हिन्दुस्तान के एक छोटे से तबके ने डायनिंग टेबल पर खाना सीख लिया है । इसी तबके से अब पत्रकार भी आते हैं । नहीं आते हैं तो साल भर के भीतर हो जाते हैं । अपनी इसी जीवन शैली को लेकर पत्रकार स्कूलों पर धावा बोल रहे हैं । क्या हम नहीं जानते कि इन स्कूलों को ऐसे ही मारा गया है । बिना किसी गुणवत्ता के टीचरों को नियुक्त किया जाता रहा है । टीचरों से जनगणना और चुनाव कराया जाने लगा है । इन स्कूलों में बिजली कभी होती नहीं । पढ़ाई के स्तर की हालत आपको हर साल प्रथम की रिपोर्ट में मिल जाती है । ग्रोथ रेट की राजनीति में स्कूल सिर्फ एनरालमेंट के आँकड़े बताने के काम आ रहे हैं । ड्राप आउट रेट कम होने की कामयाबी के आँकड़े बनकर रह गए हैं । कब और कहाँ की सरकारों ने स्कूलों को बेहतर करने का अभियान चलाया है । सब खानापूर्ति । हमको पता है ये सब । सरकारी स्कूल सरकार और लोगों से ख़ारिज हो चुके हैं । निर्धनतम तबक़ा ही वहाँ जाने को मजबूर है । सरकारी स्कूलों के मोहल्ले में इंग्लिस मीडियम स्कूल खुल गए हैं । सरकारी स्कूल ग़रीबी रेखा से नीचे के बच्चों के स्कूल बन कर रह गए हैं । ग़रीबी मिटेगी न ये स्कूल । जैसी ग़रीबी होगी वैसे ही ये स्कूल दिखेंगे ।
इन सबके बीच मिड डे मील योजना ही थी जो चल रही थी उसी तरह से जैसे ये स्कूल चले आ रहे हैं । हमें शर्मसार होने की नौटंकी के लिए छपरा के बच्चों की मौत से भावुक होने की ज़रूरत नहीं है । हमारी सोच से ये स्कूल कबके गायब हो चुके हैं । हमने कभी चिंता भी नहीं की कि इनकी हालत ऐसी क्यों हैं । न हमने फेंकू से पूछा न पप्पू से । अब यही कैमरे हमारी ल्युटियन मानसिकता से इन स्कूलों को देख रहे हैं । मिड डे मील को पखाने की तरह दिखा रहे हैं । कैसे खा रहे हैं ये बच्चे । कौन बनेगा प्रधानमंत्री पर बहस करने वाले एंकर रोने की नौटंकी कर रहे हैं । अरे कैसे नहीं खा़येंगे ये बच्चे । किसी रिपोर्टर ने एक थाली लेकर खाते हुए क्यों नहीं बताया कि खाने लायक है या नहीं । क्यों नहीं खाया । छपरा के बहाने हर राज्य के स्कूलों में दिये जा रहे इन भोजनों के प्रति एक सोच गढ़ी जा रही है जैसे ये खाने न हो गए ज़हर हैं । इन्हें गंदा बताया जा रहा है । मीड डे मील को ऐसे दिखाने लगे हैं जैसे बच्चे ज़हर ही खा रहे हैं । एक रिपोर्ट में एक बच्चा कहता भी है कि माँ पूछती रहती है कि आज स्कूल में खाना क्यों नहीं मिला । रिपोर्टर इसे पकड़ ही नहीं पाया क्योंकि वो गंदगी और अव्यवस्था रिपोर्ट करने के ब्रीफ़ से गया था । माँ ने क्यों कहा, बच्चे ने क्यों कहा कि नहीं मिला । वो क्यों चाहता है । किसी बच्चे ने क्यों नहीं कहा कि ये गंदगी से बदतर खाना है हम थूकते हैं इस पर । जबकि कैमरा और ल्युटियन पत्रकार इसे गंदगी की निगाह से ही देख रहे थे । मिड डे मील ने क्या असर डाला है इस पर तो शायद ही किसी ने एक लाइन लिखी हो । क्या किसी ने लिखा कि जिस थाली में मक्खी बैठी है, कहीं मेंढक निकला है, कहीं कुछ निकला है उसे बच्चे किस भूख या मजबूरी के तहत खा रहे हैं । क्या किसी ने दिखाया कि रसोई की हालत कैसी है जहाँ जब भी खाना बनेगा मक्खी मेंढक आयेंगे ही । किसी ने जाकर नगरपालिका से पूछा कि ऐसा क्यों हैं । किसी शिक्षा मंत्री से बाइट ली । नहीं । ये हमारे पेशे की सामूहिक नाकामी की तस्वीर है ।
ल्युटियन की सफ़ाई हिन्दुस्तान की हक़ीक़त नहीं है । ऐसा भी नहीं कि हिन्दुस्तान रोज़ अपनी इस गैर-सफ़ाई को कोस कोस कर जी रहा हो । हर शहर की साठ फ़ीसदी आबादी ऐसे हालात में रहती और जीती है । क्या हम आहत होते हैं ? क्या तब हम उनके हालात की गंदगी को दिखाते हुए भारत को शर्मसार करते हैं ? इस मसले को भी सोशल मीडिया पर लोग फेंकू,नीकू और पप्पू की पार्टी के बीच फ़ुटबॉल बना कर खेल रहे हैं । जबकि सबको पता है िक हर राज्य में सरकारी स्कूलों की यही हालत है । घटना दुखद है मगर इस बहाने मिड डे मील को खलनायक नहीं बनाया जाना चाहिए । बाक़ी फेंकू के लोगों की अपनी राय और पप्पू के लोगों की अपनी राय । ( राहुल गांधी के समर्थकों ने नरेंद्र मोदी को फेंकू नाम दिया है तो नरेंद्र मोदी के समर्थकों ने पप्पू ) जब ये कैमरे लौट जायेंगे तब चुपके से किसी सरकारी स्कूल में जाकर देखियेगा । दोपहर का खाना और खाने वाले बच्चों को । सिस्टम नीचे सुधरेगा नहीं और हालात बदलेंगे नहीं ।
शनिवार, 7 अगस्त 2004 को मैंने अपने ब्लॉग पोस्ट में ये लिखा था -
ReplyDelete(यूआरएल है - http://raviratlami.blogspot.in/2004/08/blog-post_07.html )
पाठशाला बनाम भोजनशाला
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मैंने अपने पिछले कुछेक ब्लॉग्स में अदूरदर्शी नीति द्वारा पाठशाला को भोजनशाला बना दिए जाने के परिप्रेक्ष्य में कुछ प्रश्न उठाए थे. उसके समर्थन में कुछ नई घटनाएँ-
--जिला शाजापुर, म.प्र. के एक स्कूल में मध्याह्न भोजन में छिपकली गिर जाने से ९० बच्चे बीमार हो गए.
--सीहोर, म.प्र. के एक स्कूल में खराब सब्जी खाने से लगभग सवा सौ बच्चों की तबीयत बिगड़ गई.
शायद हमें कुछ और भी भयानक हादिसों के लिए तैयार रहना होगा...
--- स्थिति बदली कहाँ है, वही है, वही रहेगी!!
कल यानि 18 के प्राइम टाइम के विशेषज्ञ नारी को दया या विद्वेष की पात्र की तरह प्रस्तुत कर रहे थे।नारी इस सब से ऊपर एक इंसान है। पुरुष से कहीं अधिक सक्रिय उत्पादक है। उसको महज उपभोक्ता -बोझ- की तरह प्रस्तुत करना उसको समाज में समान दर्जे के हक से महरूम करने की साजिश है जो पितृसत्ता युगों से करती आई है। दूसरा नारी के प्रजनन का सामाजिक तथा राजनीतिक महत्व भी है। क्या परिवार, समाज और राज्य का फर्ज नहीं है कि वह इस भूमिका का उचित मूल्यांकन करेऔर नारी को उसके इस अमूल्य योगदान के लिए पुरसक्रित करे। तीसरा विवाह व परिवार को बनाए रखने में पुरुष से अधिक नारी का योगदान होता है। विवाह टूटने पर उसको पुरुष से अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अतः समय आगया है कि नारी के समाज के लिए किये जारहे योगदान का निष्पक्ष मूल्यांकन हो और उसी हिसाब से उसके हक तय हों
ReplyDeletereporter bhi to sachchai ...
ReplyDeleteIn all discussion media forgot that scheme was/is designed for Education . no body Talking about the level of teaching .
ReplyDeleteAnd sir please re start microbloging :D
Bahut achcha sir ji !
ReplyDeleteMain UP main Amethi ka rahne wala hoon. Road construction main kaam karne kee vajah se ghomta rahta hoon. Abhi philhal Hajipur Bihar main hoon. Iske pahle Salem, Tamilnadu main tha. Teen paragraph main teeno pradeshon main primary education ke bare main apne rai likh raha hoon.
ReplyDeleteUP-Mere dono badi bahne primary school main teacher hain. Badi BTC ke baad aur ab head master hain. Doosree Double MA(Psycology&English) aur B Ed.Ek aur cousin sister M. Phil karne ke baad. Jab unse unke schools main padhai ke bare main baat karo to baat ghoom phirkar Midday meal par aa jati hai.jaise lagta hai yeh school kewal MDM ke liye hee khole gaye hon. Jab Main kahta hoon ke aap aur hum to inhe schools se nikle hai aur Double MA, M Phil aur Engineering pass kee hai.yeh bhi tab jab ki Padhane wale pata nahi athwan pass the ya highschool pass. Es hisab se( Maths ke ekik niyam se) sidhe IIT aur AIIMS main without coaching admission milna chahiye to who hasne lagtee hain tab jamaba aur tha.Jab main kahta hoon ke DIDI us jamane main salary 30-40 hazar nahi thi jo aaj hai.UP cadre main aaj jitney IAS aur IPS hain unme se min 40% to unhee schools se hai. Par aapke padhye to peon bhi nahe ban payenge.Aapke itne padhe hone ka kya matlab.Rahi baat MDM ke to us jamane(before 1980) main bhe ubla plain dariya primary school main milta tha.
Salem, Tamilnadu- Jab yahn main tha us samay wahan DMK ke Govt thee.Wahan ka primary education ho higher education. Primary health system ya Public distribution system dekhkar lagta tha kee doosre desh main aa gaye hon.MDM ke liye centralized kitchen system tha. Fixed time par MDM small trucks ke jariye school main pahoonchta milega.NRHM ke tahat Ambulance kee sabse uttam byawstha.20 minute ke ander ambulance ko pahoonchane ka target.
Bihar- Hajipur jo kee patna se laga hua hai aur main bhi main roads par hee ghoomta hoon to jo bhi primary school kee Buildings bani hai ya ban rahi hai unkee quality satisfactory hai, kithen bhi hai. desk, chair aur dari hai bacchon ke baithne ke liye. Teacher ke sankya bhi paryapt hai. Mere hisab se mota moti system theek hee hai haan sahar se door ka system jaroor alag hoga.
सरकारी स्कूल और सरकारी अस्पताल दोनों की हालत एक जैसी है |हाल ही में आधार कार्ड बनवाने एक सरकारी स्कूल जाना पड़ा जो की मुंबई के बांद्रा में है पीने के पानी की व्यवस्था व शौचालय देखकर मन व्यथित हो गया |माध्यम वर्ग जिसके लिए वाटर प्योरिफिएर एक जरुरत बन गया है और गरीबो के बच्चे इतनी गन्दगी में पानी पी रहे थे
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ReplyDeleteSarkari school sarkari daftar sarkari faillay aur sarkari kam sab sarkar bhrosay jaysay duniya ram bhrosay
ReplyDeleteSarkari school sarkari daftar sarkari faillay aur sarkari kam sab sarkar bhrosay jaysay duniya ram bhrosay
ReplyDeleteमिड डे मिल ! मिड डे मिल! खा लो ! खा लो ! खा लो न ! खा लो न ! जहर ! जहर ! जहर ! माहुर ! माहुर ! माहुर ! हाय, हाय हाय ! हाय, हाय हाय ! सडा गेहूं ! सडा चावल ! हाय, हाय हाय ! हाय, हाय हाय ! पेट में दर्द ! पेट में दर्द ! मेरा बच्चा ! मेरा लाल ! बेटा बेटी ! बेटी बेटे ! हाय, हाय हाय ! लूटो ! लूटो ! खूब लूटो ! कमाओ !कमाओ ! गरूजी ! गुरूजी ! प्रधान जी !प्रधान जी ! भागो !भागो ! भागो ! थरिया लेकर भागो ! जहर वाला मास्टर आया ! जहर वाला मास्टर आया ! हाय, हाय हाय ! हाय, हाय हाय ! कैमरा !कैमरा ! फेंकू !!पप्पू !पप्पू !! नहीं बदलेगा ! नहीं बदलेगा !नहीं बदलेगा ! जोर लगा के हाँ जी हाँ !जोर लगा के हाँ जी हाँ !
ReplyDeletesab majbur dikhte hai
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ReplyDeleteभ्रष्टाचार का कलुषित स्वरूप
ReplyDeleteमिड डे मिल योजना गरीब बच्चों को स्कूलों तक आकर्षित करने की सरकारी योजना है। जिसे अन्य योजनाओं की तरह ही उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। पर ये उपेक्षा चूँकि भोजन से संबंधित थी प्रतिक्रिया भी त्वरित गति से ही आनी थी। योजना प्रारूप तैयार करते समय किसी ने यहाँ तक नहीं सोचा होगा कि भोजन के साथ ही जहर परोसने की गुंजाइश भी हो सकती है। अगर ये लापरवाही है तो इतनी बड़ी लापरवाही हुई कैसे। भोजन में इतनी बड़ी मात्रा में फास्फोरस का पाया जाना कैसे संभव हो पाया। खैर ये जाँच का विषय है। मिड डे मिल में गड़बड़ियों की शिकायत तो हमेशा से आती रही है और साथ ही इसका ज्यादा प्रतिरोध भी नहीं किया गया क्योंकि हमारी सामाजिक बुनावट में ही गुणवत्ता के एक विशेष गिरावट को स्तरीय मान लिया गया है। पर अब यह प्रतित होता है कि इस बढती धृष्टता ने व्यवहारिक मानदंड के सबसे निचले पायदान को भी लात मार दिया है। इंसानी मान्यताएँ इस लूटतंत्र में कोई मायने नहीं रखती। यह मान्य तथ्य है सरकारी योजनाएँ भ्रष्टाचार की बली चढती आई हैं। ग्रामीण समीकरण कई राजनीतिक ,सामाजिक और मूलतः आर्थिक हलचल का केन्द्र बना है। वितरण प्रणाली में पारदर्शिता के अभाव में लाभार्थियों के कई गुट उपजे हैं। राजनीतिक दल , ग्राम पंचायत , नौकरशाह और इन सबके बीच एक नया उपजा एजेंट वर्ग। किसी भी योजना को इन रास्तों से आते आते गरीबों तक जो बचता है वह बहुत मामूली तो हो सकता है पर यह जहर में तब्दील हो जाए यह कतई सहनीय नहीं है।
हर चीज के लिए सरकार को कोसना ठीक नही है। मै भी सरकारी स्कुल मे टीचर हूँ एवम् हमारे शाला मे एम डी एम का स्तर अच्छा है । यदि शाला के प्रधान पाठक और पंचायत अपने जिम्मेदारी का ठीक से निर्वहन करे तो स्तर मे सुधार संभव है
ReplyDeleteYe plan to baccho ko school tak bulane me naakam bhale hi rahi lekin mataon ki kokh sooni aur corruption ka graph jarur badha diya hai
ReplyDeleteI am completely agree with u Mahesh sir, i belong to Jalore dis. of Rajasthan, this dist. is lowest in literacy. my mom is HM in govt. middle school. all teachers taste mid day meal before serving to students. Govt. also elected by us, Stop blaming start taking responsibility, if u really wanna change system.
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ReplyDeleteदिल से कही बात, बहुतै अच्छा लिक्खा, शाब्बाश! लगले हाथ प्रथम का हाइपर लिंको डाल दिये होते, अच्छा रहता?
ReplyDeleteघटना दुखद है मगर इस बहाने मिड डे मील को खलनायक नहीं बनाया जाना चाहिए ।
ReplyDeleteसही!
India's present bureaucracy consist probably last generation bureaucrats who must have studied from government school (at least some) if they cannot empathise with these schools then who else will in future is big question marks.As Ravish sir written we have forgotten these schools long ago .
ReplyDeleteNo matter what the devastated-death number could be, For a layer of society children-death has only been a hot matter of blame-game to throw light on the governance of ruling party.
ReplyDeleteI would like to share that i had been a part of a Government school in a village in Gopalganj district.I have seen the ground reality. I would not hesitate to say that the scheme was Ironically, brought up to help a class of people who could not afford to send their children into school, but the practical reality is it has shown tremendous growth in terms of the profitability of local mafias rather than benefiting the very class. Now all they need to do is building nexus with political figures get their relatives in into schools as teachers and then the game of bringing healthy-grains at home by replacing with the animal-class grains starts.I anticipate when that day will come in when the government policies will be implemented as it was structured.
Ravish ji, a cynical approach is the biggest asset of ,not only media' but also teachers and officers, nay , the entire middle class.Being a teacher, I see it manifest all around. My state Punjab, though comparatively better, the reality of schools and Schemes like MDM is no better. the root cause-lack of participation and senstivity. However Kchh Ciraag jal bhi rahe hai.
ReplyDeletePawan Gulati
ravish ji ye aapke anchor aur reporter kya wo bhi hai jinki background gaon ki ho .. kabhi primary paathshala gaya hain.. apna taat ka fatta aur patti.. aur patti men ghisne ke liye hare patte liye, chair par oonghta hua ek teacher jisko abhi computer naam ka shabd bhi nahi pata shayad .. mid day meal ka masaala parosne wale anchor in bacchon ke gharon men jaa kar dekhen ki wo bechare gharon men kitne "hygienic" tareeke se rahte khate peete aur sote hai ??? sawaal ye hai ki is desh ka middle class apne liye aur apne se neeche walon ke liye alag alag vyawastha ka haami hai ... ham sab ko ye sab majboori gareebi zahaalat aur bhookh ye mauka deti hai ki ham apni mahanta ko siddh karne ke liye inki charcha karen.. bas uske baad ye dekhen ki apne bachche ka admission DPS men kaise hoga ... ravish ji shahron men rahne wali 80% janta dikhawati hai aur inki samveedna men bhi milaawat hai ...
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