पवनवा तो किताब लिख दिहीस है

कार्टूनकार पवन की किताब आई है। कार्टूनों की दुनिया,प्रभात प्रकाशन से। दो साल पहले पटना में पवन से मुलाकात हुई थी। ज्यादातर लोग पवनवा बोलते हैं। पवनवा से मिलना है,रूकिये न,बढ़िया आदमी है,अपने आ जाएगा। वाकई में पवन आ गए। उनके कार्टूनों को और करीब से देखने का मौका मिला। दिल्ली लौट कर कस्बा पर लिख दिया बिहार का आर के लक्ष्मण। लिखने के बाद कई दिनों तक सोचता रहा कि उत्साह में तो नहीं लिख दिया। बाद में पवन के कार्टूनों पर विशेष नज़र रखने लगा। धीरे-धीरे यकीन होने लगा कि आर के लक्ष्मण एक मिसाल तो हैं ही,और पवन उसी तरफ बढ़ते हुए नज़र आते हैं। पटना में ही ख़बर मिली कि पवन के कार्टूनों को अमरीका के किसी विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाएगा। मुझे बिल्कुल हैरानी नहीं हुई। पवन की भाषा पर आज न कल किसी न किसी भाषाशास्त्री की नज़र पड़नी ही थी।

सलाहियत होती तो मैं भी पवन के कार्टून की भाषा पर शोध लिखता। आर के लक्ष्मण के पास आम आदमी है कथा कहने के लिए। पवन के पास एक पूरा रंगमंच है जिसपर अलग-अलग किस्म के आम आदमी अपनी मिक्स ज़ुबान में मंचासीन होते हैं और कथा कह जाते हैं। पवन का आम आदमी की भाषा का कोई मानक नहीं है। जैसा कि जीवन में होता है,हम कई तरह के शब्दों,अशुद्धियों,शुद्धियों के हेर-फेर से संचार करते हैं। शायद इसीलिए उनके कार्टून ज्यादा बोलते हैं। लगता है कि बिल्कुल कोई पास में बैठकर बोल रहा है। एक ऐसा टोन है जिसे आप तभी समझ सकेंगे जब आप वहां की आबो-हवा में पले-बढ़े हों। बहुत सारी फिल्मों के संवादों में इस टोन की भद्दी नकल हुई है। मगर पवन उसे संचार के व्याकरण के रूप में प्रतिष्ठित कर देते हैं। उनके लिए यह कोई अपवाद स्वरूप मज़ाक नहीं है बल्कि नियम स्वरूप रोज़ाना की संचार साधना है।

'सउंसे देह भंभोरेवाला तइयार बानी लेकिन टिकट लेले बिना इहां से ना जाइम बुझलीं ना अध्यक्ष जी।'एक टिकटार्थी इस ज़बान में पार्टी अध्यक्ष के घर के बाहर ईंट पर चढ़ा है और झांक रहा है। गेट पर पवन ने कुत्ते का साइन बोर्ड लगाया है जिस पर लिखा है- कटाहा कुत्ते से सावधान। पवन सुनने वाले कार्टूनकार हैं। वो लोगों की ज़ुबान से शब्दों को झटक लाते हैं और अपने व्यंग्यों में पटक देते हैं। भंभोरना और कटाहा कुत्ते का इस्तमाल। ऐसी अनेक मिसालें हैं। एक और कार्टन है जिसका संदर्भ है पटना मेडिकल कालेज हड़ताल। पवन का एक फटीचर आम आदमी डॉक्टर को पकड़ लाया है और कहता है कि 'लात-घूंसा-फैट थिरैपी के बिना काम ना चली एक्कर, कैंटीन में बइठ के मरल मरीज़ के संख्या गिनत रहे।'

राजनीतिक कार्टून ठेठ और जीवंत हैं। खूब हंसाते तो है हीं,साथ में असली तस्वीर भी पेश कर देते हैं। ऐसा लगता है कि बिल्कुल ठीक इसीतरह से नीतीश ने बोला होगा,लालू ने कहा होगा और पासवान ने टोका होगा। एक कार्टून में लालू को पवन ने कवि कबिलाठ बताया है। इस एक शब्द से उनके इस कार्टून स्ट्रीप में कई तस्वीरें जिंदा हो जाती है। जैसे ठीक इसी तरह से गांव या शहर के चौराहे पर पांच लोग खड़े हैं और किसी छठे के बड़बोलेपन पर टिप्पणी कर रहे हैं मगर छठा अपनी शान बघारे ही जा रहा है। एक ऐसे ही कवि कबिलाठ टिकटार्थी से लालू परेशान हैं। लालू कहते हैं कि 'का लिखा है रे कुच्छो बुझाइए न रहा है।' टिकटार्थी बोलता है कि 'बोयाडाटा छायावाद में लिखे हैं आ सिग्नेचर यथार्थवाद में किये हैं।'

ऐसी मिसालें देने लगूं तो पवन की पूरी किताब यहीं छप जाएगी। कोशिश करूंगा कि पवन से कुछ तस्वीरें लेकर यहां चस्पां कर दूं। बात पवन की भाषा की हो रही थी। पवन के कार्टून का हीरो उसकी भाषा है। वही नायक है। राष्ट्रीय अखबारों के कार्टून अपने हाव-भाव से इशारे करते हैं,बोलते कम हैं। पवन के कार्टून एक्शन में रहते हैं। दौड़ते-भागते,गिरते-पड़ते। उनका बोलना उस हाव-भाव को और मुखरित करता है। पवन के कार्टून में क्षेत्रियता के टोन हैं। वह अपनी सामाजिकता के अंतर्विरोधों से निकल कर आता है। सिर्फ एक घटना नहीं होती बल्कि उसके ईर्द-गिर्द का सामाजिक ताना-बाना निकल आता है। तभी आप जब समझते हैं तो पेट फाड़ कर हंसने लगते हैं।

भाषा के मानकीकरण के कारण स्थानीय फ्लेवर खत्म हो गए। पवन ने उन्हें ज़िंदा कर दिया है। पवन के शब्दों की अलग से मिमांसा होनी चाहिए। बउड़इले,बुरबक,हउवाना,मिजाजे,विभगवे,सइकिलिया,सुतल, लटपटिया,बइठले,ले लोट्टा जैसे अनेकादि ऐसे शब्द आपको ठठाते हैं। पटना की सड़कों पर लोग ऐसे ही बात करते हैं। तो कार्टून क्यों आगरा हिन्दी मानक प्रतिष्ठान के व्याकरण से प्रभावित हो? मैं नहीं कहता कि पूरा अखबार ही इस टोन में निकले लेकिन अखबार में एक कोने में इस तरह के फ्लेवर का इंतज़ाम तो किया ही जा सकता है।

इतना ही नहीं आप पवन की भाषा को ध्यान से देखें तो कई और दिलचस्प चीजे नज़र आएंगी। कैसे कंप्यूटर, इंटरनेट और नई तकनीकी जब एक समाज में प्रवेश करती है तो वहां की भाषा किस तरह से स्वागत करती है। रिएक्ट करती है। एक कार्टून है-सभी थाने में लगेंगे कंप्यूटर,इस न्यूज पर थाने में कंप्यूटर के सामने बैठा कॉलर खोल दारोगा बोलता है- 'देख,इन्टर मारब नू त कइसे गुलाम पलटी खाई।'एक कैदी बोल रहा है,'हई सीडिया लगाइए न मिजाजे बम हो जाएगा दरोगा जी',तो एक सिपाही आकर दारोगा जी को रिपोर्ट कर रहा है। दारोगा जी कंप्यूटर के सामने बैठे हैं। सिपाही बोलता है- 'गूगल के थ्रू बाईकर्स सर्च में लगा हुआ हूं सर...बस, किसी को लोकेट होने की देर है, मार माउस के दिमाग ठंडा नहीं कर दिया तो कहिएगा।' स्थानीय बोलियां फरनेस की तरह होती हैं उसमें बड़ी भाषाओं को खूब गलाया-पकाया जाता है। एक तरह से कहें तो अपनी गोद से निकल कर बड़ी भाषा बनी हिन्दी के खिलाफ बगावत भी है। मानक हिन्दी के पास ऐसे संदर्भों को व्यक्त करने के लिए कोई मुलायम शब्द नहीं है मगर बोलियों के पास है। इसीलिए पवन के कार्टून तकनीकि जटिलताओ को भी उसी मुलायमियत से पेश कर देते हैं।

बिहार के सबसे लोकप्रिय अखबार को भी इसका श्रेय मिलना चाहिए। हिन्दुस्तान ने कम से कम ऐसा साहस किया। पटना यात्रा के दौरान संपादक अकु श्रीवास्वत से बात हो रही थी। चिंता कर रहे थे कि हिन्दी को ही ओनरशिप लेनी होगी। हम भोजपुरी या अन्य स्थानीय भाषाओं को नहीं छोड़ सकते। पवन को सहयोग मिला होगा तभी उनके कार्टून स्ट्रीप के अमरीका में पढ़ाये जाने की ख़बर दैनिक हिन्दुस्तान ने पहले पन्ने पर छापी थी। अखबार भी जानता है कि उसके पाठक अब कार्टूनकार और उसके नए-नए किरदारों से बतिया रहे हैं। बाकी अखबारों को भी ऐसा ही सोचना चाहिए। कई जगहों पर हुआ है मगर पवन जितना खुलकर नहीं।

पवन के कार्टून का कोई एक किरदार होना चाहिए या नहीं। यह सवाल अकु श्रीवास्तव का है। मेरे पास इसका ठोस जवाब नहीं। सरसरी तौर पर लगता है कि पवन के कार्टून सिनेमा के उस सीन की तरह है जो अलग-अलग रूपों में आगे बढ़ती चली जा रही है। कहानी बढ़ा ले जाती है,किरदार नहीं। एक किरदार का न होना शायद भेरायटी की अनंत संभावनाओं को जन्म देता है। एक किरदार की नजर से दुनिया दिखाने की बजाय अलग-अलग किरदारों से दुनिया की विविधता सामने आनी चाहिए। पर इस पर बहस चलती रहनी चाहिए। मैं इस किताब को शायद इसलिए भी पढ़ा कि हर पन्ने पर अलग-अलग आइटम टाइप लोग डांस कर रहे थे। खूब हंसा। खूब मज़ा आया। भाषा के स्तर पर इस शानदार और क्रांतिकारी प्रयोग को बढ़ावा देने में जिनका भी हाथ रहा है उन्हें बधाई। हिन्दुस्तान अख़बार और संपादक को खास तौर से। देखियेगा पवन एक दिन बिहार के आर के लक्ष्मण ही साबित होंगे। फिर कह रहा हूं। इस बार यकीन और गहरा हो चुका है।

21 comments:

  1. कमाल है जी पूरा इतिहास भूगोल बता दिया और ये नहीं बताया कि किताब किधरे और कितने में मिलेगा? गूगलवा में खोजना पड़ेगा क्या?

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  2. काहे कि बहुते डेस्परेट हो रहे थे खरीदने को तो ढूंढ लाए, और दीगर पाठकों की खातिर प्रभात प्रकाशन (यदि यही वाला हो तो...) का अता पता ये है -

    Prabhat Prakashan
    4/19 Asaf Ali Road, New
    Delhi - 110002
    Phone : 0110-23289555, 23289666, 23264676,
    Fax: 011- 23253233
    Email: prabhat@indianabooks.com, prabhat1@vsnl.com

    एक ठो मेल भेजे हैं प्रभात प्रकाशन को. देखते हैं उत्तर देते हैं या नहीं. वेबसाइट तो इनका खाली पता ही बताता है, और कुछ नहीं!

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  3. पवन जी आरके लक्ष्‍मण की परंपरा को आगे बढ़ाएं, शुभकामनाएं.

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  4. आदरनीय रवीश जी,




    कस्बा में आज आपका नोट पढ़ा हूँ जिसमे आपने लिखा है की

    किसी भी तस्वीर या रचना का अन्यत्र इस्तेमाल की इजाजत नही

    है, मैंने अनजाने में एक तस्वीर हिसार स्कूल की अपने ब्लॉग

    http://narayanmishra12.blogspot.com/

    पर ले लिया है, आपसे माफी चाहता हूँ



    नारायण मिश्र

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  5. पवनवा के कार्टुन के त जमाना दीवाना बा

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  6. पवन जी से परिचय कराने के लिए धन्‍यवाद, आपने अपनी पोस्‍ट में पवन जी के क़तित्‍व की जो समीक्षा की है उससे यही पता चलता है कि पवन जी अपने कार्टून चित्रों से कम बल्कि अपने कार्टून चरित्रों के कहे शब्‍दों को लेकर अधिक प्रसिद्ध हुए हैंा आर के लक्ष्‍मण जी में भी यही गुण था ा कार्टूनिस्‍ट तो वे बेहतरीन थे ही लेकिन उनके कार्टून चरित्रों के शब्‍द भी पठनीय होते थेा लक्ष्‍मण जी का मैं घोर प्रशंसक रहा हूँा टाइम्‍स आफ इण्डिया जब भी पढ्ता था तो उसमें सबसे पहले उनका कार्टून ही पढ्ता थाा पवन जी भी उसी शैली के काटूनकार मालूम होते हैंा वह लक्ष्‍मण जी की परम्‍परा को आगे बढ्ायें ऐसी कामना करता हूॅा

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  7. नववर्ष आपके लिए मंगलमय हो और आपके जीवन में सुख सम्रद्धि आये…एस.एम् .मासूम

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  8. जितने भी कार्टून कि चर्चा आपने की है, लगभग सभी देखी हुई है.. सो आपका लेख पढ़ कर और उन सारे कार्टून को Visualize करके और भी आनंद आया.. :)
    मौका मिलते ही यह किताब लेनी है..

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  9. न जाने क्यों आप हमसे नाराज हो ये हैं जो आपने हमे अपनी फेसबुक से बाहर कर दिया....http://facebook.com/anoopdreams

    नव वर्ष आपके जीवन में ढेर सारी खुशियाँ लाये .

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  10. बहुत सुंदर समीक्षा...प्रेरित किया कि इस रंगमंच को पढ़ा क्या पुस्तक मेले में मिल सकती है? नहीं तो प्रकाशक का पता तो है ही। साधुवाद...

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  11. पुनश्च-
    नववर्ष की आकाशभर शुभाकामनाएं भी...

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  12. http://pawanashtra.blogspot.com/

    पवन के कार्टून यहां देख सकते हैं। पवन के अनुरोध पर मैंने और कुमार आलोक ने यह ब्लॉग बनाया है।

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  13. lag raha hai ki pawanwa hamaar badkp chacha se hoshiyaar hai.

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  14. ravishji aapki lekni ke dwara pavanji ke kuch kaam ke baare me jaana ..achha laga. aise hi hamari gyaan vridhhi karte rahiye or samaj ke saare pehluyon se hamein avagat karate rahiye..bhojpuri ka jo roop aap leke aate hain uski misal kum hi hai...peeyush

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  15. आज पहली बार आपका कॉपीराईट वाला नोट पढ़ा, लेकिन क्या करूँ, बिना मित्रों के साथ साझा किये नहीं रह सकता| पता नहीं कितने पढेंगे, कितने नहीं, लेकिन ये संतोष तो होगा की मैंने अपनी तरफ से प्रयास किया लोगों को यथार्थ से अवगत करवाने का|

    आशा है आप बुरा नहीं मानेंगे| वैसे एक बात और, आज मुझे आपका ये ब्लॉग पढके निशांतकेतु जी की याद आ गयी| दसवीं में उनकी कहानी पढ़ी थी, "खानदानी कुत्ते", बिलकुल वही पुट आपके इस पोस्ट में दिखा|

    व्यंग के साथ यथार्थ का अनोखा मेल, शायद यही आपके और हमारे कस्बे का सबसे महत्वपूर्ण पहलु है..

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  16. Pawan sir ko ek story ki tarah padh liya aapke article me...wo lajawab hain ...aur aapne bahut hi lajawab andaj me ye bataya hai ...

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  17. ravish ji...pavan ji ke bare me news par aur akhbaar me to padha tha...par jitna maza aapke is lekh me aaya.....aur kahin nahi...kahan se itni achchi bhasha laate hain aap?????.......

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  18. Ravishji,
    mera ye manna hai ki cartoonkar dil me samaj ki taswir utarkar dil ki juban se apne kadradano ki dil tak pahunch jate hain.Ye ek aisa darpan hai jo samaj ki antarmukhi pahchan hai.
    ALOK CHATTERJEE

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