अब उनके भीतर का कानपुर पुराना पड़ने लगा है । थोड़ा ठंडा हो रहा है । जितना ठंडा हो रहा है उतना ही वे मुरझा जाते हैं । जीवन भर की कहानी,अनुभव, ओहदा किसी काम का ही नहीं । सुनाने लायक तो बिल्कुल नहीं । उनके चेहरे की पीड़ा रोज़ दिखाई देती हैं । यूँ तो वे स्वस्थ्य हैं मगर बीमार हैं । बेटे की नौकरी के कारण बाप का बुढ़ापा भी शहर बदल रहा है । शहर का फ़्लैट उनके कानपुर वाले मकान के सामने कितना छोटा है । अपार्टमेंट के भीतर बिना पता के लिफ़ाफ़े की तरह भटकते दिखते हैं । एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े की तरफ़ जाते नज़र आ जाते हैं ।
सुबह फ़्लैट से निकलना पड़ता है । शायद बेटे और बहू को स्पेस देने के लिए । दोनों बहुत अच्छे हैं मगर दोनों कानपुर नहीं हैं । सोसायटी की गेट पर लगी बेंच पर बैठे किसी और 'रिटायरी' का इंतज़ार करने लगते हैं । आते जाते लोगों की नमस्कारी में उन्हें अपना कानपुर दिखता होगा जहाँ सालों से लोग उन्हें नमस्कार करते होंगे । यहाँ वे महीनों से वही काम कर रहे हैं । किसी और को नमस्कार कर रहे हैं । उन्हें कोई नमस्कार नहीं करता । घर का सामान लाने ले जाने के वक्त अचानक उनका सर तन जाता है । जैसे कहीं से कानपुर आकर खड़ा हो गया हो । "हमारे कानपुर में तो ऐसा होता था", सुनते ही एक मुस्की छूट जाती है । जैसे ही मुस्की छूटती है उनका कानपुर ज़ुबान पर ठिठक जाता है । गोया कानपुर न हुआ दिल्ली की गोबर मंडी हो गई । एक दिन उनके भीतर का कानपुर फट जाएगा । किसी के भीतर कोई शहर इस कदर बचा हुआ हो और उसके पास अपने ओहदे और पहचान के सीमित संदर्भों के अलावा अभिव्यक्त करने का कोई ज़रिया न हो वो ' आई' से 'सी' और सी से 'ई' बन ही जाएगा । ' ई' से ' आई' बनने की आह से मरता रहेगा ।
रिटायर होने के बाद की ज़िंदगी उम्र से खोखला हो जाने की नहीं है । उस बोझ से भर जाने की भी है जो सीलबंद फ़ाइलों की तरह दिमाग़ की आलमारियों में धूल खा रही है । ट्रांसफ़र और प्रमोशन की फ़ाइलों को कौन खोल कर देखना चाहेगा । सोसायटी की गेट पर आती जाती कारों के मिरर से ऐसे कई चेहरे झलक जाते हैं । इनकी लाइफ़ 'ओ' बन गई है । ये सोसायटी के गोल गोल चक्कर लगाते रहते हैं । कोई कानपुर को पकड़ने के लिए चक्कर लगा रहा होता है तो कोई मुज़फ़्फ़रपुर को । 'हाय, और 'बाय' के बीच इनका नमस्कार उस पेंशन की तरह आधा रह जाता है जिसके सहारे वे सिर्फ आधा शहर जी पाते हैं । आधा शहर तो कहीं और छोड़ आए होते हैं । सुबह शाम इनके चेहरे पर कानपुर झुर्रियाता रहता है । अतीत के ऐसे चलते फिरते खंडहर अपार्टमेंट की सीढ़ियों,लिफ़्टों, बरामदों और गलियारों में दिख जाते हैं । पोतों को स्कूल ले जाते, दूध ब्रेड लाते और फिर अकेले भटकते हुए । हम इनसे नए ज़माने की तरह टकराते हैं । कानपुर का शाप लगेगा । जब हम भी दिल्ली को छोड़ किसी और शहर के अपार्टमेंट में ऐसे ही भटकेंगे । किसी सोसायटी की रेलिंग पर ' सी' बनकर बैठेंगे और अपने ' आई' को कोसते हुए ' ई' हो जायेंगे । ।
تعریف کے لئے صاھب لفظوں کی کمی ہے کیوں کی ہماری تعلیم ادھوری ہے بہت اچھا لکھا ہےآپ نے
ReplyDeleteआदरणीय रवीश सर , जिसकी पत्नी छोड़ जाये उसे विदुर कहते है | शायद आपको भी इसका पता था पर पता नहीं क्यों आपने कल के शो(18-07)में अपने हिंदी के प्रख्यात ज्ञान को छुपाया ? हो सकता है मै गलत होऊ ? तो कृपा मुझे जरुर बताये के विदुर गलत है के सही ? मै भी अपना ज्ञान दुरुस्त कर लूँगा | धन्यवाद सर
ReplyDeleteआपका
मनप्रीत सिंह (पत्रकार)
हांसी ,(हरियाणा)
lajabab lekhan;;;;;
ReplyDeleteManpreet singh ji correct word hai"vidhur" na ki vidur.Paragraph badalta hoon.
ReplyDeletePitaji year Fauj se 1976 main subedar se retire hua. Phir to gaon main raat ka 7.30 ka BBC aur 8.45 ke samachar ke baad hee sabha tab visarjit hoti thee jab auron ke ghar se khane ka kai baar bulawa aata tha.Wohi yadan mritu se pahle tak unhe mere paas Lucknow tak aane se roktee thee. Kyunki yahan koi namaskar karne wala nahi tha.Sachmuch Lajwab..
behad marmik
ReplyDeleteOne of the finest things I have read in a few days. Very emotional and moving. इसके बारे में ज्यादा कुछ नहीं लिखकर,सिर्फ इसे महसूस करना ही, इस लेख का सम्मान करना है। इसे लिखने के लिए शुक्रिया !
ReplyDeleteachcha shabd chitra C e I O
ReplyDeleteआज की कडवी सच्चाई
ReplyDeleteमैंने कितनी ही बार पढ़ लिया है इसे । हर बार मेरे अंदर की "आई" कुछ कुछ और "सी" हो जाती है । न जाने कितने कानपुर बसे हैं अंदर, और कितनों से निकलकर अभी, उन्हें अपने अंदर ढोना बाकी है| शहर बदलने पर, मोबाइल का नंबर चेंज हो जाता है, पर कांटेक्ट लिस्ट के कुछ नाम (न जाने किस आस में) ढोए चले आते हैं । कुछ दिनों में वो नंबर भी अस्तित्व में नहीं रहते । बस रह जाते हैं, हथेली में पड़े मोबाइल की उजली बैकलाइट में ताकते कुछ काले, पुराने नाम । अंग्रेजी के किसी अक्षर के नाम वाले फ्लैट में, "ई" बनकर उसकी खिड़की से टंग जाना ही आधुनिकता का सत्य है ।
ReplyDeleteव्यापक दर्द ..
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