून और कमीज़
ReplyDeleteपहन कर हम सब कम से कम
खाली हाथ तो लौट आयेंगे
तुम लौट सकोगे खाली हाथ
बिना सेल की थैलियों के
ध्यान रखना
न बिका हुआ माल
गोदाम में
सड़ने के लिए रखा होता है
सड़ना चाहोगे तुम
अकड़ना चाहोगे तुम
तो पहन कर घूमो आज से
बिन पाकेट कमीज़ और पतलून
रवीश जी ,
पता नहीं क्यों मुझे आपकी अन्य पोस्टों के बजाय ॥आपकी कवितायें पढ़नी ज्यादा अच्छी लगती हैं।
एक आम आदमी के साथ ही यह आज के पूरे बुद्धिजीवियों के मानसिक अन्तर्द्वन्द तथा पीड़ा और छटपटाहट को आपने अभिव्यक्ति दी है इस कविता में।दो तीन बार पढ़ी ये कविता।
आप क्यों नहीं अपनी कविताओं को साहित्यिक पत्रिकाओं में भी प्रकाशन के लिये भेजा करते--?
शुभकामनाओं के साथ्।
हेमन्त कुमार
अच्छा है ,बहुत अच्छा है
ReplyDeleteबिन पाकेट की कमीज़ और पतलून
ReplyDeleteWah kya concept liya ??
Sachchaii liye huve ..
Interesting !!
बिना पाकेट वाली कमीज़ और पतलून ....क्या आईडिया है सर जी ....
ReplyDeleteइतना तीखा ...सर जी मिर्च लग जायेगी बाज़ार को ....
NICE ONE!!!
ReplyDeleteek rojana ka ubharta roop hai isme insan or uska vyavahar chinhit hai ,padh kar maja aaya.
ReplyDeleterakesh