कुछ फिल्में होती हैं जो साधारण सी लगने के बाद भी अपने चंद दृश्यों से असाधारण बन जाती हैं। मटरू की बिजली का मंडोला एक ऐसी फिल्म है जिसे हम उदारीकरण की आलोचना के साहसिक फ्रेम से बाहर निकल कर भी देख सकते हैं। तब जब एक फिल्मकार अपने कैमरे से उन दृश्यों को रच देता है जो हमारे अंतर्विरोधों को सहलाने लगते हैं। पंकज कपूर का किरदार जब शबाना आज़मी के साथ अपने सपने को बयां करने लगता है तब विशाल भारद्वाज का सिनेमा सचमुच कलात्मक अभिव्यक्ति की ऊंचाई को स्पर्श करने लगता है। मंडोला अपने ख्वाब का एक ऐसा संसार रचने लगता है जिसे सिनेमा के आम दर्शक की मनोवृत्ति से आप स्वीकार नहीं कर पाते। कई लोगों को उस प्रसंग पर सिनेमा हाल में भकुआए यानी भौंचक्क देखा। जब पंकज कपूर अपने सपने को बयां कर रहे होते हैं औऱ पर्दे पर दैत्याकार मशीने चलने लगती हैं, बड़ी बड़ी चिमनियों से धुआं फैलकर आसमान में छाने लगता है। विशालकाय क्रेन घूमने लगती हैं। खेती की ज़मीन बड़े बड़े गड्ढे में बदल जाती है जिसे विशालकाय इमारतों की बुनियाद से भरा जा रहा है। विशाल अपने बादलों को कथार्सिस के रूप से में रच देते हैं। वो सामान्य बादल नहीं हैं। शबाना को मंडोला के सपने में झूम जाना और फिर बादलों का बरसना। एक दर्शक के रूप में जैसे ही मंडोला के सपने में खो कर सहमने का मन करता है, बादल बरस जाते हैं और रोने कोई और लगता है। दरअसल किसान के पास सपने भी नहीं हैं। वही बादल जो बरस कर उसकी फसलों को लहलहा देते हैं,दूसरी बार बरस कर इस तरह से बर्बाद कर देते हैं कि उसका माओ के नेतृत्व से भरोसा ही उठ जाता है। तब लगता है कि मंडोला ठीक ही इस सपने की शुरूआत कुछ इस तरह से करता है कि जब भी मैं इन बदसूरत खेतों में बदमस्त फसलों को लहलहाते देखता हूं.....
फिल्म ऊब भी पैदा करती है। यूएफओ वाली ऊब। लेकिन बिना FARCE और BIZZAR प्रसंगों के इस विषय को कैसे डील किया जा सकता था। विशाल शायद वही कर रहे हैं। भूमि अधिग्रहण की समस्या को मीडिया जिस तरह से देखता है एक फिल्मकार उसके विद्रूप को पेश करने के लिए और क्या कर सकता था। रिपोर्टर पल्प टेलीविजन का लिलपोर्टर लगता है। वो एक हवाई दुर्घटना को यूएफओ समझाने लगता है। मैं कई बार सोचता रहा कि विशाल भारद्वाज जैसा प्रतिभाशाली निर्देशक क्या सोच रहा होगा, इस कमज़ोर से लगने वाले दृश्य को रचने के लिए । शायद विशाल ऐसे प्रसंगों और विकास में मीडिया के अंधविश्वास को दिखाने के लिए मौजूद सभी फ्रेम से बाहर निकल जाना चाहते थे । बार बार लगा कि रात में हवाई जहाज़ उड़ाने का प्रसंग किसी घटिया लाफ्टर चैलेंज का लतीफा है जिसे देखते हाल से बाहर जाने की बेचैनी होने लगती है मगर जिस तरह से हम विकास को लेकर सोचने लगे हैं उसमें यूएफओ वाला भाव तो है ही। वर्ना दूसरा भाव है जो आलोचना तो करता है मगर विकल्प नहीं दे पाता।
यह दूसरा भाव है जब भैंसे माओ माओ बोलने लगती हैं। यहां विशाल भारद्वाज सिर्फ उदारीकरण के आलोचक की भूमिका से निकल कर इसकी आलोचना की कापीराइट रखने वाले कम्युनिस्ट आंदोलनों की नाकामी को भी रच देते हैं। उनके पास जो समझ है उसके फ्रेम में माओ किसी दूत से कम नहीं है। वो एक रहस्यमयी दूत है जो आकाशवाणी से उतरता है और अपने फरमानों के साथ पेड़ पर लहरा रहा होता है। माओ अपनी बात किसी और से बुलवा रहा है। मधुमक्खी वाले प्रसंग को दोबारा से देखिये। मटरू लाल रूमाल में चेहरा छुपाए हैं और नसीबन बोल रही है। मटरू जो भी बोलता है नसीबन दोहराने लगती है। क्या हमारे कम्युनिस्ट नसीबन हैं? क्या उनकी उपलब्धि और गंभीरता नसीबन की हैरानी वाले भाव से कुछ ज्यादा नहीं कि चल इस टोली में शामिल होते हैं और देखते हैं कि अब क्या होगा। लेकिन एक बारिश और गेंहूं की बर्बादी से माओ का भूत उतर जाता है। जेएनयू में बीड़ी पीने का संस्मरण और कम्युनिस्ट होने का ख्याल शक्ति भोग के दफ्तर के भीतर एक्टिविज्म के तमाम अनुभवों पर सवाल करता है। विशाल के पास कोई जवाब नहीं है इसलिए वो हर सवाल को हास्य प्रसंग में बदल देते हैं। हंसो और देखो की ये हमारी समस्या है और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं।
तभी वो मंडोला के भीतर ही कम्युनिस्ट ढूंढने की संभावना को तलाशने लगते हैं। क्या ऐसा हो सकता है कि कभी उद्योगपति ही कम्युनिस्ट जैसा हो जाए। वो किस स्थिति में ऐसा हो सकता है और होगा भी तो कैसा लगेगा, इस पहलु के बारे में विशाल ने ज़रूर सोचा होगा तभी गुलाबो की कल्पना साकार होती है। नशे में ही कोई उद्योगपति कम्युनिस्ट ख्याल का हो सकता है, होश आते ही वो सपना देखने लगता है। माल का सपना, बड़ी इमारतों और फैक्ट्रियों का सपना। भैंस का गुलाबी होना उस ख्वाब के गुलाबी होने जैसा है जो कभी हकीकत में होगा नहीं। सेज़ स्पेशल इकोनोमिक ज़ोन की कथा और उत्तर कथा को विशाल हर तरह के फ्रेम से बाहर निकाल कर एक हवेली की बालकनी में पटक देना चाहते हैं। मंडोला की बिजली और अफ्रीका से लाए गए गुलाम। कई बार लगेगा कि इनका क्या रोल है। पर विकास के नाम पर जिस तरह अनाप शनाप आइडिया लाये जा रहे हैं जिनका हमारी हकीकत से कोई लेना देना नहीं है,उसे पेश करने के लिए एक अच्छी तरीका था। दर्शकों को पसंद आया कि नहीं यह अलग मसला है।
हर किरदार अपनी स्थिति में फंसा हुआ है। शराब ही है जो हर किरदार को फंसी हुई स्थिति से निकालती है। हमारे गांव और किसान भी फंसे हुए हैं जो कभी निकल नहीं पाते हैं। अपनी ज़मीन हार ही जाते हैं। तब शायद शेक्सपीयर बचाव में आते हैं। मार्क्स नहीं। शायद वो मेरठ का स्वीमिंग पुल है। अगर है तो उसे मैंने भी शूट किया है । फिर भी उस स्वीमिंग पुल के भीतर मटरू और बिजली के बीच जो कुछ भी होता है, वो आर्तनाद है। अंतर्मन की चित्कार। हमारा प्रेम भी आर्थिक नीतियों के बीच घट रहा है और फंसा हुआ है। इसीलिए फिल्म ऊब पैदा करती होगी। क्योंकि कहानी सीधे सपाट फ्रेम वर्क की नहीं है। हीरो है जो हीरो की तरह नहीं है। तभी तो मंडोला बार बार कहता है मैं जैसा दिखता हूं वैसे हूं नहीं। इसमें कोई हीरो नहीं, कोई खलनायक नहीं है।
हां जब रात को किसान गोबर बम बनाकर हमला करते हैं तब वो सीन जीत के भाव से भर देती है। विशाल अंत अंत तक उनकी एकता पर ही भरोसा करते हैं। वो एक होकर अपनी जमीन हार जाते हैं और वो एक होकर अपनी ज़मीन जीत भी लेते हैं। गोबर बम से हमले का दृश्य वो क्रिटिक है जिसे मुख्य धारा की मीडिया भी पेश नहीं कर पाई। दरअसल मुख्यधारा की मीडिया ने कभी उदारीकरण पर इस तरह से सवाल ही नहीं किया है। सिनेमा कर रहा है जिसे आप शंघाई में भी देख सकते हैं और जिसे आप कई अन्य फिल्मों में भी देख सकते हैं।
यह फिल्म भी राजनीतिक है। वर्ना शबाना आज़मी यह न कहती कि मेरे सपनों का लोकपाल। क्या दृश्य और संवाद अनायास आया? दिल्ली में तुम्हारी गर्लफ्रैंड है, बिजली के इस सवाल पर मटरू का जवाब अनायास आ गया कि शीला दीक्षित है, मैंने शेक्सपीयर को पढ़ा ही नहीं तो मालूम नहीं कि उनकी कथाओं का क्या योगदान है और कैसे उन कथाओं का फिल्म में रूपांतरण किया गया है पर जब मंडोला नेता जनता जनता नेता,नेता जनता, जनता जनता, नेता नेता का खेल खेलने लगते हैं तो दहाड़ मार कर रोने का मन करता है। शबाना का वो संवाद याद आ जाता है कि देश की प्रगति की बात करो। अपनी बात मत करो। जबकि देश की प्रगति शबाना और मंडोला के क्रूर सपनों के बीच कहीं फंसी हुई है। जिससे कभी नेता खेलता है तो कभी नेता के साथ जनता खेलती है। इसीलिए मटरू की बिजली का मंडोला साधारण होते हुए भी असाधारण फिल्म है। मुझे लगी जिन्हें बकवास लगी वो अभी नेता जनता जनता नेता खेल रहे हैं, उनके इरादे का सम्मान किया जाना चाहिए और एक फिल्मकार को यह छूट देनी चाहिए कि वो हर आलोचना को पहले से तय विचारधारा के पैमानों से नहीं दर्शाएगा, बल्कि उसे नई ज़मीन खोजने की तड़प में ड्राई डे के दिन लिमोज़िने से दारू के ठेके को धक्का मारना ही होगा। तभी वो शराब और बैंड बाजे के साथ उन फ्रेम या सांचे से मुक्त होने का जश्न मना सकेगा जिसमें हम सब कैद हैं। जिन लोगों ने मटरू की बिजली का मंडोला नहीं देखा या नहीं झेला उनका शुक्रिया। विशाल भारद्वाज की यह सबसे अच्छी फिल्म है।
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ReplyDeletelagta hai ab matru ki bizli aur uska mandola dono he dekhne padenge...
ReplyDeleteAapne bahencho-bahencho ka jikra nahi kiya.kan me ye vishal-vishal sa lag raha tha.
ReplyDeleteAur andhe ladke se media ka sakshatkar bhi TRP grasit media ki jhalak thi
sir kal main jab ye picture dekh ke haal se nikla to dimaag mein bas ek hi cheej chal rahi thi...kya humein insaan hone ke liye nashe ka sahaara lena hi padega...gulabo jaagti aankhon ko nahi dikhegi kabhi?
ReplyDeleteआज देखने जा रहे हैं। समझने में आसानी होगी। शुक्रिया।
ReplyDeleteसपना जब हकीकत बनता है तो उस हकीकत में कुछ सपने और दिखने लगते है, जो ऊट-पटांग भी हो सकते है।
ReplyDeleteAapki izzat aaj aur badh gayi. Film ke har drashya ka kitni baariki se adhyayan kiya aur phir use vartman paristhitiyo se aise jodna aap jaisa darshnik hi kar sakta hai. I agree film ka bahot hi strong scene tha mandola ke sapno ka drasyankan. Man ko bheetar tak jhakjhora hai is scene aur is film ne. Sochne ko majboor kzr diya ki udarikaran ke labh se ek taraf hum jaise IT professionals ki tarakki to hui par sikke ka doosra pahlu to sab nazarandaaz kar rahe hain jo bharat ko bheetar se khokhla kar raha hai. Hum us ped ko apne hi hatho se kat rahe hain jispe hum swayam baithe hain..
ReplyDeleteRavishji, thank you for the wonderful review. I had much the same thoughts as you did about critique, and our politics and economy. however, 1) as cinema, the film leaves a lot to be desired--none of the characters are fleshed out, there is no before or after, but only a series of gags; and 2) matru's defeat, or the defeat of his politics after the rains is quickly forgotten in favor of the victory of his love, where even the villagers--having lost their land--join in support. the basic characters of the film have been inspired by Brecht's play 'Mr Puntilla and...', but i feel the subtleties of class and borders between them have been missed, or if attempted, do not quite emerge. I'm no communist (though of course, we all are), but strange that Mandola defeats the project out of love for his daughter, even as one sees every day the policing of caste, creed, class around us. This fantasyland of love is much closer to the bollywood dreams than our unrequited ones.
ReplyDeleteLagta hai yeh bhi shanghai jaisi film hai jahan hamesha lagta hai ki sab aas-paas ho raha hai aur hum usi mein jee rahe hsin
ReplyDeleteJindgi itni aasan b nhi hai, chahe wo kisan ki ho,aam aadmi ki ho, rajneta ki ya fir udyogpati ki..yahi darshata hai ye chal chitra.. Jaha tak aalochako ka sawal hai unhe manoranjan ki dristi par ye chalcthitra acchi nhi lagegi.. Lekin iska ek pahlu aut b hai ki samaj k nirman me cinema ka mahatva manoranjan aur munni ko badnaam karna nhi.. Isse upar k cinema ko aage badhane ki jarurat hai.. Yahi ek acchi pesKas hai jo vyangatmak tarike se samaj k har varg ka mahatv kansha aur dard ko dikhata hai..
ReplyDeleteSir ab to dekhna pre ga
ReplyDeletesab communisto ke piche kyu pade h..
ReplyDeleteis blog ke liye aapka bahut bahut dhanyavaad.......mujhe bhi yeh movie utni hi pasand aayi jitni aapko....ise share kar raha hooon jisse kuch log aur prerit ho sake is tarah ke cinema ki aur.....
ReplyDeleteजैसा मैने कहा था, आज देखी। आपने बहुत सुलझे ढंग से समीक्षा की है। विशाल जी ने आज के ज्वलन्त मुद्दों को बहुत अच्छे से उठाया है। किसान हर तरफ़ से दबा हुआ है। कुदरत से, आडती से, साहूकार स्, इन्डस्ट्रियलिस्ट से और सरकार से। नक्सलवाद इसीलिए पनप रहा है जिसे हमारे जवान सबसे ज्यादा भुगत रहे हैं। "लूटनेवाले" गाना सबसे अच्छा लगा। एक बार फ़िर शुक्रिया।
ReplyDeleteआज ही देखकर आये, भाव बिटिया के लिये ही जगे, नशे का उदारीकरण रोचक लगा..
ReplyDeleteफसल न बिकने के कारण 'माओ' मटरू जब अपने 'पूंजीवादी' दोस्त से मदद मांगता है ताकि उनके गेहूं को ऑस्ट्रेलिया निर्यात किया जा सके , क्या यह सीन हमारे आज के आर्थिक समावेश को सुलझाने का एक उपाय बताता है? लेफ्ट और राईट का 'मिडिल पाथ '. परस्पर फायदे का रास्ता ? या महज नाकाम हुए हौसले के बाद किसानो की मजबूरी ?
ReplyDeleteदूसरा , मधुमक्खी वाले सीन के बाद जब शबाना अपने बेटे को मरहम लगाते हुए कहती है की वह राहुल , सचिन या ज्योतिरादित्य की तरह क्यों नहीं है ? इतना लापरवाह क्यों है ? सीन तो समझ में आया , मगर रवीश जी ,अगर समय मिले तो आपकी विशेष टिप्पणी चाहूँगा ।
Oye Boy Charlie! Oye Boy Charlie....Tune Dil Ki Baazi Maar Li...
ReplyDeleteCritc In Bhardwaj's Movie Style..
कुछ खास हो या न हो.... पर धूम्रपान करने वालों को तो नसीहत देती ही है फिल्म...
ReplyDeleteसिगरेट के धुएं से फेफड़े जल जाएंगे,
खामखा, जिंदगी के कुछ साल गल जाएंगे।।
Ravish maine bhi ....matru....dekha mujhe achhi lagi.......:-)
ReplyDeleteRabish ji Movi dekne ka time kaise nikaal lete h?
ReplyDeleteआज जब धेक के आया तो सोचा क्या लिखूं, मे खुच लिख ही रहा था की आपका ब्लॉग क्लिक कर दिया, अब लिखने की ज़रूरत नही जो मेरे फ़ेसबुक पे रिव्यू पूछेंगे तो आपका ही लिखित सनसकरण पोस्ट कर दूँगा, उमीद है की आपको कोई आपाती नही होगी, पड़ने मे मज़ा आया और यह बोध भी हुआ की सच मे गुलाबो के भ्रम से निकल पाएँगे कभी.
ReplyDeleteसुक्रिया.
sir can i expect an answer that why does neither good actors nor good movies run in India?
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ReplyDeleteConsumer Court
Ravish Ji Thoda Blog Ko Stylish Bana yi ye. Blog Thoda Clasic Dikhata he...
ReplyDeletefilm dekh kar itna nhi samaj paye the lekin aap ne hamari soch ko ek naya aayam diya hai....
ReplyDeletefilm dekh kar itna nhi samaj paye the lekin aap ne hamari soch ko ek naya aayam diya hai....
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