जमाई बाबू के लिए डिस्काउंट
पश्चिम बंगाल में जून के महीने के एक दिन जमाई यानी दामाद लोगों का बड़ा आदर होता है। पूजा होती है। उस दिन सब मिठाई खरीदते हैं और कपड़े भी। दामाद जी को भेंट देने के लिए। कोलकाता टेलिग्राफ में इस विज्ञापन पर नज़र पड़ी थी। शादियों का मौसम है। बहुत सारे दामाद बनेंगे। डिस्काउंट में बहुत सामान उनको मिलेगा। नहीं मालूम कोई विरोध कर पायेगा या नहीं। लेकिन ऐसा क्या किया है इस देश के दामादों ने कि उनके नाम पर पूजा हो। जामाई षष्ठी का इतिहास तो नहीं मालूम लेकिन सोचिए जिसने दहेज लेकर शादी की हो और वो देवता की तरह पूजा जाए यह तो हद है। बहुत लोग कहते हैं कि हमने मांगा नहीं। मुंह नहीं खोला। लेकिन जो मिला वो ले लिया। काजू की बर्फी वाला तो डिस्काउंट दे रहा है। शायद वही बेटी के बाप की जेब का दर्द समझता होगा। सोचा होगा चलो दामाद लोग तो पांच रुपया छोड़ेंगे नहीं, बेचारे के लिए हमीं साठ रुपये छोड़ देते हैं। बहुत बुरी हालत है। शादियों को जश्न बनाकर माल तसील कर कौन सा बड़ा तीर मार लेते हैं समझ में नहीं आता। पर किसी को शर्म क्यों आये। बारात में जो आते हैं उनमें से पनचानवे परसेंट की शादी दहेज से होती है। पांच परसेंट जो बच्चे होते हैं वो बड़े होने के साथ साथ लिस्ट बनाते रहते हैं। सड़ गया है समाज। सड़ गए हैं हम लोग। कुछ न करें। इतना तो कर ही दें कि जिसने दहेज लिया है, उसे किसी न किसी तरह शर्म का अहसास करा दें।
देश के कई हिस्सों में सुना है अभी भी लोग दहेज नहीं लेते... जैसे झारखंड में आदिवासी समाज के लोग उलट कुछ दहेज लड़के वालों से लेते हैं.... उत्तराखंड में लड़कियां दहेज में पेड़ लेकर ससुराल जाती है... सुना है और पढ़ा है सच्चाई की पड़ताल नहीं की है... लेकिन हां दिल्ली जैसे बड़े शहरों में दहेज रुपी दानव को कैश के बदले समानों में तब्दील होते देखा है... बिहार में ही 22 वसंत गुजारे हैं... इसलिए वहां के रग-रग से वाकिफ हूं... लेकिन अगर हर नौजवान को अपनी बहन की शादी करने की जिम्मेदारी निभानी पड़े तो मेरे विचार से कुछ वदलाव संभव है... क्योंकि मैंने निजी तौर पर बहन की शादी की है... तभी फैसला कर लिया था कि अगर शादी करने का नक्षत्र बना( सुना है नक्षत्र बहुत जरूरी है) तो कभी किसी लड़की को देखने के बाद उसके रंग को लेकर नुक्ताचीनी नहीं करूंगा... तिलक लेना तो दूर की बात है... इसकी सबसे बड़ी वजह है बहन की शादी में जमीन बेचते हुए देखना और बाबूजी को दहेज जुटाने के चक्कर में तिल-तिल कर मरना... खैर बिहार से हूं और सरकारी नौकरी भी नहीं है... इसलिए दहेज वैसे भी मिलेगा नहीं... चलो इसी बहाने लोगों से गर्व से तो कह पाऊंगा की मैंने दहेज नहीं लिया... वैसे भी शादी नहीं हो तो कोई बात नहीं कम से कम शर्म तो नहीं आएगी की दहेज के पैसे से पहली बार शादी के लिए ठंडा-गरम कपड़ा(बिहार में सूट को ज्यादा तर लोग इसी उपनाम से संबोधन करते हैं)... पहननी पहनना पड़ेगा... काश हमारे पढ़े लिखे क्लर्क और कलक्टर बाबू इस दहेज के दर्द को समझ पाते...
ReplyDeleteये लेख आप ही लिख सकते हैं...फिर से आप पुराने रंग में हैं....मैं तो शादी ही नहं करुंगा....न रहेगा बांस, न ...........
ReplyDeleteइस अभिशाप से कब मुक्ति मिलेगी। आज एक खबर मिली है कि लड़की वाले जेवर देना चाहते हैं और लड़के वाले नकद लेना चाहते हैं। लड़का और लड़की रोज फोन पर बतियाते हैं पर इस पर बात नहीं करते। बात करें तो पता नहीं रिश्ता भी रहेगा या नहीं।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रविश जी, आप, कमाल खान और विनोद जी को अक्सर NDTV पर देखता आ रहा हूँ| आपके शब्द बस बांध जाने को मजबूर कर देते हैं| कस्बा के बारे में कुछ दिन पहले ही मालुम चला, पहले कभी पढ़ा नहीं, पर अब से आपका नियामत पाठक हूँ| आप बस इसी तरह से लिखते रहिये और हम पढ़ते रहेंगे| धन्यावाद हमारे साथ अपने कुछ पल बांटने के लिए...
ReplyDeleteअच्छा लगा दहेज व अन्य के माल पर जीने की इस परम्परा का विरोध! शायद हमारे समाज में घूसखोरी का एक मुख्य कारण यह दहेज ही है। आरम्भ से ही मुफ़्त का माल खाने की आदत को परम्परा का जामा पहनाकर हम अपना लेते हैं। फिर ईमानदारी व आत्मसम्मान जैसी बातों की अपेक्षा ही कैसे की जा सकती है?
ReplyDeleteदहेज लेने वालों से भी अधिक गलत मुझे ये अपना स्वयं शोषण करवाती स्त्रियाँ और उनके माता पिता लगते हैं। कमी है तो बस इस संकल्प की कि दहेज देकर विवाह नहीं करना है।
घुघूती बासूती
अरे रविश जी एक सच्चाई भी हमारे समाज की ये
ReplyDeleteभी है कि दहेज देने के वक्त हर कोई कानून पढ़ाता है और सच्चाई और दहेज लेने को पाप कहता हैं , लेकिन हममे ले कितने लोग ऐसे है जो दहेज लेने के नाम पर गुस्सा हो जाते हों, लेने के नाम पर पाप पुण्य हो जाता है.
रवीशजी, काजू की बर्फी के लिए धन्यवाद !!
ReplyDeleteयह भारत देश महान है...इस देश की परंपरा जन साधारण का ध्यान - जिनकी पत्नी स्वयं महालक्ष्मी हैं - उन विष्णु जैसे दामाद की ओर ध्यानाकर्षित करने के लिए मानस पटल पर बार बार विभिन्न रूप में कलिकाल मैं भी प्रस्तुत की जाती हैं...और पहाडों में दक्ष प्रजापति के दामाद, शिव, नीलकंठ महादेव, की ओर जिन्हें पार्वती जैसी पत्नी ने अमृत प्रदान कर हलाहल पान की क्षमता दिलाई धरती पर देवता और राक्षश दोनों को अनंत काल तक लीला करने के लिए !! और सतयुग के फिर से लौट कर आने का इंतजार करने के लिए... तब तक विष गले में ही धारण करने की क्षमता प्रदान करने हेतु माँ पार्वती से प्रार्थना करने की लिए !!
(प्राकृतिक संकेत: इस पृथ्वी पर कूड़ा अधिक दिखाई देता है, भारत में विशेषकर, जो सदैव चर्चा का विषय बना रहता है; और जितनी वर्षा होती है उसका अधिकतर जल फिर से समुद्र के खारे जल में समां जाता है...उसी प्रकार 'पुरुषोत्तम' हर काल में कुछ राम/ कृष्ण जैसे बिरले ही होते हैं...)
गुरू पुराना पोथा फेसबुक से ब्लॉग पर। दहेज कौन लेता है जी, सरकार पहले से ही चौकन्नी है। 1962में Anti Dowry Act बना दिया था। हमने दो अंग्रेजी में एस्से भी लिखा था डॉरी सिस्टम के खिलाफ। ग्यारहवीं क्लास में। एक कसरत थी ये, सालाना तौर पर कुछ एक ही टॉपिक परीक्षा में आते थे। उनमें हिट था ये। कहा गया है कि भारत संस्कृति पर चलने वाला देश है। लोग कानून से नहीं डरते तो इसका मतलब रिवायत निभा रहे हैं। भैया दुष्यंत कुमार को भी दहेज मिला था, शकुंतला से शादी करने के समय, और दहेज राजकुमार सिद्धार्थ को भी मिला था।
ReplyDeleteravish ji aap ka likha ye blog maine abhi kuch din pahle dekh ye blog aapke shoch aur vicharo ko darsata hai .syad kabhi kuch pad kar kisi ya mare hi dimag ke soch main badlab aa jaye
ReplyDeletethax for your writing
यदि लड़कियां चाहें तो दहेज प्रथा का अन्त हो सकता है, लेकिन लड़कियां भी तो अपने से ज्यादा पढा-लिखा दूल्हा तलाशती हैं। आज मध्यम वर्गीय लड़कों का विवाह नहीं हो रहा और उच्च वर्ग का सौदा हो रहा है। हमारे यहाँ तो जामाता को दसवां ग्रह बताया है। बढ़िया पोस्ट, बधाई।
ReplyDelete*****इतना तो कर ही दें कि जिसने दहेज लिया है, उसे किसी न किसी तरह शर्म का अहसास करा दें। *****
ReplyDeleteफिलहाल तो यह ब्लाग पर भी संभव नहीं लगता। मगर फिर भी......
शीघ्र ही www.samwaadghar.blogspot.com पर पढ़िए व्यंग्य ‘‘आदरणीय जीजाजी’’।
JC साहब की टिप्पणियों को पढ़कर राजेंद्र अवस्थी का ‘काल-चिंतन’ याद आ जाता है जिसे पढ़कर ‘कादम्बिनी’ के कुछेक उप संपांदक भी असहाय/पराजित मुद्रा में कंधे उचका देते थे। आभार।
Shambhu kumar said...
देश के कई हिस्सों में सुना है अभी भी लोग दहेज नहीं लेते... जैसे झारखंड में आदिवासी समाज के लोग
फिक्र मत कीजिए, आदिवासियों को भी भाजपा ‘‘शिक्षित’’ कर रही है.....
dahej pratha .......ek kuriti ye slogan 4th,5th class se padhte aa rahe hai lekin aj bhi is kuriti ke karandhaar ham hi bane hue hai .....ladki ko jyada nahi padhaya jata kyonki use sirf padhana hi nahi hai uske liye dahej bhi jodna hai ........aur jo ladko ko jyada padha dete hai kabil bana dete hai vo isi baat par dahej ki maang karne lagte hai ise itna padhaya hai uski kimat to vasulenge hi ............ek vigayapan dikhakar...... badhiya sandesh diya apne
ReplyDeleteकिसको क्या कहे साहब? हमारे कुछ मित्र जो कॉलेज के जमाने में दहेज के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें किया करते थे, वही अब शादी कि उम्र होने पर बेशर्मी से कहते हैं की वो सब तो कहने की बातें थी, हम तो जितना मिलेगा उतना बटोरेंगे..
ReplyDeleteअब कोई इस तरह का उत्तर दे तो भला क्या कहें उससे?
परंपरा को बदलने के लिए हिम्मत चाहिए ...मेरे घर में ..पहले मेरे ननदोई के भाई ने ये परंपरा तोड़ी..एक रुपया न खुद लिया न बारातियों को देने दिया .ना कोई धूमधाम ..न दिखावा ...गिनती के चंद बाराती ..उनको देख कर मेरे ननदोई ने हिम्मत की ...फिर मेरे पति ने ....उनको देख कर मेरे भाई ने ...उम्मीद करती हूँ की ब्लॉग जगत के कुंवारे भी इसे पढेंगे और हिम्मत करेंगे ...परम्पराओं को तोड़ने की
ReplyDeleteपरंपरा को बदलने के लिए हिम्मत चाहिए ...मेरे घर में ..पहले मेरे ननदोई के भाई ने ये परंपरा तोड़ी..एक रुपया न खुद लिया न बारातियों को देने दिया .ना कोई धूमधाम ..न दिखावा ...गिनती के चंद बाराती ..उनको देख कर मेरे ननदोई ने हिम्मत की ...फिर मेरे पति ने ....उनको देख कर मेरे भाई ने ...उम्मीद करती हूँ की ब्लॉग जगत के कुंवारे भी इसे पढेंगे और हिम्मत करेंगे ...परम्पराओं को तोड़ने की
ReplyDeleteरवीश जी. काफ़ी लम्बे समय से "हिन्दुस्तान" में आपके ब्लॊग के बारे मे देख रहा था. आज सोचा कि आपसे मुखातिब हुआ जाये. "कस्बा" वाकयी एक उम्दा अड्डा है. उमीद कर्ता हूं कि अब मैं भी इस अड्डे पर आता रहूंगा. --- मुईन शम्सी (दिल्ली) plz visit: www.moinshamsi.wordpress.com
ReplyDeleteसर इस अजीब कहानी के बारे में पहली बार पढ़ने को मिला। वैसे दामाद तो हमेशा से ही अपनी ससुरालवालों का खून चूसने पर लगे रहते हैं, और इसकी शुरुआत तो रिश्ता लगने के साथ ही शुरु हो जाती है। और फिर ये सिलसिला कभी नहीं रुकता। शादी के बाद अगर लड़के की फ़रमाइश पूरी नहीं हो, तो फिर भगवान ही बचाए। वैसे भी ये हिदुस्तान है, परंपराएं यहां तरक्की का रास्ता रोकने में सबसे आगे रहती हैं। आखिर यही तो है मेरा देश महान
ReplyDeleteक्या आप कभी टट्टी (शौचालय) में बैठ किसी लज़ीज़ खाने अथवा भोजन का आनंद, या केवल उसकी कल्पना ही करते, या कर सकते, हैं?
ReplyDeleteइसी प्रकार आरंभिक काल, कलियुग, में जब मानव ज्ञान केवल शून्य से पच्चीस प्रतिशत ही संभव है कोई कैसे निर्णय अथवा अनुमान भी लगा सकते हैं कि सतयुग में स्तिथि क्या रही होगी 'महान भारत' की जिसे केवल अमृत शिव ने ही अंततोगत्वा प्राप्त किया हो (और हम सब बाकि लोग ३३% ले पास होगये हों :)?
'काजू बर्फी' से रवीश जी खान भाई भी याद आ सकते हैं जिन्होंने भारत में आ पहली दफा किसी दोस्त के घर बर्फी खायी और दीवाने हो गए बर्फी के, यद्यपि उसके दाम काफी महेंगे लगे...
ReplyDeleteरास्ते में एक दिन काफी सस्ते दाम में बर्फिनुमा साबुन दिख गया...
उन्होंने एक किलो (तब सेर होता था) खुश हो तुंरत खरीद लिया...
जब दोस्त उनके घर पहुंचा तो उसने पाया कि उनके मुंह से झाग निकल रही थी!
उन्होंने पूछा कि मियाँ क्या हो रहा है, तो वो बोले में पैसे खा रहा हूँ :)
किन्तु हाल ही में जब किसी चैनल पर 'विशेष रिपोर्ट' देखी, दूध, घी आदि में मिलावट के बारे में, तो लगा कि हम भी तो खान भाई सामान आजकल, कलियुग में, साबुन ही खा रहे हैं - यह समझ कर कि हम देसी घी खा रहे हैं (फिर भी सूख क्यूँ रहे हैं?:)
Ravishji
ReplyDeleteKmal ke lekhak hain app. Kabhi kabhi lagta hai "Kamal Khan" aur App dono Judowan lekhak hai. App dono ka lekhan sachmuch kamal hai. Waise Prasang-wash, Jhabua (M.P.) ke Bheel Beelala Samaj main ladke wale dahej dete hain aur use rasm ko jagda todna kahte hain.
umdda lekhan ke liye ek bar fir se aur dil se badhai.
आपने बहुत गहरी और तीखी बात कही है। पर शर्म का एहसास कराए तो कौन, वो भी दहेज लिए हुए होगा।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
ग़ज़ल
ReplyDeleteलड़के वाले नाच रहे थे लड़की वाले गुमसुम थे
याद करो उस वारदात में अकसर शामिल हम-तुम थे
बोलचाल और खाल बाल जो झट से बदला करते थे
सोच-समझ की बात करें तो अभी भी कुत्ते की दुम थे
बाबा, बिक्री, बड़बोलापन, चमत्कार थे चौतरफ़ा
तर्क की बातें करने वाले सच्चे लोग कहाँ गुम थे!
उनपे हँसो जो बुद्ध कबीर के हश्र पे अकसर हँसते हैं
ईमाँ वाले लोगों को तो अपने नतीजे मालूम थे
अपनी कमियाँ झुठलाने को तुमने हमें दबाया था
जब हम ख़ुदको जान चुके तब हमने जाना क्या तुम थे
1 जुलाई 2006
-संजय ग्रोवर
(www.anubhuti-hindi.org से)
KUCHH HUYA KYA !
रवीशजी ...बहुत बढ़िया रविश जी आपकी स्पेशल रिपोर्ट हर रोज देखती हूं... रात को देख नहीं पाता..क्योंकि ऑफिस जाना होता है... सुबह 11.30 को जरूर देखता हूं ....| आपके शब्द में जो लय और तारतम्य होता है ,,रूकने पर मजबूर कर देते है.. खासकर आपकी नई नई जानकारियां... आपके ब्लॉग के बारे में सुना तो था लेकिन आईड़ी नहीं थी... कुछ ही दीन पहले पता चली है... अब रोज पढ़ता हूं...आप बस ऐसी ही रोचक बातें लिखते रहिये और हम पढ़ते रहेंगे|
ReplyDeleteधन्यवाद
रविश जी ! इतना सब लिख कर फिर सवाल भी कर लेना आपके साहस की गवाही दे रहा है .......कितनी बड़ी शर्मनाक बात है की जो दामाद दहेज़ ले उसी की पूजा की जाय,पर कहीं न कहीं से शुरूवात तो होती ही है अच्छाई की ,जैसा की शेफाली ने लिखा है की उनके घर में ये शुरूवात हो चुकी है .....बधाई इतनी प्रमुख बात को उठाने के लिए .
ReplyDeleteआईए, आज कस्बा के प्रांगण में शपथ लें कि आज से जो भी कोई हमारे घर शादी का कार्ड लेकर आएगा पहले उससे पूछेंगे कि आप दहेज ले या दे तो नहीं रहे हैं ? यदि हां तो कृपया हमारे आने की कामना छोड़ दें। या फिर दहेज का ख्याल छोड़ दें। ऐसा करने के बाद हम तुरंत कस्बा को सूचित करेंगे। संभव हुआ तो रवीशजी इसे एनडीटीवी पर जगह देंगे। देखते हैं बदलाव कैसे नहीं आता।
ReplyDeleteसोच क्या रहे हैं ? बदलाव की खातिर भंवरीदेवी ने पूरे गांव से और तसलीमा ने दुनिया भर से पंगा ले लिया, यह तो छोटी-सी बात है।
हो सकता है कहीं कुछ लोग बिना ढोल-नगाड़े के ऐसा कर भी रहे हों।
लेकिन ये दहेज नामकी प्रथा...नारी सशक्तिकरण, प्रेमविवाह, जातिवाद,बेटे से मोक्ष आदि तमाम तरह की चीजों से जुड़ा है-हमें इस बात को याद रखनी चाहिए। अगर विमर्श इस दिशा में आगे बढ़े तो बेहतर है, क्योंकि करोड़ों लोगों को सिर्फ एक आदर्श की बात कहकर दहेज लेने से रोकपाना मुश्किल लगता है-पैसे की चमक कई चीजों पर भारी पड़ जाती है।
ReplyDeleteजब हम किसी शादी में जाने से मना करेंगे तो ज़रुर हमसे पूछा जाएगा कि भाई दहेज ऐसी बड़ी चीज़ कबसे हो गयी कि आप संबंधों को दांव पर लगा दो ! तब जो विमर्श शुरु होगा उसमें सारी बातें अपने आप आएंगी। इब्तिदा-ए-इश्क है यह तो मेरे दोस्त....
ReplyDeleteबहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का,
ReplyDeleteजो चीरा तो कतरा-ए-खूं भी न निकला !
रवीश भाई, दहेज को लेकर भारत में कितनें आंदोलन चले इसका कोई जवाब नहीं,कितनें कानून बनें ये भी सभी जानते हैं। अब सवाल ये है कि कितनें लोग आज भी इस सच्चाई को नहीं मानते की दहेज प्रथा हमारे समाज के लिए कितना बड़ा अभिशाप है। मैं एक टीआरपी आधारित चैनल में कार्यरत हूं एक बार वहां के एक वरिष्ठ एंकर जो "रोज की बात" करते हैं कहनें लगे कि जिस प्रकार भारत में छूआछूत होती है ये सच्चाई है, तो उसके लिए आरक्षण क्यों हो? देश में दहेज लिया जाता है ये भी सच्चाई है तो क्या उसके लिए भी कानून बना दिया जाए? मुझे अफसोस हुआ उनपर।
ReplyDeleteहमें ये भी देखना चाहिए की कितनें लोग पत्रकारिता की दुनिया में होकर भी अपनी शादी में मोटे दहेज के साथ खुद को जोड़ते हैं? यहां सब भोकाल मचा देते हैं कि ये सही है और वो गलत हैं लेकिन अपनी बारी पर सब वही करते हैं जो कि नहीं करना चाहिए।
dahej ke virodh mein sirf kanoon banta hain leking wahi kanoon banane wale dahej ka khula len den karte hain. Ab to bihar mein sarkar bhi dahej mein garibo ki betiyon ko 5000 ka dahej dene lagi hain
ReplyDeleteसरकारें दहेज देती हैं, बैंक इसका विज्ञापन करते हैं, अंग्रेजी (अशिष्ट) अखबार मेट्रीमोनियल्स के साथ इशारों भरे परिशिष्ट निकालते हैं, बाप-भाई-रिश्तेदार खुशी-खुशी इंतजाम करते हैं। क्योंकि दहेज जुटाना यानि हवा के साथ चलना आसान है बजाय दहेज-विरोध के यानि हवा बदलने के।
ReplyDeletedehej ki aag aise lagti hai,jo pani dalne se bujti nhi blki aur badti hai,aag lgane wale aur bujhane wale hum hi log hai,to apne girebhan me jhakna hoga aur dhej ko mitana hoga........
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