भोजपुरी सिनेमा का यह पचासवां साल है। दिल्ली के बादली गांव के जे जे क्लस्टर गया था। वहां दीवारों पर यह पोस्टर देखकर रोना आ गया। हम बहुत चीज़ों पर रोते रहते हैं और आंसुओं को बहाने की बजाय ब्लॉग पर पोस्ट कर देते हैं। अश्लीलता और फटीचरपने ने भोजपुरी सिनेमा का सत्यानाश किया है। भोजपुरी के संजीदा गायक,लेखक और कलाकार अक्सर इस बात का रोना रोते हैं कि सीडी क्रांति ने भोजपुरी गानों और फिल्मों को लागत में ही सस्ता नहीं किया बल्की कथानक और प्रस्तुति में भी सस्ता यानी चीप कर दिया है।
i want to discuss with u,who is responsible for the same?
ReplyDeleteरविश सर,
ReplyDeleteकुछ अपवादों को छोड़ दें तो देश भर में (सभी राज्यों में)यही माजरा है।
सवजी चौधरी, अहमदाबाद- ९९९८० ४३२३८.
क्या कहें.. दुर्गति है...
ReplyDeleteबस रोना आता है...
सामान्यतः अपनी बौद्धिक क्षमता और सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता के लिए जाना जाने वाला बिहार यहाँ क्यों पिछड़ जाता है, समझ नहीं आता..
हर क्षेत्र में हर स्तर पर सबकी अपनी अपनी पसंद होती है। हम लोग इस तरह के भोजपुरी चटका को देख कर नाक भौं भले ही सिकोड़ते हैं लेकिन भूल जाते हैं कि यही पोस्टर वाला लटका झटका हमें मुन्नी बदनाम और शीला की जवानी के रूप में भी परोसा जाता है। तब हमें वह उतना तिक्त नहीं लगता।
ReplyDeleteइस तरह की जुदा सोच का कारण संभवत: वह कलेवर है वह रैपर है जिसमें लपेट कर ऐसे गानों को परोसा जाता है। बड़े प्रोडक्शन हाउस से प्रचारित शीला की जवानी का चमचमाता रैपर, देशज बोली में गाये नेबुआ औ अनार के बजाय कम अश्लील लगता है शायद :)
इसके पीछे शायद एक कारण जो मुझे समझ आता है वो यह कि खडी बोली की बजाय अपनी देशज भाषा में कहे गये ऐसे शब्द कुछ ज्यादा कचोटते हैं :)
पोस्टर और उनकी तस्वीरों की जहां तक बात है तो ये भी एक विविधरंगी टेस्टावली है जिसे कि एक खास तबके में पसंद किया जाता है, सब नहीं पसंद करते। संभवत: घर परिवार से दूर रहने वाले मजदूर तबके के क्लास को सस्ता मनोरंजन देने का यह भी एक जरिया है। कहां कोई मजदूर एंटरटेनमेंट टैक्स देता फिरेगा जबकि उसकी पूरी जिंदगी का एंटरटेनमेंट निचुड़ गया हो।
समसामयिक लेख के लिए साधुवाद...
ReplyDeleteअवमूल्यन तो हर क्षेत्र में हो रहा है...
भोजपुरी फिल्म व गाने अपवाद नहीं है....
जरुरत है एक आन्दोलन की जो भोजपुरी साहित्य और समाज को एक ऊँचाई प्रदान करें.....
वैसे हम केवल चिंता ही करते ही दिखते हैं भोजपुरी बोलना पढ़े लिखों के लिए पिछडेपन की निशानी मानी जाती हैं...हम फ़िल्मी हिंदी बोलकर अपने को शिष्ट समझते हैं..
आमजन के लिए, बाज़ार के मांग के अनुरूप, कूड़ा-कचरा बेचना भी कंपनियों की मज़बूरी है..
भोजपुरी सिनेमा अपने 50 सालों में वैसा ही हो गया है, जैसा 60 सालों में अपने देश की राजनीति....
ReplyDeleteyou are right sir
ReplyDeleteसामान्यतः अपनी बौद्धिक क्षमता और सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता के लिए जाना जाने वाला बिहार यहाँ क्यों पिछड़ जाता है, समझ नहीं आता..
ReplyDeleteइस तरह की जुदा सोच का कारण संभवत: वह कलेवर है वह रैपर है जिसमें लपेट कर ऐसे गानों को परोसा जाता है। बड़े प्रोडक्शन हाउस से प्रचारित शीला की जवानी का चमचमाता रैपर, देशज बोली में गाये नेबुआ औ अनार के बजाय कम अश्लील लगता है शायद :)
ReplyDeleteआप यह न कहें कि महान बालीवुड में भी यही हो रहा है तो भेजपुरी हो यह जरूरी है क्या !
ReplyDeleteसितारों से जरा सा नीचे उतर कर देखेंगे तो मुंबई की फिल्में लजा देने वाली हैं ।
और दक्षिण भारत की फिल्मों के बारें में क्या कहा जाए ?
सिनेमा नीचे से नहीं उपर से देखने की चीज है ।
उपर देखिए हुजूर ।
Why cannot the standards be improved??? Being married to a Bihari, I kinda compare my Kannada movies to the ones made in Bihar.... It is more or less the same.... I hate those cheap dialogues, connotations, songs, body language they portray in these films.... Why can they not leave it there & invest the same in producing something good, with a standard... so that they at least become watchable without any wrong notions in mind.... I feel reputation is something that anyone would wanna maintain, in their lifetime.... But how can one just do away with it... Here people say watch Kannada films, how can I watch when I don't find them appealing to my reputation.... Bad faces, bad diction, bad language, bad songs, bad acting, bad costumes,bad everything from A to Z everything down the drains... Then how can they expect people to watch & patronize them.....I feel sad when I think of classics that has been made both in Kannada & in Bihar.... They were decent with a good storyline, for example, Nadiya Ke par, for us to watch & fall in love with the film.... But now, the main ingredient which is "decency", itself is missing!!!!!
ReplyDeleteThanks for posting about it, at least it gave me a chance to punch in my thoughts.... Wishing u lots of happiness & love, now & forever..... :)
Ash....
(http://asha-oceanichope.blogspot.com/)
हर प्रोडक्ट का अपना एक खास बाजार होता है. भोजपुरी अलबमों में एक सस्तापन जरूर आया है, मगर ये कहीं न कहीं हिंदी आयटम सांग्स से ही प्रभावित हैं.
ReplyDeleteपंचम जी की बात मैं समझ नहीं पाया..
ReplyDeleteबौलीवुड के शीला-मुन्नी को हम पचा लेते हैं तो इससे भोजपुरी में निंबुआ-अनार का प्रयोग तर्कसंगत हो जाता है... फिर तो हौलीवुड फिल्मों में और भी गंदे शब्दों और दृश्यों को हम आसानी से पचा लेते हैं... तो??
और 'मुखिया जी के लभर' से ज्यादा भीड़ मैंने साफ़-सुधरी भोजपुरी फिल्मों के बाहर देखी है मजदूरों और रिक्शा-ठेलावालों की, बीवी बच्चों के साथ... ऐसा नहीं है कि मजदूर सिर्फ निंबुआ-अनार ही देखना-सुनना पसंद करते हैं...
जरुरी है कि भोजपुरी भाषी इसके खिलाफ़ एक मुहिम छेड़े...
ReplyDeletepratipakshi.blogspot.com
Why we are going to alleged only bhojpuri films ....Hindi films can not be saprd for critcism like wise. Shheela badnam....muni ki jawani ... what are these . If society only raises these allegation on only blogs it can not be minimised... this requires action.. we must not see such type of vulgarty....henceforth...come up and take oath to not see these types movies... every one would not turn up to tk such decesion .. they only make comments but certainly would like to see such type of movie...chupakar aur akele me... nirmata yeh janta hai.
ReplyDeleteभाई साहब, इसमें कुछ योगदान भ्रष्टाचार और गरीबी का भी है, क्योंकि पैसे की भूख अधूरे कवी को रोड पर लाता है...............................
ReplyDelete