कार्नर शॉप की महिमा..
दिल्ली शहर को ढूंढने का शौक पुराना है। कहीं भी जाता हूं तो लगता है कि एक बार चारों तरफ से घूम कर देख लूं। पिछले हफ्ते कनाट प्लेस गया था। रीगल बिल्डिंग के पीछे चलने लगा। मोहन जी प्लेस के ठीक पीछे एक गली में मटन की दो दुकानें दिखीं। कार्नर शॉप।
ऐसी दुकानें हर शहर की खासियत होती हैं। एक ऐसी जगह होती हैं जहां आपकी पहचान सबसे ज्यादा सुरक्षित होती है। कोई नहीं देख सकता और वहां कोई नहीं आ सकता। ये वो जगह होती हैं जहां आप वर्जनाओं को तोड़ने जाते हैं। सिगरेट पी लेते हैं। पान खा लेते हैं और कहीं कोने में निवृत्त भी हो लेते हैं। इस तरह की दुकानों का अलग से अध्ययन होना चाहिए। इतनी सफाई होती है कि पूछिये मत। दुकानदार को खड़े होने की जगह नहीं मिलती। बर्तन चमकते हैं। अलग किस्म का ब्रांड होता है। खड़े होकर खाना पड़ता है लेकिन कोई परेशान नहीं है। खाने का स्वाद भी बढ़िया। अपनी जगह का महत्तम इस्तमाल।
दस बजे ही मटन तैयार था। स्टील की ग्लास के भीतर प्लास्टिक की ग्लास डाल दी गई थी। उसमें क्वार्टर बोतल उड़ेली जा रही थी। दुकान पर खड़े लोग अपने दिन की शुरूआत दारू से करने आ गए थे। मटन और रोटी उनका स्वाद बढ़ा रहा था। ग्लास किसी भी तरह के गंध से दूर रहे इसलिए उसके भीतर एक और ग्लास। मटन मैंने भी खाया लेकिन दारू नहीं पी।
यहां आने वाला हर ग्राहक अपनी पहचान से चिढ़ता होगा। उसके लिए ये वो जगह होगी जहां उसके अलावा कोई और नहीं आता होगा। अजनबीयत की तलाश वाले ऐसे कई लोगों का अड्डा बन जाती है इस टाइप की दुकानें। ऐसे ग्राहकों की ज़रूरतें पूरी करने के लिए शहर ऐसी दुकानों को अपने आप बना देता है। कनाट प्लेस के इलाके में काम करने वाले अस्थायी किस्म के कर्मचारी ही लगे सब। शानदार पब में नहीं जा सकते। चौराहे पर पी नहीं सकते लेकिन हनुमान मंदिर से सटे इस दुकान से उनकी तरावट बन रही है। कनाट प्लेस एक ऐसा काम्पलेक्स है जहां लीगल,इल-लीगल,धार्मिक,धंधा सब एक साथ मौजूद है। कहीं कोई टकराव नहीं है। ये छोटी सी दुकान एक पूरे परिवार का भरण-पोषण करती होगी।
दारु के बिना मटन ..........मुसल्मां भी बने वह भी जुलाहे के यहां
ReplyDeleteमीट की खबर ब्लाग में. बधाई हो, हम समझ बैठे थे ब्लॉगर्स मीट होगी. :)
ReplyDeleteधन्यवाद.
रविशजी
ReplyDeleteमुझे दर लग रहा है की आपने सब कुछ खोल कर लिख दिया , फोटो में उसका पता भी साफ़ नजर आ रहा है , हफ्ता वसूली के फेर में कहीं बेचारे बदनसीब का धंधा न बंद हो जाय. हाँ एक बात और
इस तरह के व्यवसायिक प्रतिष्ठान , एक नहीं कई घर चलाते होंगें , ऐसा मेरा अनुमान है. दिल्ली रूपी महानगर - मानव महासमुद्र - लोगों की जरूरतों ,परेशानियों आकान्क्षायों
संघर्षों और उदारीकृत - वैश्विक उन्मुखी , उन्मुक्त बाजार ,के घाल मेल से क्या - क्या बना और बिगाड़ रहा है वह विशद अध्ययन और दस्तावेजी करण की मांग करता है. बशर्ते के नायाब चीजों को पहचानने का सामर्थ्य हो और बुनियादी मानवीय करुणा और संवेदना शेष बची हो.
चलिए बहुतेरों को आपने लुत्फ़ उठाने का एक सस्ता , सुन्दर और कारगर पता बता दिया.
शुक्रिया
देखते हैं किसी दिन स्वाद ले कर।
ReplyDeletemuh me pani aa gaya.kuch daru me mila denge.
ReplyDeleteआपने सही कहा, ऐसी छोटी कॉनर शॉप्स के भोजन का स्वाद अधिकतर अच्छा ही होता है… खासकर चिकन और मटन का…
ReplyDeletedilchasp! :)
ReplyDeleteअपने काम का नहीं....अतः नो-कोमेंट.
ReplyDeleteपुनश्चः
ReplyDeleteसात आठ साल पहले बेतिया जाने का मौका मिला था.
कॉलेज दिनों के मित्र के यहाँ रुकना हुआ था जो की शहर के प्रतिष्ठित व्यवसायी हैं.
मेरे मित्र ,दोस्तों की मंडली में बाकी चीजों का आनंद लेते रहे हैं पर हैं विशुद्ध शाकाहारी
शाम को उन्होंने अपने किसी काम कारिंदे को कवाब लाने का आदेश दिया. थोड़ी देर में हिन् कबाब प्लेट में
सज कर आ गया . गौर से देखा तो मालूम हुआ की प्लेट में एक तरफ कबाब और दूसरी तरफ मूढ़ी ( फरही ) रखा हुआ है.
बहुत आश्चर्य हुआ के भला कबाब और मूढ़ी का कैसा मिलन है ? बात -चीत में मालूम हुआ की चंपारण में बकरे की कोई ख़ास प्रजाति है
जिसके मटन और कबाब का अपना विशिष्ठ स्वाद है. यूं तो पूरे बेतिया में पर ख़ास कर पीने - पिलाने वालों के बीच मटन कबाब और मूढ़ी काफी लोकप्रिय चखना है.
अच्छा हो की आप अपनी अगली घर -गाँव ( चंपारण )यात्रा में बेतिया - चंपारण के मटन और मूढ़ी कबाब के बारे में कुछ ख़ास लेकर आयें और ब्लॉग और एन दी टी वी पर प्रस्तुत करें.
सादर
महानगर को लेकर अपनी तो यही समझ है कि महानगर गुमनामता में ही आकार पाता है...वही गुमनामता जिससे कस्बों से आए लोग अक्सर असहज महसूस करते हैं शहर की खासियत होती है। रोज टीवी पर दिखने वाले रवीश बिना चिंता महानगर के कइ्र कार्नरों पर चाट-मीट खा पी सकते हैं महानगर उन्हें पहचानेगा नहीं अगर पहचान लेगा तो शहर अभी कस्बा ही है।
ReplyDeleteएक बात कहिए कि 'दारू नहीं पी' की सुफाई क्यों? :)
भारत अनादि काल से चली आ रही विभिन्न परंपराओं का देश है,,,और जो गहराई में जा ज्ञानी ध्यानी हुए, उनके अनुसार हर आत्मा किसी भी प्राणी के भीतर किसी एक स्तर पर ही आरम्भ में होती है,,,और, मानव रूप में सबसे उच्च स्तर पर,,, किंतु जो, काल के अनुसार, परमात्मा की तुलना में बहुत ही निम्न स्तर पर होती है, कलियुग में निम्नतम...
ReplyDeleteऐसा माना गया कि हर व्यक्ति का धर्म अपनी आत्मा को इस लघु जीवन काल में जितना ऊपर उठाना संभव है उसके प्रयास किये जाएँ...और जैसा हर भारतीय, विशेषकर 'हिन्दू', को पता ही है, मानव रूप के निर्माण और कार्य प्रणाली में तीन (३) का महत्त्व जाना गया,,, जैसे तामसिक, राजसिक और सात्त्विक कर्म जो हर व्यक्ति को करने ही पड़ते हैं - ऐसा माना जाता है,,, और आत्मा को ऊपर उठाने के लिए मंत्र, तंत्र, और यन्त्र, तीन मार्ग अपनाने के सुझाव दिए गए हैं,,,जिसमें मांस, मछली और मद्यपान का उपयोग 'तांत्रिकों' द्वारा सुझाया गया, यानी निम्न श्रेणी के भीतर उपलब्ध आत्मा को माध्यम बना...
बेहिसाब पैदा होते हैं । फिर शहर की ओर प्रस्थान करते हैं। यहाँ सभी के लिए सब कुछ है। बस हम अगले सौ साल तक भी विकासशील देश ही रहेंगे।
ReplyDeleteआपके साथ कार्नर शाप जाकर मज़ा आ गया। बस आपने पटना के मंहगू होटल की याद दिला दी।
ReplyDeleteBPL walon ke liye isse acha intzam nahi ho sakta hai.
ReplyDeleteमै इतना समाजिक गणित तो नहीं जानता पर इन्हा कॉर्नर शॉप के दम पर कई बैचलर अपना पेट भरते है...जिनके पास न तो कोई बनाने वाला है..और किसी किसी के पास न तो उतने पैसे है कि वेटर सर्व करें बाकायदा
ReplyDeleteAisi dukane CP men bahut hain.Chaliye, blog per aane se iska kuchh bhala jaroor hoga.
ReplyDeleteAgli baar CP jaunga to jaroor Chakhoonga. :)
subah ki das baje the isliye aapne daru nahi pee yadi raat ka vakt hota to aap bhi maj lekar hi aate. ho sakta hai phir kabhi jane ka vichar ho. matan ka swad to le hi liya to ab corner daru kyon chodi jaye. maje lo!
ReplyDeleteraveesh ji kasbe ki reporting achchi ho rahi hai..... ndtv se badiya kasba aapko achchi trp de raha hai......
ReplyDeletenayi post ke liye aapko shukria........ Harshvardhan
रवीश जी,
ReplyDeleteदिल्ली शहर में हर ठेके के आस-पास ऐसे बहुतेरे अड्डे मिल जाएंगे जहां बिना खर्च के बार का आनंद लिया जा सकता है। देसी ठेको पर भुने हुए छोले और अंडों की रेहड़ी और अंग्रेजी ठेको पर मटन, कीमा, कलेजी की स्टाल, सब काम छपरी में। ये दिल्ली है...यहां वो कबूतर बहुत ज्यादा है, जो ये समझ लेते हैं कि हमें बिल्ली ने देखा नहीं। पर पुलिस नामक बिल्ली खुद कबूतरों संग आपको हमप्याला होते दिख जाएगी। शाम 6 से 8 के बीच जाइयेगा। छोड़िए ये कॉर्नर शॉप...और ये बताईये कि मटन कैसा लगा? मैं जानता हूं ये दुकान मटन के लिए नहीं पिलाने के लिए फेमस है। वैसे एक बार आप पहाड़ी धीरज,सदर बाज़ार के "चिकन चंगेज़ी" का स्वाद ज़रूर लिजिएगा, पुरानी दिल्ली का असली स्वाद मिलेगा।
यही दिल्ली है साहब... कोई मजबूर है तो कोई मशहूर...
ReplyDeleteभाई सुरेश चिपलूनकर को मटन और चिकन कब से अच्छा लगने लगा।
ReplyDeletemajedar post.....
ReplyDeleteसबसे पहला कमेंट बड़ा दिलचस्प रहा..मुसलमां होने वाला । कोने में जाकर मटन चख आए..अर्थात् चखने को चख लिया दारु नहीं पी। कोई बात नहीं नहीं पी तो नहीं पी मरजी है आपकी लेकिन जिसक्लेमर क्यों दिया..वैसे पी भी लेते तो क्या?
ReplyDeleteजिस जगह की अपने बात की है वह जगह उन लोगों के लिए प...
ReplyDeleteजिस जगह की अपने बात की है वह जगह उन लोगों के लिए पब और फाइव स्टार होटलों की तरह ही है जिनमे जाने के लिए परिस्थितियां उन्हें आज्ञा नहीं देती है और वह भी कनाट प्लेस जैसी जगहों पर .यह उस कार्नर वाली दुकान का सौभाग्य ही कहा जायेगा की आप जैसे सुलझे हुए इन्सान भी खींचे चले गए एक बार ही सही आपने भी "भारत" के लज़ीज़ व्यंजन को चखा !!!!!!!