यह साल स्पीड न्यूज़ और बक्साबंद वक्तावृंद का काल रहा है। अन्ना आंदोलन ने दर्शकों को भी उत्तेजित किया तो स्क्रीन दड़बेनुमा बना दिए गए। बहसें होने लगीं। बहस मुंडियों को दिखाने के लिए स्क्रीन पर दस दस बक्से बनने लगे। याद कीजिए सालों पहले आजतक ने चुनावी कवरेज के दिन अपने रिपोर्टरों का बक्सा बनाया था। तब संवाददाता हीरो की तरह नज़र आए थे। फिर सभी चैनलों में ऐसे बक्से रिपोर्टरों के ही बने। अब रिपोर्टर टीवी और बक्से से गायब कर दिये गए। उनकी जगह वक्ता और प्रवक्ता आ गये हैं। वो झांक रहे हैं। जिस तरह स्क्रीन के दड़बे से मुंडियां झांक कर बोलने लगी हैं अगर ऐसे ही इसकी बारंबरता बढ़ी तो जल्दी ही वक्तावृंदों की बीबीयां फोन कर पूछने लगेंगी कि चुन्नू के पापा आपके चैनल में है या आजतक में हैं? वो निकले तो थे हेडलाइन्स टुडे के लिए मगर एनडीटीवी इंडिया में कैसे दिख रहे हैं। उनकी बेटियां फोन करेंगी कि रवीश, पापा आपके साथ हैं, जरा फोन दीजिएगा उनको। उनसे कहना है कि एनडीटीवी के बाद आजतक से होते हुए जब ज़ी स्टुडियो जायेंगे तो नोएडा के अट्टा मार्केट से मिक्सी का ग्राइंडर लेते आएंगें उसके बाद ही टाइम्स नाउ जाएं।
बहस बढ़ी तो वक्ता भी बढ़ाये गए। कुछ वक्ताओं ने इस फारमेट को गंभीरता से लिया। वो संजीदगी से आते रहें और दर्शकों तक अपनी बात पहुंचाते रहे। इनकी वजह से बहस का स्तर अच्छा भी हुआ। पार्टी प्रवक्ताओं की कमी पड़ी तो कुछ हारे हुए नेताओं को ढूंढा गया। एक चैनल ढूंढ कर लाया तो सबने चलाया। इस क्रम में कुछ वक्ता ढूंढे जाने के बाद भी जल्दी ही ग़ायब कर दिये गए क्योंकि वो अच्छे नहीं थे। फिर सांसदों को ढूंढा गया। यह एक सकारात्मक पक्ष रहा। नए सांसदों के आने से पता चला कि वो बोल सकते हैं और बेहतर भी हैं। कुछ वक्ताओं ने खुद से तय कर लिया कि वो दिन भी दो चैनल या दो बहस करेंगे तो कुछ ने इतनी उदारता दिखाई कि सुबह नौ बजे से लेकर रात के ग्यारह बजे तक बोलते ही रहते हैं। इस क्रम में एक और विकास हुआ। कुछ वक्ताओं के घर में टू एम बी लाइन लगा दी गई। यह तकनीकी चीज़ है। आप बस इतना समझिये कि ओबी वैन भेजने की जगह कुछ वक्ताओं के घर यह व्यवस्था कर दी गई कि वो बस अपने ड्राइंग रूम की कुर्सी में बैठ जायें और भाषण शुरू कर दें। कुछ ने अपनी हैसियत इस तरह से बढ़ाई कि वो स्टुडियों में नही जाते, ओबी वैन मांगते हैं। यह बड़े वक्ताओं के बीच हैसियत का लैंडमार्क बन गया है। कई वक्ताओं ने यह भी तय करने की कोशिश की है कि वो फलां के साथ नहीं बैठ सकते क्योंकि वो उनकी बराबरी के नहीं हैं। कुछ वक्ता अंग्रेजी चैनल में कुर्सी लगाकर बैठ जाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वहां क्लास है। काश कोई बताता कि अंग्रेजी चैनलों की दर्शक संख्या हज़ारों में होती है और हिन्दी चैनल के दर्शकों की संख्या लाखों में। फिर भी क्लास क्लास होता है इसलिए वो हिन्दी चैनल में जाना पसंद नहीं करते। पूरी प्रक्रिया में इमेज का भी खेल है। इसलिए कुछ तथाकथित बड़े वक्ता अंग्रेजी चैनल में नियमित हैं और कुछ तथाकथित छोटे वक्ता हिन्दी चैनल में नियमित हैं। मेरी राय में हिन्दी चैनल के वक्ताओं की हैसियत अंग्रेजी से काफी बड़ी है क्योंकि वो संख्या के लिहाज़ से ज्यादा लोगों तक पहुंचते हैं। एक स्थिति और है। नया वक्ता ढूंढ कर लाइये और वो कुछ दिनों बाद दूसरे चैनल पर ज्यादा दिखने लगता है। जो ढूंढ कर लाया है उसी को नहीं मिलता।
अब तो जिन लोगों की बाइट लेने हम पूरे शहर में दौड़ा करते थे वो हमारे एक स्टुडियो से निकल कर दूसरे स्टुडियों में भागते नज़र आते हैं। इसलिए गया गुज़रा साल टीवी में बाइट की मौत का साल था। जब तक रिपोर्टर बाइट लेकर ओबी वैन की तरफ दौड़ा आता है,तब तक बाइट देने वाला स्टुडियो में पहुंच चुका होता है या वहीं ओबी वैन पर बैठकर अपनी ऑडियो टेस्टिंग करवा रहा होता है। सारे वरिष्ठ संपादकों ने लेख लिखने बंद कर दिये और बोलने शुरू कर दिये। वो इस संकट से गुज़रने लगे कि स्टुडियो में जो बोल कर आये वही लिखे या कुछ नया। नया लिखें या जो सुन कर आयें हैं वो लिखें। कई रिपोर्टरों ने जुगाड़ निकाला। उन्होंने भी खुद को अपनी बीट का प्रवक्ता बना लिया। इससे यह होने लगा कि जब तक पार्टी के नेता जाम के कारण स्टुडियो नहीं पहुंच पाते, तब तक वो पार्टी की तरफ से बोलने लगे। इससे इन रिपोर्टरों ने खुद को स्क्रीन से गायब होने से बचा लिया और पार्टी के प्रवक्ताओं को भी कड़ी टक्कर देने लगे हैं। कई संपादकों ने अपने रिपोर्टरों को चमकते देख खुद को भी प्राक्सी के रूप में पेश कर दिया। तो इस साल पूरी लड़ाई स्क्रीन पर बने बक्से में खुद को भरने की रही। कमाल की बात यह रही कि विभिन्न क्षेत्रों से अलग अलग वक्ता ढूंढ कर निकाले गए। इस क्रम में प्रवक्ता की नई भूमिका बनी। प्रवक्ता सिर्फ पार्टी का ही नहीं होने लगा बल्कि मुद्दों का भी होने लगा। कई जानकार मुद्दों के प्रवक्ता के रूप में आने लगे। बुलाये जाने लगे। कुछ प्रवक्ताओं ने जानबूझ कर खुद को एक से अधिक मुद्दों का प्रवक्ता बनाए रखा ताकि उनकी पूछ बनी रहे। वो एक साथ क्रिकेट से लेकर राजनीति पर बोलने लगे तो कुछ संविधान से लेकर आंदोलनों पर। अखबारों में जो संपादकीय पन्ना था उसे टीवी ने टक्कर दी। खबर खत्म हो गई या कतरन बनकर स्पीड न्यूज़ की घराड़ी में घूमने लगी। स्पीड न्यूज़ ख़बरों की पेराई मशीन है। तेल निकल जा रहा है खबरों का।
यह साल मुद्दों और उत्तेजनाओं का साल था। अन्ना ने इतना उत्तेजित किया कि टीवी में हज़ारों की संख्या में इसी मुद्दे पर बहस आयोजित हुई। अब अगले साल उत्तेजित मुद्दों के अभाव में देखना होगा कि क्या होता है। फिलहाल मार्च तक तो ये बहस बक्से बने रहेंगे। बुद्धू बक्से को बहस बक्से में बदलने का काम कर गया साल। एक और बात है यह साल सवालों के खत्म होने का भी साल रहा। इससे पहले आपने देखा होगा कि हर मुद्दे के बाद न्यूज़ चैनल वाले कई सवाल पूछते थे। क्या सहवाग फार्म से बाहर हैं? क्या सहवाग थके हैं? क्या सहवाग डरे हैं? न्यूज़ चैनल की तरफ से पूछे जाने वाले पांच से पचीस सवाल अब बहस के सवाल बन गए। यहां भी इसकी मौत हो चुकी है। वो सिर्फ बक्से के ऊपर झालर की तरह लटका रहता है। जिसे दूसरे टिकर या दूसरे सवाल आंधी की तरह उड़ाते हटाते रहते हैं। जिस सवाल को लेकर बहस शुरू होती है वो सवाल पहले ही जवाब के साथ खत्म हो जाता है। तू तू मैं मैं की जगह अब वक्ताओं के बीच के संबंध हम भी तुम भी में बदलने लगे हैं। वो अब असहमत कम, सहमत ज़्यादा होते हैं। वो अब बहस में एक दूसरे को मित्र बताने में ही समय खपाने लगे हैं। लड़ाई होने के बाद वो एक साथ सीढ़ी से भी नीचे उतरते हैं। वहां पर कोई मारपीट नहीं होती। सभी अपना अपना कार्ड एक्सचेंज करते हैं। नंबर लेते देते हैं। यह भारत की लोकतांत्रिक विविधता के प्रति गहरा सम्मान है। हमारे देश में व्यक्तियों के बीच कभी लड़ाई नहीं होती। सिर्फ व्यक्तियों द्वारा बोले जाने वाली बातों और मुद्दों के बीच लड़ाई होती है।
एंकर के लिए भी सख्त सवालों की गुज़ाइश कम हो गई है। अगले दिन वक्ता के न आने का खतरा रहता है। कुछ एंकरों के उत्पात पर संसद में भी चर्चा हो चुकी है। नेता इन बहसों से और एंकरों से घबराये लगते हैं। साफ है एक मुद्दे को इतना मथा जाता है कि कुछ बात एक चैनल से छूट भी जाए तो दूसरे चैनल से पूरी हो जाती है। इससे दर्शक को लाभ हो रहा है। सिस्टम का पर्दाफाश हो रहा है। जागरूकता के साथ बेचैनी और बेचैनी के साथ जागरूकता आ रही है। कोई एंकर शायरी सुना रहा है तो कोई दलीलें छांट रहा है। एंकर भी अपने आप में एक प्रवक्ता बन गया है। कई एंकर मुद्दों के प्रवक्ता बन गए हैं। टू इन वन। कई एंकर बोलते वक्त इतने तनावग्रस्त हो जाते हैं कि अगर मैं डाक्टर होता तो उनके चेहरे की तमाम नसों को कंधे के पीछे शिफ्ट कर देता ताकि वो सामान्य दिखें। नसों के फटने का खतरा ही दिखता रहा मगर कभी फटीं नहीं। कुछ गले को इतना फाड़ना शुरू कर दिया है कि बोल बोल कर सच साबित करने का प्रयास होता दिख रहा है। कुछ तो इतना हिलने लगे हैं कि बीच बीच में फ्रेम से गायब ही हो जाते हैं।
इस क्रम में अगर मैं वक्तावृंदों को जुटाने वाले गेस्ट रिलेशन वालों की बात करना चाहता हूं। हालांकि मैं गेस्ट रिलेशन शब्द को स्वीकार नहीं करता। ये भी पत्रकार ही हैं। इन्हीं के कौशल के दम पर बक्साबंद बहसों की दुकान चल रही है। इनके कौशल और तनाव पर अलग से अध्धयन किया जाना चाहिए। सारे नेताओं के मोबाइल में अब रिपोर्टर के नंबर भले न हों मगर इनके ज़रूर होते हैं। कई नेता इन्हें एस एम एस भी कर देते हैं कि शहर में आ गया हूं बुला सकते हो। कई बार इन गेस्ट पत्रकारों को कई तरीके से झूठ का सहारा लेना होता है। एक गेस्ट को बदल कर दूसरे को लाना होता है। कई बार बदला गया गेस्ट उस वक्त टीवी देखकर फोन भी कर देता है कि तुम तो बोले थे कि टॉपिक चेंज हो गया है मगर टॉपिक तो वही है। अच्छा मेरी जगह उसे बुला लिया। फिर वो सॉरी सॉरी बोलते हुए अपनी नौकरी की दुहाई देता है। ये गेस्ट पत्रकार किसी न्यूज़ डे पर किसी प्रभावी मुद्दे पर बोलने वाले प्रभावी वक्ताओं के घर को घेर कर खड़े हो जाते हैं। सर पहले मेरे यहां तो मेरा यहां में समय का बंटवारा होता है। मैं इनके श्रम और जनसंपर्क कौशल का कायल हूं। ये जल्दी ही बिना कान के सुनने लगेंगे। जिस तरह से मोबाइल पर प्रवक्ता के फोन उठा लेने के लिए चिपके रहते हैं,उससे तो कान खराब होना ही है। किसी रिपोर्टर को इनसे सीखना चाहिए। इन्हीं को पहले पता होता है कि किस नेता के यहां लंच है और किसके यहां डिनर। रिपोर्टर के पहुंचने से पहले यही खाते भी दिख जाते हैं। ये अपने सच झूठ के बीच के रोज़ाना तनावों से गुज़रते हुए और शायद बहुत ही कम पैसा पाते हुए जो काम कर रहे हैं उसकी सार्वजनिक सराहना करता हूं। बल्कि एक बड़ा बदलाव यह आया है कि अब रिपोर्टरों के बीच चैनल को लेकर प्रतियोगिता नहीं होती, गेस्ट रिलेशन संपादकों पत्रकारों के बीच होती है। ये लोग ज़्यादा खबरी लगते हैं।
कुल मिलाकर पत्रकारिता के इस बहस काल की खूबियां भी हैं और कमियां भी हैं। कई शानदार वक्ताओं ने अपने सवालों और जवाबों से सरकार या विपक्ष की कमज़ोरियों को खूब उजागर भी किया है। इससे बहस में पारदर्शिता और नाटकीयता दोनों आई है। दर्शकों को एक साथ देखने का मौका मिला है कि कौन सही है या कौन नाटक कर रहा है। इस बहस काल ने पार्टी दफ्तर में होने वाली अलग अलग प्रेस कांफ्रेंसों को भी बेमानी कर दिया है। काहें को अलग से तीन बजे और चार बजे की प्रेस कांफ्रेंस करनी है जब रात को टीवी स्टुडियों में ही टकराना है। इससे एक लाभ और हुआ है। पार्टी दफ्तर में प्रेस कांफ्रेंस से दिन में सिर्फ एक ही प्रवक्ता को मौका मिलता था। अब एक बार मुद्दा आ जाए तो उसके बाद पार्टी सूची में मौजूद तमाम प्रवक्ताओं की बुकिंग शुरू होने लगती है। इस तरह बोलने वाले नेताओं की अच्छी ट्रेनिंग हो रही है। वो बारी बारी से भारी प्रवक्ताओं से टकरा रहे हैं और अपना प्रदर्शन अच्छा कर रहे हैं। बस अगर बहस वाले कार्यक्रम का दौर कहीं ठंडा न पड़ जाए, वर्ना पहले दूसरे नंबर के प्रवक्ताओं के बाद किसी का नाम याद भी नहीं रहेगा।
तो ये रही पिछले साल की टीवी की उपलब्धि बहसबंद वक्तावृंद काल की। आलोचना सिर्फ यही है कि बहुत ही ज्यादा होने लगा है। दाल भात की तरह। ऐसी बहसें होनी चाहिएं मगर प्लीज़ इनकी हालत ये न कीजिए कि जैसे टीवी पर देखने का सुख खत्म हो गया, कहीं टीवी पर सुनने का शौक भी कम न पड़ जाए। बल्कि एक आइडिया आ रहा है। एक टीवी ऐसा भी होना चाहिए जिसमें एक ही स्क्रीन पर बीस टीवी आ जाए। जब आप एक स्क्रीन पर दस बक्से देख सकते हैं और सबको एक साथ बोलते हुए सुन समझ सकते हैं तो एक स्क्रीन पर दस चैनल क्यों नहीं देख सकते? इससे रिमोट बदलकर टीआरपी गिराने बढ़ाने की समस्या खत्म हो जाएगी। सबकी बराबर रेटिंग आएगी। एक ही अफसोस रहा। स्पीड न्यूज़ और बक्साबंद बहसों ने रिपोर्टर की मौत का एलान कर दिया। ख़बरों में उनकी ज़रूरत तो बनी रही लेकिन न्यूज़ एजेंसी की खबरों से ज्यादा नहीं। एक पंक्ति का संवाददाता बना दिए गए रिपोर्टर।
(दोस्तों एक निवेदन है। इस लेख की कापी न करें और न ही प्रकाशित करें। मीडिया साइट वालों से भी निवेदन है कि अपनी साइट पर न लगायें। ऐसा करेंगे तो बड़ी उपकार करेंगे)
Very nice Ravish jee. Keep writing.
ReplyDeleteRegards.
Sukumar, Adv.
Very nice Ravish jee. Keep writing.
ReplyDeleteRegards.
Sukumar, Adv.
Har jagah Class ka jhagda hai. Drawing Room me baith kar TV par bolne wale un logon se zyada classy hain jo studio jaate hain. marketing ka zamana hai, kuch ne apne aapko market me ekdum upar sthapit kar liya hai, toh kuch karne ki hod me hain. Yeh rajkaj hai chalta rahega.aap behas karte rehenge aur hum beheson ko sunte rahenge. neta apne ko bechte rehnge. Antheen prakriya hai, ravishji. Aapki dimaghi zammen bahut upjau hai jo is tarah ke lekh soch paati hai. hamaari shubhkammaneye aapke saath hain. Glamour ki hod me kho mat jayeiga, samaaj ki bahut haani hogi. naya saal mubarak ho. bhagwaan aapko taaqat de rajniti prased jaise netaon ko jhelne ki.
ReplyDeletekafi lammmbaa hai
ReplyDeleteबक्से बनाकर बहस करने में अब मुद्दे और कंटेट से ज़्यादा इस बात को तरजीह दी जाती है कि कौन कितने ज़्यादा बक्से बना रहा है एसा लगता है कि मानो टैम का मीटर कंटेट से नहीं बल्कि बक्से से चलता है।मगर ये मीडिया जगत का दुर्भाग्य है कि बक्से से मुदे निकल नहीं रहे है बल्कि आगे देखिये की लाईन के साथ उसी में मुद्दे बन्द होकर विलुप्जात होते जा रहे है।
ReplyDeleteGret writing sir hats off to you and wishing you a happy new year
ReplyDeletePriyank Awasthi
"वक्ता-मंडी" का शानदार वर्रण किया है . आपने इस स्पीड न्यूज़ के दौर में इतना कुछ सोचा और लिखा , बेहद प्रसंसनीय है. अब तय यह करना है कि इस मंडी में हम उत्पादक है , बिचोलिया है अथवा उपभोक्ता है . नव वर्ष मंगलमय हो.
ReplyDeleteटेलीविजन का पीपली लाइव वर्ष रहा ये।..इसे दिशा-मैदान काल में रिपोर्टिंग के लौटने के तौर पर याद किया जाना चाहिए।
ReplyDeleteबहुत शानदार लिखा है...हकीकत का रोचक ढंग से विश्लेषण...गेस्ट कोऑर्डिनेटर का विवरण, तनाव में बोलने वाला एंकर, मुद्दों का प्रवक्ता बना एंकर...हाहाहाहाहा..लाजवाब...कई बार तो लगा कि न्यूज़ चैनल पर लिखी गई रागदरबारी पढ़ रहा हूं...पढ़ते समय आपकी आवाज में वीओ कान में सुनाई पड़ता रहा..मज़ा आ गया ..बहुत बहुत बधाई ऐसे लेखन के लिए
ReplyDeleteBolne wali is bheed me sab bus apna bachav he karte nazar aate hain.
ReplyDeleteSuch bol sake, yesa partytantra me shyad sambhav nahi raha.
Ab sirf partynuma bheed ka hissa ban kar sab behati ganga me haat dhone me lage hai.
Ravish ke report ke kami khalti hai
Dilawar Singh Saini
Ravish Ji aapke bebak kehne aur likhne ka style hi aapki pehchan hai.Please keep it on .
ReplyDeleteadbhut hai apka lekh. apjaise logon ki wajah se samaj jagruk ho raha hai.jo dard apke man me paya jata hai woh janta ki awaz hai. apjaise logon ki wajah se hi samaj ki baten sarkar tak pahunch pati hai mann ko shanti mili ki kuch log aisa bhi sochte hain jo hmare mann me hai
ReplyDeletetv ubau na ho jayen ispar kam hi log sochte hain apki chinta sarahniye hai.
ReplyDeleteThis is the inside story, witch we can not understand for outside.
ReplyDeleteGood Blog..
bakta neta muaf keejiyega vakta neta aur bite ki mout ka saal...
ReplyDeletebadhiya nazariya.
Ravish ji, I just read ur blog.. several times i also read ur articles in newspaper..
ReplyDeleteRavish ji,bahut hi khubsurati se aap dil ki bhawano ko shabado me utar dete hi..
ravish ji ab tak me apke program prime time aur ravish ki report ka deewana tha aaj apke is lekh ne bhi romanchit kar diya....sare rang apke lekh me he tv patrakarita ko lekar..bahut badhai apko...
ReplyDeletebahut khub....
ReplyDeleteaapko aane wale saal k liye bahut bahut shubhkamnaye@@@@@@@@@@@@@@
जो trend बन गये हैं, वे आगे भी बने रहेंगे।
ReplyDeleteटीवी की इस भेड़चाल में रवीश की रिपोर्ट ने कुछ अलग किया था पर अफ़सोस की आज वो भी नहीं रही। आपने उस दिन हमसे एक सवाल पूछा था जिसका जवाब आज आपके के इस लेख में छिपा जिसका जवाब उस दिन हम नहीं दे सके थे। आप खुद ही समझ लीजिएगा
ReplyDeletenaye jamane ke harishankar parsai ki tarah aapne aaj kal chapaas or tv me dhikaash culture ka jo dor chal raha hai,uska bakhoobi lekhan kiya hai....
ReplyDeleteravish ji aap kuchh jyada hi baudhik likhte hai example likhte to jyada samjh me ata
ReplyDeleteawesome....
ReplyDeleteBAHUT KHOOB....
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteनवम्बर की शुरुआत में मैं सोच रहा था की मीडिया की भागीदारी और दर्शक के बिच आलोचना होनी चाहिए.ये बहूत ही बेहतर था और वाकई मैं अपने उन मित्रो का धन्यवाद दूंगा जिनकी पाचन शक्ति इतनी मजबूत है.लेख का बेहतर होना उसके तत्व से होता है और वो आप के पास है जो हमें नहीं मिलता.धन्यवाद्
ReplyDeletesir great writing.... hates off to you......?
ReplyDeletesir great writing... i hates off to you.....
ReplyDeleteAnna ke udbhav ka yeh ek pramukh karan hai. Leaders TV ke hokar rah gaye hai. Janta se nata toot gaya hai. Gadi ke age MP/MLA aur Ex MP/MLA likhte hain. Ek sahib ne had kar di,likha Falan partyke Ex candidate.
ReplyDeleteApne profession ke baare me itna steek likhne wale bahut kam log hai .very nice.
ReplyDeleteApne profession ke baare me itna steek likhne wale bahut kam log hai .very nice.
ReplyDeleteApne profession ke baare me itna steek likhne wale bahut kam log hai .very nice.
ReplyDeleteभाई साहेब रवीश जी , शुक्रिया कि आप हमेशा दिल खोलकर बोलते , लिखते हो. प्रस्तुत लेख एक तरफ तो टीवी पत्रकारिता की इन दिनों की कहानी साफगोई से बताता है , साथ ही इसे पढ़ते हुए लगातार आपके सुदर्शन चेहरे की याद भी नज़रों में तैरती रही , जो मस्ती और मौज में कभी कभी व्यंग्य से मुस्कुराता हुआ अपने दिलकश अंदाज़ में टीवी के छोटे परदे पर नमूदार होता है. बध्हाई.
ReplyDeleteरवीश सर,
ReplyDeleteये टू-विंडो काल कब टे टेन-विंडो काल बन गया पता ही नहीं चला। न्यूज़ चैनल कब क्या कर देंगे कुछ पता नहीं है, नेता चैनल चला रहे हैं कि संपादक? कुछ पता ही नहीं चल पाता है। एक बार हमलोग में दर्शक के तौर पर आने का मौका मिला था, अभिषेक सिंघवी और चंदन मित्रा आकर बैठे, ऐसे बात कर रहे थे जैसे घर के ड्राइंग रूम में बैठकर किसी मेहमान के आने का इंतज़ार कर रहे हों। दोनों में आपमें ऐसी बातचीत जैसे हो रही थी जैसे घर के संबंध हों, पंकज पचौरी से बातचीत ऐसे हो रही थी जैसे प्रोग्राम प्रोड्यूसर कर रहा हो? "ओबी पर कौन है? कितना टाइम है?" क्या बात है।
आपने शायद गौर नहीं किया, जितनी देर की बहस होती उसमें एंकर केवल रेफरी की भूमिका में होता है, एक बार फाइट की शुरुआत में हाथ मिलवाता है और एक बार अंत में जीत और हार की घोषणा करता है, हाथ उठाकर, हां बीच-बीच में ब्रेक की घोषणा के लिए भी कभी-कभी पैनल प्रोड्यूसर उसपर आ जाता है, वर्ना तो वो भी गायब ही है।
रवीश सर,
ReplyDeleteये टू-विंडो काल कब टे टेन-विंडो काल बन गया पता ही नहीं चला। न्यूज़ चैनल कब क्या कर देंगे कुछ पता नहीं है, नेता चैनल चला रहे हैं कि संपादक? कुछ पता ही नहीं चल पाता है। एक बार हमलोग में दर्शक के तौर पर आने का मौका मिला था, अभिषेक सिंघवी और चंदन मित्रा आकर बैठे, ऐसे बात कर रहे थे जैसे घर के ड्राइंग रूम में बैठकर किसी मेहमान के आने का इंतज़ार कर रहे हों। दोनों में आपमें ऐसी बातचीत जैसे हो रही थी जैसे घर के संबंध हों, पंकज पचौरी से बातचीत ऐसे हो रही थी जैसे प्रोग्राम प्रोड्यूसर कर रहा हो? "ओबी पर कौन है? कितना टाइम है?" क्या बात है।
आपने शायद गौर नहीं किया, जितनी देर की बहस होती उसमें एंकर केवल रेफरी की भूमिका में होता है, एक बार फाइट की शुरुआत में हाथ मिलवाता है और एक बार अंत में जीत और हार की घोषणा करता है, हाथ उठाकर, हां बीच-बीच में ब्रेक की घोषणा के लिए भी कभी-कभी पैनल प्रोड्यूसर उसपर आ जाता है, वर्ना तो वो भी गायब ही है।