http://www.propublica.org ,
Journalism in the Public Interest प्रो पब्लिका के बारे में मुझे हाल ही में पता चला। छह साल से यह पोर्टल वजूद में है। इसका दावा है कि यह जनहित में खोजी पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों का छोटा सा समूह है जो मानते हैं कि सरकारों, व्यापारिक घरानों और अन्य संस्थाओं की धोखाधड़ी और सत्ता के दुरुपयोगों को उजागर करने के लिए जमा हुए हैं। वे खोजी पत्रकारिता की नैतिक शक्तियों का इस्तमाल कर ग़लत चीज़ों को सामने लाना चाहते हैं। ठह साल के छोटे से जीवन में इस पोर्टल को दो दो पुलित्ज़र पुरस्कार मिल चुके हैं।
Journalism in the Public Interest प्रो पब्लिका के बारे में मुझे हाल ही में पता चला। छह साल से यह पोर्टल वजूद में है। इसका दावा है कि यह जनहित में खोजी पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों का छोटा सा समूह है जो मानते हैं कि सरकारों, व्यापारिक घरानों और अन्य संस्थाओं की धोखाधड़ी और सत्ता के दुरुपयोगों को उजागर करने के लिए जमा हुए हैं। वे खोजी पत्रकारिता की नैतिक शक्तियों का इस्तमाल कर ग़लत चीज़ों को सामने लाना चाहते हैं। ठह साल के छोटे से जीवन में इस पोर्टल को दो दो पुलित्ज़र पुरस्कार मिल चुके हैं।
प्रो पब्लिका का दावा है कि वह एक
स्वतंत्र और गैर मुनाफ़ा कमाने वाला न्यूज़रूम है जो जनहित में खोजी पत्रकारिता
करता है। मैं आपकी सुविधा के लिए इसकी साइट पर उपलब्ध जानकारियों का तर्जुमा कर
रहा हूं। इनका कहना है कि खोजी पत्रकारिता ख़तरे में है। कई न्यूज़ संगठन अब इसे
लग्ज़री यानी विलासिता मानने लगे हैं। समय और बजट के कारण सामान्य बीट पर लगे
पत्रकारों से भी यह काम कराया जाने लगा है। खोजी पत्रकार संसाधनों की कमी का सामना
कर रहे हैं। इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि
पत्रकारिता के महान उद्देश्यों को बरकरार रखने के लिए नए माडल की खोज की जाए। प्रो
पब्लिका की स्थापना द वाल स्ट्रीट जर्नल के पूर्व प्रबंध संपादक पॉल स्टिगर और दि
ओरेगोनियन के पूर्व प्रबंध संपादक स्टीफन एंगेलबर्ग,दि न्यूयार्क टाइम्स के पूर्व खोजी संपादक सहित
कुछ लोगों ने मिलकर की थी। मैनहट्टन में इसका मुख्यालय है और जून २००८ से इस
पोर्टल ने अपना काम छापना शुरू किया है।
इनका कहना है कि सही है कि इंटरनेट के
युग में कई प्रकार के मीडिया संस्थान खुल गए हैं मगर बहुत कम ही मौलिक रिपोर्टिंग
का काम कर रहे हैं। यह भी देखने में आ रहा है कि जनमत तो फैल रहा है, यानी आप
हिन्दुस्तान के लिहाज़ से यूं समझिये कि टीवी पर डिबेट तो बढ़ गया है मगर उन
तथ्यों के सोर्स सिकुड़ते जा रहे हैं जिनपर जनमत टिका होता है। मतलब जानकारी नहीं
होगी तो जनमत खोखला ही होगा न।
इसी चुनौती का सामना करने के लिए
प्रोपब्लिका का जन्म हुआ। विकीपीडिया में देख रहा था कि नब्बे से ज़्यादा
न्यूज़संगठन इसके कंटेंट का इस्तमाल करते हैं। यह पढ़ते हुए लगा कि खोजी
पत्रकारिता संसाधनों की कमी के कारण नहीं सिकुड़ रही है बल्कि अरबों रुपये के
कारोबार वाले न्यूज़ संगठन इसका जोखिम ही नहीं लेना चाहते। बड़े बड़े बिजनेस
साम्राज्य जिनका होटल से लेकर फोन और अस्पताल के धंधे में हाथ लगा है वो मीडिया
संस्थान के मालिक हैं। वो क्यों ऐसी पत्रकारिता को बढ़ावा देंगे जिसके कारण उनका कोई
न कोई धंधा प्रभावित होता हो। अगर रिपोर्टर रखने के खर्चे की बात है तो जो खोजी
पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं उनके काम और समय का भी मूल्यांकन करना चाहिए। किसी
संस्थान को लाभ किससे होता है। रूटीन खबरों से या खोजी एक्सक्लूसिव खबरों से। इसका
जवाब दो मिनट में कोई बुद्धु संपादक भी दे देगा मगर खोजी पत्रकारिता पर लेकर कई
तरह की दलील देने लगेगा। ये और बात है कि वो कभी नही कह पाएगा कि कंपनी ही ऐसा
चाहती है। अब करें क्या पत्रकार होने के नाते सारी नैतिक ठेकेदारी अपने सर पर लिये
फिरेंगे तो ऐसे सवालों पर चुप रहना ही होगा। तो मूल बात है कि कोई और पत्रकारिता
कर दे और हम उस पर लेकर बहस कर देंगे और आप देखकर खुश हो जायेंगे। यह तो सोचेंगे नहीं कि आपके घर में जो अखबार या केबल आ रहा है उसे बंद भी कर देना चाहिए। ऊपर से
जागरूक उपभोक्ता और दर्शका का बैज लगाकर इंटरनेट पर घूमते रहेंगे।
खैर आपसे गुज़ारिश है कि प्रो पब्लिका
के माडल को देखिये। ये संगठन लोगों के चंदे से भी चलता है। कुछ संगठन जिन्हें
अंग्रेजी में फाउंडेशन कहते हैं इसे पैसा देते हैं। हिन्दुस्तान में भी इस तरह के
प्रयोग हो रहे हैं। कोबरा पोस्ट जब खोजी पत्रकारिता करता है तो बाकी जगहों पर खबर
बनती है। अब इन लोगों को भी धीरे धीरे आम मीडिया में स्पेस कम मिलेगी। जल्दी ही
इन्हें पागल मूर्तिभंजक करार दे दिया जाएगा। हाल ही में आजतक, तहलका और
हेडलाइन्स टुडे में रह चुके आशीष खेतान ने गुलेल डाट काम के नाम से खोजी
पत्रकारिता के लिए अपनी एक साइट लांच की है। http://gulail.com क्लिक करते ही आपको मालेगांव से लेकर
तमाम धमाकों में गिरफ्तार मुस्लिम युवकों के पीछे हुए खतरनाक फर्ज़ीवाड़े का
खुलासा मिलेगा। आशीष खेतान ने तहलका में रहते हुए भी इसी तरह की रिपोर्टिंग की है।
इस साइट के फंड के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है।
तो अगर आप अच्छी और क्रांतिकारी
पत्रकारिता चाहते हैं जो सही में साहसिक हो तो आपको ही इसका खर्चा उठाना पड़ेगा।
ज़रा महीने महीने बर्बाद कर रहे अपने पांच सौ रुपये का सही इस्तमाल कीजिए।
प्रोपब्लिका को ही मदद कीजिए ताकि वही यहां पर कुछ कर सकें। यहां जो लोग कर रहे
हैं उनकी साख और ईमानदारी से संतुष्ट होने के बाद रद्दी में बेचने के लिए जमा हो
रहे अखबार के पैसे वहां दे ताकि पत्रकारिता का कोई जनमाडल खड़ा हो सके।
वर्ना एक काम कीजिए। उम्मीद करना बंद
कर दीजिए। जो मिल रहा है पढ़िये और सो जाइये। पकाइये मत। आप अपनी सही और सख्त
आलोचनाओं को जाया कर रहे हैं। मैंने देखा है इनका कम ही असर होता है। ऐसी बात नहीं
है कि मुख्यधारा के अखबारों ने अच्छी पत्रकारिता नहीं की है लेकिन कुछ तो है कि
कहीं एक रूक जाता है तो कहीं दूसरा। आज के अखबारों को आप देखें खासकर अंग्रेजी के
तो वो टीवी की तुलना में कई गुना बेहतर हैं। सवाल है कि आप एक मजबूर ग्राहक हैं।
ये बात आप मानेंगे नहीं। क्योंकि एक बार आपने सब्सक्रिप्शन ले लिया तो पीढ़ियों तक
चलता है। हर संस्थान में अपवाद स्वरूप अच्छे पत्रकार हैं। इतनी भी निराशा नहीं है
मगर एक नया माडल बनाना है या सिस्टम की तरफ देखना है तो प्रो पब्लिका के माडल को
देख सकते हैं। कम से कम जानना भी तो दिलचस्प होता है।
note- अगर आपके पास आईफोन है तो आप प्रोपब्लिका के एप्स को डाउनलोड कर सकते हैं।
Thank you.
ReplyDeleteye sab doctor samaira ne likha hai thik hai par hum tweeps ka kya jo ap dono ke tweets ke liye the waha ,hamari koi kadar nhi kya hum kuch bhi nhi ravish je apke liye परंतु, सेवा पर आधारित आचरण और जन कल्याण से प्रेरित होकर किए गए किसी भी कार्य में किसी नकारात्मक पहलू की तलाश नहीं की जा सकती। यही कारण है कि करुणा और सेवा को उच्च प्राथमिकता देना मानव जाति की सबसे बड़ी सेवा है और ये सब उनका ही नहीं मानना है कुछ लाइन इसमे मेरी भी है ! एक बात तो बताना भूल ही गयी आपको अगर सीधा सच्चा और महामानव को देखने का मन करे तो मेरे स्टार (रविश कुमार ) को देख सकते हैं और हा ये मेरी अपनी राय है जो आपके राय के मुहताज नहीं तो अपनी राय
ReplyDeleteघुसेड के राय का रायता ना करिए वर्ना आपकी बारात निकल जाएगी ,शुक्रिया !!
is lekh se do movies yaad aa rahi hai:)ajab hai par sach hai:( ek julia roberts ki jismain vah ek khoji patrakar hoti hai aur dusri 007 bond:) aage se news bante hai-sorry dono ke hi naam nahin pata aadhe se dekhi thi
ReplyDeleterahi baat republica ki--public ho ya pro public--bharosa utna hi hota hai jitna koi crowd par...but
I am sure agar aap ne recomand kiya hai to jarur qality se samjhouta nahin hoga :)
रोचक, अभी डाउनलोड करते हैं।
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