रिटेलसाहू

खसखस और हींग बेच बेच कर लोदीपुर का राजा बन गया था सेठ हज़ारी साहू । उसकी परचून की दुकान में निरमा साबुन का गत्ता अभी पहुंचा ही था । ब्लैक एंड व्हाईट टीवी पर कल रात ही हज़ारीसाहू ने उस फ्राक वाली लड़की को नाचते देखा था । वही साबुन देख कर धनिये की गंध से भरी दुकान में ताजी हवा कहीं से गुज़र गई । तभी कलंदर केडिया तेल का गत्ता निरमा साबुन के गत्ते के ऊपर लाकर रख देता है । हज़ारी साहू का गुस्सा सातवें आसमान पर । तुमने निरमा गर्ल को नहीं देखा । उस पर तेल रख दिया । साले अठन्नी काट लूंगा ।
कलंदर घबरा गया । हज़ारीसाहू और परचून की दुकान को देखने लगा । चार साल पुराना कृष्ण जी वाला कैलेंडर वहीं था । बांसुरी बजाते हुए कन्हैया । इस दुकान में वक्त कभी कभी कैलेंडर के साथ ही बदलता था । कैलेंडर नहीं बदला मतलब वक्त नहीं बदला । कलंदर को लगा शायद ये साल कैलेंडर बदलने का है ।
गुस्से के बाद हज़ारीसाहू शांत हो गए । रूहआफ़ज़ा की शीशी पर हाथ फेरते हुए ठंढक महसूस करने लगे । पास में चल रही आटा चक्की से उड़ कर आ रही गेंहूं की गंध मोगरे की अगरबत्ती की महक में घुलकर मदहोश कर रही थी । हज़ारी साहू एक सपने में खो गए ।
दुनिया बदल गई है । परचून की दुकान से आटा चक्की गायब है । आटे प्लास्टिक की रंगीन बोरियों में बंद हैं । स्लीवलेस ब्लाउज़ में ललिता जी लाल बैग लिये खड़ी हैं । हंसते हुए बोलती हैं हज़ारी जी डिपार्टमेंटल स्टोर में क्या क्या है । हज़ारीसाहू फ्रीज़र से गर्दन निकालते हुए खड़े होते हैं । कहते हैं क्या नहीं है। जो नहीं है उसका होम डिलिवरी है। बस आर्डर कीजिए हम घर भी आएंगे । तभी ललिता जी के पीछे के रेक से सामानों के बीच आज की नारी को लगे न भारी वाले विज्ञापन की मॉडल सनसिल्क के शैम्पू उठाते दिख गई थी । फोन घनघना रहे थे। पुरानी परचून की दुकान में यह सुख कभी नहीं मिला करता था । आने वाले उधार लेकर जाते थे । बजाज स्कूटर से आते या रिक्शे पर सामान लाद कर ले जाते । औरतें तो कभी कभार ही आतीं थीं । भला हो निरमा साबुन और मैगी टू मिनट्स का। लड़कियां दुकानों पर आने लगी हैं । उनकी बेनूर दुकानदारी में रंग भर आए हैं । मोटे पेट वाले शर्मा, वर्मा जी की ड्यूटी आवर बढ़ गई है । वो अब दुकानों पर नहीं आते। फोन करते हैं । होम डिलिवरी के लिए । ललिता जी ने खुद ही बात कह दी । वक्त कितना बदल गया है । हज़ारी साहू कहते हैं आपके आने के बाद से ही वक्त बदला है । वर्ना हम तो हज़ार रुपये का सामान बेचकर ही हज़ारी हो गए । अपने नए डिपार्टमेंटल स्टोर में इस पुराने नाम से बोर हो गया हूं । ललिता जी कहती हैं हाऊ फनी ।


हज़ारी साहू और ललिता जी के इस संवाद में वक्त बदलता है । इस बार पूरी दुकान रिटेल हो जाती है । बाहर को बोर्ड बदल जाता है । बिग हज़ारी बाज़ार । कई मंजिला दुकान हो जाती है । रूह आफज़ा, हींग, हुर हुर्रे गायब हैं । मैगी, निरमा भी नए सामान नहीं है । अब तो आईएफबी का वाशिंग मशीन है । फर्नीचर है। तौलिया है । नीचे बेसमेंट में राशन का सामान है । फुल्के के बर्तन की जगह बोनचाइना के सस्ते नमूने हैं । ऊपर की मंज़िल में टोपी और बैगी पैंट्स मिलते हैं । खिलौने भी । औरते के लिए साड़ी और लहंगे भी । हज़ारी साहू ने अपना नाम भी पटियाला हाऊस में अर्जी देकर बदलवा लिया है । वो अब रिटेल साहू हो गए हैं । वो अब उधार नहीं देते । बल्कि उनके बहीखाते में उनके नाम हैं जो उन्हें उधार देते हैं । इनका एक कोड वर्ड है । एफडीआई। रिटेल साहू ने अपने बाल रंग लिये हैं । वजन कम करने के बाद वो जवान हो गए हैं । धोती की जगह सूट ने उम्र बढ़ा दी है । कलंदर केडी हो गया है । एसी कमरे में बैठकर सीसीटीवी पर लोगों को देख रहा है । निरमा की फ्राक वाली लड़कियां गार्नियर के शैम्पू में अपने बालों को धोकर लहराते हुए उड़ती चली जा रही हैं । केडी को भी सपने आने लगे हैं । क्रेडिट कार्ड के ज़माने में अठन्नी के काटे जाने का डर नहीं । केडिया तेल की जगह निविया डेओड्रेंट की हल्की महक बिग हज़ारी बाज़ार में दोपहर के वक्त आने वाली महिलाओं को कुछ देर तक दुकान में रुकने के लिए मजबूर करती हैं ।

तभी माइक पर रिटेल साहू की आवाज़ आती है । लेडिज़ एंड जेंटलमैन । इस साल परचून के दुकानदारों का आखिरी साल है । उन्हें बदलते वक्त के साथ बदलना होगा । अपनी यादों को साहित्यकारों के हवाले कर खुद को ज़िंदगी के हवाले करना होगा । रिटेल होना होगा । एक ही छत के नीचे सारा बाज़ार होगा । कई छतों के नीचे बाज़ार नहीं होगा। बेचने वाला एक होगा । अब फिर कोई हज़ारी साहू नहीं होगा । हम उधार देने के लिए पैदा नहीं हुए हैं । इंफ्लेशन बढ़े हमें क्या है । दस साल से वेतन वृद्धि की मांग करने वाले सरकारी कर्मचारियों को हम उधार पर सामान देकर उन्हें ज़िंदा रखने की कोशिश नहीं करेंगे । इससे उल्टा सरकार पर बोझ बढ़ता है । अब किसी की शादी में उधार पर बासमती चावल नहीं देंगे । संजना की शादी में लोगों ने कितना ऐश किया था । हम वो लोग थे जो वेतन मिलने से पहले कस्टमर को उधार दे देते थे । सामान दे देते थे । अब नहीं होगा । हम सूद नहीं डिस्काउंट रेट पर सामान बेचना चाहते हैं । शर्मा जी का नया नाम कंज्यूमर हैं । हमारा मकसद उन्हें फायदा पहुंचाना है । हमें किसी ने खरीद लिया है । ग़लत । सिर्फ चेन में बांधा है । रिटेल चेन में । हम अब सामानों को कतारों में सजाते हैं । निरमा साबुन के ऊपर केडिया तेल नहीं रखते हैं । परचून की दुकान पर बनने वाले चेन तोड़ दिए गए हैं । हम घरेलु समस्याओं के निदान के केंद्र नहीं बल्कि घर के कामकाज से बोर हो चुकी महिलाओं और कालेज से भागे लड़के लड़कियों के मनोरंजन केंद्र हैं । सामान भी बेचते हैं । किसी को कोई कंफ्यूजन हो तो वो मेरे मैनेजर केडी से मिल सकता है ।

वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने संसद में घोषणा कर दी है। वालमार्ट आएगा । हज़ारी साहू जाएगा। परचून की दुकानों में लगे लकड़ी के दरवाज़े वालमार्ट के गोदामें में नहीं बल्कि कूड़ेदान में फेंक दिये जाएंगे । संपादक अखबार में लिख रहा है । रिटेल इज़ फ्यूचर ऑफ इंडिया । क्रिटिकल होकर भी लिखता है । इट्स सैड दैट देअर विल बी नो हज़ारी साहू । वामदलों का विरोध वाला प्रेस विज्ञप्ति से सबएडीटर विविध कालम में एक खबर डाल रहा है । इससे लाखों लोगों को वेतन मिलने से पहले मिलने वाले सामानों की सुविधा बंद हो जाएगी । बेरोजगारी बढ़ेगी । शट अप । रिटेल साहू अखबार पढ़ कर कहता है । हू केयर्स ।
कहानी जारी रहेगी । रवीश कुमार

10 comments:

  1. बहुत अच्छा वर्णन किया है आपने हजारी और रिटेल का.....

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  2. एम एस जोशी की आत्‍मा जहां कहीं होगी, अब शांत नहीं होगी.

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  3. समसामयिक विषय पर अपनी राय रखने के लिए आपने जिस खूबसूरती से कल्पना का सहारा लिया, क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। बहूत ख़ूब। मसला वाक़ई गंभीर है। लेकिन किसी ने कहा है न, कहें तो किससे कहें, मेरी सुनता कौन है।

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  4. कंफूजन तो सच में कोई नहीं है. हजार या शायद लाख हजारी साहू में से कोई एक रिटेल साहू बन पायेगा और बाकी के हजारी साहू... रिटेल साहू की दुकान में सेल्समैन भी तो चाहिये. - शशि सिंह

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  5. बहुत अच्छा लगा पढ़कर! रिटेल सेल से बहुत कुछ कह दिया आपने!

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  6. प्रिय रवीश,
    सबसे पहले तो आपके ब्लॉग के लिए बधाई देना चाहूंगा, कम से कम एक जगह तो तय हो गई, जहां आपसे मुलाकात हो सकेगी। आपके विचारों को जाना, ज्यादातर दिलचस्प हैं। आखिरी जो मैंने पढ़ा उसमें आपने ब्लॉग को लेकर अपनी दीवानगी का खुलासे से इजहार किया है। इसके साथ ही आपमें ये डर भी समा चुका है कि कहीं आप ब्लॉगिया ( पता नहीं इस शब्द का मतलब क्या निकले, बस एक नाम देने की मंशा भर थी) तो नहीं हो गए। कई सवालों के जवाब जानने को आप अधीर दिखे, आपकी व्यग्रता देखकर मेरा मन कचोट कर रह गया, काश मैं आपके लिए कुछ कर सकता। कई बार लगा किसी चांदसी दवाखाने या यूनानी खानदानी फार्मा से कोई चूरण लाता, जिसकी एक फक्की भर से मन के विकार जाते रहते। अगर आपके विचार भारतीय संविधान का हिस्सा होते तो पक्के तौर पर वो समस्याओं का अनुच्छेद कहलाते हुए 356 और 370 से ज्यादा अहमियत रखते।

    आपकी परेशानियों का कोई शर्तिया इलाज या फिर रामबाण तो मेरे पास नहीं है, लेकिन एक सलाह अवश्य देना चाहूंगा, आजमा कर देखें शायद राहत मिल जाए। वैसे मुझे लगता है आप स्वदोष से ग्रस्त हैं, एक दूसरे ब्लॉग पर मैंने आपकी एक जबरदस्त विवेचना पढ़ी, जिसमें चूतियापे के कई पहलुओं का वर्णन मिला। अगर आप जमाने को ये बात बता चुके तो थोड़ा सा चूतियापा खुद भी सीख लें। मैं कहता हूं, क्या ये जरुरी है कि जो महसूस करें, उसकी एकदम से रनिंग कमेंट्री कर ही दी जाए। आपने अपने विचार लिखे अच्छी बात है, दोस्तों को पढ़ने के लिए एसएमएस किया, सभी करते हैं, लेकिन ये बात जमाने को बताने की क्या जरुरत थी। चुप्पी मार जाते। लिखना ही था तो जो तारीफें मिलती, वो लिखते। एक जमाने से नेताओं के बीच रहे हैं, ये सब तो पूर्वाभ्यास में शामिल है। सिर्फ बिक्री का आंकड़ा रखिए, विज्ञापन का विवरण न ही दें तो बेहतर। कोई भी राजनेता, सेलिब्रिटी, ठेकेदार, दलाल जो सफल है इन चीजों से परहेज करता रहा है। और आप हैं कि ओपन हार्ट सर्जरी रिपोर्ट सार्वजनिक करने पर तुले हैं।

    पिछले कई लेखों को देखकर यही लगता है कि आप हिंसक हो गए हैं। बुद्ध और गांधी के देश में लोगों के विचार ऐसे भी हो सकते हैं। आप ने बकायदा जमाने को बेपरदा करने की मुहिम छेड़ रखी है, ठान लिया है कि कहीं किसी के तन पर कच्चा सूत भी नहीं रहने दूंगा। मायानगरी मुंबई की जो तस्वीर आपने खिंची, वो हनुमान के लंकादहन के बाद की लगी। क्या चाहते हैं, मुंबई की सारी ट्रेनें खाली जाएं, कभी सोचा है छपरा से मुंबई वाली नई नवेली ट्रेन का भविष्य क्या होगा। मुझे याद है मेरे कस्बे के एक होटलवाले का बेटा भागकर मुंबई गया था, बच्चन और श्रीदेवी को देखने( घटना कुली के एक्सिडेंट के बाद की है)। आकर बताया, बच्चन को देखा था, सुबह सुबह अपने घर के बरामदे पर पेपर पढ़ते हुए, और श्रीदेवी को डांस प्रैक्टिस करते। आपके माचिस मारने से पहले तक मेरे दिमाग में मुंबई की वही छवि रची बसी थी, जैसा कि उसने बताया था। क्या मुंबई वाकई इतनी बदल गई। कभी सोचा आपने मेरे उन कस्बाई दोस्तों के दिल पर क्या बीतेगी, जो मेरी तरह अभीतक मुंबई नहीं जा सके हैं।

    अरे छोड़िए, क्या सोचेंगे आप, आपपर तो खून सवार है, जब कस्बाओं को नहीं छोड़ा तो कस्बाई कहां ठहरते हैं। पंत और निराला की भारतमाता ग्रामवासिनी का जरा भी लिहाज नहीं रहा, शस्यश्यामला मातरम कैसे भूल गए बॉस। भूगोल भी भूल गए कि तीन चौथाई जनता गांवों और कस्बों में रहती है और कस्बों का पोस्टमार्टम कर दिया। अब क्या बच गया इस देश में, मेट्रो के स्काईस्क्रैपर्स। मिट्टी के लोंदे और खपरैल के छप्पर भूलकर चमकती सिलिंग के दीवाने हो गए। भूल गए उन चाय की दूकानों को जहां आठ आने की चाय पर देश की सरकार बनाई बिगाड़ी जाती है। जिन गांवों और कस्बों के विकास के फेर में सरकार सठियाने जा रही है, आपने उन्हें कचरे का डब्बा बता दिया। तो क्या सरकार पागल है जो उपलों में घी सुखा रही है। आपके विचार न जाने कितने लोगों के लिए फेटेल हो सकते हैं, हमारा प्लानिंग कमीशन योजनाएं बनाते बनाते हांफ रहा है, अभीतक के वित्त मंत्री कस्बों के विकास के लिए जी जान से जुटे रहे। अरबों का फंड सूख गया, नेता, ठेकेदार, इंजिनियर राजा हो गए, लेकिन आपको कुछ दिखता ही नहीं।

    और अंत में मित्र के नाते इतना ही कहना चाहूंगा कि क्या ये एक नए तरह का चूतियापा नहीं होगा कि आप जमाने में एक दस्तूर की तरह चले आ रहे चूतियापों को चूतियापा कहें। रवीश बाबू, नजरिया बदलने की जरुरत है, बाजार से उसी ब्रांड का चश्मा खरीद लाइए जिसे लोग पहन रहे हैं। रेबैन के जमाने में गांधी के गोलफ्रेम से दुनिया उल्टी दिखेगी।

    दीपक चौबे

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  7. बहुत ही अद्भुत लिखा आपने | मुझे "नया दौर " फिल्म याद आ गयी | तांगा जीत भी जाए तो क्या , मोटर तो आ कर रहेगी |

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  8. यह क्या अब आप ने अप्रूवल का क्लाज लगा दिया | आप भी " रिटेल साहू " हो गए रवीश जी | इस रूप में भी स्वागत है , हमें परिवर्तन स्वीकार है , हर तरह से |

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  9. bahut hi shandar ravish ji, jis tarah se aapne samjhane ki koshish ki hai wo lajawab hai. bhagwan sahukari ki aatma ko shanti pradan kare....

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  10. कितनी सही कहानी है , ५.५ साल बाद भी ऐसा लगता है आज के परिपेक्ष में लिखी हों, पता नहीं आपकी तलेंट है य हमारी सरकार का |

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