पत्रकारिता का बक्साबंद वक्तावृंद काल

यह साल स्पीड न्यूज़ और बक्साबंद वक्तावृंद का काल रहा है। अन्ना आंदोलन ने दर्शकों को भी उत्तेजित किया तो स्क्रीन दड़बेनुमा बना दिए गए। बहसें होने लगीं। बहस मुंडियों को दिखाने के लिए स्क्रीन पर दस दस बक्से बनने लगे। याद कीजिए सालों पहले आजतक ने चुनावी कवरेज के दिन अपने रिपोर्टरों का बक्सा बनाया था। तब संवाददाता हीरो की तरह नज़र आए थे। फिर सभी चैनलों में ऐसे बक्से रिपोर्टरों के ही बने। अब रिपोर्टर टीवी और बक्से से गायब कर दिये गए। उनकी जगह वक्ता और प्रवक्ता आ गये हैं। वो झांक रहे हैं। जिस तरह स्क्रीन के दड़बे से मुंडियां झांक कर बोलने लगी हैं अगर ऐसे ही इसकी बारंबरता बढ़ी तो जल्दी ही वक्तावृंदों की बीबीयां फोन कर पूछने लगेंगी कि चुन्नू के पापा आपके चैनल में है या आजतक में हैं? वो निकले तो थे हेडलाइन्स टुडे के लिए मगर एनडीटीवी इंडिया में कैसे दिख रहे हैं। उनकी बेटियां फोन करेंगी कि रवीश, पापा आपके साथ हैं, जरा फोन दीजिएगा उनको। उनसे कहना है कि एनडीटीवी के बाद आजतक से होते हुए जब ज़ी स्टुडियो जायेंगे तो नोएडा के अट्टा मार्केट से मिक्सी का ग्राइंडर लेते आएंगें उसके बाद ही टाइम्स नाउ जाएं।

बहस बढ़ी तो वक्ता भी बढ़ाये गए। कुछ वक्ताओं ने इस फारमेट को गंभीरता से लिया। वो संजीदगी से आते रहें और दर्शकों तक अपनी बात पहुंचाते रहे। इनकी वजह से बहस का स्तर अच्छा भी हुआ। पार्टी प्रवक्ताओं की कमी पड़ी तो कुछ हारे हुए नेताओं को ढूंढा गया। एक चैनल ढूंढ कर लाया तो सबने चलाया। इस क्रम में कुछ वक्ता ढूंढे जाने के बाद भी जल्दी ही ग़ायब कर दिये गए क्योंकि वो अच्छे नहीं थे। फिर सांसदों को ढूंढा गया। यह एक सकारात्मक पक्ष रहा। नए सांसदों के आने से पता चला कि वो बोल सकते हैं और बेहतर भी हैं। कुछ वक्ताओं ने खुद से तय कर लिया कि वो दिन भी दो चैनल या दो बहस करेंगे तो कुछ ने इतनी उदारता दिखाई कि सुबह नौ बजे से लेकर रात के ग्यारह बजे तक बोलते ही रहते हैं। इस क्रम में एक और विकास हुआ। कुछ वक्ताओं के घर में टू एम बी लाइन लगा दी गई। यह तकनीकी चीज़ है। आप बस इतना समझिये कि ओबी वैन भेजने की जगह कुछ वक्ताओं के घर यह व्यवस्था कर दी गई कि वो बस अपने ड्राइंग रूम की कुर्सी में बैठ जायें और भाषण शुरू कर दें। कुछ ने अपनी हैसियत इस तरह से बढ़ाई कि वो स्टुडियों में नही जाते, ओबी वैन मांगते हैं। यह बड़े वक्ताओं के बीच हैसियत का लैंडमार्क बन गया है। कई वक्ताओं ने यह भी तय करने की कोशिश की है कि वो फलां के साथ नहीं बैठ सकते क्योंकि वो उनकी बराबरी के नहीं हैं। कुछ वक्ता अंग्रेजी चैनल में कुर्सी लगाकर बैठ जाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वहां क्लास है। काश कोई बताता कि अंग्रेजी चैनलों की दर्शक संख्या हज़ारों में होती है और हिन्दी चैनल के दर्शकों की संख्या लाखों में। फिर भी क्लास क्लास होता है इसलिए वो हिन्दी चैनल में जाना पसंद नहीं करते। पूरी प्रक्रिया में इमेज का भी खेल है। इसलिए कुछ तथाकथित बड़े वक्ता अंग्रेजी चैनल में नियमित हैं और कुछ तथाकथित छोटे वक्ता हिन्दी चैनल में नियमित हैं। मेरी राय में हिन्दी चैनल के वक्ताओं की हैसियत अंग्रेजी से काफी बड़ी है क्योंकि वो संख्या के लिहाज़ से ज्यादा लोगों तक पहुंचते हैं। एक स्थिति और है। नया वक्ता ढूंढ कर लाइये और वो कुछ दिनों बाद दूसरे चैनल पर ज्यादा दिखने लगता है। जो ढूंढ कर लाया है उसी को नहीं मिलता।

अब तो जिन लोगों की बाइट लेने हम पूरे शहर में दौड़ा करते थे वो हमारे एक स्टुडियो से निकल कर दूसरे स्टुडियों में भागते नज़र आते हैं। इसलिए गया गुज़रा साल टीवी में बाइट की मौत का साल था। जब तक रिपोर्टर बाइट लेकर ओबी वैन की तरफ दौड़ा आता है,तब तक बाइट देने वाला स्टुडियो में पहुंच चुका होता है या वहीं ओबी वैन पर बैठकर अपनी ऑडियो टेस्टिंग करवा रहा होता है। सारे वरिष्ठ संपादकों ने लेख लिखने बंद कर दिये और बोलने शुरू कर दिये। वो इस संकट से गुज़रने लगे कि स्टुडियो में जो बोल कर आये वही लिखे या कुछ नया। नया लिखें या जो सुन कर आयें हैं वो लिखें। कई रिपोर्टरों ने जुगाड़ निकाला। उन्होंने भी खुद को अपनी बीट का प्रवक्ता बना लिया। इससे यह होने लगा कि जब तक पार्टी के नेता जाम के कारण स्टुडियो नहीं पहुंच पाते, तब तक वो पार्टी की तरफ से बोलने लगे। इससे इन रिपोर्टरों ने खुद को स्क्रीन से गायब होने से बचा लिया और पार्टी के प्रवक्ताओं को भी कड़ी टक्कर देने लगे हैं। कई संपादकों ने अपने रिपोर्टरों को चमकते देख खुद को भी प्राक्सी के रूप में पेश कर दिया। तो इस साल पूरी लड़ाई स्क्रीन पर बने बक्से में खुद को भरने की रही। कमाल की बात यह रही कि विभिन्न क्षेत्रों से अलग अलग वक्ता ढूंढ कर निकाले गए। इस क्रम में प्रवक्ता की नई भूमिका बनी। प्रवक्ता सिर्फ पार्टी का ही नहीं होने लगा बल्कि मुद्दों का भी होने लगा। कई जानकार मुद्दों के प्रवक्ता के रूप में आने लगे। बुलाये जाने लगे। कुछ प्रवक्ताओं ने जानबूझ कर खुद को एक से अधिक मुद्दों का प्रवक्ता बनाए रखा ताकि उनकी पूछ बनी रहे। वो एक साथ क्रिकेट से लेकर राजनीति पर बोलने लगे तो कुछ संविधान से लेकर आंदोलनों पर। अखबारों में जो संपादकीय पन्ना था उसे टीवी ने टक्कर दी। खबर खत्म हो गई या कतरन बनकर स्पीड न्यूज़ की घराड़ी में घूमने लगी। स्पीड न्यूज़ ख़बरों की पेराई मशीन है। तेल निकल जा रहा है खबरों का।

यह साल मुद्दों और उत्तेजनाओं का साल था। अन्ना ने इतना उत्तेजित किया कि टीवी में हज़ारों की संख्या में इसी मुद्दे पर बहस आयोजित हुई। अब अगले साल उत्तेजित मुद्दों के अभाव में देखना होगा कि क्या होता है। फिलहाल मार्च तक तो ये बहस बक्से बने रहेंगे। बुद्धू बक्से को बहस बक्से में बदलने का काम कर गया साल। एक और बात है यह साल सवालों के खत्म होने का भी साल रहा। इससे पहले आपने देखा होगा कि हर मुद्दे के बाद न्यूज़ चैनल वाले कई सवाल पूछते थे। क्या सहवाग फार्म से बाहर हैं? क्या सहवाग थके हैं? क्या सहवाग डरे हैं? न्यूज़ चैनल की तरफ से पूछे जाने वाले पांच से पचीस सवाल अब बहस के सवाल बन गए। यहां भी इसकी मौत हो चुकी है। वो सिर्फ बक्से के ऊपर झालर की तरह लटका रहता है। जिसे दूसरे टिकर या दूसरे सवाल आंधी की तरह उड़ाते हटाते रहते हैं। जिस सवाल को लेकर बहस शुरू होती है वो सवाल पहले ही जवाब के साथ खत्म हो जाता है। तू तू मैं मैं की जगह अब वक्ताओं के बीच के संबंध हम भी तुम भी में बदलने लगे हैं। वो अब असहमत कम, सहमत ज़्यादा होते हैं। वो अब बहस में एक दूसरे को मित्र बताने में ही समय खपाने लगे हैं। लड़ाई होने के बाद वो एक साथ सीढ़ी से भी नीचे उतरते हैं। वहां पर कोई मारपीट नहीं होती। सभी अपना अपना कार्ड एक्सचेंज करते हैं। नंबर लेते देते हैं। यह भारत की लोकतांत्रिक विविधता के प्रति गहरा सम्मान है। हमारे देश में व्यक्तियों के बीच कभी लड़ाई नहीं होती। सिर्फ व्यक्तियों द्वारा बोले जाने वाली बातों और मुद्दों के बीच लड़ाई होती है।

एंकर के लिए भी सख्त सवालों की गुज़ाइश कम हो गई है। अगले दिन वक्ता के न आने का खतरा रहता है। कुछ एंकरों के उत्पात पर संसद में भी चर्चा हो चुकी है। नेता इन बहसों से और एंकरों से घबराये लगते हैं। साफ है एक मुद्दे को इतना मथा जाता है कि कुछ बात एक चैनल से छूट भी जाए तो दूसरे चैनल से पूरी हो जाती है। इससे दर्शक को लाभ हो रहा है। सिस्टम का पर्दाफाश हो रहा है। जागरूकता के साथ बेचैनी और बेचैनी के साथ जागरूकता आ रही है। कोई एंकर शायरी सुना रहा है तो कोई दलीलें छांट रहा है। एंकर भी अपने आप में एक प्रवक्ता बन गया है। कई एंकर मुद्दों के प्रवक्ता बन गए हैं। टू इन वन। कई एंकर बोलते वक्त इतने तनावग्रस्त हो जाते हैं कि अगर मैं डाक्टर होता तो उनके चेहरे की तमाम नसों को कंधे के पीछे शिफ्ट कर देता ताकि वो सामान्य दिखें। नसों के फटने का खतरा ही दिखता रहा मगर कभी फटीं नहीं। कुछ गले को इतना फाड़ना शुरू कर दिया है कि बोल बोल कर सच साबित करने का प्रयास होता दिख रहा है। कुछ तो इतना हिलने लगे हैं कि बीच बीच में फ्रेम से गायब ही हो जाते हैं।

इस क्रम में अगर मैं वक्तावृंदों को जुटाने वाले गेस्ट रिलेशन वालों की बात करना चाहता हूं। हालांकि मैं गेस्ट रिलेशन शब्द को स्वीकार नहीं करता। ये भी पत्रकार ही हैं। इन्हीं के कौशल के दम पर बक्साबंद बहसों की दुकान चल रही है। इनके कौशल और तनाव पर अलग से अध्धयन किया जाना चाहिए। सारे नेताओं के मोबाइल में अब रिपोर्टर के नंबर भले न हों मगर इनके ज़रूर होते हैं। कई नेता इन्हें एस एम एस भी कर देते हैं कि शहर में आ गया हूं बुला सकते हो। कई बार इन गेस्ट पत्रकारों को कई तरीके से झूठ का सहारा लेना होता है। एक गेस्ट को बदल कर दूसरे को लाना होता है। कई बार बदला गया गेस्ट उस वक्त टीवी देखकर फोन भी कर देता है कि तुम तो बोले थे कि टॉपिक चेंज हो गया है मगर टॉपिक तो वही है। अच्छा मेरी जगह उसे बुला लिया। फिर वो सॉरी सॉरी बोलते हुए अपनी नौकरी की दुहाई देता है। ये गेस्ट पत्रकार किसी न्यूज़ डे पर किसी प्रभावी मुद्दे पर बोलने वाले प्रभावी वक्ताओं के घर को घेर कर खड़े हो जाते हैं। सर पहले मेरे यहां तो मेरा यहां में समय का बंटवारा होता है। मैं इनके श्रम और जनसंपर्क कौशल का कायल हूं। ये जल्दी ही बिना कान के सुनने लगेंगे। जिस तरह से मोबाइल पर प्रवक्ता के फोन उठा लेने के लिए चिपके रहते हैं,उससे तो कान खराब होना ही है। किसी रिपोर्टर को इनसे सीखना चाहिए। इन्हीं को पहले पता होता है कि किस नेता के यहां लंच है और किसके यहां डिनर। रिपोर्टर के पहुंचने से पहले यही खाते भी दिख जाते हैं। ये अपने सच झूठ के बीच के रोज़ाना तनावों से गुज़रते हुए और शायद बहुत ही कम पैसा पाते हुए जो काम कर रहे हैं उसकी सार्वजनिक सराहना करता हूं। बल्कि एक बड़ा बदलाव यह आया है कि अब रिपोर्टरों के बीच चैनल को लेकर प्रतियोगिता नहीं होती, गेस्ट रिलेशन संपादकों पत्रकारों के बीच होती है। ये लोग ज़्यादा खबरी लगते हैं।

कुल मिलाकर पत्रकारिता के इस बहस काल की खूबियां भी हैं और कमियां भी हैं। कई शानदार वक्ताओं ने अपने सवालों और जवाबों से सरकार या विपक्ष की कमज़ोरियों को खूब उजागर भी किया है। इससे बहस में पारदर्शिता और नाटकीयता दोनों आई है। दर्शकों को एक साथ देखने का मौका मिला है कि कौन सही है या कौन नाटक कर रहा है। इस बहस काल ने पार्टी दफ्तर में होने वाली अलग अलग प्रेस कांफ्रेंसों को भी बेमानी कर दिया है। काहें को अलग से तीन बजे और चार बजे की प्रेस कांफ्रेंस करनी है जब रात को टीवी स्टुडियों में ही टकराना है। इससे एक लाभ और हुआ है। पार्टी दफ्तर में प्रेस कांफ्रेंस से दिन में सिर्फ एक ही प्रवक्ता को मौका मिलता था। अब एक बार मुद्दा आ जाए तो उसके बाद पार्टी सूची में मौजूद तमाम प्रवक्ताओं की बुकिंग शुरू होने लगती है। इस तरह बोलने वाले नेताओं की अच्छी ट्रेनिंग हो रही है। वो बारी बारी से भारी प्रवक्ताओं से टकरा रहे हैं और अपना प्रदर्शन अच्छा कर रहे हैं। बस अगर बहस वाले कार्यक्रम का दौर कहीं ठंडा न पड़ जाए, वर्ना पहले दूसरे नंबर के प्रवक्ताओं के बाद किसी का नाम याद भी नहीं रहेगा।

तो ये रही पिछले साल की टीवी की उपलब्धि बहसबंद वक्तावृंद काल की। आलोचना सिर्फ यही है कि बहुत ही ज्यादा होने लगा है। दाल भात की तरह। ऐसी बहसें होनी चाहिएं मगर प्लीज़ इनकी हालत ये न कीजिए कि जैसे टीवी पर देखने का सुख खत्म हो गया, कहीं टीवी पर सुनने का शौक भी कम न पड़ जाए। बल्कि एक आइडिया आ रहा है। एक टीवी ऐसा भी होना चाहिए जिसमें एक ही स्क्रीन पर बीस टीवी आ जाए। जब आप एक स्क्रीन पर दस बक्से देख सकते हैं और सबको एक साथ बोलते हुए सुन समझ सकते हैं तो एक स्क्रीन पर दस चैनल क्यों नहीं देख सकते? इससे रिमोट बदलकर टीआरपी गिराने बढ़ाने की समस्या खत्म हो जाएगी। सबकी बराबर रेटिंग आएगी। एक ही अफसोस रहा। स्पीड न्यूज़ और बक्साबंद बहसों ने रिपोर्टर की मौत का एलान कर दिया। ख़बरों में उनकी ज़रूरत तो बनी रही लेकिन न्यूज़ एजेंसी की खबरों से ज्यादा नहीं। एक पंक्ति का संवाददाता बना दिए गए रिपोर्टर।

(दोस्तों एक निवेदन है। इस लेख की कापी न करें और न ही प्रकाशित करें। मीडिया साइट वालों से भी निवेदन है कि अपनी साइट पर न लगायें। ऐसा करेंगे तो बड़ी उपकार करेंगे)

टैम युक्त और टैम विमुक्त दर्शकों की जंग में टीवी

(यह भाषण हाल ही में इंडिया हैबिटैट सेंटर में हुए समन्वय कार्यक्रम के लिए लिखा गया था। चूंकि सभी कुछ बोलने की शैली में है और एक बार में ही लिखा गया है इसलिए संभव है अशुद्धियां रह गईं होंगी। उन्हें सुधार कर भूल चूक माफ कर पढ़ियेगा।)

मैं जिस दुनिया से आता हूं वहां रोज़ दर्शक की तलाश होती है। इस हिसाब से उस दुनिया में अभी तक सभी प्रकार के दर्शकों को खोज लिया गया होगा या कुछ बाकी होंगे तो जल्दी ही खोज लिये जायेंगे। मेरी दुनिया में दर्शक दो तरह के होते हैं। एक टैम युक्त दर्शक यानी जिसके घर में टैम मीटर लगा होता है। वो संख्या में सात या दस हज़ार होगा मगर औकात काफी है क्योंकि साढ़े सात हज़ार टैम बक्से ही तय करते हैं कि दर्शकों की संख्या कितनी है। दूसरा दर्शक वो है जो टैम लेस है यानी टैम विहीन है। ये बेऔकात भौकाल दर्शक हैं। छटपटाते रहते हैं कि भई हम भी तो दर्शक हैं फिर हमारी क्यों नहीं सुनी जाती। टैम विहीन दर्शक आलोचक पैदा करते हैं और फिर बाद में निष्क्रिय दर्शक में बदलकर जो दिख रहा है देखने में लग जाते हैं। टैम युक्त दर्शकों का बर्ताव कुछ संसद जैसा लगता है कि भाई हमें चुना गया है। हम हीं सब तय करेंगे। टैम विहीन दर्शक अन्ना के समर्थक जैसे हैं कि भई हमारे बीच आकर आप कानून पर चर्चा क्यों नहीं करते हैं। जो टैम विहीन दर्शक है वो टैम युक्त दर्शक का बंधुआ है। टैम युक्त दर्शक ही ताकतवर है। इसीलिए टैम युक्त दर्शक के मिज़ाज को तत्क्षण पकड़ने के लिए बड़े बड़े लोग बिठाये गए हैं। इनकी आंखों में टीवी घुसेड़ देने के लिए कई तरह के कर्मकांड नित चलते रहते हैं।

आज कल ये टैम युक्त दर्शक स्पीड न्यूज़ ज़्यादा समझने लगा है। ये काफी तेज़ी से बदलता है। रेटिंग चार्ट के हिसाब से स्पीड न्यूज़ की स्वीकार्यता पिछले दो साल से बनी हुई है। यानी आपके पास समय नहीं है। आपका ध्यान क्षणभंगुर है। इधर उधर ताक झांक करते हुए टीवी देखते हैं और आप मल्टी टास्किंग दर्शक हैं। खिचड़ी बनाते हुए, लंगोट बांधते हुए, दाढ़ी बनाते हुए आप न्यूज़ भी सुनना चाहते हैं। इन्हीं सब दलीलों से स्पीड न्यूज़ की शुरूआत सुबह के वक्त शुरू हुई। अब लगता है कि जो दर्शक घर में है वो दिन भर कोई न कोई काम कर रहा है। कपड़े धो रहा है, सब्ज़ी ला रहा है परन्तु न्यूज़ के प्रति उसकी प्रतिबद्धता कम नहीं हो रही है। ध्यान क्षणभंगुर है फिर भी वो तीस मिनट में कई सौ ख़बरें सुन कर पचा ले रहा है। ऐसा ग़ज़ब का दर्शक मैंने नहीं देखा है। जिसकी ध्यान शक्ति बको ध्यानंम को पुष्ट करते हुए दनादन खबरों को सुन कर पत्रकारिता को बचा रहा है। ऐसे दर्शकों का सम्मान किया जाना चाहिए कि कम से कम वो न्यूज़ ही देख रहा है और आप यही चाहते भी थे कि न्यूज़ क्यों नहीं दिखा रहे हैं। अब देखिये। ऐसा लगता है कि कंवेयर बेल्ट पर गन्ना लदा है और तेजी से क्रैशर के नीचे कुचला जा रहा है। अब तो आप नहीं कह सकते न कि खबरें नहीं चलती या आप यह भी तय करना चाहते हैं कि खबरें कैसे चलें तो फिर आप टैम युक्त होने के सपने देखिये। जो टैम में नहीं है वो दर्शक मानता है तो मैं क्या कर सकता हूं।

कुलमिलाकर आप मेरी बातों को समझ गए होंगे। दर्शक कौन है हममें से किसी ने नहीं देखा। वो ईश्वर है मगर एक मामले में ईश्वर से अलग है। वो यह कि सचमुच देखता है। देखकर हर बुधवार को बता देता है कि क्या क्या देखा और कितनी देर तक देखा। क्योंकि रेटिंग का पैमाना ज्यादा देर तक देखने से भी छलकता है। यूं तो स्पीड न्यूज़ अंग्रेज़ी के न्यूज़ एट ए ग्लांस से आया मगर जल्दी ही ग्लांस एट ए न्यूज़ में बदल गया। हर भाषा में त्वरित खबरें हैं। हिन्दी का दर्शक समाज इतना सुपरफास्ट बना रहा तो जल्दी ही फिल्में भी स्पीड न्यूज़ की स्टाइल से बनेंगी और जल्दी ही आप लेखक भी इसी रफ्तार से रचनाएं रचेंगे। मालूम नहीं क्या होगा। दर्शक एक रहस्य है। इसकी तलाश में कल्पना शक्ति की बड़ी भूमिका होती है। दर्शकों को गढ़ लिया जाता है। तुम ऐसे ही हो। अगर आप रफ्तार से दर्शक की विवेचना करेंगे तो एक नए युग में प्रवेश कर जायेंगे। लेकिन शायद ही कोई इंकार कर सकता है कि स्पीड न्यूज़ का अवतार दर्शक की तलाश की देन है. अब सही है या नहीं यह बहस मैं आपके साथ नहीं करना चाहता क्योंकि आप टैम विहीन दर्शक हैं। टैम युक्त होते तो मंच छोड़ कर आपके कदमों में बैठा होता और पूछता कि बताइये क्या देखना चाहते हैं। यह मैं इसलिए बता रहा हूं कि एक दर्शक के रूप में आप अपनी अहमियत को पहले समझिये फिर पत्रकारिता की प्रासंगिकता पर बहस कीजिएगा। अब मेरा पास कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है जिससे मैं साबित कर दूं कि आपका मिज़ाज भी टैम युक्त दर्शकों जैसा ही है। यानी आप के पास भी कम से कम आधा घंटा तो है जब आप पूरी एकाग्रता से उस आधे घंटे में कई सौ ख़बरें सुन कर समझने की शक्ति रखते हैं।

पर यह बदलाव क्यों हो रहा है, कैसे हो रहा है, क्या इसे तार्किक ढंग से हम कभी समझ पायेंगे। क्या हम यह जानते हैं कि चैनलों पर फार्मूले के तहत चलाये गए कितने प्रोग्राम पिट जाते हैं। फिर वो क्यों दोहराये जाते हैं। मैं आ रहा हूं आपके विषय पर। दर्शक का बर्ताव क्या पाठक के बर्ताव से अलग है? क्या एक पाठक के रूप में आप कुछ और हैं और एक दर्शक के रूप में कुछ और । या फिर जो दर्शक है वो पाठक नहीं है और जो पाठक है वो दर्शक नहीं है। हर नायिका आइटम गर्ल बनना चाहती है। उसकी मुक्ति आइटम होने में है तो टीवी पत्रकारिता का हर नायक आइटम क्यों न हो। दोनों का बाज़ार एक दूसरे से मिला जुला है। कम से कम दोनों माध्यमों के हथियार तो एक जैसे ही है। ऐसा नहीं है कि टीवी में अच्छे काम नहीं हो रहे हैं। हो रहे हैं। उन पर भी अलग से बात होनी चाहिए। एक महंगे माध्यम में खबरों को पेश करने का तरीका सिर्फ रेटिंग ही नहीं बचत का भी जुगाड़ है। यह भी समझना होगा। मगर समझ कर आप करेंगे क्या। शोध लिखेंगे या टीवी देखेंगे। यह आप तय कर लीजिए। जब एक माध्यम अपने मूल हथियार के खिलाफ काम करने लगे तो मुझे चिन्ता होती है। इतनी भी चिन्ता नहीं होती कि मर ही जाऊं। लेकिन होती है। उन चिन्ताओं के बीच जी तो रहा ही हूं। विज़ुअल ही नहीं है टीवी में तो फिर विज़न का मतलब क्या है। या तो मुंडी दिखती है या फिर जो दिखता है वो भागता हुआ दिखता है। तो क्या हमारा दर्शक कोई सुपर मदर वुमन टाइप का हो गया है क्या। क्या हम धीमी गति के समाचार युग से सुपर फास्ट समाचार युग में आ गए हैं। अगर यही हाल रहा कि मानव विकास के क्रम का ख्याल करते हुए सोचिये कि आज से पांच साल बाद ख़बरों की रफ्तार क्या होगी? क्या आप यह सोच पा रहे हैं कि कोई मशीन आधे घंटे में पांच सौ खबरें पढ़ देगी और आप सुन भी लेंगे। क्या टीवी सिर्फ सुनने का माध्यम बन कर रह जाएगा या फिर टीवी अपने टीवी होने के संकट को समझ ही नहीं पा रहा है या फिर जो समझ कर कर रहा है उसे हम महज़ा आलोचना के लिहाज़ से नहीं देख पा रहे हैं। हो सकता है कि रफ्तार वाली खबरें और दर्शक आज की हकीकत हों। इसे आप तभी चैलेंज कर सकते हैं जब आप टैम युक्त दर्शक हों। मैं किसी निष्कर्ष में यकीन करने वाला प्रवक्ता नहीं हूं। निष्कर्ष किसी भी बहस की संभावना को खत्म कर देता है। इसीलिए जो कहा वो एक सवाल के तौर पर कहा।

इसमें चिन्ता सिर्फ माध्यम और दर्शक की है। पत्रकारिता की नहीं है। यह मेरे लिए उतना बड़ा सवाल नहीं है। फिलहाल। अलग से विषय ज़रूर हो सकता है। सवाल यही है कि क्या हम अपने दर्शकों को जान गए हैं, क्या खोज पायें हैं, अगर आज खोज सकें हैं तो पिछले फार्मूले के मुताबिक जिन दर्शकों को खोजा था वो कहां चले गए। वो दर्शक कहां गए जो पाकिस्तान और आ रहा है तालिबान पर टीवी कार्यक्रम देखकर लट्टू हुए जा रहे थे. क्या वे सारे दर्शक अफगानिस्तान के पुनर्निमाण कार्यक्रमों के मज़दूर बनकर काबुल चले गए या यहीं भारत में है मगर टीवी देखना छोड़कर कुछ और कर रहे हैं। मालूम नहीं। ऐसा कोई
टैम युक्त दर्शक मिले तो बताइयेगा। या फिर दर्शक वही है मगर उसका स्वाद बदल रहा है।

यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि मैं जिस दुनिया से आता हूं वहां निराकार दर्शक कितना कुछ तय कर रहा है। वही तय कर रहा है या उसी के नाम पर तय हो रहा है दोनों बातें पूरी तरह ठीक ठीक हैं। क्या आपके पाठकों की दुनिया में ऐसा कोई पाठक वर्ग है। जो तय करता हो कि किताबों का बाज़ार कैसा होगा। व्यक्तिगत राय तो यही है कि बिल्कुल न हो वर्ना लिखना भी बाज़ारू बन जाएगा। वैसे लिखना हमेशा से बाज़ारू भी रहा है। तो मैं कह रहा था कि आपकी दुनिया में तो पाठक ही तलाश करता रहता है कि भाई लेखक किधर गया। कहां है। किताब कहां है उसकी। जिन लोगों को हिन्दी भवनों के सेमिनारों में जाने का मौका नहीं मिला और जो हिन्दी के छात्र नहीं रहे हैं उनमें से विरले ही होंगे जो अपने लेखक को स्टेशन पर देखते ही पहचान जाएं। कई लोग वैसे पहचान लिये जाते हैं लेकिन मैं कहना यह चाह रहा हूं कि क्या हमारे पाठक और लेखक के बीच रचनेतर यानी रचना के बाहर कोई संबंध है? वो संबंध कब और कहां बनता है? वो कहां अपने लेखक और पाठक को देख सकता है मिल सकता है चैट कर सकता है। क्या हमने नेट क्रांति को मिस कर दिया। अब पिछली बॉगी पकड़ कर ट्रेन चढ़ रहे हैं। मेरा साहित्य से कम नाता रहा है। फिर भी यह सवाल परेशान करता है कि मैं अपने लेखकों को क्यों नहीं पहचानता। यह मेरी ही कमी है या लेखक की भी है। क्या हमारा लेखक नए ज़माने के नए तरीकों से पाठक से संवाद करता है। क्या हमारा पाठक उन तरीकों का इस्तमाल करते हुए अपने लेखक को खोज पाता है। हिन्दी के कई बड़े लेखकों का इस मामले में लोहा मानता हूं कि बाज़ार के चाल चलन से दूर रहते हुए भी उन्होंने ख्याति और रचना के स्तर की ऊंची से ऊंची बुलंदी को छुआ है मगर क्या वो बुलंदी सार्वभौमिक है। अपने ही हिन्दी समाज में सार्वभौमिक है। सार्वभौमिकता से मेरा मतलब व्यापकता से है। अगर आप इतने ही बाज़ार विरोधी हैं तो दस हज़ार की पेशगी पर किताब क्यों लिखते हैं। पीडीएफ फाइल भेज दीजिए। अगर हमारा बड़ा लेखक भी दस या पचीस हज़ार की पेशगी पर लिखता है तो सरोकार के अलावा कुछ अन्य कारण रहे होंगे। जैसे प्रमोशन मठाधीशी वगैरह। मैं कौन होता हूं उनकी नीयत पर सवाल करने वाला। करना भी नहीं चाहिए क्योंकि मुझे इस दुनिया की वास्तविकता ठीक से नहीं मालूम। मगर इतना समझ सकता हूं कि दस हज़ार के रेट पर जो किताब लिख रहे हैं वो सचमुच सरोकारी क्रांतिकारी होंगे या फिर दूसरा यही होगा कि फालतू होंगे। हर भाषा का पाठक किताबों की कीमतें अनाप शनाप नहीं देता है। अंग्रेजी के किताबों की कीमत भी हिन्दी जैसी ही होती हैं। वहां भी पांच सौ की किताबें होती हैं यहां भी। उधर भी डेढ़ सौ वाली होती है इधर भी । जब हमारा लेखक इतने मन से और इतने सस्ते में प्रकाशक या रचना के प्रति समर्पित है तो प्रकाशक को निश्चित रूप से उसे बाज़ार के पैमानों से हट कर समझना चाहिए। अगर प्रकाशक ऐसा करता है तो ठीक ही करता है। दस हज़ार वाला या तो लेखक नहीं होगा या फिर वो बाज़ार को लेकर नासमझ होगा या फिर उसे शौक होगा कि घर आए मेहमान को बताए कि देखिये ये मेरी किताब है पढ़ लीजिए. कहां मिलेगी तो हमीं से ले लीजिए। प्रकाशक लाइब्रेरी को बेच कर खुश हो लेता है। लेखक भी खुश है कि उसने अपनी ज़िम्मेदारी की। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। दिक्कत तभी है जब आप पाठक तलाशने लगते हैं। पाठक की तलाश का मतलब अगर मैं यही समझ रहा हूं कि किताब खरीदने वाला पाठक तो। जिस दिल्ली में हिन्दी के किताब की अच्छी दुकान नहीं है वहां आप बताइये पाठक लेखक को ढूंढेगा या लेखक को पाठक ढूंढने चाहिए या प्रकाशक को यह काम करना चाहिए। बिना मंडी बिना रेहड़ी पटरी के बाज़ार नहीं होता। अंसारी रोड के गोदाम कभी दुकान का विकल्प नहीं हो सकते। फिर भी जो पाठक चल कर आते हैं और खरीदते हैं उन्हें सलाम करना ही चाहिए। मगर इस वजह से भी पाठक दूर होते हैं। वो प्रकाशित को तुरंत पढ़ने के सौभाग्य से वंचित हो जाते हैं।

लाइब्रेरी के बाद पुस्तक मेला। क्या आप बोरी में किताब घर लायेंगे। क्या इस तरह से कोई पाठक बर्ताव करता है या फिर वो साल भी खरीदता रहे और पढ़ता रहे ऐसा क्यों नहीं हो सकता। लाइब्रेरी अपनी उपोयिगता के अंतिम चरण में है। शोध के अलावा लाइब्रेरी की उपयोगिता खत्म नहीं भी हुई है तो अप्रासंगिक हो चुकी है। लाइब्रेरी एक मतृप्राय अवधारणा है। इसका संबंध भी कोर्स और कंपटीशन से है। कोर्स से बाहर आते ही लाइब्रेरी से रिश्ता टूट जाता है। वो हमारी शहरी संस्कृति का हिस्सा नहीं है। आन लाइन होने की तैयारी में हैं। कुल मिलाकर हमारा पाठक लेखक और प्रकाशक एक आलसी समाज बाज़ार की संरचना करते हैं। इस पर पहले भी बातें हो चुकी हैं बहुत ज्यादा करने का मतलब नहीं। मगर ऐसा भी नहीं कि मेरी बात खत्म हो गई।


हमारा पाठक भी प्रयास नहीं करता है। हम जिस सामाजिक राजनीतिक वातावरण में पाठक बनते हैं वहां पढ़ने का मतलब है जो प्रेसक्राइब्ड है। स्कूल और कालेज में हमारे पढ़ने का जो सैन्यीकरण होता है वो पढ़ने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को कुंद करता है। घर में भी यही चलन होता है। मां या पिता का कोई फेवरेट लेखक कम ही होता है। उसकी किताब कम ही होती है। ज्यादातर घरों में। आप जैसे ही स्कूल कालेज के रेजिमेंट से निकल कर नौकरी में आते हैं सबसे पहले पढ़ने की आदत का त्याग कर देते हैं। कोई उम्मीद भी नहीं करता कि आप पढ़ें। इसीलिए किसी से पूछिए आप प्रेमचंद को जानते हैं तो कहेगा हां। उदय प्रकाश को जानते हैं मंगलेश डबराल को जानते हैं तो कहेगा ना। हालांकि दोनों शानदार लेखक कवि और खासे लोकप्रिय भी हैं। फिर भी। हमारे समाज में जो कोर्स में नहीं है वो पढ़ने लायक नहीं है। मैंने भी अपने खानदानी जीवनकाल में यही देखा है। पढ़ने को आनंद और पहचान से कभी नहीं जोड़ा गया। रागदरबारी की छपाई देखिये। इतना खराब कवर है कि वो किताब कभी ड्राइंग रूम की पहचान नहीं बन सकती फिर भी वो हम सब की पहचान है। सिर्फ रचना शक्ति के कारण। बाज़ार शक्ति के कारण नहीं। हिन्दी का बाज़ार हिन्दी के उत्पादों को घटिया बनाता है।

हमने पुस्तकों को ब्रांड की तरह पेश नहीं किया। किताबें सूरत से दुखी लगती हैं। सरोकारों की नकली संवेदनशीलता के कवर से ढंकी होती हैं। लेखक साहित्य लिखने के बाद सार्वजनिक जीवन की तमाम बहसों से दूर हो जाते हैं। उनकी कोई सार्वजनिक पहचान साहित्य से बाहर की नहीं है। तो साहित्य के बाहर के पाठकों से रिश्ता कैसे बनेगा। छोटे छोटे प्रयास हो रहे हैं। होते रहते हैं। इन प्रयासों का कोई मतलब नहीं जबतक ये कोई मार्केटिंग के फार्मूले में नहीं बदलते। हम बाज़ार को लेकर डर जाते हैं कि लेखन से समझौता करना होगा। इतने कम में बिकते हुए जब आपने समझौता नहीं किया तो ज्यादा दाम से कैसे बिक जाएंगे। एक बार लिखना तो छोड़िये। पहले प्रकाशकों से अपना बाज़ारू रिश्ता ठीक कीजिए वो आपको पाठकों तक पहुंचा देंगे। लोकार्ण एक और वायरस है जो किताबों को पाठक से दूर कर रहा है। लोकार्पण की रणनीति पर ठीक से पुनर्विचार की आवश्यकता है। अगर आप मार्केट के नियम से चलना चाहते हैं तो नियम को जानिये या फिर नया नियम लिख दीजिए।

अफसोस होता है कि हिन्दी के बेहतरीन रचनाकार आलोचकों का ही आसरा देखते रह जाते हैं। वो पाठकों की तरफ देखते ही नहीं हैं। यह एक गैप है जिसे भर सकते हैं तो कोई फार्मूला निकलेगा। मैं आपके सरोकार की भावना का अनादर भी नहीं कर सकता। यह गुनाह होगा। मगर कोई आपके सरोकार की भावना को मजबूरी में बदलते तो वो सरोकार कम समझौता ही ज्यादा होगा। पाठक हैं। चारों तरफ हैं। मगर क्या हम पाठकों की तलाश कर रहे हैं। पाठक का अपना स्वाभिमान होता है। मेरे घर के सामने पटरी पर जितनी भी अच्छी चीज़ें बिकती हैं दुकानदार कहता है पाठक पहले उसे ही खरीदता है। पाठक का अपना स्वाभिमान होता है। ज़रूरी नहीं है कि वो भी सरोकार के तहत ही पढ़ रहा हो। हमने हिन्दी में किताब खरीदने की संस्कृति पैदा नहीं की. इस बार दुर्गा पूजा में कोलकाता में था। सुनील गांगुली को चिप्स या किसी चीज़ के विज्ञापन में देखा। फिर शांतिनिकेतन में उनके एकांत घर को देखा जहां वो दुर्गा पूजा से पहले बंद हो जाते हैं और लिखते हैं। पूछा कि कैसे मैनेज करते हैं तो बताया गया कि काफी कमाते हैं। मैं अगर ये बात कह दूं तो लोग मेरी यहीं फिंचाई कर देंगे। लेकिन हमें सोचना चाहिए। बाज़ार को रिजेक्ट करने का फार्मूला मैंने दे दिया। आप किताब छापिये मत. पीडीएफ फाइल रखिये और अपने ब्लाग पर डाल दीजिए। यदि बाज़ार में जाते हैं तो उसके नियमों के अनुसार बड़ा खेल खेलिये। मुझे यह मत बताइये कि हिन्दी में किताबों को लेकर बड़ा खेल नहीं खेला जाता है। खूब जानता हूं। अगर सारी कोशिश पाठक को किनारे कर थोक में बेचने की होगी तो क्या किया जा सकता। पाठक तो खुदरा होता है। लेखक को भी खुदरा होना चाहिए। मैं विकल्प नहीं दे सकता। रास्ता यही है कि लेखक पाठको के बीच पहुंचे। पाठक उसके पास आ जाएगा। पहले प्रतिस्पर्धा तो हो। हर लाइब्रेरी को बुक कांप्लेक्स में नहीं बदल सकते। क्या लाइब्रेरी के बाहर उसी कैम्पस में किताबों की अच्छी दुकान नहीं हो सकती। क्यों नहीं साहित्य कि किताबों के लिए ठेला गाड़ी सोची जा सकती है, क्यों नहीं किताबों को मगंल बाज़ार में बेचा जा सकता है, क्यों नहीं हिन्दी की किताबें एयर पोर्ट पर मिलती हैं, जब वहां हिन्दी का चैनल चलता मिल जाता है तो हिन्दी का प्रकाशक अपनी किताब क्यों नहीं रखवा सकता, क्यों नहीं हम हिन्दी के नायकों और लेखकों के बीच कोई रिश्ता बनाकर किताब को पाठकों तक पहुंचातें हैं। हमारे तरीके पुराने पड़ रहे हैं। फर्क किसी को नहीं पड़ रहा। गिरिराज और निरुपम के अलावा। नए तरीके सामने हैं। दिख नहीं रहे हैं। बड़े लेखक मैदान में उतरें। नए लेखकों की किताबों की समीक्षा करें। समीक्षक आलोचक और लेखक के अंतर को मिटा दीजिए। आलोचना और समीक्षा कोई विशेष काम नहीं है। इसके लिए किसी विशेष योग्यता की कोई ज़रूरत नहीं है। ये सब बेकार की बातें हैं। जब विकेटकीपर पैड उतार कर बोलिंग कर सकता है तो लेखक भी कर सकता। बहुत कुछ करना होगा। वर्ना मिलेंगे इसी विषय पर किसी नए लेखक के साथ, किसी और सेमिनार में.

ऊं सिब्बलाय नम:

तो क्या सरकार पहले से सतर्क होने की कोशिश कर रही है कि भारत में भी अरब जगत और संपूर्ण जगत में चल रहे कब्ज़ा और तख्ता पलट आंदोलनों की नौबत न आ जाए? हिंदुस्तान में वैसा तो नहीं हुआ मगर फेसबुक,ट्वीटर और एस एम एस के ज़रिये अन्ना आंदोलन ने ज़ोर ज़रूर पकड़ा। फिर भी क्या कोई सरकार इस बात से निश्चिंत हो सकती है कि अब कोई नया आंदोलन खड़ा नहीं होगा? ट्वीटर और फेसबुक पर लिखी जा रही बातों पर सरसरी निगाह दौड़ाइये तो पता चल जाएगा कि यहां सरकार और पूरे राजनीतिक तबके के बारे में क्या चल रहा है। अगर कोई यह समझता है कि यह जमात पूरी तरह दक्षिणपंथी या विरोधी पार्टी समर्थक है तो वो गलत है। इसमें कोई शक नहीं कि नेट जगत में सरकार लोकप्रियता के मामले में काफी पीछे चल रही है लेकिन इसे कोई राजनीतिक दल भड़का रहा होता तो आडवाणी की रथ यात्रा को वैसा ही समर्थन मिलता जैसा अन्ना आंदोलन को मिला। बात चहेते नेताओं की तस्वीरों की भी नहीं, बात उससे आगे की है।

क्यों आई टी मंत्री कपिल सिब्बल ने याहू,गूगल, फेसबुक और यू ट्यूब जैसी सोशल मीडिया संस्थानों को बुलाया था? क्या वो सचमुच इस मुगालते में हैं कि जिस फेसबुक पर रोज़ाना २५ करोड़ तस्वीरें अपलोड होती हैं उनकी पहले से जांच की जाए। क्या वो सचमुच इस भ्रम में हैं कि भारत में फेसबुक और ट्वीटर के करीब आठ करोड़ उपभोक्ताओं की बातों पर अंकुश लगा सकेंगे? यह एक खतरनाक और असंभव काम है। फेसबुक और ट्वीटर का वजूद इसीलिए है क्योंकि यहां अभिव्यक्ति व्यक्तिगत और बेरोक-टोक है। सरकार द्वारा मैनेज होने वाले संपादकों या मीडिया संस्थानों के ज़रिये नहीं। इन मंचों पर सबकी राय की हैसियत बराबर की होती है। एक से एक राय मिलती हुई फटाफट जनमत में बदलती चली जाती है। यहां पर बन रही छवि को कोई भी सरकार हल्के में नहीं ले सकती। बेहतर तरीका यही है कि यहां आकर लिखने वालों से संवाद करे न कि उनके मन में भय पैदा करे। काश यह बात सरकार को कोई बता सकता। भारत में कोई बीस करोड़ लोग हैं जो इंटरनेट और मोबाइल के ज़रिये सोशल मीडिया के इन मंचों से जुड़े हैं। वोट के लिहाज़ से भले ही सत्ता दल को कमतर लगें मगर जनमत के लिहाज़ से से बिल्कुल कम नहीं हैं।

पारंपरिक मीडिया की विश्वसनीयता के कमज़ोर होने के दौर में लोगों को सोशल मीडिया पर गज़ब का विश्वास हो चला है। लेकिन पारंपरिक मीडिया ने भी इनसे होड़ करने की बजाय शामिल होना ही ठीक समझा। आज हर अखबार और टीवी चैनल ट्वीटर पर आने के लिए बेकरार है। क्या सरकार ऐसा नहीं कर सकती थी? यह ठीक है कि यू ट्यूब पर शरद पवार को तमाचे मारने की घटना पर कई आइटम बन गए हैं। दिग्विजय सिंह को लेकर अजीबोगरीब किस्म की तस्वीरें हैं पर वो तो नरेंद्र मोदी को लेकर भी हैं और मायावती को लेकर भी। लेकिन कपिल सिब्बल सिर्फ अपनी सरकार और पार्टी के नेताओं की तस्वीरों को लेकर क्यों भावुक हो गए। क्या वो नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते थे, क्या वो इसे अपनी तरफ से इसी मंच पर बहस में लाकर सार्थक तरीके से नहीं रोक सकते थे मगर शंका तो उन्होंने खुद पैदा कर दी, पिछले दरवाज़े से इंटरनेट कंपिनयों को बुलाकर और हड़का कर।

दुनिया में जब सोशल मीडिया की शुरूआत हुई तो ज़्यादातर लोग पुरानी बातों की खुमारी साझा कर रहे थे। मगर जल्दी ही लोग अतीत से निकलने लगे। वो समाज और सत्ता पर सवाल करने लगे। जब ऐसा हुआ तो नेता भी सोशल मीडिया से जुड़ने लगे। वो अपनी बातों को ट्वीट कर परखने लगे कि जनमत कैसा बन रहा है। लेकिन दूसरी तरफ ये नहीं देख पाए कि न्यूयार्क में बैठी एक लड़की कपिल सिब्बल के बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त की और किसी ने उसे पसंद करने के बाद री ट्वीट किया तो वो हज़ारों लोगों की ज़ुबान बन गई। सोशल मीडिया पर बातें अब राजनीतिक होने लगी हैं। सोशल मीडिया को राजनीतिक किसने बनाया? राजनीतिक दलों ने बनाया। जब वे लोगों की निज अभिव्यक्ति के क्षेत्र में घुस कर वोट मांगने लगे। प्रचार करने लगे। बीजेपी से लेकर कांग्रेस और अन्य सभी दलों ने ये खेल खेला है। जब वो इसे वोट मांगने का मंच समझते हैं तो अब क्यों घबरा रहे हैं कि सोशल मीडिया का वोटर उनके ही खिलाफ हो रहा है। मगर नेताओं को अभी यह बात समझ नहीं आई है कि यहां की हवा को रोकने की कोशिश करेंगे तो तूफान से टकरा जायेंगे। दुनिया के किस हिस्से में नेताओं की मज़ाहिया तस्वीरें नहीं बनतीं और छपती हैं। आम तौर पर लोग ऐसी तस्वीरों पर हंसते हैं और लाइक बटन चटका देते हैं। आपत्तिजनक होने पर डिलिट यानी मिटा देते हैं। भारत में क्या एक भी ऐसा ठोस प्रमाण है जिससे यह साबित हो कि सोशल मीडिया के चलते दंगा भड़का। सही है कि वहां धर्म विशेष और नेताओं की आपत्तिजनक तस्वीरें घुमती हैं, जो सरकार को लग सकती है कि भड़काऊ हैं और इनसे सांप्रदायिक दंगे हो सकते हैं। फिर बताइये भरतपुर में दंगा क्या फेसबुक और ट्वीटर के कारण हुआ। ये तभी होगा जब कोई राजनीतिक दल ऐसा करना चाहेगा। दंगे बिना राजनीतिक समर्थन के नहीं होते हैं। सोशल मीडिया पर कई विचारधाराओं के हज़ारों लोग आपस में टकरा रहे होते हैं। सारी प्रक्रिया एक ही समय में और एक ही जगह पर चल रही होती है। यहां अपने आप सामाजिक नियंत्रण होते रहता है। कर्नाटक की राम सेने पार्टी को याद कीजिए। ये लोग सांस्कृतिक स्वाभिमान की ठेकेदारी करते हुए लड़कियों पर तरह तरह के नियम लाद रहे थे और वेलैंटाइन डे का विरोध कर रहे थे। मगर दिल्ली की एक लड़की ने पिंक चड्ढी कैंप शुरू कर दिया और राम सेने के दल को अल्पमत में ला दिया। एक संकीर्ण और सांप्रदायिक विचारधारा को जगह नहीं मिली। बहुत सारे मौलवी पंडित ग्रंथी फेसबुक पर हैं। उनके सामने से भी ऐसी तस्वीरें गुज़रती हैं। वो चेतावनी देते हुए इन तस्वीरों को मिटा देते हैं। आगे कोई बहस नहीं। भड़काने का उद्देश्य वहीं पर समाप्त हो जाता है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि धर्म गुरुओं या धार्मिक तस्वीरों को आगे कर सरकार ने अपने इरादे को ढांपने की कोशिश की। हाल ही में दिल्ली में विकीलिक्स के जूलियन असांज ने कहा कि दुनिया भर में सरकारें इस्लामिक आतंकवाद के नाम पर सोशल मीडिया या इंटरनेट की मानिटरिंग कर रही हैं। तो क्या भारत में भी धार्मिक तस्वीरों के बहाने ये खेल खेलने की कोशिश की गई? ताकि सेंसर की इस कोशिश को सेक्युलर बनाम कम्युनल बनाकर देशहित में ज़रूरी साबित कर दिया जाए। सोशल मीडिया में मर्यादायें टूट रही हैं। मगर यह उसका अत्यंत ही छोटा और अप्रसांगिक हिस्सा है। यह बहस पुरानी है कि अश्लीलता कौन तय करे। सरकार या लोग। अश्लीलता की सीमा तो सरकार बताती है मगर उसके बहाने वो किस हद तक आपके व्यक्तिगत स्पेस में घुस सकती है, ये नहीं बताती है। अश्लीलता के पैमाने पर किसी राजनीतिक दल का स्टैंड साफ और टिकाऊ नहीं है। ओमर अब्दुल्ला ने कपिल सिब्बल के प्रसंग पर ट्वीट किया कि बीजेपी अभिव्यक्ति की आजा़दी की बात कर रही है जबकि इसी के चलते महान कलाकार एम एफ हुसैन को हिन्दुस्तान छोड़ना पड़ा। मगर वो यह ट्वीट नहीं कर पाए कि कांग्रेस ने क्या उन्हें हिन्दुस्तान लाने की हिम्मत दिखाई। क्यों तस्लीमा पर लेफ्ट की सरकार पर प्रतिबंध लगा। पहले राजनीतिक दल आपस में नज़रिया साफ कर लें फिर लोगों को सीखायें कि वो क्या सोचें और क्या कहें।

इसीलिए सरकार की नीयत पर संदेह होता है। सरकार को समझना चाहिए कि करोड़ों की संख्या में लोग फेसबुक या ट्वीटर के गुलाम नहीं हैं। अगर यहां अभिव्यक्ति की आज़ादी संदिग्ध हो जाएगी तो जल्दी ही ये मंच भी अप्रासंगिक हो जायेंगे। सेकेंड भर में अपना अकाउंट बंद कर वहां चले जायेंगे जहां उन्हें ज़्यादा आजा़दी मिलती हो। लोगों ने इसका स्वाद चख लिया है और वो बार बार इसकी तलाश करेंगे। इंटरनेट को लेकर उसकी नींद टूटी भी तो देर से और ग़लत करवट से। सरकार चाहे जो करे, चाहे जो कहे,लोग अब कहेंगे। यहां नहीं तो वहां कहेंगे।
(rajasthan patrika me chhap chuka hai)