मोबाइल से शहर को देखो
































सभी तस्वीरें नदिरे(नई दिल्ली रेलवे स्टेशन का कैट नेम)के प्लेटफार्म नंबर दस से ली गईं हैं। इन किताबों के रंग और शीर्षक आपको कई टीवी चैनलों पर दिखाई देते होंगे। दुत्कारित साहित्य का ही असर है कि हम सब टीवी वाले ऐसी शीर्षककारिता करते रहते हैं। शीर्षककारिता अब पत्रकारिता का इम्पोर्टेंट सेगमेंट है। कई लोगों ने शीर्षक लगाने में महारत हासिल कर ली है। शीर्षककारिता से पहली टीवी में अनुप्रास पत्रकारिता आई। इसमें एक ही वर्ण से शुरू होने वाले कई शब्दों को ढूंढा जाता है। जैसे पाकिस्तान पर कोई हेडर लगाना हो तो अनुप्रास संपादक सबसे पहले प से शुरू होने वाले तमाम नापाक किस्म के शब्दों को ढूंढता है। जैसे- पस्त हो गया पाकिस्तान। पतली हालत पाकिस्तान की। लेकिन अनुप्रास के अगले स्तर में जब शीर्षककारिता का जन्म हुआ तो इस तरह की शीर्षक आ रहे हैं जो एक तस्वीर में दिखती भी है- १५ बम पाकिस्तान खत्म। हिंदी पत्रकारिता के इस स्वर्गगामी काल में कई प्रयोग हो रहे हैं जो अननोटिस चले जा रहे हैं। हमारे देश में तीन नंबर के कामों को श्रद्धा की नज़र से नहीं देखते। जबकि तीन नंबर के कामों की लोकप्रियता कम नहीं होती।

अगर केशव पंडित,डार्लिंग और मनोज टाइप के लेखक हिंदी पत्रकारिता में संपादक हुए होते तो टीवी चैनलों पर ओरिजनल काम दिखता। क्या फायदा केशव पंडित के नोभल का टाइटल चुराकर टीवी पर चस्पां करने का। शादी करूंगी यमराज से। ये ख्याल क्यों किसी अशोक वाजपेयी या अमिताव घोष को नहीं आता। आज तक समझ में नहीं आया। वो क्या लिखते रहते हैं भाई।
(अनादर का इंटेंशन नहीं है।) खैर सबके अलग अलग रास्ते हैं। हर रास्ता दूसरे को काटना चाहता है। हिंदी न्यूज़ चैनल ने एक नया सोलुशन निकाला है। वो चौराहा नहीं खोजता। गोलंबर खोजता है। एक बार मिल जाता है तो सब उसी के गोल गोल गोल गोल घूमते रहते हैं। मैं भी घूम रहा हूं।

19 comments:

  1. @ इन किताबों के रंग और शीर्षक आपको कई टीवी चैनलों पर दिखाई देते होंगे। दुत्कारित साहित्य का ही असर है कि हम सब टीवी वाले ऐसी शीर्षककारिता करते रहते हैं।

    इन लाईनों के लिये एक टाईटल बहुत जम रहा है

    - 'सौतन बनी सहेली' :)

    बहुत उम्दा पोस्ट।

    ReplyDelete
  2. सही कहा पंचम जी ने सौतन बनी सहेली :)
    ये लाइन जमेगा इस पर

    ReplyDelete
  3. १. हमारे देश में तीन नंबर के कामों को श्रद्धा की नज़र से नहीं देखते। जबकि तीन नंबर के कामों की लोकप्रियता कम नहीं होती।

    २. हिंदी न्यूज़ चैनल ने एक नया सोलुशन निकाला है। वो चौराहा नहीं खोजता। गोलंबर खोजता है।

    दोनों ही सत्य वचन...

    दुत्कारित साहित्य पढने वाले भी कम नहीं, सरस सलिल छोड़ते तो रीमा भारती उठा लेते हैं...

    ReplyDelete
  4. भाई रवीश जी ,
    मुझे लगता है की हिन्दी की फार्मूला फिल्मो. और इन जासूसी उपन्यासों में कोई बहुत ज्यादा अंतर तो नही है ...दर्शक का जैसा मनोरंजन फार्मूला फिल्में करती है वैसा ही मनोरंजन इन जासूसी उपन्यासों के पाठकों का भी होता होगा ..मुझे यह भी लगता है की आज हमारे पाठकों के पास जितने तरह का भी साहित्य पहुँच रहा है(?....?...?...?)उन पर एक चिंतन होना ही चाहिए....वैसे फोटो लेख दोनों अच्छे लगे...
    हेमंत कुमार

    ReplyDelete
  5. जितने सटीक फोटो उतनी ही सटीक बात...खास तौर पर इंडिया टी.वी से तो भगवान् बचाए...
    नीरज

    ReplyDelete
  6. तुकबन्दी और तीन शब्दों के फ़ेर में पूरी हिन्दी पत्रकारिता अक्सर नजर आती है.

    ReplyDelete
  7. पूरा शहर न सही पर शहर के मिजाज की झलक जरूर मिल जाती है .शर्मकारिता की अवधारना बढ़िया है .नया सृजन कम पुराने या के पहले से गधे हुए को सन्दर्भ से काट कर कहीं से कहीं फिट करने का चलन ही दिख रहा है .भौंडी कहने या के वीभत्स नक़ल , पता नहीं चलता.रटो और निगलो . बहुत हुआ तो कहीं नौकर बन जायो.यही वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की मूल खासियत ( defining feature ) है . और अगर यह आकलन सही है तो रही सही कसर टी आर पी और आत्म केन्द्रित , निकृष्ट स्वार्थ में लिप्त ,बाजार बाद ने पूरा करा दिया है. पता नहीं पत्रकारिता के कितने उदयीमान महारथी और संभावनाएं इस अंधी दौड़ में शामिल हो गए.
    पतन नहीं मोबाइल से पटना और खास कर पटना स्टेशन कैसा दिखेगा ?

    ReplyDelete
  8. KASAULI--285K.M.
    SIMLA--347K.M
    RENUKA LAKE 310K.M.
    JILLING 300K.M.
    MUKTESHWAR 351 K.M.
    CHMBA(UK)-285 K.M.
    CHAKRATA-340K.M.
    NO DEARTH OF BEAUTIFUL PLACES AROUND THIS FAKE AND PLASTIC TOWN , SO WHY WATCH IT ? COME ON LET'S GO ALTO !

    ReplyDelete
  9. Definitely it's right post for the right reason. I would like to know if there is any regulating authorities for this kind of cheap novel or not?

    And off-course no doubt people are also more interested to read this instead of Premchand and Other Writers. This is a easy and cheap business to sell the vulgarity in the packet of Literature.

    ReplyDelete
  10. इन उपन्यासों का कथानक बहुत मजबूत हुआ करता है। बेहद रोचक भाषाशैली में लिखे ये उपन्यास शुरु से अंत तक बांधे रखते हैं। और तो और इसके पात्र भी ज़मीन से जुड़े हुए नज़र आते हैं। 'उच्च स्तरीय साहित्य'की तुलना में इन उपन्यासों में संवाद बहुत बेहतर और जीवंत होते हैं।

    बचपन में दो तीन ऐसे ही उपन्यास पढ़े थे। मैं फिर आउंगी और लाल टापू आदि। पढ़ने में बहुत मज़ा आया था।

    ReplyDelete
  11. बहुत ही बढ़िया और व्यंगात्मक विश्लेषण...

    ReplyDelete
  12. तसवीरें बहुत कुछ कह जाती हैं ... साथ ही आपके लेखन ने गंभीर बातें रोचकता के साथ पेश की। बहुत खूब ।

    ReplyDelete
  13. आज के दौर में सत््यकथा पढ़ने वाले लोग स्क्रिप्ट भी बढ़िया लिख लेंगे और हेडिंग भी छोटी और धांसू लगा लेंगे। जैसे कि 'जिन्दगी जहर हो गई' टाइप जुमले बारम्बार इस््तेमाल करने वाले और '...और सांसों में सुराख हो गया' से शुरुआत करने वाले लोग। हालांकि, आलोक पुराणिक जी एक से एक बेहतरीन शीर्षक सुझाते हैं। इस विषय पर पुराणिक जी के व््यंग््यों को आत््मसात कर भी इसमें महारत हासिल की जा सकती है।

    ReplyDelete
  14. .
    .
    .
    सही कहा रवीश जी,
    हिन्दी वालों ने वाकई 'दुत्कारित साहित्य' को वह स्थान नहीं दिया है जिसका वह हकदार है, अंग्रेजी में देखिये Ludlum, Archer, Stephen King, Harold Robbins आदि आदि को सम्मान प्राप्त है पर हम हिन्दी वाले अपने लोकप्रिय लेखकों को हेय समझते हैं।

    ReplyDelete
  15. आप का बात कहने का अन्दाज हमेशा सटीक होता है है । यूं कहें, ’ ज्यों नाविक के तीर ’ वाली तर्ज पर । इसमें आप अपनी बिरादरी को भी नहीं बख्शते । बस एक बात, राजनैतिक टिप्पडियों में ज़रा बात एकतरफा हो जाती है । शायद विचारधारा की वजह से या धारा की वजह से पता नहीं । पर पढने , सुनने का मन करता है ।

    http://mireechikaa.blospot.com

    ReplyDelete
  16. The title of this post reminds me of a novel by famous Urdu author Krishan chandar ' Is shahar ko yahan se dekho '. A very realistic and disturbing movie was based on this novel . watch it if u can dear Raveesh !

    ReplyDelete
  17. मुनीश

    मुझे ये टाइटल रोज याद रहती है। फिल्म की वजह से ही।

    ReplyDelete
  18. सर बहुत ही बढ़िया और रोचक पोस्ट लिखी आपने

    ReplyDelete