बहुत दिनों बाद सोचा किसी महबूब को ख़त लिखूँ । महबूब कोई भी हो सकता है । जो भी है वो उससे नए सिरे से बात करने की कशिश मुझसे यह ख़त लिखवा रही है । मुझे चिढ़ है कि सारे महबूब एक से लगते हैं । किसी ने कम्प्यूटर के ज़रिये हमारे अहसासों और संकेत चिन्हों को गढ़ दिया है जिसे एक पैकेज की तरह लेकर हम किसी के सामने उपलब्ध हो जाते हैं । ग़ुलाम हैं हम आशिक़ी उम्र तलब तमन्ना बेताब जैसे बेकार फलसफों के । जो घिस कर हमारी रग़ों में दौड़ रहे हैं । ये हमें इश्क़ में बोर करते हैं । उसकी विविधता को ख़त्म करते हैं । इसलिए लगा कि लिखना ज़रूरी है ।
दरअसल हमने मोहब्बत में अपने सपने देखे ही नहीं । वर्षों बाद अहसास हुआ कि सारे सपने कहीं और से बनकर डोम्नोज़ पित्ज़ा की तरह होम डिलिवरी किये गए हैं । कई बार हमारा प्यार भी बाज़ार लगता है । मौसम और गानों के हिसाब से मूड का बदलना, शहरों के बदलते ही यादों का बदल जाना यह सब बाज़ार से आता है । बने हुए गाने और छपी हुई नज़्मों कविताओं के ज़रिये हमने कब चाँद को सराहने की नक़ल मार ली और कब हम अपने एकांत को किसी सिनेमा के दृश्य की तरह जीने लगे, पता होते हुए भी पता नहीं चला । इसलिए मैं तुम्हारे साथ हूँ या तुम किसी का साथ छोड़ मेरे साथ हो इसमें ख़ास फ़र्क नहीं है । तुम्हारा रोना और मेरा मिस करना सब एक जैसा है । रविवार को छपने वाले 'लव टिप्स' जैसा ।
ऐसा करते हुए हम प्यार के अहसास से नहीं बल्कि प्यार के शापिंग माॅल से गुज़र रहे होते हैं । हमारे सपने असंख्य लोगों के देखे गए सपनों की तरह है । वर्ना कैसे मेरा सपना उसके सपने जैसा हो सकता है । पहली बार जब आर्ची कार्ड को देखा तो यही लगा कि इसे कैसे मालूम कि अब हम सबका किसी को चाहना या खो देने की अभिव्यक्तियों का फ़र्क मिट चुका है । सब अख़बार मौक़ा है और हर एक मौक़े को लिए आर्ची का कार्ड है । दरअसल हमने अपना कोई एकांत बनाया ही नहीं जहाँ सिर्फ तुम हो और मैं हूँ । हमारी भाषा क्या है । हमारे प्रतीक क्या है । क्या हम साथ साथ कुछ करते हुए अपने लिए शब्द रचते हैं जहाँ सिर्फ हमारी और हमारी स्मृतियाँ बन रही हो । कितना भयावह है सबकुछ । शहर और नौकरियाँ जिस तरह मोहब्बत के ख़िलाफ़ हैं वे किसी भी तरह खाप पंचायत से कम नहीं । खाप जान लेते हैं और नौकरियाँ वक्त । जात और वक्त दोनों के नाम पर हमारी हत्या हो रही है। दफ़्तर किस क़दर हमारी अंतरात्मा में घुस चुका है यह देखना हो तो हमारी बातचीत के तमाम वाक्यों को देख लो । धर्म,मंदिर मस्जिद, पीर मज़ार ,तीज त्योहार सबने मिलकर मोहब्बत के तमाम पलों को सार्वजनिक और सामुदायिक बना दिया है । इकहरा कर दिया है । हमारी करवटें तक अमिताभ रेखा या रणबीर प्रियंका जैसी हैं ।
मेरी महबूबाओं तुम सब एक जैसी हो । मैं भी सबके जैसा हूँ । इसीलिए तुम्हारी स्मृतियों में बिना इजाज़त के मैं अपनी यादों के सहारे घुस सकता हूँ । एक को चाहते हुए सबको चाह सकता हूँ । हम सब अलग अलग जोड़ों में एक ही तरह के आशिक हैं । समानता इतनी भयावह है कि हम कब किसके आँगन में चले जाते हैं पता ही नहीं चलता । दूसरे से मिलकर आने पर क्यों लगता है कि पहले से मिलकर आए हैं । तुममें से कौन मुझे इस समानता की दीवार को तोड़ने में मदद करेगा । चलो न एक बार के लिए किशोर कुमार और केदारनाथ सिंह और गुलज़ार से लेकर ग़ालिब तक को तिलांजलि दे आते हैं । हम फिर से जीते हैं । इन सब औज़ारों और सामानों के बिना जीते हैं । जीते हुए अपने शब्द बनाते हैं, उनसे अपनी कविता और गीत लिखते हैं ताकि किसी और की मोहब्बत के कोई भी निशाँ हमारे बीच न हो । हमारे बीच सर्फ़ हमारा और तुम्हारा गुज़ारा गया वक्त हो । वर्ना ये प्रेम मुझे प्रोडक्ट लगता रहेगा । हमारे बीच कई और चेहरे नज़र आयेंगे । कई और चेहरों में मैं नज़र आता रहूँगा । तुम नज़र आओगी ।
मैं तुमको जीना चाहता हूँ । तुम्हारे साथ तुम्हारे लिए जीना चाहता हूँ । रोज़ तुम्हें एक ख़त लिखना चाहता हूँ । मोहब्बत सिर्फ पहली बार बोल देना नहीं है । पार्क और पेरिस घूम आना नहीं है । 'टूगेदर' होना नहीं है । एक वक्त है जिसे यूँ ही गुज़र जाने से रोक देना मोहब्बत है । वो कहाँ है । मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी आँखों में ख़ुद को देखो और मैं तुम्हारी निगाहों में ख़ुद को देखने के बाद बाहर जाऊँ । आइना क्यों है । हम कुछ तो साथ साथ रचते हुए मोहब्बत के उन पलों जी जायें जो किसी अपार्टमेंट बेचने वाले के ब्रोशर में न हो । कुछ तो मोहब्बत बचा होगा जो किसी काउंसलर के बताये फ़ार्मूले से बाहर होगा ।
इस ख़त को तुम सब अपना ही समझना । बस एक ही तरह से मत पढ़ना । अलग अलग तरीके से लिखते हुए पढ़ना । मोहब्बत के दौर में हम मोहब्बत के सामान बन रहे हैं । उसके रचनाकार नहीं ।
तुम्हारा ,
रवीश कुमार
क्या बात है सर! कितने रंग छुपाये हुए हैं ! बहुत खूब....
ReplyDeleteअभी इस ख़त को कई बार पढ़ना है । हर एहसास को उलटकर । हर वाक्य से फ़िर से गुज़रना है, अपनी हर समझ को पलटकर। हर बार पढ़ते हुए खुद को एक ख़त लिखूँगा। उनका ज़वाब आया कभी तो तुमको ज़रूर भेजूँगा। सच में।
ReplyDeleteलगता है कि भगवत गीताजी का पठन किया हुआ है
ReplyDeleteKya baar hai sir aap itne romantic honge pata nahe tha
ReplyDeleteप्रेम की सतह से तनिक अन्दर उतरें, वहाँ जीवन अधिक व्यापक है।
ReplyDeleteravish ji, main sanjay jhansi se prime time aur qasba ka niyamit darshak aur pathak hoon.ek hafte se apko prime time par dhoondh raha hoon.prime time apke bina achcha nmahi lagta.
ReplyDeleteइतने दिनों बाद प्रेम कि गहराई को इन शब्दों में समझने का मौका मिला ..
ReplyDeleteSach, bazaar ne khatm hi kar diya sab kuch, bina kahe, bina sune, bina sabdoan ka mohabbat bahut gahra tha, Ab toh "I love you" bhi kitna ashura lagta hi. Bahut badhiya sir, shayad isse hum kuch sikh paayain.
ReplyDeleteSach, bazaar ne khatm hi kar diya sab kuch, bina kahe, bina sune, bina sabdoan ka mohabbat bahut gahra tha, Ab toh "I love you" bhi kitna ashura lagta hi. Bahut badhiya sir, shayad isse hum kuch sikh paayain.
ReplyDeletehi sir.aapne apne blog me prem ko bahut hi sanjeedgi k sath pesh kiya hai .prem ki gehrai suchmuch kuch aisi hi hai.aaj ke parivesh me prem ki dasha aur disha dono ne hi apna alag rukh apna liya hai.prem hai par prem ka spandan hi premi premikao ke bich se gayab ho chuka hai.
ReplyDeleteइसको दूसरी बार पढ़ा तो अचानक "आज जाने कि ज़िद न करो" ग़ज़ल कि वो पंक्ति याद आ गयी, "वक़्त कि कैद मे ज़िंदगी है मगर, चन्द घड़िया यही है जो आज़ाद है।"
ReplyDeletesir...dil se likha hai aapne...
ReplyDeletebadhai ho....aap ko apne puraane din yaad aa hi gaye ...
प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज़ नहीं..... एक ख़ामोशी है,सदियों से बहा करती है। प्यार को प्यार ही रहने दो....कोई नाम न दो....!!
ReplyDeletepyar ehsas hai ,jise hum ruh se mahsus Karen.......par agar uski abhivyakti ho to aisi ho jaisi aapne ki hai.....jo baki sabkuchh ko bemani kar de....
ReplyDelete"yakinan ek waqt hai jise u hi gujar jane se rok dena mohabbat hai."
ek aisa lekh jiski ek ek line ko kitni bhi bar padha, samjha aur mahsus kiya ja sake............
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ReplyDeleteसरजी से कहाँ गायब हो गये हो आप. एक हफ़्ता हो गया आप को प्राइम टाइम पर सुने हुए.
ReplyDeleteआप का श्रुता - टेक्सस से रिची वर्मा
सरजी से कहाँ गायब हो गये हो आप. एक हफ़्ता हो गया आप को प्राइम टाइम पर सुने हुए.
ReplyDeleteआप का श्रुता - टेक्सस से रिची वर्मा
कुछ तो मोहब्बत बचा होगा जो किसी काउंसलर के बताये फ़ार्मूले से बाहर होगा ।
ReplyDeleteAaj ke Bazaroopan me mohabbat bhi ek vastu ban gayee hai. Subah se lekar sham tak pata nahi kitne mohabbatnama hai. Khuda bachaye aise ashikon se.Aaj to SMS aur Mobile hee iske vahak hai.Usme mohabbat kee kya tasheer hotee hogee....
ReplyDeleteBahut sundar abhivaykti
ReplyDeleteमोहब्बत सिर्फ पहली बार बोल देना नहीं है । पार्क और पेरिस घूम आना नहीं है । 'टूगेदर' होना नहीं है । एक वक्त है जिसे यूँ ही गुज़र जाने से रोक देना मोहब्बत है । वो कहाँ है ।
ReplyDeletejabardasttt....
मोहब्बत सिर्फ पहली बार बोल देना नहीं है । पार्क और पेरिस घूम आना नहीं है । 'टूगेदर' होना नहीं है । एक वक्त है जिसे यूँ ही गुज़र जाने से रोक देना मोहब्बत है । वो कहाँ है ।
ReplyDeletejabardasttt....
मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी आँखों में ख़ुद को देखो और मैं तुम्हारी निगाहों में ख़ुद को देखने के बाद बाहर जाऊँ ।
ReplyDeletebahut badia
Kya bat hi !Wah!
ReplyDeleteravish ji, thoda himmat kar, achori chhod kar full time apne man ka kaam karne lagiyee. beti ka bachpan se lekar zindagi ke har panne ko padh payiga. bahut achha likhte hain, likhte rahiyee
ReplyDeleteउफ्फ्फ ....
ReplyDeletefgUnh CykXl esa vkidk dk;Z oanuh; gS] vkius fgUnh izsfe;ksa ds fy, ,d lkFkZd eap miyC/k djkus dk ljkguh; dk;Z fd;k gS tks esjs tSls dbZ fgUnh jpukdkjksa ds fy, izksRlkgu ls de ugha-------
ReplyDeleteबहुत सूफीयाना,बहुत रोमानी साथ साथ बहुत रीयल,original और लौकिक भी.प्रेम को बाज़ार के चंगुल से मुक्त कराने वाला पत्र.
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