अस्ताचल सूर्य के शरण में मैं भी चला गया था। दिल्ली के जिस वज़ीराघाट पर अंतिम संस्कार और मूर्ति भसान की रस्म अदायगी हुआ करती है,वहीं पर घाट बन गया था। भयावह दुर्गन्ध को दरकिनार करते हुए व्रत करने वाली महिलाएं दौरा लिये चली आ रही थीं। कस्बा ब्लॉग पर लगी तस्वीरें अलग-अलग श्रेणी की हैं। घाट के नज़ारे की,भीड़ की,साड़ियों की,खिलौनों की और दौरों की। एक महिला ने बताया कि सात दिन लग जाते हैं कि दौरे के लिए नया क्रोशिया कवर बनाने में। हर साल नया बनाते हैं। व्रत करने वाली महिलाओं की साड़ियों के रंग और डिजाइन का अलग से अध्य्यन किया जा सकता है। नीला,हरा, बैंगनी,नारंगी और पीला। गाढ़े और चटक रंग। ये सारे डिजाइन पहले से ही उनके जीवन में रहे हैं जो थोड़े से अदल-बदल के साथ सीरीयलों में आ गए हैं। पहनावे के इन तरीकों से कई लोग खुद को इसलिए जोड़ लेते हैं क्योंकि उनका भी प्रस्थान बिंदु यही है। दिल्ली मुंबई में भले आ गए हों मगर दस पंद्रह साल पहले तक उनके भी कपड़े,साड़ियां ऐसी होती थीं। चमकदार पीले रंग की साड़ी और धोती का अपना ही कलेवर होता है। दिल्ली के सेटअप में भले ही यह रंग मूर्खता जैसा लगे मगर किसी गांव के घाट पर यही साड़ी पूरे माहौल को रंगीन कर देती हैं। हमारी आंखें ऐसे रंगों से अभ्यस्त होते चलती हैं। एक तस्वीर में आप देखेंगे कि एक लड़का सफेद चमकीला पैंट पहना है। गुटखा खा रहा है। बगल में उसका दोस्त शूशू कर रहा है। एक बच्चा भी है जिसकी कमीज़ के कॉलर का बटन बंद है। किसी सयाने को कह दें कि कॉलर का बटन बंद कर एनडीटीवी के दफ्तर चले जाओ तो गेट पर ही शर्म से दम तोड़ देगा। खैर सफेद चमकीला पैंट पहनना भी कम दिलदारी नहीं है। एकदम टिनहइया हीरो छाप। भकभका रहा था उसका पैंट। तस्वीर में तो उतना नहीं चमक रहा मगर अंदाज़ा लगा सकते हैं।
कई लोग कह रहे हैं कि छठ ग्लोबल हो गया है। मुझे लगता है कि छठ मनाने वाले लोग लोकल हुए हैं। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का इलाका प्रवासी उत्पादन में सदियों से आगे रहा है। एक ज़माना था जब सब घर लौट जाते थे। अब घर लौटना आसान नहीं रहा। वज़ीराबाद घाट पर बिहार मित्र संगठन के लोगों ने बताया कि सन १९९९ में जब पंडाल लगाना शुरू किया तो कम लोग आते थे। धीरे-धीरे संख्या बढ़ी,आयोजन का पैमाना बढ़ा तो सियासी दल वाले भी आ गए कि हमें याद कीजिएगा। यह भी बताया कि शुरू में संख्या कम होने के कारण बिहारी लोग कम संख्या में निकलते थे। धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ा तो संख्या बढ़ने लगी। घाट पर रिपोर्टिंग करने पहुंचे हमारे सहयोगी संवाददाता आशीष भार्गव ने कहा कि दिल्ली में ढाई सौ घाट बनाए गए हैं। वज़ीराबाद पर ही बड़ा सा पंडाल लगाया गया था। दो दो संगीत के कार्यक्रम हो रहे थे। दिल्ली सरकार ने पोस्टर लगाए थे कि छठ के पावन अवसर पर सभी दिल्लीवासियों का हार्दिक अभिनंदन है। यह नहीं लिखा था कि पूर्वांचल के लोगों का अभिनंदन है। इस तरह से हम हर जगह लोकल हुए हैं। यह प्रक्रिया सभी समुदायों और राज्यों से आए विस्थापितों के साथ है। दक्षिण भारत के लोग जहां रहते हैं उनके त्योहारों के वक्त उन मोहल्लों का रंग बदल जाता है। अभी उनकी संख्या और सियासी ताकत ज़ाहिर नहीं हो रही है वर्ना दिल्ली में उनके त्योहारों का जलवा देखने लायक होता। इसीलिए कहता हूं कि छठ ग्लोबल नहीं हुआ है। इसे मनाने वाले ग्लोब के अलग-अलग हिस्से में लोकल हो गए हैं।
छठ की खूबी यह है कि इसे सामूहिक होकर ही मनाया जा सकता है। तैयारी घर में होगी मगर जाना होगा नदियों के घाट पर। दुख इस बात का है कि लाखों लोगों का यह भावुक छठ भी नदियों के प्रति उन्हें ज़िम्मेदार नहीं बनाता। नदियों को बचाने के बजाए इनमें से कुछ लोग गोविन्दपुरी में कृत्रिम तालाब बनाकर छठ कर रहे हैं तो नज़फगढ़ में भी यही हालत है। लोग स्वीमिंग पुल में छठ करने लगे हैं। जल्दी ही कपड़े धोने वाले बड़े से प्लास्टिक के कठौते में भी कर लेंगे मगर नदियों के लिए आंसू नहीं बहायेंगे। श्रमदान नहीं करेंगे। हर चीज़ प्रतीक ही बन जाएगी तो सामूहिकता अपना अर्थ खोने लगेगी। सारी तस्वीरों को ध्यान से देखियेगा।
अरे भई साहब तस्वीरें कहाँ गयी. मैं तो आपके ब्लॉग पर लिखित के लिए कम और द्रश्य के लिए ज्यादा आता हूँ.
ReplyDeleteकल आपका रिपोर्टिंग करीब ८ बजे के ठीक पहले देखा ....एकदम से फिर एक बार आप रुला दिए ....
ReplyDeleteअगला साल चलिए ..गाँव ! एक हफ्ता का छूटी लेकर ...गंडक में मनाएंगे ! अगला जेनेरेशन को भी इसका महत्व पता चलेगा ...शायद हमारे बाबा-दादी , माँ - बाबु जी भी इसी तरह हम सभी को अपनी सभ्यता और संस्कृति से परिचय करवाए थे !
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ReplyDeleteRavish babu...apke reporting ke jabab nahi ba..gaon ke yaad dila dehal bhaiya..chatak matak kapada pahin ke bahin log jab chhat manaweli...ta dekh kar man khush ho jala..etna kadhin vrat ta bharatiya nari hi kar sakeli.....sab vrat me kadhin e vrat hola..lekin humari UP..Bihar ki bahino ke chehre par taniko aanch nahi awela..UP..Bihar ke culture ke jinda rakhe ke liye apke bahut badhai...
ReplyDeleteकई लोग कह रहे हैं कि छठ ग्लोबल हो गया है। मुझे लगता है कि छठ मनाने वाले लोग लोकल हुए हैं.दिल्ली सरकार ने पोस्टर लगाए थे कि छठ के पावन अवसर पर सभी दिल्लीवासियों का हार्दिक अभिनंदन है। यह नहीं लिखा था कि पूर्वांचल के लोगों का अभिनंदन है। इस तरह से हम हर जगह लोकल हुए हैं।.....
ReplyDeleteवाकई में सही कह रहे हैं आप........
रविशजी, हिन्दुओं में संख्या '६' से, अर्थात कुल आठ ग्रह ('अष्ट चक्र') में से ६ (राक्षश) ग्रहों के सार (सफ़ेद और इन्द्रधनुष के सात रंगों) के मिले-जुले प्रभाव से 'प्रभु की माया' यानि 'राम' और 'कृष्ण' आदि कि लीला का कारण माना गया है,,,"छटी का (सफ़ेद) दूध याद आ गया" कहावत ऐसे ही नहीं बनी...और दक्षिण में शिव के ज्येष्ठ पुत्र, पार्वती के 'स्कंध' (यानि दांयाँ हाथ), '६ हाथ वाले' कार्तिकेय की पूजा होती है क्यूंकि उसे, और ऐसे ही शनि ( नवां किन्तु निर्गुण ग्रह) और उसके माध्यम से उसके मित्र शुक्र ग्रह (राक्षश राज, शुक्राचार्य) को भी, मानव जीवन में धन-धान्य की वर्षा से सम्बंधित माना गया है,,,जबकि सब जानते हैं कि पृथ्वी पर व्याप्त अनंत प्राणीयों के लिए जीवनदायी जल-वर्षा से सूर्य देवता ही अधिक सम्बंधित हैं, इत्यादि, इत्यादि...
ReplyDeleteरंगीन नज़ारों के लिए धन्यवाद! पीले रंग को रंगों में गुरु माना गया, सफ़ेद साडी वाली ज्ञान की देवी सरस्वती यानि सूर्य की धवल किरणों में समाये विविध रंगों में से एक, जिसका सार मानव मस्तिष्क में जाना गया, जबकि सूर्य का सार 'पापी पेट' में, जिन सब की पूजा आप लोग छठ के रूप में मना रहे हैं...
पुनश्च:
ReplyDeleteकृपया कार्तिकेय को '६ मुख वाले' पढ़ें, ब्रह्मा के तथाकथित 'चार मुख' से अधिक यानि उनसे ५०% अधिक ज्ञान वाले,,, किन्तु उत्पत्ति ('क्षीरसागर मंथन') के चलते अपनी और अपने लघु भ्राता गणेश की 'अष्ट-भुजाधारी' अमृत दायिनी माँ पार्वती से कम ज्ञानी! ऐसे ही रावण को 'दशानन' (दस सर वाला) और राम के पिता को 'दशरथ' नाम से संबोधित कर रावण को ज्ञानी तो दर्शाते हैं किन्तु उसका मन उसके नियंत्रण में नहीं,,,जबकि दशरथ का मन पर नियंत्रण दर्शाता है (जो सभी मानव का गंतव्य माना गया है)... हिन्दू मान्यता यूं मानव जीवन में काल के प्रभाव को कलियुग से सतयुग तक सुधरते दर्शाते हैं, ज्ञानवर्धन के साथ-साथ, जिसके लिए 'सिद्धि' प्राप्ति, (दसों दिशाओं का ज्ञान), आवश्यक बतायी गयी...
आप रवीश की रिपोर्ट का एक एपीसोड- फोटो इंडिया थीम पर बनाइए,अपनी खिंची तस्वीरें दिखाइए और बाकी जैसी स्क्रिप्ट लिखी है पोस्ट में,पीछे से वीओ। एम्बीएंस ऐसा कि लगे काठ के बक्सा में बैसकोप देख रहे हैं,एडीटीवी इंडिया नहीं।.
ReplyDeleteनदी औऱ पानी को लेकर बचाव की बात बहुत जरुरी और गंभीर है।.
दो वर्ष पटना में रह कर छठ को बहुत निकट से देखा है।
ReplyDeleteनमस्कार!
ReplyDeleteचाहे ग्लोबल कहें चाहे लोकल ख़ास बात यह है कि दिल्ली की सरकार बिहार के पर्व पर बधाई दे रही है. छठ को इस रूप तक पहुचाने में मीडिया का हाथ कम नही है.
कठौते में और ३*५ के तात्कालिक पोखरे में प्लास्टिक रखकर कई साल से छठ मनाई जा रही है.
नमस्कार.
hum local ho gaye hain.. sach hai..desh ke har kone mein aapni zamin majboot karti purvanchal ki tasvir..uska rang roop...sab iss post mein hai.. nadiyon ke liye hum aansoo bahane wale agar pahal kare to tasvir badal sakti hai...tinahiya hero aage nahi..peeche chalta hai...lekin inka aatmvishwas badh jaaye to nadiyon ko bachane mein ye super star sabit ho sakte hain..zarurat hai..direction ki... pahal ki..aap hum karen to behatar hoga... boliye kya khayal hai..
ReplyDeleteछठ का धार्मिक महत्व है। लेकिन छठ इस लिहाज़ से भी बेहद प्रासंगिक पर्व है क्योंकि इस एक त्यौहार में हम सामाजिक रूप से प्रकृति के हर रूप के प्रति आभार प्रकट करते हैं। पानी में जाकर सूर्य को अर्घ्य देना, सूरज ढलने के बाद तारों को साक्षी मानकर दीप जलाकर कोसी भरना, झुककर, लेटकर, धरती मां को प्रणाम करना... ये सब आभार व्यक्त करने के ही तो तरीके है। सबसे सटीक बात आपने नदी और जलाशयों के बचाव को लेकर उठाई है। सोचना होगा कि इसे एक कैम्पेन के तौर पर शुरू करना मुमकिन हो सकता है क्या? हमेशा की तरह यहां भी तस्वीरें कितना कुछ कहती हैं!
ReplyDeleteजहां तक नदी की सफाई का प्रश्न है, ऐसा माना जाता है कि हम एक ऐसे मोड़ पर पहुँच चुके हैं जब कोई भी तकनिकी समाधान संभव नहीं है...
ReplyDeleteपहले प्रकृति के पास समय था क्यूंकि जन संख्या कम थी जिस कारण बस्तियां नदी के किनारे दूर-दूर पर स्थित थीं,,,कूड़ा नदी में एक बस्ती से डाला जाता तो दूसरी बस्ती तक पहुँचते-पहुँचते जलचर आदि उसे साफ़ कर चुके होते थे...किन्तु हमारे बाप दादाओं के ज़माने की बुरी आदत, यानी कूड़े को नदी में बिना सोचे दाल देना, हमने चालू रखा है ('काल की गुलामी' के कारण)...और कितना भी प्रचार कर लो हम (कुत्ते की टेढ़ी दुम समान) सीधे नहीं हो सकते...
bahut achhi post hai...i luved ur coinage...biharis local huen hain.aur rural comparisons..luved it.In Patna we were elites and considered ourselves so,after settling out of state I can relate to all the nuances and typicalities of Bihar and infact love them.
ReplyDeleteLucknow main gomti ke ghato par bhi chath ka ayojan dhoomdham se hota hai. Pichle saal main wahan tha to bacchon ke sath gaya tha. Is tyohar kee khobee hai ki yeh panditon ke bina manaya jata. Log kahte is tyohar ke samay bihar main crime bahoot kam ho jata hai.
ReplyDeleteअविनाश जी यहाँ भी गौर करें आपके ब्लॉग की जो नैतिकता है ओ आपको यहाँ भी दिखानी चाहिए | विभूति राय और अजित राय के खिलाफ आपने जिस नैतिकता का हवाला आप देते है उसकी एक बानगी यहाँ भी दिखनी चाहिए| मै आपके ब्लोग्स से काफी प्रभावित हूँ | आज के समय में बड़े बाज़ार और सरकार का समर्थन करते रहिये आप कितने भी पाप करे आपको ये सरकार इनाम देती रहेगी | सरकार और बाजार का विरोध करने वाला व्यक्ति दंड का पात्र होता है | सारे नियम क़ानून उसी के लिए बनते हैं | इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी की दैनिक भास्कर(08.12.10) और दैनिक जागरण(9.12.10) के न्यूज़ दिल्ली विश्वविद्धालय कुलपति की टीम में डीन कॉल्लेज प्रोफ. सुधीश पचौरी को बनाया गया है | जिनपे यौन उत्पीडन के आरोपी प्रोफ अजय तिवारी को बचाने और उत्पीडित छात्रा को धमकाने का आरोप लगा है | ऐसे भी इस लोकतंत्र में नैतिकता नाम की कोई चीज बची नहीं है | यदि पचौरी में थोरी भी नैतिकता बची है तो उन्हें तुरंत नैतिक आधार पर इस्तीफा देना चाहिए जब तक ये केस कोर्ट में चल रहा है |सुधीश पचौरी को ये इनाम सिर्फ इसलिए मिला है की ओ लगातार सेमेस्टर का समर्थन कर बाजारवादी और सरकार समर्थित होने का सबूत दे रहे थे |
ReplyDeleteमामला सितम्बर २००८ में तब उजागर हुआ, जब दिल्ली विश्वविद्धयालय के हिंदी विभाग में एमफिल कर रही छात्रा ने तत्कालीन कुलपति प्रो. दीपक पेंटल,और विश्वविद्धायालय अपेक्स कमिटी को शिकायत की|उसने हिंदी विभाग के ३ प्रोफेसरों प्रो. अजय तिवारी,प्रो. रमेश गौतम, और तत्कालीन हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. सुधीश पचौरी पर यौन उत्पीडन का आरोप लगाया था| छात्रा ने शिकायत में बताया था की वर्ष २००७ में वह दिल्ली विश्वविद्धयालय के स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग से एमए हिंदी द्वितीय वर्ष की पढाई कर रही थी| इस दौरान वहां पढ़ाने वाले हिंदी विभाग के प्रो.अजय तिवारी ने उसके साथ छेड़छाड़,शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए बार बार दबाव डालना और भद्दे एसमएस भेजकर उसे परेशान किया| वह एसओएल में एमए में द्वितीय रही| एमफिल में दाखिले के लिए हिंदी विभाग में फॉर्म भरा और एमफिल का सिलेबस जानने के लिए तत्कालीन विभागाध्यक्ष प्रो. रमेश गौतम और प्रो.सुधीश पचौरी के पास गई | उनहोने भी प्रो.अजय तिवारी की बात मानने के लिए दबाव डाला और बात न मानने पर विश्वविद्धयालय से भगा देने की धमकी दी | जब ओ एमफिल की छात्रा बन गई तब भी तीनों ने उसे परेशान किया |जब मामला अपेक्स कमिटी पहुंचा तो अपेक्स कमिटी ने प्रो.अजय तिवारी को दोषी पाया और बाकी दोनों प्रोफेसर को दोष मुक्त कर दिया| प्रो. अजय तिवारी को निकाल दिया गया| छात्रा इस निर्णय से संतुष्ट नहीं थी ओ १ वर्ष से कुलपति से केस को फिर से सुरु करने के लिए गुहार लगा रही थी लेकिन जब उसे सफलता नहीं मिली और उसकी परेशानी बढ़ी तो अंततः उसे दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा |छात्राओं की सुरक्षा वयवस्था की जिमेदारी ऐसे ही प्रोफेसोरों पर टिकी है | ऐसे व्यक्ति को इतनी महतवपूर्ण पद पर बैठाना कितना उचित है आप तैय करे