कैडबरीज़ का एक विज्ञापन आ रहा है।जिसमें बेमन से खरीदा गया एक मामूली तोहफा कई हाथों से गुज़रता हुआ लौट आता है। चाकलेट की मिठास बेचने वाला यह विज्ञापन तोहफों की ऐसी औकात दिखाता है कि डर लगने लगता है। शुक्र है लोग गिफ्ट रैप को सामने नहीं खोलते। कैडबरीज की चले तो यह सब के सामने गिफ्ट रैप फड़वाने लगे। तब क्या होगा, ईमानदारी से कल्पना कर लीजिए।
इन दिनों अब कई ऐसे मौके आते हैं जब तोहफे की ज़रूरत होती है। कई बार आप दफ्तर से लेट आने और दुकानों के बंद होने के कारण तोहफा खरीदने में दिक्कत आती है। कई बार वक्त होता है तो समझ नहीं आता कि क्या खरीदें। कई बार दुकान पर जाते हैं तो पसंद की चीज़ नहीं मिलती। तोहफा खरीदना एक सिरदर्द है। एक ऐसा रिवाज बन गया है जिसके नाम पर आप बेतुकी चीज़ों पर बेवजह पैसा खर्च करने लगते हैं। यही कि कुछ लेकर चलना चाहिए। इस चक्कर में कई बार ब्रांड वाली चीज़ छूट जाती है। इसलिए कैडबरीज ने ऐसा डराया कि आगे से कुछ भी खरीदें कैडबरीज़ भी ले लें। वर्ना ये विज्ञापन वाले गिफ्ट रैप को फाड़ कर आपके तोहफे को बाज़ार में रख देंगे। बोलेंगे कि देखो यही रवीश कुमार ने तोहफा दिया है। क्या यह तोहफे में देने की चीज़ है। इससे आप शर्मिंदा महसूस करेंगे और तमाशा देखने वाले दूसरे लोग डर जायेंगे कि अगली बार से महंगा खरीदो। फूल मत खरीदो। तोहफे की दुनिया में फूल अब तिरस्कृत है। डाउन मार्केट है। लेकिन फिर भी बिक रहा है। बेवजह।
तो क्या करें। कोई गिफ्ट न खरीदें। मेरे हिसाब से यही किया जाए। आपके अंदर ग्रंथी पैदा कर ये बाज़ार जेब उलटवाना चाहता है। रिश्ते होंगे तो पकते रहेंगे। अपने आप। तोहफे की ज़रूरत नहीं। रिश्तों का आध्यात्मवाद कायम होना चाहिए। कैडबरीज़ खाना है तो किसी और मौके पर खाइये। गिफ्ट के डर से इसे न खरीदें। अगर खरीद रहे हैं तो सोच लीजियेगा। अगर कल कोई दूसरा प्रोडक्ट यह विज्ञापन लेकर उतर जाए कि कैडबरीज़ के चॉकलेट गिफ्ट देने की चीज़ नहीं हैं। उनकी कोई हैसियत नहीं। तब क्या करेंगे। इसका कोई अंत है। एक समाधान है। कोई बुलाये तो जाइये मगर तोहफे के साथ नहीं। दस बार कीजिए। बाज़ार मुफ्त में माल दे जाएगा कि खाली हाथ क्यों जा रहे हैं। आप बस जाइये गिफ्ट हम खरीद कर देंगे। बदले में जिस दोस्त के घर जाएंगे वहां आपको केक, कटलेट और प्लेट प्रायोजित मिलेंगे। कुछ भी मुफ्त नहीं होता। बस संयम करो भाई। विज्ञापन न जाने क्या क्या स्कीम बना रहा
Bhai Shahab. apna to yahi fanda hai ki aane wale se pooch lijie ki "kya lekar aaeaga"? aur jane wale ke yaha puchie ki "Kya khilaeaga"?
ReplyDeleteRajesh Paswan
तोहफ़ा नहीं की बात तो समझ में आई.. लेकिन ये बतायें कि हेडर पर इस नई काली शोभा का प्रेज़ेंट किस वास्ते है? कोई शोक मनाया जा रहा है (ब्लैक बैंड है).. या आप भंसाली (के 'ब्लैक' वाले) फ़ैशन स्टेटमेंट के चरण चिन्हों पर चलने को मचल रहे हैं?
ReplyDeleteरंग बदलने का प्रयोग चल रहा है। स्थायी नहीं है। काला बदल जाएगा। भंसाली की भैंस वाला रंग से लगा कि कस्बा कम से कम काला को तवज्जो देगा। हमारे समाज में काला दाल में काला बराबार ही नजर आता है। अविनाश आजकल ब्लाग डिजाइनर बन कर उभरे हैं। उन्हीं का कमाल है और मेरी सहमति। अब पूछ कर देखता हूं कि वो काले पर क्या कहते
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ReplyDeleteअरे प्रमोद भाइ ऐसा गजब ना करे,ये रवीश जी ने रोजाना आने ्जाने के लिये लिखा है पर आप तो चीन से आयेगे तोहफ़े जरूर लाये हमे इंतजार है..? पर रवीश जी ये काली पट्टी का तोहफ़ो के विरोध मे लगाई है..?
ReplyDelete'अविनाश आजकल ब्लाग डिजाइनर बन कर उभरे हैं'
ReplyDeleteये एकदम नई जानकारी है।
तोहफे की लेनदेन के बारे में पढ़कर स्कूल के दिन याद आ गए। 14 साल पहले 11-12 में थे। जेब में पैसे ज्यादा होते नहीं थे और दोस्त थे छह। जून से शुरू होने वाले जन्मदिनों का सिलसिला सितम्बर छोड़कर हर महीने होता था। हर महीने का तंग बजट और तंग हो जाता था। एक साल तो झेल गए पर 12वीं में आते आते सर्व-सम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया कि अब छहों में से कोई एक दूसरे को तोहफा नहीं देगा। अच्छा ही हुआ कि से निर्णय उस वक्त ले लिया और आज तक कमसेकम साल में पॉच बार तो तोहफे से जुड़ी परेशानियों से बचे रहते हैं।
ReplyDeleteरवीश बाबू तनिक हमरा ब्लाग्वा भी चटका मार कर देख लें.
ReplyDeleteहमरा पता है
http://sunobhai.blogspot.com
और फ़िर बताना कि कैसे डिजायन बनाया है हमनें
vaise mere hisab se to ise kahte hain khalis bazarvad. aajkal ravayat hi yahi hai ki ganje ko kanghi becho tabi ustad kahlaoge.
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