(ब्लॉगरो,जिन्ना जी बहुत परेशान हैं। उनका एसएमएस आया था। फेसबुक पर भी लिखा है कि जसवंत बेकार आदमी हैं और मुझे पाकिस्तान से निकलवाने की कोशिश कर रहे हैं। मुझसे भी कहा कि मैं ब्लॉग पर लिखकर जिन्ना साहब की पोज़िशन क्लियर कर दूं। सो मैं लिख रहा हूं)
हमने क्यों नहीं सोचा कि इस विवाद पर जिन्ना साहब क्या सोचेंगे? जसवंत सिंह की ही सोचते रहे। बिल्कुल राइट कहा है जिन्ना जी ने मुझे। बोले कि आज अगर ज़िंदा होता तो जसवंत सिंह के खिलाफ मुस्लिम लीग से भी प्रस्ताव पास करा देता कि बीजेपी से निकाले गए इस नेता को कभी भी हमारी पार्टी में नहीं लिया जाएगा। जाने दे इसे अमर सिंह वाली नश्वर पार्टी में। ब्लॉगरों जसवंत सिंह ने जिन्ना को फंसा दिया है। जिस मुल्क को बनाने के एवज़ में वे राष्ट्रपिता कहलाते हैं उसी मुल्क को जसवंत नेहरू और गांधी की ग़लती का नतीजा बता रहे हैं। हे राम। जसवंत की किताब और इससे पैदा विवाद से लगता है कि पाकिस्तान बाई मिस्टेक बन गया। जिन्ना हिंदुस्तान बनवा रहे थे लेकिन बन गया पाकिस्तान। स्पेलिंग मिस्टेक से। इससे तो जिन्ना की अहमियत कम होती है। पाकिस्तान के लोग क्या सोचेंगे कि जिस आदमी को हम पाकिस्तान का बापू समझते रहे वो तो चाहता ही नहीं था कि हम एक मुल्क के रूप में पैदा हों। भला हो गांधी नेहरू की कमज़ोरी और गलती का, जिससे इस्लामी विश्व को एक मुल्क बन गया।
जिन्ना ज़िंदा होते आज पाकिस्तान में जसवंत की किताब को बिकने न देते। मोदी को फोन करते कि तुम भी अपने यहां बैन करो,हम भी अपने यहां बैन करते हैं। चिल्लाने लगते। जसवंत। सुनो। पाकिस्तान मेरा आइडिया था भाई। ओरीजिनल। बिना मोलभाव किये,नेहरू गांधी के साथ दांव चले क्या कोई पाकिस्तान दे देता। अब तुम ऐसे लिख दिये हो जैसे मैं पाकिस्तान नहीं चाहता था। अरे ये सब मत बोलो। पाकिस्तान में लोग मुझे क़ायदे-आज़म के पोस्ट से रीमूव कर देंगे।
जिन्ना भावुक हो जाते। कहते कि हे जसवंत। आज़ादी के आंदोलन के कुरुक्षेत्र में मैं कर्ण की तरह खड़ा रहा। किसी के न अपनाये जाने की ग्रंथि ने मुझे अपने भाइयों के खिलाफ़ ख़ड़ा कर दिया। ठीक लिखा है मेरे बारे में शशि थरूर ने। कितना भी दानी हो जाऊं,कर्ण का पात्र इतिहास का महान किरदार नहीं है। दान देकर कौन अमर हुआ है इतिहास में। वो भी आजकल के टाइम में जब सब चैरिटी करते हैं। मेरी बैरीस्टरी,मेरी दलीलें,मेरी इंग्लिश लाइफ स्टाइल और मेरी हिम्मत। मैंने इस्लाम को एक मुल्क दिया है। अकेला अपने दम पर। कर्ण से कम नहीं था मैं। लेकिन तुम तो मेरे साथ वही कर रहे हो जो कर्ण के साथ हुआ। इतिहास में कभी रांग साइड पर नहीं होना चाहिए। पाकिस्तान बनवाने का ये मेरा अफसोस है लेकिन ज़िंदा होता तो दोस्त आज़ाद भारत में रोज़ पाकिस्तान बन रहा होता। हर चुनाव में मुस्लिम लीग का एजेंडा लेकर लोग दौड़ने लगते। मैंने इंडिया को एक दूसरी आज़ादी है। उस हिसाब से मुझे वहां भी रेसपेक्ट मिलना चाहिए।
जस्सू, अगर मैं अर्जुन के साथ होता तो आज करन-अर्जुन टाइप की फिल्में मेरी मिसाल दे कर बनती। इस युधिष्ठिर के चक्कर में मैं बर्बाद हो गया। जसवंत तुम मुझे अकेला छोड़ दो। मुझसे पाकिस्तान बनाने का क्रेडिट मत छीनो। गांधी-नेहरू को तुम ग़लत साबित करके क्या करोगे? अगर तुमने हिंदुस्तान पाकिस्तान को मिलाने की कोशिश की तो राष्ट्रपिता की कुर्सी चली जाएगी। अगर तुमने पाकिस्तान के लिए गांधी को ज़िम्मेदार बताया तो और प्रॉब्लम हो जाएगा। हमारे यहां लोग तुम्हारे बापू को अपना बापू कहने लगेंगे। कहेंगे कि पाकिस्तान तो गांधी के चलते बना तो तुमको क्यों जिन्ना हम सैल्यूट करें। जस्सू, तुम्हारी पार्टी चुनाव में हारी है तो इस खुंदक में मुझे इतिहास में क्यों हराना चाहते हो। उसे हराओ जिसे तुमने हराया है। सोनिया राहुल से पंगा लो। मुझे छोड़ दो जसवंत।
जिन्ना की इस अपील पर जसवंत जी दिन में ही ड्रिंक कर लेते हैं। वाजपेयी से मिलने जाते हैं। बाहर आकर प्रेस से कहते हैं कि वाजपेयी को भी किताब पसंद नहीं आई। जिन्ना जी ने अटल जी से शिकायत कर दी है। अटल जी ने कहा है कि लाहौर बस यात्रा तभी सफल होगी जब भारत यह लाइन लेगा कि पाकिस्तान एक मुल्क है। उसे गांधी नेहरू ने नहीं जिन्ना ने बनवाया है। ये जिन्ना का एक ड्रीम प्रोजेक्ट था। वाजपेयी जी ने कहा है कि यह मत कहो कि गलती से बन गया। तुम उस मुल्क की बुनियाद पर सवाल खड़े कर भविष्य के रिश्ते नहीं तय कर सकते। जसवंत इस किताब का खंडन कर दो। प्रेस वालों से कह देना कि मेरी किताब को कहा गया बयान समझ कर खंडन मान लिया जाए। पाकिस्तान गलती से नहीं बना। जिन्ना साहब ने बनाया। उनको कुछ बनाना था। इसलिए पाकिस्तान बना दिया। हमको उनसे निभाना है। इसलिए पाकिस्तान को मान लिया है।
इस विवाद से कंफ्यूज़न क्रिएट हो रहा है। मरकरी की तरह जलने लगती है ये भाजपा। देर से। जिन्ना लेटर लिखते हैं। पाकिस्तान के बनने के कांसेप्ट का विरोध कर जसवंत संघ के अखंड भारत के सपने को पूरा करना चाहते हैं। ये तो गांधी और नेहरू से भी खतरनाक है। अब अगर ये जस्सू अमर सिंह की पार्टी में गया तो गज़ब कर देगा। कह देगा कि अगर जिन्ना इंडिया में होते तो यूपी में सरकार मायावती की नहीं,मुस्लिम लीग की होती। फिर पाकिस्तान वाले मुझे क्या कहेंगे। एक मुल्क का पिता या फिर यूपी का सीएम। बहुत टेंशन हो रहा है। अमर सिंह मेरी हालत कांग्रेस वाली कर देंगे। समर्थन की चिट्ठी भी देंगे और पानी पी पी के गाली भी।
इसलिए जसवंत तुमने ठीक नहीं किया। पाकिस्तान मेरा आइडिया था। मैंने बनाया। गांधी को आइडिया पसंद नहीं था। मैं अपनी टीम लेके निकल लिया। जवाहर और पटेल के पास विकल्प क्या थे। उन्होंने तो सिर्फ मेंटेन किया है। जो मिला उसी की तुरपाई करते रहे। मैंने क्रिएट किया है भाई। इतिहास में मैं उनसे ज़्यादा टावरिंग हूं। दोनों विरोध क्यों करते? कभी सोचा तुमने जस्सू? क्या वो मेरे गुलाम थे? जो मेरी हर बात मानते। मेरी हां में हां मिलाते? क्या मैं उनका गुलाम था? नहीं। वो पाकिस्तान का विरोध कर कांग्रेस को मुस्लिम लीग में मिला देते क्या? तुम्हें क्या लगता है कि कांग्रेस जवाहर और पटेल की जेबी संस्था थी? अगर होती तो क्या पटेल को जवाहर अपने मंत्रिमंडल में लेते? मैं पीएम के लिए फाइट कर रहा था? ये लेवल था मेरा? कितने पीएम हो गए इंडिया पाकिस्तान में। डू यू रिमेंबर ऑल ऑफ देम। बट यू रिमेंबर मी एंड गांधी। इसीलिए मैंने राष्ट्रपिता वाला रास्ता ले लिया। इंडिया के दो राष्ट्रपिता होते क्या? गांधी और जिन्ना? पाकिस्तान के हैं और इंडिया के भी।
सवाल तो सोचो जसवंत। जसवंत तुम्हारा कांसेप्ट प्रैक्टिकल नहीं है। पाकिस्तान मैंने बनाया है। पाकिस्तान नहीं बनाता तो क्या भारत में लोग मुझे गांधी की जगह सर पे बिठाते। कत्तई नहीं। जवाहर और गांधी की लेगअसी आज तक चल रही है। मेरी कहां है? गूगल पर सर्वे करा लो। गांधी पोपुलर हैं या मैं? अब ये मत कर देना जसवंत। अब तुम मुझे छोड़ दो। ठीक किया बीजेपी ने तुमको निकाल दिया। तुमने बीजेपी के साथ मेरा भी नाम खराब किया है। मैं चाहता हूं कि पाकिस्तान बनाने का क्रेडिट मुझे मिले न कि जवाहर-गांधी को।
जब हमारे भीतर का कुत्ता बड़ा हो जाएगा
यह कुत्ता हमारे भीतर से निकल कर विशालकाय हो गया है। वेद प्रकाश गुप्ता हम सबके भीतर दुबके कुत्ते को बड़ा कर देना चाहते हैं। दिल्ली के प्रगति मैदान में उनकी यह कलाकृति हम सबके लिए आईना है। बिहार में जन्मे और बड़ौदा स्कूल ऑफ आर्ट से कला में दीक्षित होकर निकले वेद प्रकाश गुप्ता क्षेत्रीय पहचान को भुनाने वालों को भी कुत्ते की तरह देखते हैं। मैंने पूछा कि आपने इतना विशाल कुत्ता क्यों बना दिया। इस युवा कलाकार का जवाब था कि हम सब कुत्ते के सामने बौने हो गए हैं। सफेद और काले रंग के इस डालमेशियन को चुनने का मकसद यही है कि जब हम खुद को सफेद बनाने की कोशिश करते हैं तो काले दाग को ढंक नहीं पाते। दोहरापन नहीं चलेगा। कहते हैं आज हम सब बौने हो गए हैं। लोकतंत्र में सवाल करना भूल गए हैं। सामाजिक बुराई से कौन लड़ेगा। मैं कलाकारों के बीच नहीं रहता। समाज में रहता हूं। बेचैन हूं कि इन बुराइयों से लड़ा जाए। इसलिए मुझे सामाजिक समस्यायें विकराल नज़र आने लगती हैं। कुत्ते की तरह दुम हिलाने या चाटने की आदत के शिकार हो गए हैं। हमें नज़र न आता हो लेकिन हम कुत्ता बन गए हैं। वेद के जवाबों से मेरी बेचैनी बढ़ गई। कला को लेकर मेरी समझ ज़ीरो है। मेरे लिए यह भी ज़रूरी नहीं कि मेरी पहचान इस आधार पर भी बने कि मैं कला को समझता हूं।
लेकिन वेद प्रकाश गुप्ता के जुझारूपन पर फिदा हो गया। जवान सा एक लड़का। इतनी बातें करना चाहता है,इतना कुछ करना चाहता है कि ऐसे लड़कों के लिए स्पेस कहां हैं। तो वो क्या करेगा?अगर कलाकार है तो एक दिन हम सबके भीतर बैठे कुत्ते को खींच कर बाहर निकालेगा,तान तान कर इतना बड़ा कर देगा कि आइने के सामने खड़े होने में डर लगेगा। मुंह पर भौंकने लगेगा कि बताओ तो हम अपने अपने दफ्तरों में लोकतंत्र और समाज की लड़ाई लड़ रहे हैं या इस उस को कम बताकर खुद को महान साबित करने की सेटिंग रच रहे हैं। ये बाबू लोग क्यों नेताओं की चाटने लगते हैं? ये नेता लोग क्यों बाबुओं की चाटने लगते है? कुत्ता बनने की प्रक्रिया हर तरफ है। इस क्षुद्र मानवीय प्रवृत्तियों के सहारे भीतरघात की तमाम कोठरियों में हम सब कुत्ते बन जाते हैं। अखबारों में लेख लिख देते हैं,किसी की समीक्षा कर देते हैं,इस कोशिश के साथ पांच सौ लाइनों में किसी पर सवाल उठा देने से लोकतांत्रिकता का दायित्व पूरा हो जाता है। लेकिन उसी लेखक को आप उसके सामने खड़ा कर दीजिए,जिसके फैसलों को चुनौती देकर लेख लिखा जाता है तो सौ में से निन्यानबे आदमी कुत्ता बन जाते हैं और चाटने लगते हैं। हम लोकतंत्र को भी अधिकार की तरह चाहते हैं। दायित्व की तरह नहीं। स्वाभाव की तरह नहीं। इसीलिए अपनी पसंद का एक डेमोक्रेटिक स्पेस बनाते हैं और उसमें कुत्ता बन कर चाटते रहते हैं। इस डेमेक्रेटिक स्पेस के शीर्ष पर बैठे लोगों की कभी आलोचना नहीं करते,क्योंकि उससे बाहर कर दिये जाने की आशंका की वजह से उस पर और वहीं पर सवाल नहीं करते। परोक्ष रास्ता चुनते हैं। कलाकार कहता है सवाल तभी तक महत्वपूर्ण है जब वो उसी समय और उसी जगह पर किया जाए। जसवंत सिंह की तरह नहीं। पार्टी से निकाल दिये गए तो आडवाणी और वाजपेयी के राज़ उगल रहे हैं। वेद कहते हैं जब तक हमारे भीतर का कुत्ता नहीं निकलेगा,हम सब बिना चाटे खाने का स्वाद ही नहीं ले सकेंगे।
वेद प्रकाश गुप्ता कहते हैं कि मैं हम सबके भीतर बैठे इसी कुत्ते को बाहर निकाल देना चाहता हूं। चार महीने लगा कर यूं ही नहीं बनाया है इस कुत्ते को। जब मैं वेद प्रकाश से बात कर रहा था तो उनकी ऊर्जा मुझे बिजली दे रही थी। वही इस विशालकाय कुत्ते के आसपास गली के कुत्ते बदहवास घूम रहे थे। बौरा गए थे। ये क्या हो गया है। कुत्ते इतने बड़े क्यों होने लगे हैं? कुछ कुत्तों ने इस मूर्ति पर भौंकने की बहुत कोशिश की लेकिन अपनी ही जात के इतने विशालकाय हो जाने पर भौंचक्क होकर भाग भी रहे थे। अजब नज़ारा था। नीचे वेद की एक और कलाकृति है जिसमें कुत्ता आदमी को चाट रहा है। जब आदमी कुत्ते की तरह चाटने लगेगा तो कुत्ता तो वही करेगा न जो करता आया है। आदमी को चाट लेगा।
जसवंत, जिन्ना बनना चाहेंगे- पार्ट वन
जसवंत के जिन्ना धर्मनिरपेक्ष थे। वो जिन्ना का गुणगान कर रहे हैं। कोई रोक भी नहीं सकता। उनकी अपनी कोशिश है। लेकिन इतिहास इकतरफा फ़ैसले के काम नहीं आता है। जसवंत सिंह इतिहास का इस्तमाल करते लगते हैं। सब जानते हैं कि असहयोग आंदोलन तक आते आते जिन्ना पाकिस्तान की सोच को लेकर बहुत साफ नहीं थे। यही वो मोड़ है जहां से जिन्ना कांग्रेस और गांधी की लाइन से अलग होने लगते हैं। जिन्ना का यकीन संविधान और कानून पर चलते हुए ब्रिटिश हुकूमत के तहत स्वराज प्राप्त करना था। गांधी इस लाइन से आगे जा चुके थे। गांधी को आज़ादी चाहिए थी। अपने समय के दोनों ही दमदार नेता रहे। दोनों में खूबियां रहीं। खामियां भी।
जसवंत सिंह की किताब जिन्ना को सर्टिफिकेट देने के लिए लिखी गई है। जब तक आप राष्ट्रवाद की घिसी पिटी अवधारणाओं की नज़र से किसी इतिहास को देखेंगे,तब तक तस्वीर धुंधली नज़र आएगी। यह कहना इतिहास का सरलीकरण है कि नेहरू और पटेल ने जिन्ना को पाकिस्तान दे दिया। ये वो नेता कह रहा है कि जिसकी पार्टी आज तक तय नहीं कर पाई कि मुसलमानों के साथ तुष्टीकरण करने या नहीं करने के मुद्दे से आगे जाकर करना क्या है। जिसके परिवार की एक विचारधारा सभी को हिंदू बताने लगती है। पूर्वज एक होने का एलान करती है। धर्मनिरपेक्ष जिन्ना इसी सोच का विरोध तो करते थे।
पता नहीं जसवंत ने जिन्ना के बहाने संघ का विरोध किया है या कांग्रेस का। समझना मुश्किल है कि जिन्ना की बजाय नेहरू को ज़िम्मेदार बताने के पीछ मकसद क्या है? नेहरू की आलोचना होनी चाहिए लेकिन जिन्ना को एक लाइन का कैरेक्टर सर्टिफिकेट देना कहां तक सही है।
नागपुर अधिवेशन तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग के अधिवेशन साथ साथ हो रहे थे। १९२० के इस अधिवेशन में ही साफ हो गया कि आगे चल कर जिन्ना किसी और लाइन की तरफ बढ़ेंगे। इसके पीछे तमाम तरह की स्थितियां थीं। जिसके लिए कई लोग ज़िम्मेदार रहे होंगे। जिन्ना अकेले नेता थे,जो भरी सभा में खड़े होकर असहयोग आंदोलन के गांधी का साथ देने के कांग्रेस के फैसले का विरोध करते हैं। नागपुर में जमकर नारेबाज़ी होती है,फिर भी जिन्ना अपनी बात कहते हैं। जिन्ना गांधी को महात्मा मिस्टर कहते रहते हैं। वीरेंद्र कुमार बरनवाल कहते हैं कि वे जिस स्टाइल के थे,उनके लिए महात्मा की बजाय मिस्टर गांधी कहना ही सूट करता था।
१९३७ में मुस्लिम लीग बुरी तरह हार जाती है। जिन्ना टूट जाते हैं। उससे पहले जिन्ना १९३० से लेकर ३४ तक लंदन रहने चले जाते हैं। अपने पासपोर्ट में स्थायी पता लंदन का ही देते हैं। १९३७ में यूपी में कांग्रेस को बहुमत मिला था। इसी के बाद मिथक गढ़ा गया कि लीग की तरफ से बहुत कोशिश हुई कि कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार मिलाये। क्यों? इसके पीछे भी लंबे चौड़े कारण हैं। जिसका खुलासा पहले लेख में किया गया है। जसवंत सिंह जैसा राजनेता ही इतिहास की इन जटिलताओं को राजनीतिक भाषण में बदल देने की कोशिश करता है। पिछले कई सालों से इस तरह के मिथक कुछ तथ्यों के आधार पर गढ़े गए हैं।
बहरहाल मुस्लिम लीग की हार के बाद जिन्ना आहत थे। वीरेंद्र कुमार बरनवाल लिखते हैं कि १९३७ में जब उत्तर प्रदेश और बम्बई में कांग्रेस के साथ मुस्लिम लीग की सत्ता में भागीदारी का जिन्ना का सपना बुरी तरह छिन्न-भिन्न हो गया था और गांधी इसमें कोई सहायता नहीं कर पाए थे तब से जिन्ना के तेवर दिन-ब-दिन गांधी और कांग्रेस के खिलाफ उग्रतर होने लगे। एक बार गांधी के खिलाफ जिन्ना के किसी कथन की तुर्शी पर जब दुर्गादास ने उनसे कहा था कि इससे गांधी आहत हो सकते हैं तो जिन्ना ने कहा था कि दुर्गा,गांधी यही भाषा समझते हैं।
बरनवाल चौधरी खलीकुज़्ज़मा का हवाला देते हैं। कहते हैं खलीकुज़्ज़मा पाथ वे टु पाकिस्तान में ज़िक्र करते हैं कि जब १९३७ में मुस्लिम लीग ने अपने लखनऊ अधिवेशन में पूरी आजादी के ध्येय को अपने उद्देश्यों में शामिल करने के प्रस्ताव पर विचार करना शुरू किया था तो जिन्ना ने इसका विरोध किया था। जब चौधरी खलीक़ुज़्ज़मा ने उन्हें समझाया कि इसके विरोध का मतलब मुस्लिम लीग के ख़ातमे की पहल होगी तो वे मान गए। पर उन्होंने पूरी आज़ादी की जगह मुक्म्मल आज़ादी जैसे शब्द के प्रयोग पर सहमति जताई थी।( पेज-२३९)। पूरी आज़ादी या पूर्ण स्वराज जैसे शब्द पर उन्हें लगता है, इसलिए आपत्ति थी क्योंकि इसका प्रयोग सन १९२९ के लाहौर कांग्रेस के अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू ने रावी के किनारे पास किए गए अपने प्रस्ताव में किया था।
यहां से जिन्ना को लगने लगा था कि कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष पार्टी नहीं है। वो गांधी को ज़िम्मेदार मानते थे। जिन्ना अपनी बराबरी गांधी से ही करते थे। इसके बाद गांधी ने जिन्ना को लिखा था कि लखनऊ के भाषण में वे जिन्ना के राष्ट्रवादी रूप को नहीं ढूंढ पा रहे थे। गांधी ने आगे पूछा कि क्या वह अब भी वही जिन्ना थे? जिन्ना सफाई नहीं थे।
वीरेंद्र कुमार बरनवाल कहते हैं कि जिन्ना ने इसका करारा जवाब देते हुए लिखा था कि वह उनके( गांधी) के बारे में यह नहीं कहना चाहेंगे कि उनके संबंध में लोग सन १९१५ में क्या कहते थे और अब क्या कहने लगे हैं। अब जिन्ना को अपने को सम्प्रदायवादी कहे जाने पर भी कोई आपत्ति नहीं रह गई थी।
जसवंत सिंह की पूरी दलील उस अवधारणा पर टिकी है कि बाबरी मस्जिद का ध्वंस कांग्रेस के शिलान्यास की गलती के कारण हुआ। जैसे बीजेपी और आरएसएस, कांग्रेस की इस गलती को रोकने की कोशिश कर रहे थे।
जिन्ना की भूमिका की आलोचना और सराहना दोनों होती रही है। इतिहास की प्रक्रियाओं के संबंध में ही उनके व्यक्तित्व के विकास को देखना होगा। जिन्ना और गांधी में ज़मीन आसमान का फर्क है। फिर बरनवाल क्यों लिखते हैं कि १९४० में मौलाना आज़ाद के कांग्रेस अध्यक्ष बनने से जिन्ना बेहद खफा हो गए थे। इसे वह अपने और लीग के मुसलमानों के एकमेव प्रतिनिधित्व के दावे पर कुठाराघात मानते थे।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि इसी राष्ट्रीय आंदोलन की परिधि पर १९२५ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी खड़ा हो रहा था। जिस नागपुर से जिन्ना कांग्रेस और गांधी से दूर होने की राह पर चल देते हैं,उसी नागपुर में हिंदू राष्ट्र की कल्पना जन्म ले रही थी। उससे पहले तुर्की में खलीफा प्रथा को खत्म करने के मार्डन मुस्तफा के खिलाफ भारत में कट्टरवादी आंदोलन कर रहे थे। धार्मिक बहसें तेज़ हो रही थीं। हमें यह भी समझना होगा।
जिन्ना एक जटिल व्यक्ति थे। वो एक भारत का सपना नहीं देख रहे थे। उनके भीतर भारत मे ही वो मुसलमानों के लिए अधिक अधिकार और क्षेत्र की सोच काफी साफ साफ दिखाई देती है। भले ही इतिहास के दस्तावेज़ साबित करें कि जिन्ना ने खुल कर पाकिस्तान की मांग नहीं की और जिस पाकिस्तान की मांग की वो हिन्दुस्तान का टुकड़ा नहीं था बल्कि उसी के भीतर एक व्यापक अधिकार क्षेत्र था। तो भी इसकी नियति विभाजन की तरफ ही ले जाती दिखती है। एक ऐसा तनाव जिसे लेकर भारत न जाने कितनी बार टूटने के कगार पर पहुंचता या टूट चुका होता। जिन्ना ने अपनी सोच का त्याग नहीं किया। न तो धर्मनिरपेक्षता के लिए न ही हिंदुस्तान के लिए। वो गांधी की तरह कांग्रेस छोड़ कर नोओखली नहीं गए। फर्ज कीजिए नेहरू गांधी ने जिन्ना की बात मान ली होती तो आज का भारत कैसा होता?
जसवंत सिंह की किताब ६९५ रुपये की है जब इतना खर्च करेंगे तो बरनवाल जी की किताब १५० रुपये में खरीद ही लीजिएगा। राजकमल ने छापी है। साथ में सलील मिश्र की किताब भी खरीदें ताकि एक साथ पढ़ने से बात को नया परिप्रेक्ष्य मिले।
जसवंत, जिन्ना बनना चाहेंगे- पार्ट टू
इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय ओपन विश्वविद्यालय के प्रो सलील मिश्रा कि किताब A Narrative of Communal Politics, Uttar Pradesh 1937-39 पढ़नी चाहिए। सेज प्रकाशन ने यह किताब छापी है। जसवंत सिंह की किताब भी पढ़नी चाहिए।
मैंने अभी नहीं पढ़ी है लेकिन मीडिया में जिस तरह से उनकी किताब के हवाले से १९३७ के चुनाव को लेकर ज़िक्र आया है कि इसी के बाद विभाजन तय हो गया तो मैंने सोचा कि इतिहासकारों की नज़र से भी देखता हूं। उन किताबों को फिर पलटा जिन्हें कभी पढ़ा करता था।
प्रो सलील मिश्रा लिखते हैं कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के साथ आने को लेकर समकालीन नेताओं और आधुनिक इतिहासकारों ने कई नज़र से देखने की कोशिश की है। दलील जी जाती है कि यूपी में १९३७ में जो हुआ उसी के नतीजे में विभाजन हकीकत बना। अगर कांग्रेस और लीग की साझा सरकार बनती तो विभाजन नहीं होता। कई तरह की बातें होती हैं। लीग और कांग्रेस के घोषणा पत्र में विशेष अंतर नहीं था। दोनों में अनौपचारिक समझ बनी थी कि साझा सरकार बनायेंगे। एक प्रमाण बहराइच का दिया जाता है। जब मुस्लिम लीग के कांग्रेस के रफी अहमद किदवई के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था। किदवई बहराईच में उम्मीदवार थे,जहां उपचुनाव हो रहा था। लेकिन कहा गया कि जीत के बाद कांग्रेस बदल गई।
सलील कहते हैं कि इन दलीलों को काफी तार्कित तरीके से गढ़ा गया। जबकि कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं कि कांग्रेस और लीग में चुनाव बाद समझौते की किसी तरह की बातचीत हुई है। सीतापुर रूरल,सुल्तानपुर रूरल और लखनऊ अर्बन मुस्लिम सीट पर कांग्रेस और लीग आमने सामने लड़े। १९३७ के चुनाव में कांग्रेस ने मुस्लिम सीटों पर कम ही चुनाव लड़ा। ४८२ में से सिर्फ ५८ सीटों पर। बाकी सीटें अलग अलग राज्यों की पार्टियों के लिए छोड़ दी।
इस चुनाव में जनसभाओं में नेहरू और जिन्ना के भाषण एक दूसरे के खिलाफ उग्र हुए। नेहरू ने कहा कि भारत में सिर्फ दो पार्टियां हैं। कांग्रेस और ब्रिटिश गर्वमेंट। जिसका जवाब देते हुए जिन्ना ने कहा था कि एक तीसरी पार्टी भी है- मुस्लिम लीग। एक सभा में जिन्ना ने कहा था कि नेहरू मुसलमानों को अकेला छोड़ दें। इसी चुनाव में लीगी कांग्रेस को खुलकर हिंदू संगठन कहने लगे थे। नेहरू और जिन्ना ने दोनों ने कहीं भी १९३७ के चुनाव के बाद गठबंधन की सरकार की बात नहीं की है। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के यूपी के कुछ नेता ज़रुर कहते मिलते हैं। वैसे ही जैसे २००९ के चुनाव के बाद अमर सिंह कांग्रेस की सरकार को समर्थन देना चाहते हैं और कांग्रेस लेना नहीं चाहती तो चिट्ठी राष्ट्रपति को दे आते हैं। ये पोलिटिक्स तब से हो रही है दोस्तों।
सलील मिश्रा बहराईच सीट के मिथक को भी तोड़ देते हैं। अपने प्रमाणों के आधार पर लिखते हैं कि मुस्लीम लीग ने इसलिए किदवई के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारा था कि दोनों में कोई समझौता हुआ था। बल्कि जिन्ना ने एक बयान जारी किया था कि बहराईच से पहले भी मुस्लीम लीग का उम्मीदवार जीत चुका है। इस बार तो कांग्रेस वहां उम्मीदवार देने की गलती भी न करे। लेकिन जब उम्मीदवार तय करने के लिए मुस्लिम लीग की वर्किंग कमेटी की बैठक हुई तो किसी मुसलमान ने अप्लाई ही नहीं किया। एक उम्मीदवार मिला भी तो उसने अपना नाम वापस ले लिया और रफी अहमद किदवई निर्विरोध चुने गए।
सलील बताते हैं कि यह अफवाह इस बात के साथ उड़ी कि कांग्रेस को लीग से समझौता करना चाहिए क्योंकि कांग्रेस एक भी मुस्लिम सीट नहीं जीत पाई है। जबकि यह सही नहीं था। खैर,इसलिए मंत्रिमंडल में मुसलमानों को जगह देने के लिए लीग से समझौता करना चाहिए। ये समझौता कैसे हो सकता था? नेहरू ने घोषणापत्र में लिखा था कि भारतीय लोगों की राष्ट्रवादी मांग है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अंत हो और पूर्ण स्वतंत्रता मिले। मुस्लिम लीग के घोषणापत्र में था कि भारत के लिए एक पूर्ण ज़िम्मेदार सरकार हो। आज़ादी की मांग नहीं थी। कांग्रेस को खारिज करना ही करना था।
इसके बाद प्रो सलील मिश्रा इस बात की खोज करते हैं कि कांग्रेस लीग के गठबंधन की बात आई कहां से। कहते हैं कि उस वक्त यूपी का गर्वनर था हैरी हैग। इसने सोचा था कि चुनाव के बाद दोनों मिलकर सरकार बनायेंगे। ये इसकी सोच थी जो बाद में अफवाह उड़ी और उड़ते उड़ते जसवंत सिंह की किताब में धूल बन कर पहुंच गई। जैसे हम सब पत्रकार इस चुनाव के बाद मान कर चल रहे थे और हममें से आज भी कई पत्रकार मानते हैं कि कांग्रेस को लालू,पासवान और मुलायम को साथ लेकर चलना चाहिए। यूपी की पोलिटिक्स को समझो भाई।
सलील बताते हैं कि ये हैग की कल्पना की उपज थी। जैसे आज कल एक्ज़िट पोल वाले सोचा करते हैं। हैग ने सोचा था कि कांग्रेस तो अकेले सरकार बना नहीं सकती।उसे लीग की मदद लेनी ही पड़ेगी।लेकिन रिज़ल्ट आ गया उल्टा। कांग्रेस को बहुमत मिल गया। १९३७ में हालात ऐसे बन गए थे कि जिन्ना और नेहरू या लीग और कांग्रेस एक साथ नहीं आ सकते थे।
बहुत लंबा नहीं लिखूंगा। मन तो कर रहा है। लेकिन इतिहास को दोनों तरफ से देखा जाना चाहिए। आडवाणी और जसवंत इन दोनों को जिन्ना तो नज़र आते हैं मगर नेहरू और गांधी नहीं। खुद कभी पहल नहीं कि मुसलमान बीजेपी की धारा से जुड़े। दो चार सांसद लेकर प्रतीक के तौर पर दिखाते रहते हैं लेकिन जिन्ना को महान बताकर नेहरू को कम बताते हैं। अपने घर में इफ्तार कर लेने से सेक्युलर नहीं हो जाता कोई। गुजरात के दंगों के वक्त दंगाइयों के खिलाफ खड़े होना पड़ता है।
फ फू फू फा ही करती रह गई कमीने, एक बेकार फिल्म है
जो भी सोये हैं ख़बरों में उनको जगाना नहीं...। इस खूबसूरत लाइन को फिल्माने का बेहतर अंदाज़ क्या होना चाहिए था? कहीं ऐसा तो नहीं कि विशाल भारद्वाज जैसा प्रतिभाशाली निर्देशक बहुत अच्छी चीज़ को संभाल नहीं पाता है और मटकी फूट जाती है। मुझे शक था। जब से टीवी पर ढैन टन टनन...देख रहा हूं,लग रहा था कि इस गाने की जगह डिस्को नहीं हो सकती है। इस गाने में जो टपोरीपन और दुनिया से टकराने की जो क्षमता थी वो डिस्को में जाकर दम तोड़ देती है।
उम्मीद कर रहा था कि ढैन टन टन गाना अपने नए शब्दों और थीम को लेकर नए नए लोकेशन की तरफ दौड़ता भागता लगेगा। मगर ये गाना तीन नंबर के डिस्को गाने की तरह हाफ रहा था। इस गाने में रात ही नज़र नहीं आई। शाहिद कपूर का डबल किसी भाड़े के डबल जैसा लग रहा था। प्रियंका किसी मकसद के बिना पर्दे पर उतारी गई हिरोईन की तरह लग रही थी।
फिल्म हॉल में दर्शक बेचैन होने लगे। खत्म होने से पहले सीढ़ियों पर आ गए। फिल्म तीन तीन सेकेंड के फ्रेम में तो अच्छी लग रही थी लेकिन एक बड़ा कोलाज नहीं बन पा रहा था। फिल्म का कोई भी सीन ऐसा नहीं था कि जो सिनेमा हॉल से निकलने के बाद तक दिमाग में नाचता रहता।
गुलज़ार के शब्दों को संगीत के शोर में खत्म कर दिया गया। मेरी आरज़ू कमीनी, जब ये गाना आया तो बहुत बाद में पता चला कि अच्छा ये वो गाना है। संगीत का इतना भयंकर शोर था कि गुलज़ार के शब्द सुनाई ही नहीं दिये। आजा आजा दिल निचोड़े को भी कैसिओ के दुनंबरी संगीत में निचोड़ दिया है। सिर्फ ढैन टन टन मुखड़ा ही सुंदर और क्रियेटिव रहा। चंपक, नंदन और बाजबहादुर का जिक्र ज़बरन लगा।
फिल्म का अंत महाबेकार तरीके से होता है। पांच टाइप के गैंग एक छोटी सी गली में आ जाते हैं। छत पर खड़ी पुलिस गैंगवार में शामिल है या एनकांउटर करने आई है,ये फर्क तुरंत खत्म हो जाता है। किसी वीडियो गेम की तरह लास्ट सीन लगा। खिलौने वाली बंदूकें कब हंसे कब रोये समझ में ही नहीं आया।
फॉट कट से लेकर फैसा तक के अल्फाज़ आज कल के टाइम में चल जाते हैं। लोगों के पास शब्द नहीं हैं। नए शब्द को जीने का अहसास नहीं हैं। तो इस तरह के चालू चल निकलने वाले शब्द पसंद आते हैं। आप फेसबुक पर देखिये। जिसने भी कमीने के बारे में लिखा है- फ फू का इस्तमाल किया है। कभी कभी लगता है कि फिल्म फ को प्रचारित करने के लिए बनी है। ऐसी बहुत सी फिल्में बन चुकी हैं जिसमें इस तरह के एक शब्द वाले अल्फाज़ चल निकले। आउ लॉलिता से लेकर मोगैंबो खुश हुआ तक। हकलाने की समस्या को भी गंभीरता के साथ या ज़ोरदार व्यावसायिकता के साथ रख कर फिल्म को ऊंचाई दी जा सकती थी।
विशाल भारद्वाज ने रात की मटकी दिन में ही फोड़ दी। कई बार बहुत अच्छा निर्देशक भी चूक जाता है। विशाल इस फिल्म में एक कंफ्यूज़ निर्देशक की तरह लगते हैं। मनमोहन देसाई का फार्मूला फूहड़ तरीके से चलाने की कोशिश करते हैं। लगता है कि एक प्रतिभाशाली फिल्म के फॉरमेट को तोड़ना चाहता है लेकिन अंत में उसी में उलझ जाता है। उसका ढैन टन टन हो जाता है।
कम से कम फिल्म मनोरंजन तो करती। फैसा फर्बाद हो गया। फिशाल फारद्वाज को कोई बताओ कि उनसे अच्छी चीजे संभल नहीं पाती। फ फू करने से नहीं चलता। वो तो हम टीवी वाले करते हैं। टीआरपी के लिए यहां वहां से कट पेस्ट कर कुछ बना देते हैं। दर्शक मिल जाते हैं। काम हो जाता है।
कोई है जो तारीफो में सोये विशाल को जगा सकता है। जगाओ भाई। वो एक काबिल निर्देशक है। रात में मटकी फोड़ने का बहुत दम है उसमें।
उम्मीद कर रहा था कि ढैन टन टन गाना अपने नए शब्दों और थीम को लेकर नए नए लोकेशन की तरफ दौड़ता भागता लगेगा। मगर ये गाना तीन नंबर के डिस्को गाने की तरह हाफ रहा था। इस गाने में रात ही नज़र नहीं आई। शाहिद कपूर का डबल किसी भाड़े के डबल जैसा लग रहा था। प्रियंका किसी मकसद के बिना पर्दे पर उतारी गई हिरोईन की तरह लग रही थी।
फिल्म हॉल में दर्शक बेचैन होने लगे। खत्म होने से पहले सीढ़ियों पर आ गए। फिल्म तीन तीन सेकेंड के फ्रेम में तो अच्छी लग रही थी लेकिन एक बड़ा कोलाज नहीं बन पा रहा था। फिल्म का कोई भी सीन ऐसा नहीं था कि जो सिनेमा हॉल से निकलने के बाद तक दिमाग में नाचता रहता।
गुलज़ार के शब्दों को संगीत के शोर में खत्म कर दिया गया। मेरी आरज़ू कमीनी, जब ये गाना आया तो बहुत बाद में पता चला कि अच्छा ये वो गाना है। संगीत का इतना भयंकर शोर था कि गुलज़ार के शब्द सुनाई ही नहीं दिये। आजा आजा दिल निचोड़े को भी कैसिओ के दुनंबरी संगीत में निचोड़ दिया है। सिर्फ ढैन टन टन मुखड़ा ही सुंदर और क्रियेटिव रहा। चंपक, नंदन और बाजबहादुर का जिक्र ज़बरन लगा।
फिल्म का अंत महाबेकार तरीके से होता है। पांच टाइप के गैंग एक छोटी सी गली में आ जाते हैं। छत पर खड़ी पुलिस गैंगवार में शामिल है या एनकांउटर करने आई है,ये फर्क तुरंत खत्म हो जाता है। किसी वीडियो गेम की तरह लास्ट सीन लगा। खिलौने वाली बंदूकें कब हंसे कब रोये समझ में ही नहीं आया।
फॉट कट से लेकर फैसा तक के अल्फाज़ आज कल के टाइम में चल जाते हैं। लोगों के पास शब्द नहीं हैं। नए शब्द को जीने का अहसास नहीं हैं। तो इस तरह के चालू चल निकलने वाले शब्द पसंद आते हैं। आप फेसबुक पर देखिये। जिसने भी कमीने के बारे में लिखा है- फ फू का इस्तमाल किया है। कभी कभी लगता है कि फिल्म फ को प्रचारित करने के लिए बनी है। ऐसी बहुत सी फिल्में बन चुकी हैं जिसमें इस तरह के एक शब्द वाले अल्फाज़ चल निकले। आउ लॉलिता से लेकर मोगैंबो खुश हुआ तक। हकलाने की समस्या को भी गंभीरता के साथ या ज़ोरदार व्यावसायिकता के साथ रख कर फिल्म को ऊंचाई दी जा सकती थी।
विशाल भारद्वाज ने रात की मटकी दिन में ही फोड़ दी। कई बार बहुत अच्छा निर्देशक भी चूक जाता है। विशाल इस फिल्म में एक कंफ्यूज़ निर्देशक की तरह लगते हैं। मनमोहन देसाई का फार्मूला फूहड़ तरीके से चलाने की कोशिश करते हैं। लगता है कि एक प्रतिभाशाली फिल्म के फॉरमेट को तोड़ना चाहता है लेकिन अंत में उसी में उलझ जाता है। उसका ढैन टन टन हो जाता है।
कम से कम फिल्म मनोरंजन तो करती। फैसा फर्बाद हो गया। फिशाल फारद्वाज को कोई बताओ कि उनसे अच्छी चीजे संभल नहीं पाती। फ फू करने से नहीं चलता। वो तो हम टीवी वाले करते हैं। टीआरपी के लिए यहां वहां से कट पेस्ट कर कुछ बना देते हैं। दर्शक मिल जाते हैं। काम हो जाता है।
कोई है जो तारीफो में सोये विशाल को जगा सकता है। जगाओ भाई। वो एक काबिल निर्देशक है। रात में मटकी फोड़ने का बहुत दम है उसमें।
वो जो बांबे हैं...जिसकी जान....शिखा त्रिवेदी की नज़र से देखिये
शिखा त्रिवेदी पिछले कई दिनों से बांबे पर काम कर रही हैं। बांबे में पढ़ी लिखी हैं तो उस शहर को अपने भीतर ढोते चलती हैं।
रहती दिल्ली में हैं लेकिन बात बांबे की करती हैं। वैसे शिखा का कोई एक शहर ही नहीं हैं। जयपुर,बनारस,बरेली,अहमदाबाद न जाने कितने शहरों को वो अपना शहर कहती हैं। शिखा त्रिवेदी की आपने डॉक्यूमेंट्री देखी होगी। पहले एनडीटीवी इंडिया के लिए भी बनाती थी लेकिन अब उनका काम अन्य वजहों से एनडीटीवी 24x7 तक ही सिमट कर रह गया है। लगन में कोई कमी नहीं आई है। इस बार वो अपने हिस्से का एक शहर बांबे लेकर आ रही हैं।
पिछले साल रीगल सिनेमा पचहत्तर साल का हो गया। चर्चगेट का इरोस भी सत्तर का हो गया है। इस साल लिबर्टी अपने साठवें साल में प्रवेश कर रहा है। एक विशिष्ठ कला शैली में बनी ये इमारतें सिर्फ बांबे की कंक्रीट पहचान नहीं हैं बल्कि ये बांबे वालों के भीतर किसी इमेज की तरह बनी हुई हैं। १९३० के दशक में पश्चिम से आई कला शैली के प्रभाव में ढली इन इमारतों ने बांबे को बांबे बनाया। ये वो टाइम था जब बांबे में ग्लैमर,मनोरंजन के नए रूप, बॉलरूम डांसिंग, जाज़, कैबरे और घुड़दौड़ सब आपस में घुलमिल रहे थे। एक शहर को शहर बना रहे थे। एक शहर का रोमांस पैदा हो रहा था। जो आने वाले कई सालों के लिए दूर दूर तक पसर कर फैलने वाला था।
शिखा कहती हैं कि धीरे धीरे यह कला(डेको)पूरे देश में फैलती है। यहां तक आज़ादी की पूर्व संध्या पर नेहरू स्वीसफ्रेंच वास्तुकार
Le Corbusier को आधुनिक भारत की बुनियाद रखने के लिए बुलाते हैं। यह भी ख्याल रखा जाता है कि पारंपरिक स्वरूप पर कोई असर न पड़े। नेहरू चाहते थे कि पूरे देश की इमारतों का एक सा चरित्र बने। बस यहीं से शुरूआत होती है डेको कला के अंत की। एक ऐसा आंदोलन था ये जो वास्तुकार राहुल मल्होत्रा के अनुसार मुंबई के आधुनिक जीवन शैली में सबसे पहले आया। लेकिन बाद में ये इमारतें मुंबई के विस्तार की बलि चढ़ती चली जाती हैं। लेकिन आज भी जब इनके करीब से गुज़रिये तो बांबे का रोमांस पैदा होने लगता है। लगता है कि बांबे में हैं।
शिखा इसी बांबे के अहसास को दिखाने की कोशिश कर रही हैं। आप इसे पंद्रह अगस्त के दिन NDTV 24X7 पर दोपहर तीन बजे और सोलह अगस्त को दोपहर एक बजे देख सकते हैं। थोड़ा वक्त निकालियेगा। मजा आयेगा। एक घंटे की इस डाक्यूमेंट्री का दूसरा हिस्सा दलित स्थापत्य और माया महात्म्य पर भी प्रस्तुति है।
चलो चलते हैं मथुरा में- तहसीन मुनव्वर की ग़ज़ल
चलो चलते हैं मथुरा में किसन की रास देखेंगे
किसन की बांसुरी से जागता अहसास देखेंगे
कभी बांके बिहारी को कभी राधा को देखेंगे
कभी मीरा की आंखों में मिलन की प्यास देखेंगे
कन्हैया लाल की भक्ति की रस में डूब जायेंगे
सुबह से शाम तक श्यामल की हम अरदास देखेंगे
दुखों के बोझ ने जिनके कदम आने से रोके हैं
सलोने सांवरे को वह ह्रदय के पास देखेंगे
हम भारत देश की माटी को चूमेंगे सराहेंगे
मुनव्वर सा मनोहर का कहीं जो दास देखेंगे
किसन की बांसुरी से जागता अहसास देखेंगे
कभी बांके बिहारी को कभी राधा को देखेंगे
कभी मीरा की आंखों में मिलन की प्यास देखेंगे
कन्हैया लाल की भक्ति की रस में डूब जायेंगे
सुबह से शाम तक श्यामल की हम अरदास देखेंगे
दुखों के बोझ ने जिनके कदम आने से रोके हैं
सलोने सांवरे को वह ह्रदय के पास देखेंगे
हम भारत देश की माटी को चूमेंगे सराहेंगे
मुनव्वर सा मनोहर का कहीं जो दास देखेंगे
धर्म का धन-जागरण- भगवती जागरण बनाम साईं जागरण
भगवती जागरण बल्कि सौवां विशाल भगवती जागरण हमेशा मेरे भीतर रहस्य पैदा करता रहा है। कुछ ईमानदार होते हैं जो लिखने में शर्माते नहीं कि उनका विशाल भगवती जागरण पांचवां है। लेकिन कोई भी अपने जागरण को विशाल से कम नहीं बताता। हर जागरण विशाल क्यों हैं,यह जानने की बेचैनी मुझे दिल्ली की सड़कों पर भटका देती है।
जागरण की दुनिया पर बहुत शोध हुए हैं। मज़दूर वर्ग और व्यापारियों का काम शाम को ही बंद होता था। उसी के बाद शाम की आरती,भजन-कीर्तन और जागरण के लिए स्पेस बनता था। हमारे शहरी जीवन में ये सब इसी तरह प्रवेश करते रहे हैं। लेकिन जागरण की दुनिया बदल गई है।
दिल्ली में होने वाले विशाल भगवती जागरणों की जगह माता की चौकी लेती जा रही है। भगवती जागरण काफी लंबा चलता है। रात के बारह बजे से लेकर सुबह तक। क्योंकि भगवती जागरण में तारा रानी की कथा सुनाई जाती है जो चार बजे सुबह के वक्त ही शुरू होती है। अब दिल्ली बदली है। शाइनिंग इंडिया का रूप बदला है तो सबको बदलने वाला टाइम भी बदल गया है। रिज़ल्ट ये आउट हुआ कि लोगों की दिलचस्पी समय की कमी के कारण भगवती जागरण में कम हुई है।
नतीजा जागरण अब भी विशाल तो कहे जाते हैं लेकिन इनका लघु रूप कुछ सालों से लांच हो चुका है। माता की चौकी। इस नाम से कोई सीरीयल भी है। मैंने आज माता की चौकी, जागरण करने वाले पंकज शर्मा जी से बात की। अधूरी रह गई। पूरी बात बाद में होगी लेकिन सोचा लिखता हूं। कच्चा पक्का। शर्मा जी ने बताया कि टाइम नहीं है जी। इसलिए माता की चौकी लगाते हैं। मैंने पूछा ये क्या है। बोले कि कुछ नहीं इसमें सिर्फ तारा रानी की कथा नहीं होती। माता की चौकी दो तीन घंटे में खत्म हो जाती है। ये आप छह से नौ, नौ से बारह या बारह से तीन के टाइम से करा सकते हैं। बिल्कुल सलीमा के शो की तरह। वाह।
मेरी दिलचस्पी बढ़ती जा रही थी। मैंने अब नेट पर जागरण सर्च करना शुरू किया। भला हो गूगल का। देवी मंदिर डॉट कॉम पर पहुंच गया। इसमें माता की चौकी की कहानी कुछ यूं है दोस्तों। आप इस कथा की कैटगरी में आते हैं तो ज़रूर करवाइये। क्या पता आपका इसके ऊपर की कैटगरी में प्रमोशन हो जाए। ध्यान रखिये आप कितनी भी अमीर क्यों न हो गए हों फार्च्यून फाइव हंड्रेड में नहीं पहुंचे तो क्या खाक अमीर हुए।
तो कनाडा से चलने वाली साइट देवी मंदिर डॉट कॉम जी हमें बता रहे हैं। दुर्गा सप्तशती में लिखा है कि अगर लोग साल में एक बार माता की चौकी लगायें तो उन्हें धन मिलेगा,काबिल बच्चे होंगे और बाधाएं दूर हो जाएंगी। अब आगे बताया जा रहा है कि माता की चौकी कैसे करें। चार घंटे की पूजा होती है जो भगवती जागरण की तरह रात भर नहीं चलती है।
माता की चौकी के लिए हम उनको आमंत्रित करते हैं जो बेहतर सुर में माता जी को समर्पित भजन गाने में सक्षम हों। चूंकि हम सब को सुर नहीं मिला है इसलिए अच्छे गायकों से माहौल बनता है। भक्ति का माहौल। तभी मां का आशीर्वाद मिलेगा। ( धंधे का जुगाड़ हो गया न) दूसरा तरीका है दान के ज़रिये। बिना दान के हम बाधायें दूर नहीं कर सकते। वेदव्यास ने कहा है कि कलियुग में दान ही उत्तम है। रामचरितमानस में तुलसीदास ने कहा है कि कलियुग में दान ही उत्तम है। वाह। सब कलियुग के अधर्मी टाइम के लिए धर्म का रास्ता सुझा गए। ग्रेट। जब तक धर्म से रोजगार के अवसर पैदा होते हैं( अंधविश्वास को छोड़ कर) मुझे कोई खास प्रोब्लम नहीं है। इसके आगे धर्म को कुछ मानता भी नहीं। हमारी संस्कृति के कई हिस्सों को अपने इन कर्मकांडों के ज़रिये ढो कर यहां तक लाया है इसलिए एक वाहक के रूप में धर्म के प्रति थोड़ा बहुत रेसपेक्ट है।
लेकिन ध्यान रहे। यहां से एक और चेंज यानी बदलाव एंटर कर रहा है। साईं बाबा का जागरण। भगवती जागरण वालों की जितनी डिमांड नहीं है उतनी साई भजन वालों की है। आजकल दिल्ली में साईं भजन की डिमांड खूब है। एक जागरण गायक ने बताया कि फिफ्टी फिफ्टी है जी। काफी पोपुलर हो रहा है। रिज़न यानी कारण। जवाब मिला कि सूफी टाइप के कुछ भजन है जो परेशान लोगों को अच्छे लगते हैं। बाकी तो वही भजन है तो दुर्गा जी के हैं। उन्हीं मे जोड़-मोड़ कर साईं भजन बना देते हैं।
भजन की दुनिया बदल रही है। मेरी पड़ताल अधूरी है। जल्दी ही पूरी रपट प्रकाशित करूंगा। धर्म की दुनिया कर्मशियल होकर टैरिफिक हो जाती है। आई लाइक दिस वर्ल्ड। नॉट फॉर प्रेयर बट फॉर पर्पस।
जागरण की दुनिया पर बहुत शोध हुए हैं। मज़दूर वर्ग और व्यापारियों का काम शाम को ही बंद होता था। उसी के बाद शाम की आरती,भजन-कीर्तन और जागरण के लिए स्पेस बनता था। हमारे शहरी जीवन में ये सब इसी तरह प्रवेश करते रहे हैं। लेकिन जागरण की दुनिया बदल गई है।
दिल्ली में होने वाले विशाल भगवती जागरणों की जगह माता की चौकी लेती जा रही है। भगवती जागरण काफी लंबा चलता है। रात के बारह बजे से लेकर सुबह तक। क्योंकि भगवती जागरण में तारा रानी की कथा सुनाई जाती है जो चार बजे सुबह के वक्त ही शुरू होती है। अब दिल्ली बदली है। शाइनिंग इंडिया का रूप बदला है तो सबको बदलने वाला टाइम भी बदल गया है। रिज़ल्ट ये आउट हुआ कि लोगों की दिलचस्पी समय की कमी के कारण भगवती जागरण में कम हुई है।
नतीजा जागरण अब भी विशाल तो कहे जाते हैं लेकिन इनका लघु रूप कुछ सालों से लांच हो चुका है। माता की चौकी। इस नाम से कोई सीरीयल भी है। मैंने आज माता की चौकी, जागरण करने वाले पंकज शर्मा जी से बात की। अधूरी रह गई। पूरी बात बाद में होगी लेकिन सोचा लिखता हूं। कच्चा पक्का। शर्मा जी ने बताया कि टाइम नहीं है जी। इसलिए माता की चौकी लगाते हैं। मैंने पूछा ये क्या है। बोले कि कुछ नहीं इसमें सिर्फ तारा रानी की कथा नहीं होती। माता की चौकी दो तीन घंटे में खत्म हो जाती है। ये आप छह से नौ, नौ से बारह या बारह से तीन के टाइम से करा सकते हैं। बिल्कुल सलीमा के शो की तरह। वाह।
मेरी दिलचस्पी बढ़ती जा रही थी। मैंने अब नेट पर जागरण सर्च करना शुरू किया। भला हो गूगल का। देवी मंदिर डॉट कॉम पर पहुंच गया। इसमें माता की चौकी की कहानी कुछ यूं है दोस्तों। आप इस कथा की कैटगरी में आते हैं तो ज़रूर करवाइये। क्या पता आपका इसके ऊपर की कैटगरी में प्रमोशन हो जाए। ध्यान रखिये आप कितनी भी अमीर क्यों न हो गए हों फार्च्यून फाइव हंड्रेड में नहीं पहुंचे तो क्या खाक अमीर हुए।
तो कनाडा से चलने वाली साइट देवी मंदिर डॉट कॉम जी हमें बता रहे हैं। दुर्गा सप्तशती में लिखा है कि अगर लोग साल में एक बार माता की चौकी लगायें तो उन्हें धन मिलेगा,काबिल बच्चे होंगे और बाधाएं दूर हो जाएंगी। अब आगे बताया जा रहा है कि माता की चौकी कैसे करें। चार घंटे की पूजा होती है जो भगवती जागरण की तरह रात भर नहीं चलती है।
माता की चौकी के लिए हम उनको आमंत्रित करते हैं जो बेहतर सुर में माता जी को समर्पित भजन गाने में सक्षम हों। चूंकि हम सब को सुर नहीं मिला है इसलिए अच्छे गायकों से माहौल बनता है। भक्ति का माहौल। तभी मां का आशीर्वाद मिलेगा। ( धंधे का जुगाड़ हो गया न) दूसरा तरीका है दान के ज़रिये। बिना दान के हम बाधायें दूर नहीं कर सकते। वेदव्यास ने कहा है कि कलियुग में दान ही उत्तम है। रामचरितमानस में तुलसीदास ने कहा है कि कलियुग में दान ही उत्तम है। वाह। सब कलियुग के अधर्मी टाइम के लिए धर्म का रास्ता सुझा गए। ग्रेट। जब तक धर्म से रोजगार के अवसर पैदा होते हैं( अंधविश्वास को छोड़ कर) मुझे कोई खास प्रोब्लम नहीं है। इसके आगे धर्म को कुछ मानता भी नहीं। हमारी संस्कृति के कई हिस्सों को अपने इन कर्मकांडों के ज़रिये ढो कर यहां तक लाया है इसलिए एक वाहक के रूप में धर्म के प्रति थोड़ा बहुत रेसपेक्ट है।
लेकिन ध्यान रहे। यहां से एक और चेंज यानी बदलाव एंटर कर रहा है। साईं बाबा का जागरण। भगवती जागरण वालों की जितनी डिमांड नहीं है उतनी साई भजन वालों की है। आजकल दिल्ली में साईं भजन की डिमांड खूब है। एक जागरण गायक ने बताया कि फिफ्टी फिफ्टी है जी। काफी पोपुलर हो रहा है। रिज़न यानी कारण। जवाब मिला कि सूफी टाइप के कुछ भजन है जो परेशान लोगों को अच्छे लगते हैं। बाकी तो वही भजन है तो दुर्गा जी के हैं। उन्हीं मे जोड़-मोड़ कर साईं भजन बना देते हैं।
भजन की दुनिया बदल रही है। मेरी पड़ताल अधूरी है। जल्दी ही पूरी रपट प्रकाशित करूंगा। धर्म की दुनिया कर्मशियल होकर टैरिफिक हो जाती है। आई लाइक दिस वर्ल्ड। नॉट फॉर प्रेयर बट फॉर पर्पस।
लव आज कल में शहर आज कल
इम्तियाज़ अली की फिल्म लव आज कल पसंद आई। बहुत दिनों बाद आई यह एक ऐसी फिल्म है जो शहरों से हमारे रिश्तों को जोड़ती है। हम सबके भीतर एक से ज़्यादा शहर होते हैं। एक से ज़्यादा मोहल्ले होते हैं। एक से ज़्यादा कहानी होती है। हम सब प्रवासी बटा अप्रवासी हैं। कहीं न कहीं से उजड़ कर कहीं न कहीं बसे हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में यह भी हुआ है कि नए शहर से हम सेंटिमेंटल रिश्ता नहीं बना सके। मुझे लगा कि इम्तियाज़ ने कैलिफोर्निया, सैनफ्रांसिस्को, कोलकाता और दिल्ली को ह्यूमनाइज़ यानी मानवीकरण किया है।
वो शहरों के अनजान कोनों और रास्तों पर जाकर अपनी कहानी गढ़ते हैं। एक गज़ब का कोलाज बनाते हैं कई शहरों के बीच। पिछले बीस साल में हिंदुस्तान में माइग्रेशन की प्रक्रिया काफी तेज़ हुई है। सिर्फ पंजाब ही विदेश नहीं गया। सिर्फ मज़दूर ही विदेश नहीं गए। बल्कि विदेश आने जाने वाला एक मध्यमवर्ग तैयार हुआ। यह एक शोध का विषय है कि कई शहरों में फ्लैट बदलते हुए इस तबके का शहर से रिश्ता बना या नहीं। उसकी यादों में ये शहर अपने बचपन के टाइम के मोहल्ले की तरह आते जाते रहे या नहीं।
हम सब शहर की समस्याओं को लेकर जूझते रहते हैं। कभी उसे रिश्ते की नज़र से नहीं देखा। जब भी मैं दक्षिण दिल्ली के गोबिन्दपुरी से गुज़रता हूं तो लगता है कि कोई अंदर खींच रहा है। १९९० से लेकर १९९३ का साल वहां गुजरा था। हमारे इलाके से आए कपड़ा मज़दूरों और किताबी मज़दूरो को मिक्स अप हो रहा था।
ढाबे में काम करने वाला गोरखपुर का वो शख्स(जिसका नाम याद नहीं) दाल में मटन का एक पीस डाल देता था। कहता था कहां पैसा है आपके पास। खा लीजिए आपको अच्छा लगता है। तो कभी मैं भी एक दो रुपये पूरी दरियादिली के साथ छोड़ आता था। सब मिलते थे तो गांव शहर का नाम पूछ कर खुश हो जाते थे। अब यह प्रक्रिया कम हो गई। क्योंकि अब मज़दूर और मैं दोनों शहर के लिए स्थायी हो गए। पहले किसी भोजपुरी भाषी को सुनता तो ज़रूर पूछता कि आप कहां के हैं। अब नहीं पूछता हूं। ऑटो वाले से पूछ लेता कि अच्छा बिहार के हो। अब नहीं पूछता। शायद इस शहर से अपने रिश्ते को समझ नहीं पाये।
इम्तियाज़ अली ने हमारे भीतर के कई शहरों को पकड़ लिया है। वो अपनी कहानी के पात्रों को तमाम गलियों मोहल्लों के नुक्कड़ों से भी ले जाते हैं और कैलिफोर्निया के अंडर पास और पैदलपाथ से भी। एक पुल किसी सुनहरे ख्वाब की तरह आता है तो पुराना किला की दीवारे ग्लैमरस हो जाती हैं। पुरातत्व को गैल्मराइज कर देते हैं और दीपिका को खूबसूरती से उस काम में ढाल कर बोरिंग विषय को सेक्सी बना देते हैं। पुरानी रेलगा़ड़ी और चमचमाची मेट्रो। ब्लैक कॉफी और काली चाय की कड़वाहट को मिला देते हैं। टैक्सी भी है और सेक्सी कार भी है। नया पुराना पानी में नमक की तरह घुलता जाता है। विज़ुअल आनंद मिलने लगता है।
इन सबके बीच पंजाब एक अनिवार्य तत्व के रूप मे मौजूद रहता है। पंजाब ने हमें कितनी खुशियां दी हैं। अपनी कहानियों से खुश रहने के तरीके दिये हैं। ये पंजाब ही कर सकता है। जितने गम और बंटवारों से पंजाब रौंदा गया है लेकिन इन सबसे अगर कोई दरियादिली के साथ निकला है तो वो पंजाब ही है।
अविनाश ने कहा कि इम्तियाज नए निर्देशकों की पौध में आते हैं। अच्छी फिल्में बनाते हैं। जिस तरह नया पुराना लव आज कल में आ जा रहा था लगा कि कोई है जो तेजी से बदले हिंदुस्तान में किसी संक्रमण काल की तरह मौजूद है। जो तमाम शहरों को अपना समझता है। मैं फिल्म देखते हुए यही सोच रहा था कि दिल्ली का कौन सा कोना है जिससे गुज़रते हुए मन रोमाटिंक होता है,नोस्ताल्जिक होता है। ऐसे तो बहुत हैं मगर क्या पता चलता है। इम्तियाज़ ने याद दिला दी।
वो शहरों के अनजान कोनों और रास्तों पर जाकर अपनी कहानी गढ़ते हैं। एक गज़ब का कोलाज बनाते हैं कई शहरों के बीच। पिछले बीस साल में हिंदुस्तान में माइग्रेशन की प्रक्रिया काफी तेज़ हुई है। सिर्फ पंजाब ही विदेश नहीं गया। सिर्फ मज़दूर ही विदेश नहीं गए। बल्कि विदेश आने जाने वाला एक मध्यमवर्ग तैयार हुआ। यह एक शोध का विषय है कि कई शहरों में फ्लैट बदलते हुए इस तबके का शहर से रिश्ता बना या नहीं। उसकी यादों में ये शहर अपने बचपन के टाइम के मोहल्ले की तरह आते जाते रहे या नहीं।
हम सब शहर की समस्याओं को लेकर जूझते रहते हैं। कभी उसे रिश्ते की नज़र से नहीं देखा। जब भी मैं दक्षिण दिल्ली के गोबिन्दपुरी से गुज़रता हूं तो लगता है कि कोई अंदर खींच रहा है। १९९० से लेकर १९९३ का साल वहां गुजरा था। हमारे इलाके से आए कपड़ा मज़दूरों और किताबी मज़दूरो को मिक्स अप हो रहा था।
ढाबे में काम करने वाला गोरखपुर का वो शख्स(जिसका नाम याद नहीं) दाल में मटन का एक पीस डाल देता था। कहता था कहां पैसा है आपके पास। खा लीजिए आपको अच्छा लगता है। तो कभी मैं भी एक दो रुपये पूरी दरियादिली के साथ छोड़ आता था। सब मिलते थे तो गांव शहर का नाम पूछ कर खुश हो जाते थे। अब यह प्रक्रिया कम हो गई। क्योंकि अब मज़दूर और मैं दोनों शहर के लिए स्थायी हो गए। पहले किसी भोजपुरी भाषी को सुनता तो ज़रूर पूछता कि आप कहां के हैं। अब नहीं पूछता हूं। ऑटो वाले से पूछ लेता कि अच्छा बिहार के हो। अब नहीं पूछता। शायद इस शहर से अपने रिश्ते को समझ नहीं पाये।
इम्तियाज़ अली ने हमारे भीतर के कई शहरों को पकड़ लिया है। वो अपनी कहानी के पात्रों को तमाम गलियों मोहल्लों के नुक्कड़ों से भी ले जाते हैं और कैलिफोर्निया के अंडर पास और पैदलपाथ से भी। एक पुल किसी सुनहरे ख्वाब की तरह आता है तो पुराना किला की दीवारे ग्लैमरस हो जाती हैं। पुरातत्व को गैल्मराइज कर देते हैं और दीपिका को खूबसूरती से उस काम में ढाल कर बोरिंग विषय को सेक्सी बना देते हैं। पुरानी रेलगा़ड़ी और चमचमाची मेट्रो। ब्लैक कॉफी और काली चाय की कड़वाहट को मिला देते हैं। टैक्सी भी है और सेक्सी कार भी है। नया पुराना पानी में नमक की तरह घुलता जाता है। विज़ुअल आनंद मिलने लगता है।
इन सबके बीच पंजाब एक अनिवार्य तत्व के रूप मे मौजूद रहता है। पंजाब ने हमें कितनी खुशियां दी हैं। अपनी कहानियों से खुश रहने के तरीके दिये हैं। ये पंजाब ही कर सकता है। जितने गम और बंटवारों से पंजाब रौंदा गया है लेकिन इन सबसे अगर कोई दरियादिली के साथ निकला है तो वो पंजाब ही है।
अविनाश ने कहा कि इम्तियाज नए निर्देशकों की पौध में आते हैं। अच्छी फिल्में बनाते हैं। जिस तरह नया पुराना लव आज कल में आ जा रहा था लगा कि कोई है जो तेजी से बदले हिंदुस्तान में किसी संक्रमण काल की तरह मौजूद है। जो तमाम शहरों को अपना समझता है। मैं फिल्म देखते हुए यही सोच रहा था कि दिल्ली का कौन सा कोना है जिससे गुज़रते हुए मन रोमाटिंक होता है,नोस्ताल्जिक होता है। ऐसे तो बहुत हैं मगर क्या पता चलता है। इम्तियाज़ ने याद दिला दी।
मां के हवाले से महात्मा गांधी
एक ठो छोटी चवन्नी चांदी का
जय जय बोलो महात्मा गांधी का
सन ५० से पहले मां ये गाना गाती थी। देवरिया पडरौना के आस पास के गांव में लोग गाते थे। मां कहती हैं कि यही दो पंक्तियां याद रह गईं हैं। गाना तो काफी लंबा है मगर भूल गई। लेकिन बचपन में हम सब खूब गाया करते थे। मां ने यह भी कहा कि आजकल लोग सोना नहीं लगाते। मैंने पूछा कि सोना क्या होता है तो कहा कि काग़ज़ में ग और ज के नीचे सोना लगता था। वाह। नुक्ता तब सोना होता था। मां बहुत गुस्से में है कि आजकल की पढ़ाई में सोना लगा कर कोई बोलता ही नहीं है। मेरी बेटी ने मां को अल्फाबेट पढ़ाना शुरू किया है। इंग्लिश आने से पहले स्कूल छूटा और फिर हम सबको पाल पोस कर बड़ा करने में वक्त बीता।
लेकिन गांधी जी पर यह कविता दिलचस्प लगी। मां जिस अंचल से हैं उसी अचंल से मशहूर इतिहासकार शाहिद अमीन हैं। उन्होंने इन इलाकों की स्मृतियों से चौरी चौरा और गांधी को ढूंढ कर एक शानदार किताब भी लिखी है। इवेंट मेटाफर एंड मेमोरी।
जय जय बोलो महात्मा गांधी का
सन ५० से पहले मां ये गाना गाती थी। देवरिया पडरौना के आस पास के गांव में लोग गाते थे। मां कहती हैं कि यही दो पंक्तियां याद रह गईं हैं। गाना तो काफी लंबा है मगर भूल गई। लेकिन बचपन में हम सब खूब गाया करते थे। मां ने यह भी कहा कि आजकल लोग सोना नहीं लगाते। मैंने पूछा कि सोना क्या होता है तो कहा कि काग़ज़ में ग और ज के नीचे सोना लगता था। वाह। नुक्ता तब सोना होता था। मां बहुत गुस्से में है कि आजकल की पढ़ाई में सोना लगा कर कोई बोलता ही नहीं है। मेरी बेटी ने मां को अल्फाबेट पढ़ाना शुरू किया है। इंग्लिश आने से पहले स्कूल छूटा और फिर हम सबको पाल पोस कर बड़ा करने में वक्त बीता।
लेकिन गांधी जी पर यह कविता दिलचस्प लगी। मां जिस अंचल से हैं उसी अचंल से मशहूर इतिहासकार शाहिद अमीन हैं। उन्होंने इन इलाकों की स्मृतियों से चौरी चौरा और गांधी को ढूंढ कर एक शानदार किताब भी लिखी है। इवेंट मेटाफर एंड मेमोरी।
मुर्गियों का गणतंत्र
मुर्गियों का यह रिपब्लिक दिल्ली के चित्तरंजन पार्क के मार्केट नंबर टू में है। पता नहीं इस गणतंत्र का संविधान और प्रावधान क्या है। परन्तु दुकानदारी कलाकारी का ही विस्तार है इसी की पुष्टि करता हुआ यह साइन बोर्ड दिलचस्प लगा। आज तक किसी ने इस आइडिया से मुर्गी नहीं बेची।
मैं कह रहा हूं यह समय कुछ और नहीं बल्कि आइडिया काल है। आइडिया युग। तरह तरह के आइडिया अवतरित हो रहे हैं। कमाल के टाइम में हम लोग रह रहे हैं। ऐश कीजिए। आइडिया दीजिए।
क्या आपका संघर्ष एक्सक्लूसिव है?
बहुत दिनों तक मुझे लगता रहा कि मैं संघर्ष कर रहा हूं। कई लोगों ने यकीन भी दिलाया कि हां कर रहे हो। दफ्तर में मेरे अलावा कई लोग आते हैं जो लगता है कि इसलिए आते हैं कि वे संघर्ष कर रहे हैं। इस तरह का भाव कई लोगों के चेहरे पर देखता हूं जो दफ्तरों के लिए निकल रहे होते हैं। तो लोगों ने मुझे ये कहा कि संघर्ष करते रहो। इसी के बाद तो अच्छा टाइम आएगा। मुझे लगा कि संघर्ष गुड और बैड टाइम के बीच का ट्रांज़िशन पीरियड है। संघर्ष संक्रमण काल है। तो करना होगा। सब लोग कर गए हैं तो तुम भी करो। मैंने कहा नो प्रोब्लम। कर दूंगा। लेकिन कुछ दिनों से मैं अपनी लाइफ में उस अच्छे टाइम को और संघर्ष को लोकेट करने की कोशिश कर रहा हूं। दोनों लापता हैं। बल्कि अब लगता है कि कभी थे ही नहीं।
संघर्ष एक मानसिक अवस्था है। इस मानसिक अवस्था से गुज़रते हुए हम अपने शारीरिक श्रम को महिमामंडित करते रहते हैं। हिंदी समाज के बृहत्तर हिस्से में संघर्ष एक काम है। गल्प है। डिस्कोर्स है।। एक टाइप का इल्यूज़न यानी माया है। हर दिन लाखों लोग संघर्ष कर रहे हैं। इसी झांसे में वे जीये जा रहे हैं।
इसकी पड़ताल होनी चाहिए कि हमने संघर्ष को कब अपने डिस्कोर्स का पार्ट बनाया। १८५७ के पहले से या फिर सत्रहवीं सदी से या फिर हड़प्पा काल से। अकबर का संघर्ष क्या था? मीरा बाई का संघर्ष क्या था? कहां से ये शब्द हमारे मानस में ट्रांसप्लांट हुआ है?
मूल ज्ञात नहीं है। ब्याज दर बढ़ती जा रही है। हर संघर्ष करने वाला धीरज को अपना टूल यानी उपकरण बनाता है। यहीं पर बजरंग बली भी एंटर करते हैं और बंगाली बाबा भी। फोन कर नौकरी मांगने की प्रक्रिया भी संघर्ष के कैटगरी में है। जंतर मंतर पर धरना भी संघर्ष है। रोज प्रिंसिपल से झगड़ कर क्लास लेना भी संघर्ष है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो क्रिया है वही संघर्ष है।
संघर्ष क्या है? किसी महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया गया प्रयास व सैलरी प्राप्ति के लिए किया जाने वाला दैनिक कार्य? या व्यक्तिगत महत्वकांझा या दैनिक जीवन में राशन की सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए तप? या फिर नैतिकता के सवाल पर इस्तीफा देकर सड़क पर आने के लिए किया गया कार्य या फिर बॉस की बात से ताव में आकर अहं को साबित करने के लिए दिया गया इस्तीफा?
हिंदी प्रदेश(मैं सिर्फ इसी ज्यूग्रोफिकल मेंटल ज़ोन को जानता हूं)में महान होने का लोड लिये कई लोगों ने मुझे ख़राब किया। जब मैं सामान्य था तो ठीक था। जब से महान बनाने की दुकान में ढकेला गया हूं मूड ख़राब रहता है। अब लगता है कि किसी गिरोह ने ये अहसास कराया कि मैं जिस दफ्तर में पचास रुपये दिहाड़ी पर चिट्ठी बांटता था, वहां रिपोर्टर हूं तो ये सब मेरे संघर्ष की बदौलत हुआ है। पहले एकाध बार खुश हो जाता था(हर बार नहीं) लेकिन अब सोचता हूं कि संघर्ष नहीं था। ये तो एक सिस्टम में घुसने और कहीं से निकल कर कहीं पहुंचने की एक धूर्त प्रक्रिया भर थी। तो क्या इस प्रक्रिया को संघर्ष कहा जा सकता है? क्या हिंदी प्रदेश के लोग बिना संघर्ष और उद्देश्य के जीने की आदत नहीं डाल सकते? हर काम में उपलब्धि क्यों टटोलते हैं?
क्या नौकरी में किये गये सारे प्रयास संघर्ष हैं? आम हिंदुस्तानियों के लिए नौकरी का अनुभव सिर्फ पचास साठ साल पुराना ही है। इससे पहले अंग्रेज़ों के टाइम में नौकरी का अनुभव सीमित लोगों को हासिल था। नौकरी सिस्टम में सबसे पहले ज़मींदार टाइप के लोग गए। कुछ ज़मींदार नौकरी को दुत्कारते रहे तो कुछ नौकरी से भाग कर आए तो उसे तीन नंबर का बताने में लगे रहे। अब ऐसी सामाजिक मानसिकता में जो नौकरी में टिक गया वो सामाजिक रूप से फंसा हुआ महसूस करने लगा होगा। फिर शुरू हुआ होगा अफसरी की महिमामंडन का दौर। फिर बताया जाने लगा होगा कि नौकरी में संघर्ष कर रहे हैं।
ये उसी टाइप का कांसेप्ट है जैसे आज कल का टाइम काफी खराब है। मैंने आज तक जीवन में कोई संघर्ष नहीं किया। काम किया जिसका पैसा मिला और ज़्यादा किया तो ज्यादा पाने की उम्मीद रही। साठ साल तक नौकरी करने की व्यवस्था सामाजिक रूप से विरासत में न मिली होती तो संघर्ष का यह मौका भी चला जाता। गांव में खेत जोतवा रहा होता। तो क्या वो भी संघर्ष कहलाता। आज कई लोग मुझे जुझारू बताने के लिए कहते हैं कि पत्रकारिता में आप ही हैं। लेकिन मैंने तो कभी पत्रकारिता के लिए कुछ नहीं किया। वेतन मिलने की जो शर्तें थीं उसे बस उसे ईमानदारी से निभाने की कोशिश करते रहता हूं। पेशेवर डिमांड को देखता हूं। कभी एक बार भी दिमाग में नहीं आया कि ये जो कर रहा हूं वो पत्रकारिता के लिए हैं। लेकिन जिनको पता नहीं था वो पूरे दावे के साथ बताते रहे कि हां पत्रकारिता के लिए ही तो कर रहे हो।
मैंने कई पत्रकारों को अपनी पीठ पर महानता और संघर्ष की ओवरलोडिंग किये हुए हाईवे पर दौड़ते देखा है। ये पत्रकार कांवड़ियों की टोली में डाक कावंड़िया जैसे दिखने की कोशिश करते हैं। जैसे वे रूक रूक कर नहीं दौड़ दौड़ तक पहुंचने में यकीन करते हैं। इस टेंशन में कइयों का हुलिया बेहद गंधाया हुआ हो जाता है। शक्ल सूरत जंगल की तरह हो जाती है और चिंतन एक मुद्रा की तरह शक्ल पर आसन जमा लेती है। टेंशन फ्री और लोड मुक्त कोई पत्रकार अच्छा या बुरा होने की कैटगरी में क्यों नहीं रह सकता? या तो वो महान है या फिर साधारण? या फिर संघर्ष कर रहा है? अगर कोई चैनल यह कह कर अपनी दुकान खोले कि आइये हमारे यहां पत्रकारिता का हर मानक होगा लेकिन सिर्फ चाय मिलेगी तो सबसे पहले उस चैनल को लात मारने वाला मैं रहूंगा। बाकियों की नैतिक पराकाष्ठा के बारे में मैं टिप्पणी नहीं कर सकता। आज तक मैंने कोई त्याग नहीं किया है। अब सवाल एक और है। जब त्याग ही नहीं किया तो संघर्ष कम्पलीट कैसे हो गया? इसका जवाब यह है कि मैंने कभी संघर्ष नहीं किया।
क्या हर संघर्ष महान होता है? क्या संघर्ष एक दुकान है वैसे ही जैसे हिंदी पत्रकारिता से लेकर साहित्य तक में महान होना एक परचून की दुकान है। क्या आप भी कुछ संघर्ष कर रहे हैं? क्यों कर रहे हैं? फ्री में कर रहे हैं या सैलरी के लिए कर रहे हैं? फिर जब ये सारा संघर्ष ही है तो काम क्या है? ज़िम्मेदारी क्या है? संघर्ष सामाजिक सामूहिक अनुभव नहीं हो सकता। कभी कभी हो सकता है लेकिन दाल भात की तरह नहीं हो सकता। अगर सब संघर्ष कर रहे रहे हैं तो मेरा संघर्ष कैसे एक्सक्लूसिव होगा। उसी के जैसा होगा तो मुझे वैसे ही संघर्ष नहीं करना है। संघर्ष एक्सक्लूसिव होना चाहिए। कलेक्टिव नहीं। फिर भी इतना लिखने के बाद मैं संघर्ष को डिफाइन नहीं कर पा रहा हूं। आप कर दीजिए न। मैं भी साठ साल पूरे होने से पहले एक बार संघर्ष करना चाहता हूं। आखिर मैं रहता तो हिंदी रीजन में न। बिना संघर्ष के मेरी पहचान डाइल्यूट हो जाएगी। प्लीज़। हेल्प मी। आई वांट टू स्ट्रगल।
संघर्ष एक मानसिक अवस्था है। इस मानसिक अवस्था से गुज़रते हुए हम अपने शारीरिक श्रम को महिमामंडित करते रहते हैं। हिंदी समाज के बृहत्तर हिस्से में संघर्ष एक काम है। गल्प है। डिस्कोर्स है।। एक टाइप का इल्यूज़न यानी माया है। हर दिन लाखों लोग संघर्ष कर रहे हैं। इसी झांसे में वे जीये जा रहे हैं।
इसकी पड़ताल होनी चाहिए कि हमने संघर्ष को कब अपने डिस्कोर्स का पार्ट बनाया। १८५७ के पहले से या फिर सत्रहवीं सदी से या फिर हड़प्पा काल से। अकबर का संघर्ष क्या था? मीरा बाई का संघर्ष क्या था? कहां से ये शब्द हमारे मानस में ट्रांसप्लांट हुआ है?
मूल ज्ञात नहीं है। ब्याज दर बढ़ती जा रही है। हर संघर्ष करने वाला धीरज को अपना टूल यानी उपकरण बनाता है। यहीं पर बजरंग बली भी एंटर करते हैं और बंगाली बाबा भी। फोन कर नौकरी मांगने की प्रक्रिया भी संघर्ष के कैटगरी में है। जंतर मंतर पर धरना भी संघर्ष है। रोज प्रिंसिपल से झगड़ कर क्लास लेना भी संघर्ष है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो क्रिया है वही संघर्ष है।
संघर्ष क्या है? किसी महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया गया प्रयास व सैलरी प्राप्ति के लिए किया जाने वाला दैनिक कार्य? या व्यक्तिगत महत्वकांझा या दैनिक जीवन में राशन की सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए तप? या फिर नैतिकता के सवाल पर इस्तीफा देकर सड़क पर आने के लिए किया गया कार्य या फिर बॉस की बात से ताव में आकर अहं को साबित करने के लिए दिया गया इस्तीफा?
हिंदी प्रदेश(मैं सिर्फ इसी ज्यूग्रोफिकल मेंटल ज़ोन को जानता हूं)में महान होने का लोड लिये कई लोगों ने मुझे ख़राब किया। जब मैं सामान्य था तो ठीक था। जब से महान बनाने की दुकान में ढकेला गया हूं मूड ख़राब रहता है। अब लगता है कि किसी गिरोह ने ये अहसास कराया कि मैं जिस दफ्तर में पचास रुपये दिहाड़ी पर चिट्ठी बांटता था, वहां रिपोर्टर हूं तो ये सब मेरे संघर्ष की बदौलत हुआ है। पहले एकाध बार खुश हो जाता था(हर बार नहीं) लेकिन अब सोचता हूं कि संघर्ष नहीं था। ये तो एक सिस्टम में घुसने और कहीं से निकल कर कहीं पहुंचने की एक धूर्त प्रक्रिया भर थी। तो क्या इस प्रक्रिया को संघर्ष कहा जा सकता है? क्या हिंदी प्रदेश के लोग बिना संघर्ष और उद्देश्य के जीने की आदत नहीं डाल सकते? हर काम में उपलब्धि क्यों टटोलते हैं?
क्या नौकरी में किये गये सारे प्रयास संघर्ष हैं? आम हिंदुस्तानियों के लिए नौकरी का अनुभव सिर्फ पचास साठ साल पुराना ही है। इससे पहले अंग्रेज़ों के टाइम में नौकरी का अनुभव सीमित लोगों को हासिल था। नौकरी सिस्टम में सबसे पहले ज़मींदार टाइप के लोग गए। कुछ ज़मींदार नौकरी को दुत्कारते रहे तो कुछ नौकरी से भाग कर आए तो उसे तीन नंबर का बताने में लगे रहे। अब ऐसी सामाजिक मानसिकता में जो नौकरी में टिक गया वो सामाजिक रूप से फंसा हुआ महसूस करने लगा होगा। फिर शुरू हुआ होगा अफसरी की महिमामंडन का दौर। फिर बताया जाने लगा होगा कि नौकरी में संघर्ष कर रहे हैं।
ये उसी टाइप का कांसेप्ट है जैसे आज कल का टाइम काफी खराब है। मैंने आज तक जीवन में कोई संघर्ष नहीं किया। काम किया जिसका पैसा मिला और ज़्यादा किया तो ज्यादा पाने की उम्मीद रही। साठ साल तक नौकरी करने की व्यवस्था सामाजिक रूप से विरासत में न मिली होती तो संघर्ष का यह मौका भी चला जाता। गांव में खेत जोतवा रहा होता। तो क्या वो भी संघर्ष कहलाता। आज कई लोग मुझे जुझारू बताने के लिए कहते हैं कि पत्रकारिता में आप ही हैं। लेकिन मैंने तो कभी पत्रकारिता के लिए कुछ नहीं किया। वेतन मिलने की जो शर्तें थीं उसे बस उसे ईमानदारी से निभाने की कोशिश करते रहता हूं। पेशेवर डिमांड को देखता हूं। कभी एक बार भी दिमाग में नहीं आया कि ये जो कर रहा हूं वो पत्रकारिता के लिए हैं। लेकिन जिनको पता नहीं था वो पूरे दावे के साथ बताते रहे कि हां पत्रकारिता के लिए ही तो कर रहे हो।
मैंने कई पत्रकारों को अपनी पीठ पर महानता और संघर्ष की ओवरलोडिंग किये हुए हाईवे पर दौड़ते देखा है। ये पत्रकार कांवड़ियों की टोली में डाक कावंड़िया जैसे दिखने की कोशिश करते हैं। जैसे वे रूक रूक कर नहीं दौड़ दौड़ तक पहुंचने में यकीन करते हैं। इस टेंशन में कइयों का हुलिया बेहद गंधाया हुआ हो जाता है। शक्ल सूरत जंगल की तरह हो जाती है और चिंतन एक मुद्रा की तरह शक्ल पर आसन जमा लेती है। टेंशन फ्री और लोड मुक्त कोई पत्रकार अच्छा या बुरा होने की कैटगरी में क्यों नहीं रह सकता? या तो वो महान है या फिर साधारण? या फिर संघर्ष कर रहा है? अगर कोई चैनल यह कह कर अपनी दुकान खोले कि आइये हमारे यहां पत्रकारिता का हर मानक होगा लेकिन सिर्फ चाय मिलेगी तो सबसे पहले उस चैनल को लात मारने वाला मैं रहूंगा। बाकियों की नैतिक पराकाष्ठा के बारे में मैं टिप्पणी नहीं कर सकता। आज तक मैंने कोई त्याग नहीं किया है। अब सवाल एक और है। जब त्याग ही नहीं किया तो संघर्ष कम्पलीट कैसे हो गया? इसका जवाब यह है कि मैंने कभी संघर्ष नहीं किया।
क्या हर संघर्ष महान होता है? क्या संघर्ष एक दुकान है वैसे ही जैसे हिंदी पत्रकारिता से लेकर साहित्य तक में महान होना एक परचून की दुकान है। क्या आप भी कुछ संघर्ष कर रहे हैं? क्यों कर रहे हैं? फ्री में कर रहे हैं या सैलरी के लिए कर रहे हैं? फिर जब ये सारा संघर्ष ही है तो काम क्या है? ज़िम्मेदारी क्या है? संघर्ष सामाजिक सामूहिक अनुभव नहीं हो सकता। कभी कभी हो सकता है लेकिन दाल भात की तरह नहीं हो सकता। अगर सब संघर्ष कर रहे रहे हैं तो मेरा संघर्ष कैसे एक्सक्लूसिव होगा। उसी के जैसा होगा तो मुझे वैसे ही संघर्ष नहीं करना है। संघर्ष एक्सक्लूसिव होना चाहिए। कलेक्टिव नहीं। फिर भी इतना लिखने के बाद मैं संघर्ष को डिफाइन नहीं कर पा रहा हूं। आप कर दीजिए न। मैं भी साठ साल पूरे होने से पहले एक बार संघर्ष करना चाहता हूं। आखिर मैं रहता तो हिंदी रीजन में न। बिना संघर्ष के मेरी पहचान डाइल्यूट हो जाएगी। प्लीज़। हेल्प मी। आई वांट टू स्ट्रगल।
चीरहरण टॉयलेट पेपर
हम आइडिया काल में जी रहे हैं। www.designtemplestore.com क्लिक किया तो चीरहरण टॉयलेट पेपर दिखा। लिखा है कि यह हैंड ग्रैबिंग टॉयलेट पेपर दुष्ट राजा दुर्योधन से प्रेरित है जिसने चीरहरण यानी साड़ी उतारने का आदेश दिया। यह घटना 4.B.C की है। वो साड़ी कभी खुल नहीं सकी। उसका कोई अंत नहीं था। ये टॉयलेट पेपर भी कभी खत्म नहीं होगा। आप देख ही रहे हैं कि दुर्योधन जी मूंछ ताने किसी मॉडल टाइप खड़े हैं। इस साइट पर तमाम चीज़ों को अलग नज़रिये से पेश किया गया है। काफी दिलचस्प है। दुकान दिल्ली में है।
गोबर-हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया
सीन-एक
लम्पटर्जुन- हे देव। कुरुक्षेत्र में तटस्थ रहते हुए किसी पत्रकार की तरह देश-दुनिया की चिंता में डूबे रह कर तीर चला सकते हैं।
देव- लम्पटर्जुन। तुम तीर चला दो। चिंता करना तुम्हारा काम नहीं। आत्मा का डिपार्टमेंट अलग है और चित्त का अलग। दोनों में कैम्युनिकेसन गैप होता है। तुम बस दागते जाओ। क्रिटिक से मत डरो। क्रिटिक हमला करेगा। तुम गिरगिट की तरह रंग बदलो। युद्ध करो।
लम्पटर्जुन- क्या युद्ध के मैदान में कुछ देर के लिए कविता कर सकता हूं। भेजा फ्राइ हो रहा है। कपार भन्न भन्न कर रहा है। कुछ लिख दें देव। तीर चलते रहेगा। ऑटोमेटेड वाण खरीद दिये हैं भैया युद्धिष्ठिर। चीन से लाए हैं।
देव- लिखो। तुम युद्ध के मैदान से कविता रचोगे तो गोबर निकलेगा।
लम्पटर्जुन- गोबर को अइसन वइसन बुझे हैं का। क्रिटिक आउर आप दोनों को नहीं मालूम। ज्ञान झा़ड़ना बंद कीजिए। हमारा इंस्टेंट महाकाव्य सुनिये।
सीन-दो
गोबर
हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया
हगने के तुरंत बाद नरम रहता है
सूखने पर सख्त हो जाता है
जब यह नदी गंगा सूख जाएगी एक दिन
उसकी तलछटी को गोबर से ही लीपा जाएगा
रेमण्ड के सूट में पन्डी जी,ग्ल्ब्स पहिन कर
बिसलेरी के पानी को अंजुरी में भर कर
छिड़क देंगे तलछटी पर
यही सीन सीधा कैमरे में घुस कर
ड्राइंग रूम में टीवी फाड़ कर करोड़ों दर्शकों के घर में उतर जाएगा
एग्झीक्यूटिव हो चुका एक बड़ा पत्रकार कमेंट करेगा
गोबर लीप कर भारत के पीएम ने एक नदी का अंतिम संस्कार कर दिया है
चलिये आप लोग जाइये,इतिहास बन चुका है,आप लंच कर लीजिएगा
गोबर
हमारे टाइम की सबसे बड़ी ख़बर है
भिन्नाती हुई मक्खियों का स्वर्ग है
मच्छरों को भगाने का कारगर मंत्र है
तभी तो पाथ पाथ कर हर ख़बर को दिन भर
टीवी स्क्रीन पर गोइठा सूखाया जाता है
और कहां पथेगा गोबर
न नदी बची न बचे हैं फुटपाथ
अतिक्रमण के इस दौर में गोबर के लिए जगह है
तो सिर्फ पत्रकारों के कपार के भीतर बनी गौशाला में
ख़बरों में आज भी बचा हुआ है गोबर
जिस देश में गंगा तक नहीं टिक सकी
वहां टिका है गोबर
हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया बनकर
पाश की रचनाओं पर लीपने पोतने के काम गोबर ही आता है
सपनो के मर जाने के इस ख़तरनाक दौर में
अंत्येष्टि का सामान है गोबर
कुरुक्षेत्र से लौट कर पत्रकार ने लीप पोत लिया खुद को गोबर से
गंगा से बेसी टाइम के लिए बचे रहने के लिए
किसी समय के निरपेक्ष इस समय में
कौंतेय के अधकचरे ज्ञान के झांसे से बचकर
गोबर में सब तर हो रहे हैं
आइडिया की तरह ज़मीन पर गिरते हैं
बाद में कलेंडर की तरह दीवार पर सूखते रहते हैं
रेटिंग की तारीखों में छुप छुप कर झूलते रहते हैं
पत्रकारों की अहमियत क्या है
मृत्यु शैय्या पर लेटे लेटे भीष्म ने उत्तर दिया है
कहा वे सिर्फ गोबर हैं
लीपने-पोतने के काम ही आएंगे
इतिहास की तारीखों को कीटनाशकों से बचाकर
स्मृतियों में अमर करते रहने के लिए
उनका एक ही काम है
चरना और हगना
जो गिरेगा वो नरम होगा
जो सूखेगा वो गोइंठा होगा
मूल्यांकन काल के इस विकराल टाइम में
गोबर एक टिकाऊ और बिकाऊ आइडिया है
अच्छी तरह सान कर पाथ दो स्क्रीन पर
कुछ ब्रेक से पहले सूखेगा
कुछ ब्रेक के बाद सूखेगा
गुलाल फिल्म के गानों की आइरनी की तरह
मोबाइल के टावर से टकरा कर वेवलेंथ के सहारे
पत्रकारों की वाणी पहुंचेगी आपकी अवेयरनेस तंत्रिकाओं में
तभी तुम गंगा को प्रणाम करना
पत्रकारों को तुम नहीं बचा सकी
गोबर ने बचाया है
तभी तो
गोबर
हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया है
तभी तो कहता हूं देव
धंस जाइये गोबर में
धंसते जाइये
खबरों को दांत पीस कर कचर मचर कर
पढ़ते जाइये
मुंड को झटकिये
थूथना फूला दीजिए बेलून की तरह
इस देश को बचना है तो
एसएमएस करना ही होगा
ज्योतिष की रंगशालाओं में आज के दिन के लिए
नतमस्तक होना ही होगा
लेकिन जो नहीं करेगा उसका क्या
उसे भी गोबर से लीप कर बचा लिया जाएगा
किसी रविवार को आइडिया की तरह चला देने के लिए
वर्ना किसी एक दिन
टीवी के स्क्रीन से जब गोबर सूख कर गिरेगा
घर में बदबू की तरह फैल जाएगा
हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया
सीन-३
लम्पटर्जुन- देव आय मीन कौंतेय। गांडीव ले जाओ। कुरुक्षेत्र की लड़ाई का नतीजा सिर्फ तुम्हारे हक में है। मैं कंवींस नहीं हूं। हज़ारों साल बाद आज अपने टाइम में देख रहा हूं। गीता बिना कापीराइट के बिक रही है। कई पब्लिसर पइसा बना रहे हैं। जीतने के बाद मुझे स्वर्ग भेज दिया गया। नैतिकता का पाखंड रच कर पार्थ तुमने मुझे हथियार बनाया है। मैं अपने भाइयों को काटता रहा और तुम उपदेशों का ब्लॉग रचते रहे। रेलवे स्टेशनों पर बिकने के लिए। तुम्हारे संदेश सिर्फ हारे हुओं की दुकानदारी बढ़ाते हैं। दावा करो,कौंतेय,क्या तुमने जीत का कोई मानक तय किया है। मैं तुम्हारा पात्र नहीं हूं। मैं कुरुक्षेत्र से जाना चाहता हूं। मैं तुम्हारे किसी भी प्लॉट का हिस्सा नहीं बनना चाहता। तुम्हारी लड़ाई व्यर्थ है। सेमिनारों में चर्चा के लिए की जाने वाली लड़ाइयां हम सबको निहत्था करती हैं। टी ब्रेक का बिस्कुट तुम भकोसो न,कौंतेय। मैं तो बन खाता हूं। बटर लगा के। पूरा खानदान साफ करा के तुमने हासिल क्या किया। अर्जुन पुरस्कार के अलावा मैं और किस काम आता हूं।
भीष्म- अरे लम्पटर्जुन। तुम तो सिर्फ कौंतेय के आइडिया पर चल रहे थे। जो उपदेश देगा किताब उसी की बिकेगी।
लम्पटर्जुन- भीष्म और कौंतेय। मैं जा रहा हूं। गोबर का लिजलिजा सिलसिला जारी रहेगा। तुम बिना कापीराइट के लेखक हो। मैं कोई और लड़ाई लड़ूंगा। गोबर पाथ कर काउडंग केक क्यों बनाऊ मैं। गंगा मिट जाये तो मेरी बला से। ख़बरों को कबर में गाड़ दिया जाए मेरी बला से। पाथो पाथो कौंतेय, तुम भी तो गोबर पाथो। मैं तो चला बरिस्ता। कॉफी और ब्राउनी के साथ मस्ती करूंगा। काव्य लिखूंगा। सत्या क्या है। आत्मा क्या है। फटीचर सिद्धांत रच कर नोबल जीतूंगा। तुम करो न ख़बरों की दुकानदारी। देश क्या ख़बरों के बाद चलता है? फुट...कुरुक्षेत्र इवेंट मैनेजमेंट की लड़ाई है। द्रोपदी का चीरहरण झूठ था। मैं ग्राफिक्स एनिमेशन के झांसे में आ गया। जा रहा हूं चौपाटी। लाइन मारूंगा। थिंक पोज़िटिव एक किताब लिखूंगा। दुनिया के सबसे बड़े सिनिक का फारवर्ड होगा। सोच को बदल दूंगा। देखना। टीवी पर आएगा। लाइव।
पटाक्षेप।
लम्पटर्जुन- हे देव। कुरुक्षेत्र में तटस्थ रहते हुए किसी पत्रकार की तरह देश-दुनिया की चिंता में डूबे रह कर तीर चला सकते हैं।
देव- लम्पटर्जुन। तुम तीर चला दो। चिंता करना तुम्हारा काम नहीं। आत्मा का डिपार्टमेंट अलग है और चित्त का अलग। दोनों में कैम्युनिकेसन गैप होता है। तुम बस दागते जाओ। क्रिटिक से मत डरो। क्रिटिक हमला करेगा। तुम गिरगिट की तरह रंग बदलो। युद्ध करो।
लम्पटर्जुन- क्या युद्ध के मैदान में कुछ देर के लिए कविता कर सकता हूं। भेजा फ्राइ हो रहा है। कपार भन्न भन्न कर रहा है। कुछ लिख दें देव। तीर चलते रहेगा। ऑटोमेटेड वाण खरीद दिये हैं भैया युद्धिष्ठिर। चीन से लाए हैं।
देव- लिखो। तुम युद्ध के मैदान से कविता रचोगे तो गोबर निकलेगा।
लम्पटर्जुन- गोबर को अइसन वइसन बुझे हैं का। क्रिटिक आउर आप दोनों को नहीं मालूम। ज्ञान झा़ड़ना बंद कीजिए। हमारा इंस्टेंट महाकाव्य सुनिये।
सीन-दो
गोबर
हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया
हगने के तुरंत बाद नरम रहता है
सूखने पर सख्त हो जाता है
जब यह नदी गंगा सूख जाएगी एक दिन
उसकी तलछटी को गोबर से ही लीपा जाएगा
रेमण्ड के सूट में पन्डी जी,ग्ल्ब्स पहिन कर
बिसलेरी के पानी को अंजुरी में भर कर
छिड़क देंगे तलछटी पर
यही सीन सीधा कैमरे में घुस कर
ड्राइंग रूम में टीवी फाड़ कर करोड़ों दर्शकों के घर में उतर जाएगा
एग्झीक्यूटिव हो चुका एक बड़ा पत्रकार कमेंट करेगा
गोबर लीप कर भारत के पीएम ने एक नदी का अंतिम संस्कार कर दिया है
चलिये आप लोग जाइये,इतिहास बन चुका है,आप लंच कर लीजिएगा
गोबर
हमारे टाइम की सबसे बड़ी ख़बर है
भिन्नाती हुई मक्खियों का स्वर्ग है
मच्छरों को भगाने का कारगर मंत्र है
तभी तो पाथ पाथ कर हर ख़बर को दिन भर
टीवी स्क्रीन पर गोइठा सूखाया जाता है
और कहां पथेगा गोबर
न नदी बची न बचे हैं फुटपाथ
अतिक्रमण के इस दौर में गोबर के लिए जगह है
तो सिर्फ पत्रकारों के कपार के भीतर बनी गौशाला में
ख़बरों में आज भी बचा हुआ है गोबर
जिस देश में गंगा तक नहीं टिक सकी
वहां टिका है गोबर
हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया बनकर
पाश की रचनाओं पर लीपने पोतने के काम गोबर ही आता है
सपनो के मर जाने के इस ख़तरनाक दौर में
अंत्येष्टि का सामान है गोबर
कुरुक्षेत्र से लौट कर पत्रकार ने लीप पोत लिया खुद को गोबर से
गंगा से बेसी टाइम के लिए बचे रहने के लिए
किसी समय के निरपेक्ष इस समय में
कौंतेय के अधकचरे ज्ञान के झांसे से बचकर
गोबर में सब तर हो रहे हैं
आइडिया की तरह ज़मीन पर गिरते हैं
बाद में कलेंडर की तरह दीवार पर सूखते रहते हैं
रेटिंग की तारीखों में छुप छुप कर झूलते रहते हैं
पत्रकारों की अहमियत क्या है
मृत्यु शैय्या पर लेटे लेटे भीष्म ने उत्तर दिया है
कहा वे सिर्फ गोबर हैं
लीपने-पोतने के काम ही आएंगे
इतिहास की तारीखों को कीटनाशकों से बचाकर
स्मृतियों में अमर करते रहने के लिए
उनका एक ही काम है
चरना और हगना
जो गिरेगा वो नरम होगा
जो सूखेगा वो गोइंठा होगा
मूल्यांकन काल के इस विकराल टाइम में
गोबर एक टिकाऊ और बिकाऊ आइडिया है
अच्छी तरह सान कर पाथ दो स्क्रीन पर
कुछ ब्रेक से पहले सूखेगा
कुछ ब्रेक के बाद सूखेगा
गुलाल फिल्म के गानों की आइरनी की तरह
मोबाइल के टावर से टकरा कर वेवलेंथ के सहारे
पत्रकारों की वाणी पहुंचेगी आपकी अवेयरनेस तंत्रिकाओं में
तभी तुम गंगा को प्रणाम करना
पत्रकारों को तुम नहीं बचा सकी
गोबर ने बचाया है
तभी तो
गोबर
हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया है
तभी तो कहता हूं देव
धंस जाइये गोबर में
धंसते जाइये
खबरों को दांत पीस कर कचर मचर कर
पढ़ते जाइये
मुंड को झटकिये
थूथना फूला दीजिए बेलून की तरह
इस देश को बचना है तो
एसएमएस करना ही होगा
ज्योतिष की रंगशालाओं में आज के दिन के लिए
नतमस्तक होना ही होगा
लेकिन जो नहीं करेगा उसका क्या
उसे भी गोबर से लीप कर बचा लिया जाएगा
किसी रविवार को आइडिया की तरह चला देने के लिए
वर्ना किसी एक दिन
टीवी के स्क्रीन से जब गोबर सूख कर गिरेगा
घर में बदबू की तरह फैल जाएगा
हमारे टाइम का सबसे बड़ा आइडिया
सीन-३
लम्पटर्जुन- देव आय मीन कौंतेय। गांडीव ले जाओ। कुरुक्षेत्र की लड़ाई का नतीजा सिर्फ तुम्हारे हक में है। मैं कंवींस नहीं हूं। हज़ारों साल बाद आज अपने टाइम में देख रहा हूं। गीता बिना कापीराइट के बिक रही है। कई पब्लिसर पइसा बना रहे हैं। जीतने के बाद मुझे स्वर्ग भेज दिया गया। नैतिकता का पाखंड रच कर पार्थ तुमने मुझे हथियार बनाया है। मैं अपने भाइयों को काटता रहा और तुम उपदेशों का ब्लॉग रचते रहे। रेलवे स्टेशनों पर बिकने के लिए। तुम्हारे संदेश सिर्फ हारे हुओं की दुकानदारी बढ़ाते हैं। दावा करो,कौंतेय,क्या तुमने जीत का कोई मानक तय किया है। मैं तुम्हारा पात्र नहीं हूं। मैं कुरुक्षेत्र से जाना चाहता हूं। मैं तुम्हारे किसी भी प्लॉट का हिस्सा नहीं बनना चाहता। तुम्हारी लड़ाई व्यर्थ है। सेमिनारों में चर्चा के लिए की जाने वाली लड़ाइयां हम सबको निहत्था करती हैं। टी ब्रेक का बिस्कुट तुम भकोसो न,कौंतेय। मैं तो बन खाता हूं। बटर लगा के। पूरा खानदान साफ करा के तुमने हासिल क्या किया। अर्जुन पुरस्कार के अलावा मैं और किस काम आता हूं।
भीष्म- अरे लम्पटर्जुन। तुम तो सिर्फ कौंतेय के आइडिया पर चल रहे थे। जो उपदेश देगा किताब उसी की बिकेगी।
लम्पटर्जुन- भीष्म और कौंतेय। मैं जा रहा हूं। गोबर का लिजलिजा सिलसिला जारी रहेगा। तुम बिना कापीराइट के लेखक हो। मैं कोई और लड़ाई लड़ूंगा। गोबर पाथ कर काउडंग केक क्यों बनाऊ मैं। गंगा मिट जाये तो मेरी बला से। ख़बरों को कबर में गाड़ दिया जाए मेरी बला से। पाथो पाथो कौंतेय, तुम भी तो गोबर पाथो। मैं तो चला बरिस्ता। कॉफी और ब्राउनी के साथ मस्ती करूंगा। काव्य लिखूंगा। सत्या क्या है। आत्मा क्या है। फटीचर सिद्धांत रच कर नोबल जीतूंगा। तुम करो न ख़बरों की दुकानदारी। देश क्या ख़बरों के बाद चलता है? फुट...कुरुक्षेत्र इवेंट मैनेजमेंट की लड़ाई है। द्रोपदी का चीरहरण झूठ था। मैं ग्राफिक्स एनिमेशन के झांसे में आ गया। जा रहा हूं चौपाटी। लाइन मारूंगा। थिंक पोज़िटिव एक किताब लिखूंगा। दुनिया के सबसे बड़े सिनिक का फारवर्ड होगा। सोच को बदल दूंगा। देखना। टीवी पर आएगा। लाइव।
पटाक्षेप।
राम का टेढ़ा मार्ग
( यह तस्वीर दक्षिण दिल्ली के मूलचंद फ्लाइओवर के नीचे ली गई है। आप जब आश्रम की तरफ से मूलचंद आते हैं तो फ्लाइओवर के नीचे से बायीं तरफ चिराग दिल्ली जाने के लिए मुड़ते हैं। मोड़ से कुछ मीटर पहले श्रीरामशरणम करके एक संस्था लोकप्रिय होती जा रही है। शनिवार और रविवार को काफी भीड़ रहती है। इस साइनबोर्ड पर एक साल से नज़र थी। आज कार रोकी और मोबाइल से तस्वीर ले ली। समझ में नहीं आया कि सीधी सड़क के किनारे बने रामशरणम स्थल तक पहुंचाने वाले इस बोर्ड में तीर के निशान में मोड़ क्यों हैं। शायद राम तक पहुंचने का रास्ता टेढ़ा होगा)
ये कश्मीर है-२
ये कश्मीर है
आबीर गुप्ता युवा हैं। ज़िंदगी में जोखिम और रोमांच का कॉकटेल बनाते हैं। कोलकाता के होते हुए अहमदाबाद के एनआईडी में पढ़ाई की। बांबे में रहे और फिल्म भी बनाई। इन दिनों श्रीनगर चले गए हैं। कश्मीर के युवाओ को पढ़ाने। वक्त मिलता है तो तस्वीरों की दुनिया में जीने लगते हैं। आप भी इन तस्वीरों का आनंद लें। क्लिक कर बड़े साइज़ में देखने का मज़ा कुछ और है।
पहली दो तस्वीरें लद्दाख की हैं।
रात को घर के किस कमरे में जलती होगी मां
हंसती होगी, रोती होगी, हंसती होगी मां
रात को घर के किस कमरे में जलती होगी मां
बाप का मरना मेरे लिये जब इतना भारी है
उस के बिना तो रोज़ ही जीती मरती होगी मां
बाबुजी घोड़ी पर चढ़ कर घर आते होंगे
अपनी याद में दुल्हन जैसी सजती होगी मां
पानी का नलका खोला तो आंसू बह निकले
गहरे कुएं से पानी कैसे भरती होगी मां
मेरी ख़ातिर अब भी चांद बनाती होगी ना
जब भी तवे पर घर की रोटी पकती होगी मां
अपनी आंख का नूर तो वह बस मुझ को कहती थी
मेरी भेजी चिट्ठी कैसे पढ़ती होगी मां
मेरी लम्बी उम्र की अर्ज़ी होठो पे ले कर
मंदिर के सब जीने कैसे चढ़ती होगी मां
तहसीन मुनव्वर
(तहसीन दूरदर्शन पर उर्दू न्यूज़ एंकर हैं, बेसाख्ता नाम से इनकी क्षणिकाएं कई अख़बारों में छपती हैं। फिलहाल रेलवे में पिछले छह साल से जनसंपर्क का काम कर रहे हैं। मगर साहित्य सृजन और संपर्क में भी दिलचस्पी रखते हैं)
रात को घर के किस कमरे में जलती होगी मां
बाप का मरना मेरे लिये जब इतना भारी है
उस के बिना तो रोज़ ही जीती मरती होगी मां
बाबुजी घोड़ी पर चढ़ कर घर आते होंगे
अपनी याद में दुल्हन जैसी सजती होगी मां
पानी का नलका खोला तो आंसू बह निकले
गहरे कुएं से पानी कैसे भरती होगी मां
मेरी ख़ातिर अब भी चांद बनाती होगी ना
जब भी तवे पर घर की रोटी पकती होगी मां
अपनी आंख का नूर तो वह बस मुझ को कहती थी
मेरी भेजी चिट्ठी कैसे पढ़ती होगी मां
मेरी लम्बी उम्र की अर्ज़ी होठो पे ले कर
मंदिर के सब जीने कैसे चढ़ती होगी मां
तहसीन मुनव्वर
(तहसीन दूरदर्शन पर उर्दू न्यूज़ एंकर हैं, बेसाख्ता नाम से इनकी क्षणिकाएं कई अख़बारों में छपती हैं। फिलहाल रेलवे में पिछले छह साल से जनसंपर्क का काम कर रहे हैं। मगर साहित्य सृजन और संपर्क में भी दिलचस्पी रखते हैं)