क्या सोशल मीडिया नए विपक्ष के रूप में देखा जाने लगा है? राजनीतिक प्रबंधन में सोशल मीडिया क्यों
महत्वपूर्ण होने लगा है? इस पर बन रहे
जनमत से हमेशा कांग्रेस ही क्यों दबाव में आती दिख रही है? नीतीश,अखिलेश,नवीन पटनायक,करुणानिधि,ममता बनर्जी
या राज ठाकरे की राजनीति के लिए क्यों महत्वपूर्ण नहीं है। सिर्फ कांग्रेस या
बीजेपी के हिसाब से ही क्यों सोशल मीडिया के मैदान में घमासान के नतीजे का
मूल्यांकन किया जाता है। क्यों कांग्रेस को ही जयपुर के चिंतन शिविर में सोशल
मीडिया के प्रभाव और इस्तमाल जैसे मुद्दे पर चिंतन करना पड़ रहा है? देश में कंप्यूटर लाने का श्रेय लेने वाली
कांग्रेस आज इंटरनेट पर पसरे सोशल मीडिया के तंत्र को लेकर कभी भयभीत तो कभी दंभी
तो कभी अजनबी क्यों नज़र आती है? क्या सचमुच
कांग्रेस सोशल मीडिया को एक नए लोकक्षेत्र के रूप में देखना चाहती है? लेकिन क्या सोशल मीडिया पर कोई जनभावना ही नहीं
है जिसे कोई भी राजनीतिक दल नकार दे। कोई नकारे भी न तो अरबों लोगों में फैले
फेसबुक और ट्विटर अकांउट का पीछा कोई राजनीतिक दल कैसे कर सकता है। पीछा का मतलब
नियंत्रण से नहीं है। पीछा का मतलब वहां मौजूद जनभावनाओं को राजनीतिक रूप से समझने
में हैं।
एक मिनट के लिए मान लीजिए कि सोशल मीडिया न होता तो बाकी
जनता से संवाद करने का मौजूदा तरीका सही है? क्या
कांग्रेस शहरी मतदाताओं की उन आकांक्षाओं को सही समय पर समझ पा रही है जिसकी
नाकामी की ज़िम्मेदारी वो सोशल मीडियो को ना समझ पाने की अपनी चूक पर डाल रही है।
अन्ना आंदोलन हो या दिल्ली गैंगरेप के बाद रायसीना हिल्स पर पहुंचे लोगों का हुजूम
ये सब सिर्फ सोशल मीडिया की पैदाइश नहीं हैं। इसके अपने राजनीतिक आर्थिक कारण भी
हैं। इससे पहले मुंबई हमले के बाद लाखों लोगों की रैली हुई थी तब सोशल मीडिया नहीं
था। आज भी देश में कई राजनीतिक रैलियां और लड़ाइयां बिना सोशल मीडिया के हो रहे
हैं। तमिलनाडु के परमाणु संयंत्र का मामला हो या फिर फिर पिछले अक्तूबर में
ग्वालियर से दिल्ली आ रहे किसानों का सत्याग्रह मार्च हो। इन आंदोलनों में भी
जनभावना है लेकिन उसे सोशल मीडिया व्यक्त कर रहा है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्रेस के नेता संवाद करने के पुराने
ढर्रे पर ही चल रहे हैं। इसीलिए मीडिया पर मंत्रियों का बना एक औपचारिक समूह ही
सबसे उपयुक्त और भारीभरकम मान लिया गया है। अब पार्टी को समझना चाहिए कि औपचारिक
प्रेस कांफ्रेंस से ही एजेंडा तय नहीं होता। इसमें शामिल मंत्रियों को अनौपचारिक
रूप से भी जनता से सीधे संवाद करना चाहिए। यह वो जनता है जो अपनी ताकत से न्यूज
चैनलों के न्यूजरूम को ध्वस्त कर चुकी है। आज संपादक अपनी खबर को ट्विटर और फेसबुक
पर चल रहे जनउभार के हिसाब से मोड़ने लगे हैं। जब गैंगरेप मामले में जन आंदोलन उभार
पर था तभी सचिन तेंदुलकर के संयास लेने की खबर आ गई। तब सोशल मीडिया पर हंगामा मच
गया कि सरकार की तरफ से ये योजना होगी ताकि न्यूज़ चैनल गैंगरेप की स्टोरी को छोड़
सचिन की महानता के गुन गाने लगे। संपादकों को ट्विटर पर जाकर कहना पड़ा कि हम सचिन
की स्टोरी की कीमत पर गैंगरेप की स्टोरी नहीं छोड़ेंगे। अब यह पत्रकारिता के लिए
भी मसला है कि सोशल मीडिया की भीड़ इसी तरह ऐसे किसी मुद्दे पर दनदनाती हुई उसके
न्यूजरूम में घुसकर मांग करने लगे जो खतरनाक हो तब वो कैसे खड़ी होगी। पूरी तरह से
नकारेगी या कोई रास्ता निकाल कर उसे आवाज़ देगी। अभी इसका इम्तहान नहीं हुआ मगर
होना बाकी है।
सोशल मीडिया राजनीतिक रूप से एक ऐसा मैदान है
जहां किरदारों और मुद्दों की विविधता है। यह वो लोग हैं जो सरकार से बेहतर
प्रदर्शन, पारदर्शिता और संवाद की उम्मीद करते हैं। यह वो
लोग हैं जो अब नहीं समझना चाहते हैं कि एक योजना को पूरी तरह से लागू होने में
कितने साल लगेंगे। ये हाई स्कूल में नब्बे फीसदी लाकर अच्छा कालेज नहीं पाते हैं
तो आप इन्हें नहीं समझा सकते कि सरकार पांच फीसदी के ग्रोथ रेट पर चलती हुई महान
कहला सकती है। मध्यमवर्ग की एक बड़ी आबादी अपनी मेहनत का खाती है। उसकी कमाई में
सैलरी का हिस्सा है रिश्वत का नहीं। ये टैक्स देती है। बदले में बेहतर काम मांगती
है। जब सिस्टम काम करेगा तो जनता से अपने आप संवाद होता रहेगा। जब सिस्टम काम नहीं
करेगा तो सारे मंत्रियों के ट्विटर पर अकाउंट खोलने से सोशल मीडिय नहीं साधा जा
सकता। आखिर प्रधानमंत्री के ट्विटर पर आ जाने से सोशल मीडिया में मौजूद उनकी छवि
में कोई बदलाव आया? नहीं।
कांग्रेस के लिए जो राजनीतिक रूप से समझने वाली
बात है वो ये कि बेहतर काम का प्रदर्शन और फिर तरीके से संवाद। उसे इस संकोच से
निकलना होगा कि सरकार सिर्फ औपचारिक ज़बान में ही बात करती है। वो दिग्विजय सिंह
जैसे नेताओं के ज़रिये समानांतर संवाद का मंच तैयार कर नतीजा नहीं पा सकती। उसे
समझना होगा कि सोशल मीडिया पर प्रबंधन की ज़रूरत नहीं है। वहां भी उसके लिए
राजनीति का पुराना मैदान ही है। कांग्रेस सोशल
मीडिया पर संगठित रूप से हावी दक्षिणपंथियों के मुकाबले कमज़ोर है। जिसे आप हिन्दू
इंटरनेट कह लें या अलग अलग समूह में बंटे किसी नाम से पुकार लें। यह वो तबका है जो
उन कमज़ोर नब्ज़ों पर मीडिया की गर्दन भी दबोच लेता है जिस पर मीडिया और सरकार
दोनों चुप्प रह कर निकल जाना चाहते हैं। हैदराबाद में अकबरूद्दीन ओवैसी का मामला देखिये।
कांग्रेस ने अपनी तरफ से क्यों नहीं ओवैसी के बयान को खतरनाक बताते ही कार्रवाई की
बात की। वो क्यों सोशल मीडिया से होते हुए मीडिया के माइक के आने का इंतज़ार करती
रही। गिरफ्तारी के बाद सोशल मीडिया का यह सांप्रदायिक और दक्षिणपंथी गुट गायब हो
गया। राजठाकरे और वरुण गांधी के सवालों पर चुप्पी मार गया। लेकिन इस सवाल को उठाने
वाले कई तटस्थ लोग भी थे जो सही सवाल कर रहे थे कि कोई ऐसे कैसे बोल सकता है। क्या
कांग्रेस उनकी भी चिंता कर रही थी।
कांग्रेस की वेबसाइट देखिये। कांग्रेस के
नेताओं के कालम में गया तो सोनिया गांधी का ही चार साल पुराना भाषण पड़ा था।
पार्टी की वेबसाइट नीरस और सरकारी नहीं हो सकती। वहां संवाद का क्या जरिया है।
कांग्रेस के नेता टीवी की बहसों से गायब हैं। उसे समझना होगा कि टीवी की बहस भी सोशल
मीडिया का ही विस्तार है। वहां जाने की कोई तैयारी नहीं है। बीजेपी के नेता तैयार
होकर आते हैं तो इसमें सोशल मीडिया की क्या गलती है। कांग्रेस के बड़े मंत्री
हिन्दी स्टुडियो से दूरी रखते हैं। यह भी पता होना चाहिए कि इस देश का मध्यमवर्ग
अब दुभाषिया है। वो काम अंग्रेजी में करता है लेकिन संवाद हिन्दी में। वर्ना
अंग्रेजी के चैनलों के दर्शकों की संख्या कुछ हज़ार में नहीं होती। इसके बाद भी
कोई दल सोशल मीडिया को हौव्वा न बनाए। इसकी अपनी राजनीति भी कई मायनों में ताकतवर
है तो संदिग्घ भी है।
(यह लेख आज के राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है)