सूने मकानों में कुछ शोर किया जाए

सूने मकानों में कुछ शोर किया जाए
शोर को ज़रा और पुरज़ोर किया जाए

सन्नाटों के शहर में कुछ किया जाए
खिड़की खोल कर टीवी चलाया जाए

सबकी नींद खुल जाएगी जगाया जाए
अब शहर को जीता जागता बनाया जाए

सूने मकानों में कुछ शोर किया जाए
शोर को ज़रा और पुरज़ोर किया जाए

कोई आता नहीं है सबको बुलाया जाए
आने वाले को अपना पता बताया जाए

सूने मकानों में कुछ शोर किया जाए
शोर को ज़रा और पुरज़ोर किया जाए

2 comments:

  1. रवीश जी,
    बातें गंभीर है और पद्य सुन्दर भी बन पडे हैं। शहर के सन्नाटे को आपकी रचना चीर सके...काश!!!

    *** राजीव रंजन प्रसाद

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  2. "सूने मकानों में कुछ शोर किया जाए
    शोर को ज़रा और पुरज़ोर किया जाए"

    रविश जी
    क्या लिखा है। बहुत हद तक यह मेरी जिंदगी मे फीट बैठ रही है। पर सवाल यह भी कि अकेला आदमी और करे क्या ? दिन भर जिंदगी से जूझते हुये जब शाम को सुने मकान मे कदम पड़ते हैं तो कुछ ऐसा ही दिल करता है जैसा कि आपने बयाँ किया है । वह मजा आ गया .....

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