तलवार, फरसा, गंड़ासा, लाठी और लोहे की छड़। बंदूक नहीं। बंदूक होनी चाहिए थी। खैर। जातिगत उग्रता के पुरातन और मध्यकालीन हथियार खुद जनजाति साबित करने और नहीं करने देने के लिए काम में लाए जा रहे थे। मीणा जनजाति के नेता अचानक अपने आप को जंगलों में रहने वाला बताने लगे। पहले कभी रहते होंगे। मीणा समाज का नेतृत्व कर रहे एक संयासी जातिवादी गेरुआ धारण किये हुए था। हम पहुंचे तो उसने अकेले तस्वीर लेने से मना किया। बीस हज़ार के मोबाइल फोन से फोन किया। कोई पांच मिनट में नौवीं दसवीं में पढ़ने और न पढ़ सकने वाले लड़कों का जमावड़ा हो गया। सबने संयासी के पांव छूकर मीनेश भगवान की जय के नारे लगाए। संयासी से पूछा कि अजीब अजीब किस्म के हथियार क्यों? जवाब था हम जंगलों में रहते हैं और वहां बाघ और शेर आ जाते हैं। जंगल कहां? सवाईमाधोपुर, दौसा में। लेकिन सरकार तो कहती है यहां नाममात्र के जंगल हैं और बाध शेर की कमी हो गई है। संयासी गुस्से में आ गया। बोला कि सरकार क्या जानती शेर और बाघ कब निकल आते हैं। इन लड़कों से पूछो। मैंने लड़कों से पूछा कि कहां रहते हो। तो जवाब मिला दौसा में। फिर सवाल किया दौसा में कहां। तो कई जवाब मिले। बस स्टैंड, टीवी टावर के पास। और हथियार कब उठाया तो जवाब मिला..कल।
इसका विश्लेषण जाति पर अध्ययन करने वाले समाजशास्त्री कैसे करेंगे पता नहीं। मगर अपनी पहचान के लिए कब अतीत में चले जाते हैं पता नहीं। और बातें करते करते खुद अतीत की वर्चुअल रिएलिटी में रहने लगते हैं। जिसमें जंगल में घर होता है। शेर आता है और फरसे से शेर का शिकार हो जाता है। वैसे शिकार करने की जितनी भी तस्वीरें हमने किताबों में देखी हैं उनमें या तो बंदूक, भाले या तीर कमान का ही इस्तमाल दिखा है। फरसा या कुल्हाड़ी का नहीं। गेरूआ स्वामी रामेश्वरानंद ने कहा कि मीन सेना आदिकाल से है। कभी सुना नहीं कि किसी जनजाति की कोई सेना आज भी मौजूद है। मीणा जाति सरकार से मिलने वाली आरक्षण की ठेकेदार हो गई। कहा कि हम किसी को नहीं लेने देंगे। मगर क्या आरक्षण उसका है? क्या मीणा कहेंगे कि सरकार जांच ले कि वो जनजाति है या नहीं। गुर्जर यह लड़ाई चाहते थे। राजस्थान में ओबीसी से लेकर जनजाति तक सब मीणा के जनजाति होने पर सवाल उठाते हैं। जवाहर लाल नेहरू के समय भील मेणा को आरक्षण मिला था। लेकिन कहते हैं कि भील और मेणा के बीच अर्ध विराम लग गया। और अंग्रेजी के कारण मेणा मीणा हो गया। और मीणा जाति जनजाति हो गई। इसकी जांच नहीं होनी चाहिए? क्या सरकार या राज्य को ठग कर संख्या बल पर कोई जाति आरक्षण के लिए मजबूर कर सकती है? गुर्जर जनजाति की मांग नहीं करते। उन्हें लगता है कि हर चीज़ में वो मीणा जैसे हैं। दोनों अपने अपने भगवानों की जयकार लगा रहे थे। गुर्जर देवनारायण भगवान की जय बोलते तो मीणा मीनेश भगवान की जय बोलते थे। दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं। इनका इस्तमाल दोनों ओर से जोश भरने में किया जाता था। एक ही भगवान के दो अलग अलग अवतारों की संताने एक दूसरे को खत्म करने पर तुली हई थीं। एक जनजाति हो सकता है तो दूसरा क्यों नहीं? मीणा जाति ने आरक्षण में हिस्सेदारी नहीं देने का फैसला उसी तरह किया जैसे मंडल आयोग के समय सवर्ण कर रहे थे। फर्क सिर्फ इतना है इस बार आरक्षण के दायरे में आने वाली दो जातियां आपस में लड़ रही थीं।
क्यों? उन्हें ओबीसी के तहत नौकरी में आरक्षण तो मिलता है मगर राजनीति में नहीं। विधानसभा, लोक सभा, पार्षद, और पंचायत की सीटें ओबीसी के लिए आरक्षित नहीं होती । वो सिर्फ अनुसूचित जाति औऱ जनजाति के लिए होती हैं। पांच साल में राजस्थान पब्लिक सर्विस कमीशन की नौकरियां नहीं निकलती होंगी उससे कहीं ज़्यादा हज़ारों की संख्या में पंचायत से लेकर लोक सभा तक की सीटें हर पांच साल के भीतर निकलती हैं। दौसा गुर्जर बहुल क्षेत्र है। लेकिन नई परिसीमन के कारण दौसा सीट जनजाति के लिए आरक्षित हो जाएगी। नतीजा गुर्जरों को नेतृत्व के लिए किसी मीणा के पास ही जाना होगा। अगर वो जनजाति हो जाते हैं तो गुर्जर बहुल क्षेत्र उनके हाथ से नहीं निकलेंगे। वर्ना नौकरी की तरह राजनीति में भी उन्हें मजबूरन मीणाओं का प्रभुत्व स्वीकार करना होगा।
मैं बात हिंसक चरित्र की कर रहा था। मीणा और गुर्जर दोनों ने तलवारें निकाल लीं। हिंसा के लिए लोगों को उकसाया गया ताकि दोनों पक्ष जयपुर में अपनी दावेदारी को मजबूत कर सके। दोनों पक्षों ने अपनी हैसियत बताने के लिए विधानसभावार अपने वोटों की संख्या तैयार की थी। सबके नेता अपनी पार्टी के भीतर नेतृत्व को धमका रहे थे। पहले राजनीतिक पार्टियां वोट के लिए जाति के नाम पर जाति को बांटती थीं। इस बार जाति ने तय कर लिया कि राजनीति को एक होना पड़ेगा। तभी आरक्षण मिलेगा। इसलिए कांग्रेस पार्टी के सांसद सचिन पायलट बीजेपी अध्यक्ष से मिल रहे थे। तो मीणा विधायकों की बैठक में कांग्रेस और बीजेपी दोनों के मीणा विधायक शामिल हो रहे थे। राजनीतिक दल फंस गए थें। पहली बार जाति के नाम पर बना वोट बैंक राजनीतिक दल का इस्तमाल अपने हक में कर रहा था। इतनी लड़ाई क्या कभी शहर या गांव के अस्पतालों में डाक्टर से लेकर जांच तक की बदहाली के खिलाफ हुई है? आरक्षण अलग चीज़ है। सरकार के पास अब देने के लिए बहुत कम हैं और लेने के लिए दावेदार ज़्यादा। आरक्षण की लड़ाई होने लगती है।
मुझे लगता है कि आरक्षण का मसला अब नहीं दिए जाने के विरोध में नहीं फंसा है। बल्कि दिये जाने वालों की पात्रता में फंसा है। क्रीमी लेयर का विवाद इसी की कड़ी है। आरक्षण से क्रीमी लेयर तैयार हुआ है। और इस क्रीमी लेयर की कीमत पर जाति जनजाति विशेष के एक बड़े वर्ग को पीछड़ा रहना पड़ रहा है। जातियों में इसे लेकर असंतोष शुरू हो गया है। आज दो जातियां टकराईं हैं बल्कि आने वाले दिनों में जाति के भीतर पैदा हुए दो वर्गों के बीच लड़ाई होने जा रही है। क्रीमी लेयर और साधारण लेयर के बीच। कम नौकरी और घोर महत्वकांक्षा। टकराव को कौन रोक सकता है।
"आज दो जातियां टकराईं हैं बल्कि आने वाले दिनों में जाति के भीतर पैदा हुए दो वर्गों के बीच लड़ाई होने जा रही है। क्रीमी लेयर और साधारण लेयर के बीच। टकराव को कौन रोक सकता है।"
ReplyDeleteजिस बात का डर था उसकी शुरूआत हो गई है। रिज़र्वेशन का समय समय पर मूल्यांकन और इस बारे में प्रैक्टिकल रवैया अख़्तियार करने के बजाय सियासी पार्टियों और इसके पक्षधर बुद्धिजीवियों ने जिस तरह से रिज़र्वेशन को ग्लैमराइज़ करने की कोशिश की है, ये उसी का परिणाम है।
अब तो बस देखते जाइए तुष्टीकरण का और क्या क्या ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है देश को।
मारो या मर जाओ का समय आ चुका है।
-ओम
"...क्यों? उन्हें ओबीसी के तहत नौकरी में आरक्षण तो मिलता है मगर राजनीति में नहीं। विधानसभा, लोक सभा, पार्षद, और पंचायत की सीटें ओबीसी के लिए आरक्षित नहीं होती । वो सिर्फ अनुसूचित जाति औऱ जनजाति के लिए होती हैं। पांच साल में राजस्थान पब्लिक सर्विस कमीशन की नौकरियां नहीं निकलती होंगी उससे कहीं ज़्यादा हज़ारों की संख्या में पंचायत से लेकर लोक सभा तक की सीटें हर पांच साल के भीतर निकलती हैं।..."
ReplyDeleteवाकई स्थिति भयावह बन चुकी है. और यही तो चाहा था हमारे अर्जुनिया, मंडलिया और वीपीसिंहया राजनीतिज्ञों ने. सचमुच के गरीब और मजदूर की स्थिति पहले भी वही थी और आगे भी वही रहेगी - शर्तिया!
सच,सच के सिवा कुछ नहीं!!!
ReplyDeleteमानवाधिकार कार्यकर्ताओं और एक्टिविस्ट के नाम एक छत्तीसगढ़िया का पत्र आपकी प्रतीक्षा कर रहा है, एक नज़र डालें।
शुक्रिया
भैया लड़ाई ही मुख्य उद्देश्य था, सो पूरा हो रहा है। वैसे गुर्जरों के नेता ने माफी माँग ली है, और लोग भी बस 25-30 ही मारे गए, मुझे लगता है मामला अब रफा दफा करना चाहिए।
ReplyDeleteराग
"पहली बार जाति के नाम पर बना वोट बैंक राजनीतिक दल का इस्तमाल अपने हक में कर रहा था।"
ReplyDeleteसांस दाब के लोग रोके रहें.. कि ऐसी गुटबंदियां आगे किस तरह की लड़ाईयां पैदा करती हैं..
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteमीणा जैसी उन्नत जाति लाल फीताशाही गलती के कारण एक जन जाति बन गयी एवं उसका लाभ उठा रही है। पिछले पचास वर्षों में सरकार इस गलती को ठीक करने के लिए कोई कदम नहीं उठा पायी और मीणा आज जन जातियों के लिए आरक्षित स्थानों पर अपना एकाधिपत्य स्थापित किये हुए है। ऐसी परिथिति में जाहिर है गुजर सरीखी अन्य जातियाँ भी चाहेंगी कि उन्हें भी ऐसा ही लाभ प्राप्त हो। और गुजरों का ग़ुस्सा और भी बढ़ा जब लोक सभा की सीट भी हाथ से जाने के आसार नजर आये।
ReplyDeleteराजनीतिज्ञों के पास वो मनोबल तो रहा नहीं की एक युक्तिसंगत निर्णय ले सकें। शायद न्यायपालिका ही इस मुद्दे का कोई समाधान निकाले, ऐसी ही आशा करता हूँ।
ये तो होना ही था ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
aapne jo kah diya so kah diya.is baat ke liye meri aik kavita hai "samay " aik bar parh lejiyega.
ReplyDeleteNow, this incidence has make the whole reservation issue very "interesting" :)... After watching you on NDTV, i was waiting for ur article on the blog.
ReplyDeleteSo, Ravish ji, aap to aarakshan ke samarthakon me se ek hain, aapne bhi bataya nahi ki kya solution hona chaahiye? aap bhi baaki netaaon ki tarah is mudde par kanni kaat gaye. Aapko nahi lagta, ki Meena, jo ki sayad caste wise sabse jyada IAS IPS paida kerti hai, ko ST se hata dena chaahiye aur saath hi jo jaati pure Delhi, Rajasthan ko 10 dino tak apna gulaam bana kar rakh sakti hai use "OBC" ke darje se bhi nikaal baahar kerna chaahiye?
Manoj
रवीश जी,कृपया आप अपने सामान्य ज्ञान में संशोधन कर लें और जानें कि मीणा समाज को राजस्थान में आरक्षण कैसे मिला:----
ReplyDeleteदेश के आजाद होते ही हमारे नेताओं ने मन्थन किया कि स्वतंत्र भारत का शासन और प्रशासन कैसा हो और तय किया कि जनतंत्र के लिये आवश्यक है कि विभिन्न वर्गों में व्याप्त सामाजिक व आर्थिक असमानता को दूर किया जाये तथा सदियों से दलित,शोषित व पिछडे वर्गों को आगे लाकर उनको देश के चलाने में बराबर के भागीदार बनाया जाये। इसी विचार ने शासन और प्रशासन में आरक्षण की व्यवस्था को जन्म दिया।मीणा-समाज भी सदियों से शोषित रहा है और जनजाति-वर्ग का रहा है जिसका जिक्र पिछले सवासो वर्षों से भी ज्यादा पुराने सरकारी दस्तावेजों तथा इतिहास की किताबों में है।
लेकिन 26 जनवरी 1950 को जब भारत का संविधान लागू हुआ और आरक्षण की सूचियां निकलीं तो मीणा-समाज का नाम जनजाति वर्ग की सूची से गायब था। मीणा-समाज में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई और 1950 में ही जयपुर में गांधी जयंती के दिन राजस्थान आदिवासी मीणा महापंचायत के तत्वाधान में एक विशाल मीणा-सम्मेलन का आयोजन किया गया। सम्मेलन में सर्वसम्मति से निश्चय किया कि विगत वर्षों की जनगणना रिपोर्टों ऐतिहासिक दस्तावेजों एवं पुस्तकों तथा राजकीय अभिलेखों के आधार पर यह सिद्ध किया जाए कि मीणा जाति राजस्थान की मूल आदिवासी जाति है और इसे अनुसूचित जनजातियों की सूची में सम्मिलित न किया जाना इसके साथ घोर अन्याय है। इसके लिये एक ज्ञापन तैयार करने का दायित्व महापंचायत के अध्यक्ष श्री गोविन्दराम मीणा को सौंपा गया। 1 नवम्बर,1950 को महापंचायत के एक प्रतिनिधि मंडल ने दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू,गृहमंत्री एवं प्रमुख संसद सदस्यों को ज्ञापन दिया। प्रतिनिधि मंडल में अध्यक्ष श्री गोविन्दराम मीणा के अतिरिक्त शाहजहांपुर(अलवर) के सूबेदार सांवत सिंह,कोटपुतली(जयपुर) के रामचन्द्र जागीरदार,जयपुर शहर के किशनलाल वर्मा,कोटपुतली(जयपुर) के अरिसाल सिंह मत्स्य व अलवर के बोदनराम थे। इस प्रतिनिधि-मंडल ने तीन सप्ताह दिल्ली में रहकर मंत्रियों व सांसदों को अनुसूचित जनजातियों में मीणों को न रखे जाने पर तीव्र असंतोष व्यक्त किया। गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने ज्ञापन को बडी बारीकी से पढा और आधे घण्टे तक प्रतिनिधि-मंडल की बात सुनी। यह आश्वासन भी दिया कि राजस्थान सरकार की गलती से यह भूल हुई है और जब भी कभी अनुसूचित जनजातियों की सूची में संशोधन किया जायेगा,मीणा जाति को भी इसमें शामिल कर लिया जायेगा।
प्रतिनिधि मंडल ने फ़िर भी ढिलाई नहीं बरती और सांसदों पर दबाब बनाये रखा जिस पर जोधपुर (राजस्थान) के लोकनायक जयनारायण व्यास जो उस समय सांसद थे,ने इस मांग का पुरजोर समर्थन करते हुए लोकसभा में एक प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव पर बहस हुई और अनेक सांसदों ने जिसमें मध्य प्रदेश के सांसद हरिविष्णु कामथ थे,मीणों के पक्ष में जोरदार पैरवी की। इसका परिणाम यह हुआ कि गृहमंत्री ने बहस का जबाब देते हुऐ बताया कि भारत सरकार इसके लिये एक आयोग गठित करेगी। साथ ही भारत सरकार ने राजस्थान सरकार की टिप्पणी मांगी तो राजस्थान सरकार ने 1951 की मई में केवल उदयपुर,डूंगरपुर,बांसवाडा,पाली और जालौर जिलों के मीणों को ही अनुसूचित जनजाति मानने की सिफ़ारिश की। राजस्थान आदिवासी मीणा महापंचायत ने भारत सरकार से घोर प्रतिरोध किया और मांग की कि सारे राजस्थान की मीणा जाति को अनुसूचित जनजाति में सम्मिलित किया जाये।
इसी बीच भारत सरकार ने 1953 में काका कालेलकर आयोग की नियुक्ति की घोषणा की। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर भारत सरकार ने अनुसूचित जनजाति(संशोधन) विधेयक 1956 लोकसभा में पेश किया जिसमें अन्य जातियों के साथ-साथ राजस्थान की मीणा जाति का नाम भी जनजाति की सूची में रखा गया। संसद ने इस विधेयक को यथावत पास कर दिया जिसको भारत के राष्ट्रपति ने 25/09/1956 को स्वीकृति दे दी। इस तरह राजस्थान के मीणों को जनजाति वर्ग का आरक्षण मिला।
जिस ज्ञापन के आधार पर राजस्थान के मीणों को जनजाति वर्ग में शामिल किया गया,उसमें वर्णित दस्तावेजों में मीणा जाति को एबओरीजनल एवं प्रिमिटिव ट्राइब बताया गया वे निम्नानुसार हैं:-
1. जनगणना रिपोर्ट 1871,वोल्यूम दो पेज-48(मारवाड दरबार के आदेश से प्रकाशित)
2. जनगणना रिपोर्ट 1901, वोल्यूम 25, पेज-158
3. जनगणना रिपोर्ट 1941, पेज-41
4. इम्पीरियल गजेटियर ऑफ़ इन्डिया प्रोविन्सीयल सीरीज राजपूताना(पेज-38)
5. इम्पीरियल गजेटियर वोल्यूम प्रथम(द्वारा सी सी वाटसन) पेज-223
6. एनाल्स एण्ड एन्टीक्वीटीज ऑफ़ राजपूतना सेन्ट्रल एण्ड वेस्टन राजपूत ऐस्टेट ऑफ़ इण्डिया-लेखक कर्नल जेम्स टॉड
7. "जाति भासकर" लेखक विद्याभारती पं.ज्वाला प्रसाद मिश्र(पेज-101)
8. "मूल भारतवासी और आर्य" लेखक श्री स्वामी वेधानन्द महारिथर
9. "राजपूताने का इतिहास" लेखक पं. गौरीशंकर हीरा चन्द ओझा
10. "उदयपुर राज्य का इतिहास" (पेज-316) लेखक पं.गौरीशंकर हीरा चन्द ओझा
12. "मीन पुराण भूमिका" लेखक मुनि मगन सागर जी