रणबीर कपूर की कलाई पर आवारा लिखा देखा तो ख्याल आया कि नायक इस फ़िल्म में दादा राजकपूर की सिनेमाई विरासत से जुड़ कर दिखना चाहता है । कोई बुराई नहीं । लेकिन इस फ़िल्म की कहानी ट्रेवेल एजेंट के मंसूबों के पीछे पीछे चलती है । दुनिया देखने का सपना एक ऐसे ख़्वाब की तरह पेश किया जाता है जैसे जीवन के बने बनाए सिस्टम से निकलने का यही आख़िरी रास्ता हो । ऐसा सपना लिये कोई नायिका अभी खुलकर पर्दे पर नहीं आई है । ये सपना सिर्फ हीरो के लिए रिज़र्व है । कैमरे और ट्रायपोड लाद लेने की दुनिया भी उसी बनी बनाई पैटर्न पर काम करती है । वहां भी तो घुटन है । बताऊं क्या अभी । खैर कुलमिलाकर रणबीर का यह सपना अपनी नौकरी बेकार और दूसरे की अच्छी लगने वाली आदत से ज़्यादा की नहीं है । रणबीर कपूर नब्बे परसेंट के इस दौर में अपने न पढ़े लिखे होने का जश्न मनाते हुए टीवी शो की दुनिया में घुस जाता है । जहाँ टैलेंटेंड होने की निशानी कंधे पर कैमरे का टंगा होना है । जैसे दीपिका का डाक्टर होना अभिशाप हो गया । ट्रीप पर वो अपने लिये जाती है या माय ट्रीप डाट काॅम के लिए ।
तीन दोस्तों के बीच कुछ भी ऐसा नहीं जो पहले के सिनेमाई दोस्तों ने न किया हो । ये अमीर घर के लगते हैं जहां पचीस लाख नहीं होना गरीबी की निशानी है । फिलमों में ऐसे दिखाया जा रहा है हमारा युवा जिसे लेकर राजनीति में हड़बड़ी में बड़ी बड़ी संभावनायें देखी जा रही हैं । दरअसल यह फ़िल्म कई हिन्दी फ़िल्मों के प्लाट को फिर से ज़िंदा करती है । दोस्ती उस यथास्थिति का निर्माण करती है जहाँ कोई सवाल नहीं है । सब एक जैसा हो जाने की बारी का इंतज़ार करते हुए समाज के बनाए ढाँचे में ढलने का इंतज़ार करते हैं । क्या हो जाता गर हीरो शादी न करने, प्यार न करने के अपने फ़ैसले पर क़ायम रह जाता । वो बिना प्यार के पेरिस की सड़को से किसी लड़की को बुलाकर चुम्माचाटी ( चुंबन तो कत्तई नहीं ) कर भुल जाता है । मैं नैतिकता की बात नहीं करता । ये नार्मल है पर नायक की आज़ाद ख़्याली का ये कौन सा लंपट मुकाम है । फ़्लर्ट करने को सेहत के लिए ज़रूरी बताता है । बाद में शादी के ही सिस्टम में लौट भी जाता है । रणबीर का नाम कबीर है और काम कबीर जैसा कुछ नहीं । हिन्दी सिनेमा में कबीर नाम काफी चला हुआ है । अगर ऐसे ही दो चार कबीरों का नाम आता रहा तो लोग असली कबीर की कल्पना भी रणबीर कपूर के बग़ैर नहीं कर पायेंगे ।
यह एक देखी हुई फ़िल्म है जिसे ठीक से बनाया है । दीपिका के अभिनय की तारीफ़ हो रही है । कोई केंमिस्ट्री की बात कर रहा है । रणबीर दीपिका की जोड़ी मैच करा रहा है । पूरी फ़िल्म में दीपिका डाक्टर है । एक शाट अस्पताल या क्लिनिक का नहीं है पर वो पढ़ाई मेडिकल का कर रही है । उसके बाद भी किसी क्लिनिक की चिंता में कबीर के साथ दुनिया देखने नहीं जाती है । अमीर ग़रीब का सीन नहीं है । स्कूल में टापर दीपिका और भोंदू रणबीर के बीच क्लास डिवाइड बनाकर सेंटी सीन क्रिएट किया जा रहा है ।
इस फ़िल्म को स्पाट फ़िक्सिंग के संदर्भ में देखा जाना चाहिए । अवि बुकी है । सट्टेबाज़ । अवि इंडिया पाकिस्तान पर सट्टे लगाता है । किसी को उसके सट्टेबाज़ होने से समस्या नहीं । इनकी दोस्ती के रोमांटिक पल में सट्टेबाज़ी स्वीकृत हो जाती है ।
फ़िल्म चल गई है । ये जवानी है दीवानी । मन लगना ही प्राथमिकता है तो मन लगा लीजिये । दीपिका रोकर और पढ़ाई को बोझ बताकर सहानुभूति बटोर रही है । पढ़ी हुई लड़की का यह विचित्र रूप है । दया का पात्र बनी रहती है दीपिका । मैं तुलसी तेरे आँगन की मार्डन रूप धर कर । पर फ़िल्मी और हकीकी प्यार में यही होता है । इंसान इंतज़ार करने लगता है । रोता है । हँसता है । उसी के बारे में सोचता रह जाता है। ये होता है । उसमें बड़ा दर्द है भाई ।
कल्कि अवतार पर बात होनी चाहिए । कल्कि का अवतार पर्दे पर क्या इसी रोल के लिए हुआ है । ये हिप्पी रोल हिन्दी सिनेमा का घिसा हुआ है । कल्कि मे इतनी संभावनाएँ हैं लेकिन उसके लिए अब यही सब रोल बचे हुए हैं । लेदर जैकेट पहनने वाली, टैटू, सर पर गमछा, लड़कियों के बीच लड़कों जैसी । क्या है ये सब कल्कि । बल्कि तुम कल्कि मत करो ऐसे टाइम पास । इस तरह के रोल को उन नायिकाओं के लिए छोड़ दो जो संघर्ष कर रही हैं । जिन्हें पैसे और पहचान की भी ज़रूरत है ।
ऐसा नहीं था कि मैं रणबीर और दीपिका से माओवाद की समस्या की पृष्ठभूमि में उनसे किसी महान भूमिका की उम्मीद में गया था । सच पूछिये तो मेरा भी मन लग ही गया । सुन कर जल्दी भुला दिये जाने वाले बेहतर गाने, शादी से पहले का संगीत, होटल, ये सब था और "प्यार हो जाएगा फिर से" सुनकर रणबीर दीपिका की असली प्रेम कहानी से थोड़ा कनेक्ट । फ़िल्म कमा रही है । हम सब उन देवी देवताओं और पीर बाबाओं के आदेश से देखने गए थे जिनके यहाँ फ़िल्म के हिट होने की दीपिका ने गुहार लगाई थी । मैं रणबीर की फ़िल्म देखता हूँ क्योंकि कुछ बात है इसमें । फिर भी इस फ़िल्म में वो कई लोगों को क्यूट लगा है । सारे डफ़र क्यूट हू क्यों लगते हैं ? आज तक मेरे लिए यह एक रहस्य है ।
gud observation !! bolywood to chodiye, hollywood ki tathakathit hit movies ko dekhiye, na koi oor na koi choor, phir bhi dunia magan hai, tareef pe tareef kiye ja rahi hai...
ReplyDeletehmmmm...theek waisa hi jaisa maine socha tha !
ReplyDeleteacha hua apne bata diya mere paise bach gaye ticket ke
ReplyDeleteबरसो बाद कोई फिल्म थियेटर में देखने की सोच रहे थे लेकिन कुछ ठण्डक सी हो गयी है। जाए या नहीं जाएं? बस उदयपुर को देखने का ही शौक है कि देखो क्या दिखाया है?
ReplyDeleteइस अंधी दौड़ में जरुरी था कुछ सही और अलग देखना....
ReplyDeleteआपने दिखाया.... शुक्रिया.
मेरा रूम-मेट गया था, यह मूवी देखने ! रूम पर आकर कहने लगा बस ३० साल की उम्र से पहले काफ़ी पैसे कमाने है, फिर मौज ! मैंने कहा होश में आ जाओ , हक़ीकत की दुनिया अलग होती है !
ReplyDeleteRather, I watched "The Green Mile" of Tom Hanks on my PC. साली ने रुला के रख दिया !
An old man(108 age, कसाई) wanting and waiting to die, wakes up every morning to find himself alive along with his rat and much much more. Worth watching.
sare duffers ke cute lagne ke mystry kee baat samajh nahi aayee.
ReplyDeleteआप बड़े क्यूट हैं और ये आपकी समीक्षा-नुमा लेख भी आपके अन्य लेखों की तरह बहुत क्यू-ट है! :)
ReplyDeleteKamaal hain aap bhi.
ReplyDeletesir mera to man bhi nahi laga
ReplyDeletesir mera to man bhi nahi laga
ReplyDeleteMery khayal sey agar ek ya do director ki pictre chor de to baaki sabhi sapny bechti hai...jabki sapny mai or reality mai bahut fark hota hai...mujhy to aaj k samaj pe aashcharya hota hai ki log itna bhi nahi samajh paaty ki kya dekhna hai or kya nahi...
ReplyDelete