ये ग्लोबल स्कूल क्या होता है?
"इनको क्या वैल्यू सीखायें, इन्हें तो पैसे की ही वैल्यू नहीं है। हमारे मां-बाप ने जो वैल्यू सीखाई वो उन्हीं मूल्यों के आस-पास थी कि सब कुछ पैसा नहीं है मगर पैसे का अपना हिसाब-किताब रखा जाना चाहिए। इसे न बहाओ न इसके पीछे भागो। मगर प्रॉब्लम ये है कि हम टीचर तो हैं मध्यमवर्गीय परिवारों से और हमारे स्टुडेंट ऐसे परिवारों से हैं जिन्हें देख कर लगता ही नहीं कि ये हिन्दुस्तान की फैमिली है।"
"इनके सामने हमें ही छोटा महसूस होता है। कभी-कभी घुटन सी होती है। बहुत प्यारे बच्चे हैं। मगर इतने पैसे के बीच पल-बढ़ रहे हैं कि अभी से इनकी ऊंची हैसियत बनी हुई है कि हम इन्हीं खुलकर डांट भी नहीं सकते। एक क्लास को मैंने प्रोजेक्ट दिया। कहा कि आपमें से ज्यादातर बिजनेस परिवारों के हैं, तो बताइये कि आप जब बिजनेस संभालेंगे तो क्या करेंगे जिससे उसका विस्तार हो। सातवीं आठवीं के बच्चे थे। सबने जो प्रोजेक्ट बनाया वो बीस से लेकर चालीस करोड़ रुपये तक था। दस पांच रुपये का ख्याल तो आता ही नहीं। एक छात्र ने कहा कि ज़रूरी नहीं है कि हम अपने मां-बाप का ही बिजनेस संभालें। हम इंडिया के बाहर भी तो बिजनेस कर सकते हैं।"
"मेरी इच्छा थी कि आप इस दुनिया को भी देखें। अच्छा है कि आप हिन्दुस्तान की हकीकत दिखाते हैं रवीश की रिपोर्ट में। लेकिन ये भी एक हकीकत है। जहां मां-बाप अपने बच्चे की पढ़ाई के लिए बीस हज़ार रुपये फीस देते हैं। बाकी खर्चा अलग से। स्कूल की सफाई,व्यवस्था सब फाइव स्टार के बराबर है। लेकिन हम इस सवाल से रोज़ टकराते हैं कि इनके लिए शिक्षा का मतलब क्या है? हम जिस तरह के माहौल में पढ़ें वहां तो शिक्षा के लिए एक मतलब था। इस स्कूल की हर सुविधा हमें रोज़ हैरान करती है। हमारे भीतर एक संघर्ष चलता रहता है। इन्हें तो मालूम ही नहीं कि इंडिया क्या है। वो पढ़ कर निकलेंगे तो इसी सोच के साथ कि पूरा इंडिया फाइव स्टार होटल है। ग्लोबल है।"
दोस्तों, पिछले कई महीनों से दिल्ली और आस-पास के कई इंटरनेशनल स्कूलों में जाने का मौका मिला। वहां विभिन्न स्तरों पर काम करने वाले मध्यमवर्गी कर्मचारियों की आवाज़ें बहुत दिनों से कानों में गूंज रही थीं। कई बार ऐसे स्कूलों की इमारतों में घुसते ही मेरे भीतर की हैरत ग्रंथी में हड़कंप मच जाया करती थी। दिमाग़ के भीतर बने तमाम जंजालों में संदेश चला जाता था कि देखो गांव गली में घूमने वाला हिन्दी वाला एक फाइव स्टार स्कूल में आ गया है। सूक्ष्म धमनियों में जो हलचल मच रही थी, वो चेहरे पर भी झलक रही थी। बाथरूम से लेकर अत्याधुनिक क्लास रूम, अजीबो-ग़रीब कुर्सियां। सुविधाएं ऐसी कि वाकई में सरकारी स्कूल तरस जायें। फर्श पर बिछी कालीन पर भी एबीसीडी की डिज़ाइन, खेलते वक्त पांव के संपर्क में आते ही अक्षर अपलोड होकर दिमाग़ के अक्षरकोष में पहुंच जायें।
मैं एलियन की भांति घूम रहा था। पूरा एयरकंडीशन। स्कूल के कर्मचारी ने कहा कि अब एसी को लेकर क्यों हैरान होते हैं। एसी तो पुरानी बात हो चुकी है। ये हॉल देखिये। यहीं पर कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान नेट बॉल्स हुए थे। फर्श पूरा वुडेन है। पूरी दिल्ली में इतना बड़ा और भव्य हॉल नहीं होगा। हॉल की भव्यता बता रही थी कि स्कूल में कई हज़ार बच्चे पढ़ते होंगे। स्कूल अभी नया ही खुला है। ढाई सौ बच्चे हैं। मालूम नहीं कि भावी संख्या क्या होगी लेकिन लगा कि जितनी भी होगी उसके लिए यह हॉल काफी बड़ा है। एक आवाज़ ने कहा कि सुविधाओं में कोई कंजूसी नहीं की गई है। पूरी कोशिश होती है कि सब कुछ इतना हो कि कोई रोना न रोए। बस ऊंचे लक्ष्य की सोचे। आत्मविश्वास की पहली सीढ़ी भव्यता से चढ़े।
इस हैरत भ्रमण से अंदाज़ा हो रहा था कि स्कूली शिक्षा एक प्रोडक्ट है जिसे लोग अलग-अलग दामों में खरीद रहे हैं। ब्लैक बोर्ड तो कब का सफेद हो चुका है। क्लास रूम में प्रोजेक्टर लगे हैं। हॉस्टल के कमरे भी देख लीजिए। गंदगी का नामोनिशान नहीं। होटल जैसे माहौल में बच्चे उस शिक्षा को हासिल कर रहे हैं जिसके लिए सरकार मौलिक अधिकार टाइप कानून बना चुकी है। ये शिक्षा तो पूरी तरह से वर्ग विशेष के विशेषाधिकार का मामला लगता है। सरकार जितना सार्वभौम बनाने की कोशिश करती है,शिक्षा उतनी ही वर्गीय हो जाती है। क्लासी। एक तस्वीर कॉमनरूम की भी है। स्कूल में जो स्विमिंग पूल है वो भी काफी बड़ा है। पूरी दिल्ली में शायद एकाध ही होंगे। तीस एकड़ के एरिया में फैला है यह ग्लोबल स्कूल। उम्मीद की जानी चाहिए कि यहां के बच्चे जब पढ़ कर निकलेंगे तो भारत की जीडीपी को बत्तीस कर देंगे। मनमोहन सिंह के श्रीमुख से आठ या नौ फीसदी सुनकर मुझे भी खराब लगता है। वैसे ही जैसे टीआरपी की दुनिया में आठ और नौ खराब अंक हैं। इन बच्चों के मां-बाप ने वाकई कुछ तो सोचा होगा जिसे हिन्दी टाइप के क्रंदनीय लोग कभी समझ ही नहीं सकते।
स्कूल की लॉबी से लेकर गलियारे तक सब उस भारत के आत्मविश्वास की कहानी कह रहे हैं जिसकी प्रैक्टिस शहरी भारत हर दिन अपने भाषणों और लेखों में करता है। बताता है कि भारत महाशक्ति बन रहा है। ऐसी इमारतों और विशाल भकोसू उपभोक्ता समूह के दम पर तमाम तरह के फटीचर लेखों में अपना भारत महाशक्ति टाइप बताया जाता है। यह स्कूल खुद को ग्लोबल कहलाता है ताकि इसके बच्चे बाहरी दुनिया में जायें तो इन्हें न लगे कि ऐसा इंडिया में नहीं है। न्यू यार्क और नोएडा में रहने का अनुभव एक हो।
मैं नकारात्मक सोच से स्कूल को नहीं देख रहा था। मुझे नहीं मिला तो क्या किसी को न मिले। बिल्कुल मिलना चाहिए। आखिर शिक्षक के वेतन भी अच्छे होने चाहिएं। उनकी सुविधा का भी ख्याल रखा जाना चाहिए। ये क्या संविधान में लिखा है कि हमारा टीचर हमेशा पोलियो की दवा खिलाएगा और वोट डलवाएगा। इंटरनेशनल स्कूल के शिक्षकों को भी भरपूर सुविधाएं दी गई हैं। फिर भी मुझे इस स्कूल का मतलब समझ नहीं आ रहा था। किसी प्रचार के मकसद से यह लेख नहीं लिख रहा हूं। मुझे यकीन है कि मेरे पाठक अपने बच्चों के लिए ऐसे स्कूल का ख्वाब नहीं देखते होंगे। देखते भी होंगे तो बीस हज़ार रुपये की हैसियत कुछ ही रखते होंगे। या नहीं ही रखते होंगे। मुझे मालूम नहीं। इस अरबपति स्कूल का प्रचार यह अदना ब्लॉगर क्या करेगा। लेकिन सचमुच भीतर से देखना दुर्लभ अनुभव था।
उम्मीद है यहां के बच्चे कलमाडी टाइप उद्योगपति नहीं बनेंगे। पता नहीं कलमाडी ने भी ऐसे स्कूलों की शक्ल देखी होगी या नहीं। भ्रष्ट तो म्यूनिसपल स्कूलों से भी निकलते हैं। खैर जो भी हो,इसका लोड मैं ही क्यों ढो रहा हूं। उनके मां-बाप को तो ऐसा ही स्कूल चाहिए था। वैसे स्कूल की इमारत से लेकर क्लास रूम तक,सभी विश्वस्तरीय। अगर अच्छी इमारत का होना विश्वस्तरीय होना है तब। ग्लोबल स्कूल एक हकीकत तो है ही। क्या पता आने वाले दिनों में यहां कोरिया,जापान,इंग्लैंड के बच्चे पढ़ने आ जाएं। किसी को नहीं मालूम। स्टेडियम,तलवारबाज़ी,स्क्वॉश गेम की उत्तम व्यवस्था है। स्कूल की छत पर शानदार टेनिस कोर्ट बनाया गया है। जिम के नाम पर किसी कोने का जुगाड़ नहीं किया गया है बल्कि विशालकाय हाल हैं। स्केटिंग के लिए कोई संकरा रास्ता नहीं बल्कि लंबा और चौड़ा गलियारा है।
बनाने वाले ने अपना सपना पूरा कर लिया है। इमारत इस लिहाज़ से बनाई गई है कि स्कूल न चला तो होटल या मॉल खुल ही जाएगा। लेकिन इस तरह की सोच कोई हिन्दीवाला ही रख सकता है। जिन्होंने बनाया होगा उनका ख्वाब तो होगा कि दुनिया में ऐसा स्कूल न हो। ये स्कूल उसी ख्वाब का ऐशगाह लगता है। पढ़ाई के स्तर पर भी काफी ध्यान रखा गया है। क्लासरूम में सर्वशिक्षा अभियान टाइप भगदड़ नहीं मची है। टीचर के पास पूरा समय है,हर बच्चे पर ध्यान देने के लिए।
आप भी देखिये। ये कार मर्सेडिज़ की है। मॉडल नहीं मालूम। पचास लाख से सत्तर लाख तक की कीमत वाली कार है।
ऐसे स्कूलों में किसी ने मुझे नहीं पहचाना। पंद्रह साल टीवी पर काम करने का एक फायदा तो है कि एकाध लोग हल्के में पहचान लेते हैं। आप वही हैं न जो जी टीवी पर आते हैं, स्टार न्यूज़ में आते हैं..नहीं नहीं..आज तक पर देखा है। यहां इस तरह का कोई अनुभव नहीं हुआ। मगर करोड़ रुपये की कार के ड्राइवर ने नमस्कार कर दिया। निकलते वक्त जता दिया कि मैं कहां से कनेक्टेड हूं। बस गला गला सूखने लगा था। हर बच्चे को अच्छा भविष्य मिले। कौन नहीं चाहता कि सुविधाओं की कमी न रह जाए। आखिर अब्राहन लिंकन की बायोग्राफी कब तक ढोते रहेंगे। बस कभी-कभी सोचता हूं कि ये बच्चे कभी मोतिहारी जैसी जगह में नौकरी करने जायें तो क्या करेंगे। फिर कर दी न मैंने भी। मिडिल क्लास वाली बात। कोई इंग्लिश एलित गया होता तो कहता..वाउ..कूल डूड..इट्स रौकिंग। वी हैव अराइव्ड।
Scary future...
ReplyDeleteशायनिंग इंडिया ... ????
ReplyDeleteइंडिया वाले ही जायेंगे...भारत वालो का क्या लेना देना...
ravish ji adhunik bharat ke do chehre hain ek yeh jise aapne dikhya dusra jo bade log dekhna nahi chahte bihar ya jharkhand inko le ke chaliye aur waha dikhate hain kitne bachhe school nahi jate ham middle class log sirf sapne dekh sakte hain aur yeh schools hame sapno me jina sikhtate bahut hi achha likha hain aapne salma karta hu aapke lekhan ko.
ReplyDeleteआप ही बतायें, गर्व करें या सर शर्म से झुका लें?
ReplyDeleteहमें तो अपना बचपन याद आता है जब सभी स्तर के बच्चे एक ही सरकारी स्कूल में पढ़ते थे पर कभी महसूस ही नहीं होता था कि हम अलग अलग स्तर के है.
ReplyDeleteऐसे मौके पर यह बेवज़ह भी हो सकता है. फ़िर भी राजेश जोशी की कविता याद आ राही है..बच्चे काम पर जा रहें हैं....
ReplyDeleteपाठ्यक्रम तो वर्णमाला, अल्फाबेट और गिनती से ही शुरू होता है ना.
ReplyDeleteस्टीफन कॉलेज और दून स्कूल के बारे में सुन रखा था...वहां से बच्चे सीधा संसद या विदेश के लिए निकलते हैं....पता है आपको, स्टीफन के चायवाले के पास भी एक-दो पेट्रोल पंप मिल जाते हैं...जैसे कोई बड़ा नेता वगैरह वापस अपनेे कॉलेज गया और चाय वाले चाचा को ऑबलाइज करने के लिेए एकाध टेंडर ही दे दिया, जैसे हम पांव छू लेते हैं....फिर वही मिडिल क्लास सोच....
ReplyDeleteनुक्कड़ में दो लाइनें गाते थे, वो याद आ गईं...
ReplyDeleteशिक्षा की इस नई नीति का, नया बना मजमून....
पैसे वाले कुलीन जाकर, पढ़ेंगे देहरादून....
कि बाकी भैंस चराओ....जोगीरा सारारा...
रवीश जी, इन्हें मोतीहारी जाने की जरुरत ही नहीं है। मोतीहारी केवल वो ही जा सकता है जो मोतीहारी वाले माहौल में रहा हो, मोतीहारी वाला माहौल देखा हो। इन्हें न्यूयॉर्क वाला माहौल दिया जा रहा है, ये भी न्यूयॉर्क के ही सपने देखेंगे।
ReplyDeleteअगर आप खुद को वास्तव में मिडल क्लास वाला मानते हैं तो सच कह रहा हूं कि स्कूल में कदम रखते ही आपका दिल धक-धक करने लगा होगा। आपकी हिम्मत की दाद देता हूं कि आप इस स्कूल में घूम कैसे लिये।
Bahut achha likha aapne.. Achha hi hai hum middleclass wale aise schools mein nahi padte.. Isiliye humein,Bharat ke, uski kathinayion ke aur uski sanskriti ke baare mein pata hai..
ReplyDeleteHum unn jane-mane netaon ki tarah nahi; jin ki janam bhoomi aur janam-data Bharatiya the par shiksha aadhunik-isiliye woh Lalmirch ke aur Gud ke ped(Plants)lagne ke bhashan dete the.. Aaj toh netaon ki G.K.aisi high education se aur bhi High ho gayi hai... Unhe lagta hai ki bharat mein har garib Do baar kabde badalta hai.. Global hi toh ho gaye hai... Isiliye maa apne, bachche ka frustation door karne ke liye ya kahiye RAHEESON ki BEEMARI DEPRESSION door karne ke liye, usko gale lagaane ki jagah usse HUG THERAPIST ke paas le jana bahatar samjhti hai..Isiliye toh ab hum Videshi netaon ko dhoondhte hai apne par raaz karne ke liye..
Pata nahi aisi nursery se nikalne wale TOUCH-ME-NOT ke plants kise apni CHHAAV mein kumhlane se rok sakenge! Kahi apni luxurious life maintain karne ke liye, kisi aur EAST INDIA COMPANY ko desh na baech dale...
aadhunik bharat ke kai chehre hain ravishji,
ReplyDeleteaap ka NDTV par Programe main Bahut pasand karta hoon,
आदरणीय रवीश जी,
ReplyDeleteये तस्वीर INDIA की है भारत की नही, भारत तो वो है जहाँ
हम पढ़े हैं, पेड़ के निचे - और आज भी पढ़ते हैं लाखो बच्चे
नारायण मिश्र
http://narayanmishra12.blogspot.com/
2G wale bhi inhee schools main padhte honge. Jyada phees ke chakkar main ho sakta hai CWG, 2G aadi scam karne padte honge
ReplyDeleteरवीश जी क्या कहें,, आपका अनुभव शानदार है,, और अन्तिम लाइन में आप हिन्दी की सारी कहानी कह जाते हैं,, हिन्दी के वोटों पर चल रहा देश क्यों यह सब सह रहा है,, एक लड़ाई इसी को लेकर छिड़ जाएगी आज नहीं तो कल
ReplyDeleteरविश जी इस ग्लोबल स्कूल की तस्वीरों में से सिर्फ तस्वीर नम्बर १२ की झंडियों को देख कर लगा की ये स्कूल भारत में है वर्ना तो ये ग्लोबल स्कूल ही दीखता है.
ReplyDeleteRavish ji mai pehli baar aapke lekhan ko padh hu aaj tak aapko tv pe dekha hai aur suna hai. aapne sahi kaha aaj ke is generation ke hisab se school kaafi top level ko ja raha hai. par kya kare aaj sab log apne bacchno ko aise hi jagah bhejna chahte. garib bhej nahi sakta, middle class budget pe dhyan dete aur amir log sochte nahi. kul mila ke sab sahi hai.
ReplyDeleteरवीश जी
ReplyDeleteये बच्चे क्या कभी जमीनी होने का अहसास पा पायेंगे?
क्या कर सकते हैं हम और आप?...
काफी दिनों बाद इस विषय पे इतना अच्छा लेख पढ़ा हूँ.
वैसे, आप तो इस भव्य स्कूल के अंदर चले गए,
मैं तो जा भी नहीं पाता.. :)
और हाँ,वो कार मर्सिडीज की एस.एल.एस-ए.एम्.जी है..
Ravish ji aap isko aadhunik bharat kah le ya shining india , kuch samay ajeeb sa lagta kyonki hamare aapke samay main ye sab nahi tha aur aaj ye hua ,mere hisaab se galti ye nahi hai ki aisa kyon hua ya ho raha hai galti ye hai ki sahi se nahi ho raha hai.Sayad isliea BMW aaj hamain ajeeb si lagti hai ya AC room main bhi comfort nahi hota hai.
ReplyDeleteAur Motiharri agar aisa nahi hai to inmain inki galti nahi hai aur na hi hamari galti hai ki hum ek aise school main padhain jahan school ke chat bhi nahi the.Inmain kuch aise bhi honge jinke peeta Motihaari se hi aayen honge aur wo batate honge ki beta motihaari aisa nahi hai.
Magar ek baat to hai hum peechle 60 saalon main yahan tak aaye ki log hamain jaante hain to hum ye kah sakte hain ki yahan se agar hamara bharat suru hua to agale 20 saalon main hum duniya main hawi honge par ye bhi kahna galat hai ki India isi ka naam hai hum bas yahi kah shakte hain ki khaas India aisa bane jo ki humne aapki report main padha.
स्कूल बनाने में साल दो साल तो लगे होंगे कुछ लोगों की रोजी रोटी तो चली होगी देहरादून का दूं स्कूल तो तब भी ग्लोबल था तो ये कौन सी नई बात है तब और अब में फर्क है ना शर्म और ना गर्व
ReplyDeleteरवीश जी,
ReplyDeleteबहुत बढ़िया। आप ग्लोबल स्कूल का ग्लोबल मेला तो देख ही आए और हमें भी दिखा दिया, वैसे दुनिया को तो सभी देखते है लेकिन नज़र फेर कर आगे चल देते है, लेकिन आपकी आवाज के साथ आपकी नज़रों से दुनिया को देखनें का मज़ा एक सीख के साथ ज़हन में उतरता है, जो लोग इस रवीश को जानते है वो आखिरी पैरे में जरूर हंसे होंगे, साइन ऑफ बहुत-बहुत बढ़िया। और जो नहीं जानते वे एक दो पोस्ट पढ़ें या रवीश की रिपोर्ट देखें।
हमेशा की तरह रवीश...
Thanks, Bikarna.
ReplyDeleteYour comments on "Hello... Rahul Gandhi, Nuri Khan kuch kahna chati hain" is thought provoking. I have gone through http://rajivsonia.blogspot.com
It's informative and truth revealing.
Ravish Kumar may give his critical comment to his connecting blogs.
ravish ji yeh shineing india ki tasveer hai.
ReplyDeletebharat ki tasveer aap ki aglee report main hai.
घणे पइसे लगते होंगे यहां तो!
ReplyDeletesir bahut bahut dhanyavaad .. is school ko dekhne me wo maza nahi aata jo aapse sunne me aaya .. alag maza hai aapko sunne or padhne me.. or ye school kuch nahi hai sir .. achcha hai school bane bus bachho ko zameen dikhti rahni chahiye.. nahi to kya hoga .. wo aap or hum dono jaante hain ..
ReplyDeleteHi ravish, yes I agree school seems too lavish.. but I do not think..we should think these children will not serve county or for that matter survive in the village...mahatam ghandhi also went to one of finest school availabe at the time in India and .. went to england to study.. but we all know what a life he led..same for Buddha. he was prince..and he must have lived a very comfortable life..but he showed immmese courage to leave everything.. and search for true knowledge..yes I accept your point..that differnce in quality of education children gets in 'local' and 'global' school is too much.. but we forgets one thing..life is a great teacher.. and human mind got great capacity to learn..so..it is bit of a kind of too early to judge.. about any child..whether he/she is from 'local' or 'global' school.
ReplyDeleteगजब लिखा हैं सर जी . बहुत ही कम लोगो के पास ये गुण होता हैं . जितनी बारीकी से आप दिखाते हैं और अहसास करते हैं शायद कोई और नहीं कर सकता ये ..........बहुत कुछ सीखने को मिलता हैं आप से आप का नजरिया बहुत शानदार हैं . हर वो चीज पर आप की निगाहे होती हैं जिस पर सारा बेस टिका होता हैं .....
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