कितना बड़ा लगता था मेरा ये खाली मकान
छोटा होता चला गया, भरता गया सामान
डिस्काउंट से लेकर लोन के जुगाड़ों से खरीदा मैंने
तश्तरियों को शीशे की आलमारी में सजा कर
पीने पीलाने वाले कट ग्लासों का सेट बना कर
ऐसे ही सामानों से भरता चला गया मेरा मकान
पर्दों के बाद हमने चिक लगवा दिये, चिक के नीचे एसी
धूप से लड़ने की हेठी पाल ली, जिस दिन से खरीदा मकान
कुछ कुर्सियां फेंक कर, सोफे का कवर लगा दिया,सजा दिया
ड्राइंग रूम हमेशा किसी सिपाही की तरह 'यस सर' की मुद्रा में
तैयार दिखता है मेहमानवाज़ी के लिए, बीच की मेज़ पर रखे कंकर पत्थर
और सिगरेटदानी
लात रखने के काम आती है बीच की मेज़ जब नहीं होते मेहमान
डाइनिंग टेबल रेहड़ी पटरी के ठेले की तरह अटा पड़ा है
दवाई की शीशी, आम, नमकदानी और गुलदस्ते से
बाकी बची जगहें थाली रखने के काम आती हैं
धक्कामुक्की करते बर्तनों से छलक जाती है दाल
जब भी हाथ बढ़ाता हूं सब्ज़ी की तरफ
चटनी बेचारी नज़र आती है किसी कोने में दबी हुई
अचानक याद आता है, बारात के बुफे सिस्टम को हमने
अपने घर की डाइनिंग टेबल पर लागू कर दिया है
अकेला होता हूं फिर भी कतार में खड़ा लगता हूं
सामान से भरे पड़े अपने मकान में
अब खाली होना संभव नहीं है इस मकान को
हर खाली जगह, भरे जाने की गुज़ाइशों सी नज़र आती है
मकान को भरते जाना खुद को खाली करने जैसा लगता है
सामानों के बीच से निकलने की जद्दोज़हद में
टकराता हुआ भीतर ही भीतर बजता रहता हूं
ये सबसे अच्छा लगा अब तक का...
ReplyDeleteमकान को समानों से भरने की गुंजाइश से खत्म होती कविता और फिर आपका कबूलनामा कि-"सामानों के बीच से निकलने की जद्दोज़हद में
ReplyDeleteटकराता हुआ भीतर ही भीतर बजता रहता हूं"
चोट मारती है। वैसे सरजी कभी सोचा है ऐसे मकान के कमरों के बारे में जहां समानों का रेलम-पेला न हो, बस नीचे एक गद्दा बिछा हो बस......कभी सोचिएगा....
उसी की याद में लिखी है ये कविता गिरीन्द्र।
ReplyDeleteसही है ....
ReplyDeleteरवीश, बढ़िया लिखा है..पत्रकारिता की चौहद्दी लाँघ कर धीरे धीरे साहित्य में धँसते जा रहे हो...पर ये शौक महंगा भी पड़ सकता है क्योंकि ये घर और सामान मोटे तौर पर पत्रकारिता और वो भी एन डी टी वी की पत्रकारिता से ही व्युत्पन्न है..अगर साहित्य की शरण में गए तो ये पीने पीलाने वाले कट ग्लासों के सेट, ये एसी,सोफा सेट सब रिकवरी एजेंट्स की भेंट चढ़ जायेंगे.. और तुम्हे अपना घर एक बार फिर बड़ा बड़ा लगने लगेगा....
ReplyDeleteअच्छा लिखा।
ReplyDeleteधांम्सच है अपने दिल का कोना खाली करके ही मकान भरता है भरे हुये मका्न की अच्छी तस्वीर पेश कि है शुभकामनायेम्
ReplyDeleteBaba , Kaun Bola tha DISCOUNT ka cheez se Ghar ko sajane me ? SHEESHAM ka KURSEE le aate , gaaon se ?
ReplyDelete==================
ReplyDeleteहर गली अच्छी लगी , हर एक घर अछ्छा लगा
वो जो आया शहर में तो शहर भर अच्छा लगा !
===================
बाबा , शहर में आये तो शहरी बनना ही होगा ,शहर का चोला पहनना ही होगा ! टी आर पी का दवाब घर को घर ना रहने दिया ! अब शहर में - गुलज़ार की कविता क्यों सुनते हैं ? कोट टाई पहन कर खटिया की बात क्यों करते हैं ? बहुत दर्द होगा ! और ये दर्द कई और दर्दों को साथ लाएगा !
अरे मुखिया जी
ReplyDeleteहर बात में टीवी, एनडीटीवी और टीआरपी क्यों ले आते हैं। कहीं और भी होता तो घर भरता रहता। कहां थे आप इतने दिनों से भाई। सेहत अच्छी बना ली है। शीशम की लकड़ी कहां मिलेगी भाई। बढ़ई ठग लेगा। कोट टाई के साथ भी गुलजार को सुनने दीजिए न भाई।
हाल चाल बताइये।
दीवारें सिमट रही हैं...
ReplyDeletemakan ko bharte jana ko khalikarne jaisa lagta hai
ReplyDeleteye hi to hakikat hai har aam admi kmi jo khas banne ki hod me khud ko mukkamal karne ki bajaye chijo ko sja raha hai ghar me
Ghar ghar ki kahani.
ReplyDeleteBahut umda!
aapki non-political topics bahut mast hoti hai.
ReplyDeleteमुखिया जी के लिए-
ReplyDeleteसाहेब काहे गुलजार को गांव और शहर में बांटते हैं। गुलजार की लाइनों को कनाट प्लेस और गांव की पुलिया पर बैठकर गुनगुनाने में समान आनंद मिलता है।
चलिए गुलजार के लफ्जों में मानसून .. को महसूस कीजिए (वो तो शहर और गांव दोनों में ही आता है न)-
बारिश आती है तो पानी को भी लग जाते हैं पांव ,
दरो -दीवार से टकरा कर गुजरता है गली से
और उछलता है छपाकों में ,
किसी मैच में जीते हुए लड़को की तरह !
जीत कर आते हैं जब मैच गली के लड़के
जुटे पहने हुए कैनवस के ,
उछलते हुए गेंदों की तरह ,
दरो -दीवार से टकरा के गुजरते हैं
वो पानी के छपाकों की तरह !
पता नहीं इस कविता को क्या कहूं... याद रस या फिर विचार रस... खैर जो भी हो... अब लगने लगा है कि शायद गरीबी का भी अपना ही एक मजा है... जो ईमानदारी से अमीर बने आदमी उसे पाने के लिए तरसने लगता है... लेकिन उन धन्ना सेठों का क्या जिनकी चमरी रकम के साथ ही मोटी होती जाती है...
ReplyDeleteरवीश.. कभी आपकी ये कवि्ता पढ़ता हूँ और कभी अपने घर की तरफ... बहुत सही बयान किया आपने... बधाई..
ReplyDeletekhali ghar bhootha dera. ravish ji ab bacchon ki kilkaari se nahi samaan se ghar bhre hai. babua bacchey ABCD padh ke dhayee aakher prem ka sikh ke apni duniya basa lete hai, tab ghar kabaara saamaan se hi bharta hai. Aap majedar ho.
ReplyDeleteसाहब हम घर भरने की जुगाड़ में लगे लोगों को तो निराश हताश कर दिया आपने|
ReplyDeleteअब समझ आया जोगी क्यूँ भीड़ से घबरा
ReplyDeleteहिमालय की गुफा में रहने चले गये..:)
अकेला होता हूं फिर भी कतार में खड़ा लगता हूं
ReplyDeleteसामान से भरे पड़े अपने मकान में
अब खाली होना संभव नहीं है इस मकान को
हर खाली जगह, भरे जाने की गुज़ाइशों सी नज़र आती है
मकान को भरते जाना खुद को खाली करने जैसा लगता है
सामानों के बीच से निकलने की जद्दोज़हद में
टकराता हुआ भीतर ही भीतर बजता रहता हूं
बहुत बढ़िया कविता लिखी भाई रवीश जी, आपने.एक मध्य वर्गीय व्यक्ति की पीडा को बखूबी उतारा है आपने शब्दों में ..कितनी मेहनत लगती है एक गृहस्थी को बसाने में ये बात आपकी कविता से समझी जा सकती है .आदमी एक एक सामान जोड़ता है ..और खुद खाली होता जाता है ...
हेमंत कुमार
SACHIN KUMAR
ReplyDeleteअकेला होता हूं फिर भी कतार में खड़ा लगता हूं
....
सामानों के बीच से निकलने की जद्दोज़हद में
टकराता हुआ भीतर ही भीतर बजता रहता हूं...
OH! KYA BAAT HAI? MAIN TARIF TO NAHI KARNA CHAHTA THA LEKIN AUR KYA KARU? WAITING YOUR NEXT ONE. AKSAR SAWAN AUR SAJAN KO LEKAR CONFUSION BANA RAHTA HAI JUST LIKE GHAR AUR BAHAR KO LEKAR BHI YAHI HALAT RAHTI HAI....
SACHIN KUMAR
ReplyDeleteअकेला होता हूं फिर भी कतार में खड़ा लगता हूं
....
सामानों के बीच से निकलने की जद्दोज़हद में
टकराता हुआ भीतर ही भीतर बजता रहता हूं...
OH! KYA BAAT HAI? MAIN TARIF TO NAHI KARNA CHAHTA THA LEKIN AUR KYA KARU? WAITING 4 YOUR NEXT ONE. AKSAR SAWAN AUR SAJAN KO LEKAR CONFUSION BANA RAHTA HAI JUST LIKE THAT GHAR AUR BAHAR KO LEKAR BHI YAHI HALAT RAHTI HAI....
अब मजा आ रहा है.पढने को बढिया बेराइटी मिल रही है.
ReplyDeleteकहते हैं कि घर केवल घरवालों से होता है,बात सही भी हैं,लेकिन इस कविता को पढ़ते ऐसा लगता है कि अनजान शहर में, घर से दूर एक कमरें में गद्दा, तकिया और जनसत्ता, एक कील की खूंटी कुछ पुराने संस्करण में हंस और कथादेश के दिनों में कमरा घर होता था, और तब भी भरा लगता था...
ReplyDeleteआज घर के एक कमरे की कहानी में मैं इन सब को ढ़ूंढ रहा हूं और आज भी घर भरा है...
Ravishji!Ghar saman ban gaya hai ya saman hi ghar ban gaya hai pata nahi vhalata!halaki aise rachana bharane ke bad hi sambhav hoti hai.jaha khalipan ho waha bharane ki kuntha rahati---samanoan se lablabaye logo ko dekhakar. ghar jyada bhara rahega to antarman khali to hoga hi! Bazar ki sanskriti bhi hamare ghar ke khalipan ko lilati ja rahi hai. 'vishwa bazar ke inhi dinoan mein bazar hi hamara vishwa banta ja raha hai'--gyanendrapati ki kavita hai.
ReplyDeleteरविश भाई -
ReplyDeleteनमस्ते !
आप एक बेहतरीन रिपोर्टिंग पत्रकार है ! उत्तर भारत में आप काफी लोकप्रिये और हम जैसे लोगों के चहेते हैं ! पर , बिहार के सन्दर्भ में कभी कभी आपका ब्लॉग काफी तीता हो जाता है ! ऐसा लगने लगता है - जैसे राष्ट्रिये रविश - क्षेत्रिये रविश से दब रहा हो !
चलिए कोई बात नहीं - मेरी कोई बात आपको दुःख पहुंचाई हो तो मै काफी शर्मिन्दा हूँ - पर मेरी कोशिश हमेशा रहेगी की - पुरे विश्व को "राष्ट्रिये रविश " की झलक मिले !
और सब नीमन बा नु ?
- मुखिया जी !
भाई साहब आपके मकान की दास्तान ने एक शेर याद दिला दिया
ReplyDelete"मेरे खुदा मुझे etna तो मोतबर करदे,
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे."
बहुत सुन्दर
ReplyDelete